छतरपुर / खजुराहो में विराजमान परम पूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज ने अपने मांगलिक प्रवचन के दौरान मनुष्य को प्राप्त अलौकिक अनुभूतियों के बारे में बताया आचार्य श्री ने कहा देवों के पास बहुत सारी विभूतियां होती हैं । और देवों का देव सोधर्म इन्द्र सभी देवताओं में अग्रणी माना जाता है। परंतु उसके मन में एक प्रश्न की उलझन सदैव बनी रहती है । कि मैं सर्वशक्तिमान होकर भी अपनी इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर पा रहा हूँ। भगवान के दीक्षित होने के उपरांत सौधर्म इंद्र जब भगवान का अभिषेक करता है और देवों की पंक्ति में सबसे आगे रहता है। फिर भी सौधर्मेंद्र जब देखता है कि मनुष्य भगवान को आहार दे रहे हैं और मैं आहार नहीं दे पा रहा हूं। यह देख कर उसके मन में कुंठा होती है ।और वह गुणगान करके भक्ति भाव करके अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है। उस समय सभी देव प्रमुदित होते हैं परंतु सौधर्मेंद्र इतना प्रमुदित और तल्लीन हो जाता है कि वह तांडव नृत्य करने लगता है। इसके बावजूद भी उसके पास आहार दान देने की योग्यता नहीं आती है । सौधर्म इन्द्र आहार दान तो नहीं दे सकता पर अमृतपान करा सकता है। परंतु मुनिराज अमृत ले तभी तो वह अमृतपान कराएं। लेकिन अमृत आहार का पात्र नहीं है । अमृत को कभी आहार की संज्ञा नहीं दी गई। वह खाने की चीज नहीं है । वह केवल चखने की चीज है अमृत परिश्रम के द्वारा प्राप्त नहीं होता है। परिश्रम के आधार पर दिया गया आहार ही मुनिराज के ग्रहण योग्य है । सौधर्म इंद्र को तांडव नृत्य करने के बाद भी पसीना तक नहीं आता है ।
इसलिए सौधर्म इंद्र की पर्याय तपस्या के योग्य नहीं मानी गई है । दान आदि देने योग्य भी नहीं है अभिषेक के समय वह सबके साथ शामिल होकर हाथ बस लगा सकता है। उसे मात्र हाथ लगाने का सौभाग्य प्राप्त होता है। सौधर्मेंद्र के मन में पीड़ा तो होती होगी पर कर क्या सकता है। सौधर्म इंद्र ना तो कुछ ले सकता है ना कुछ दे सकता। यदि वह दे सकता है तो धोक (नमन) दे सकता है और ले सकता है तो मात्र आशीर्वाद ले सकता है। योग्यताएं अनेक प्रकार की हुआ करती है पर्यायगत यह कमी है । कि सौधर्म देव होने के बाद भी महादेव नहीं बन सकता। वह देवाधिदेव के सेवा तो कर सकता है परंतु सीमा में ही कर सकता है। इन सभी बिंदुओं को लेकर हम सभी को सोचना है कि हमें जब तक मुक्ति नहीं मिलती अर्थात हम देव हो गए तो हमारा क्या होगा। वहां हम पूजन तो कर सकेंगे पर भोजन नहीं कर सके। सौधर्म इंद्र के नृत्य करते हुए भावनाओं को देख कर ऐसा लगता है कि उसे अगली पर्याय में मुक्त होने का सौभाग्य प्राप्त करने वाला है। सौधर्म इंद्र के पास इतना पुण्य अर्जित है लेकिन वर्तमान में उसका पुण्य काम नहीं आ रहा है । अर्थात वह आहार दान नहीं दे पा रहा है उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में धन पुण्य से ही आता है लेकिन उसे देने के लिए भी पुण्य का उदय चाहिए । जिसके माध्यम से कर्मों की निर्जरा हो जाती है पुण्य को अर्जित करने से भी कर्मों की निर्जरा होती है। सौधर्म इंद्र सोचता है मनुष्य कितना भाग्यशाली है वह धरती का देवता है पूरक परीक्षा में पास होने वालों को अधर में लटकना पड़ता है हमारे पास स्वतंत्रता है परंतु देवों के पास कई प्रकार की परतंत्रताएं हैं अतः मनुष्य जीवन का सही उपयोग करो । और मनुष्य जीवन को मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर करके दान के माध्यम से आगे बढ़ाओ। पोंटिंग के आर्थिक विचार की पुस्तक का जिक्र करते हुए आचार्य श्री ने कहा सही अर्थशास्त्री वही है जो अर्थ का भली-भांति उपयोग करके जानता है। अर्थ को सामने भले ही रखो किंतु भारत को कभी सिर पर मत रखना सिर पर तो श्री जी ही शोभा देते हैं।
आचार्य श्री के संघस्थ ब्रह्मचारी सुनील भैया ने बताया कि आज के बाद प्रक्षालन का सौभाग्य प्रदेश के वित्त मंत्री जयंत मलैया के भाई अमेरिका निवासी यशवंत मलैया को प्राप्त हुआ । साथ ही शास्त्र भेंट प्रदान करने का सौभाग्य प्रदेश के वित्त मंत्री की धर्म पत्नी श्रीमती सुधा मलैया और श्रीमती अंजलि मलैया अमेरिका को प्राप्त हुआ। चातुर्मास में एक कलश स्थापना करने का सौभाग्य श्री मदनलाल धन्य कुमार संजय कुमार जी देवास को प्राप्त हुआ। आज के आहार दान का सौभाग्य छतरपुर निवासी श्री पवन कुमार जैन को प्राप्त हुआ। इसके साथ ही दुबई से पधारे पवनेश कुमार जैन ने एक प्रतिमा और एक चातुर्मास कलश की स्थापना करने का सौभाग्य प्राप्त किया।