विसयकसायविणिग्गह, भावं काऊण झाणसिज्झीए।
जो भावई अण्पाणां, तस्स तवं होदि णियमेण॥
पाँचों इन्द्रियों के विषयों को तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यान की प्राप्ति के लिए जो अपनी आत्मा का विचार करता है उसके नियम से तप-धर्म होता है। आम अभी हरा-भरा डाल पर लटक रहा है। अभी उसमें से कोई सुगन्ध नहीं फूटी है और रस भी चखने योग्य नहीं हुआ है, किन्तु बगीचे के माली ने उस आम्रफल को तोड़ा और अपने घर में लाकर पलाश के पत्तों के बीच रख दिया है। तीन-चार दिन के उपरान्त देखा तो वह आम्रफल पीले रंग का हो गया, उसमें मीठी-मीठी सुगन्ध फूट गयी है और रस में भी मीठापन आ गया, कठोरता के स्थान पर कोमलता आ गयी। खाने के लिए आपका मन ललचाने लगे, मुख में पानी आ जाये ऐसा इतना अविलम्ब परिवर्तन उसमें कैसे आ गया? तो माली ने बता दिया कि यह सब अतिरिक्त ताप/ऊष्मा का परिणाम है। तप के सामने कठोरता को भी मुलायम होना पड़ता है और नीरस भी सरस हो जाता है। सुगन्धी फूटने लगती है और खटाई, खटाई में पड़ जाती है। अर्थात् मीठापन आ जाता है।
आज तप का दिन है। बात आपके समझ में आ गयी होगी। अनादि-काल से संसारी प्राणी इसी तरह कच्चे आम्रफल के रूप में रह रहा है। तप के अभाव में चाहे वह संन्यासी हो, चाहे वनवासी हो या भवनवासी हो अर्थात् महलों में रहने वाला हो, उसका पकना सम्भव नहीं है। तप के द्वारा भी पूर्व सञ्चित कर्म पककर खिर जाते हैं, मंगतराय की 'बारह भावना' में निर्जरा-भावना के अन्तर्गत कुछ पंक्तियाँ आती हैं
उदय भोग सविपाक समय, पक जाय आम डाली ।
दूजी है अविपाक पकावै पाल विषै माली ॥
जैसे वह माली पलाश के पत्तों में पाल लगाकर आम्रफल की समय से पहले पकाने की प्रक्रिया करता है और बाहरी हवा से बचाये रखता है। तब वह आम्रफल मीठा होकर, मुलायम होकर सुगन्ध फैलाने लगता है, यही स्थिति यहाँ परमार्थ के क्षेत्र में भी है। आत्मा के स्वभाव का स्वाद लेने के लिए कुन्दकुन्द आचार्य जैसे महान् आचार्य हमें सम्बोधित करते हैं कि हे भव्य! यदि रत्नत्रय को धारण कर लो तो शीघ्र ही तप के माध्यम से तुम्हारे भीतर आत्मा की सुगन्धी फूटने लगेगी और आत्मा का निजी स्वाद आने लगेगा। रत्नत्रय के साथ किया गया तपश्चरण ही मुक्ति में कारण बनता है।
तपश्चरण करना अर्थात् तपना जरूरी है और तपने की प्रक्रिया भी ठीक-ठीक होनी चाहिए। जैसे किसी ने हलुआ की प्रशंसा सुनी तो सोचा कि हम भी हलुआ खायेंगे। पूछा गया कि हलुआ कैसे बनेगा? तो किसी ने बताया कि हलुआ बनाना बहुत सरल है। तीन चीजें मिलानी पड़ती हैं। आटा चाहिए, घी और शक्कर चाहिए। तीनों को मिला दो तो हलुआ बन जाता है। उस व्यक्ति ने जल्दी-जल्दी से तीनों चीजें मिलाकर खाना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन स्वाद नहीं आया। आनन्द नहीं आया। कुछ समझ में नहीं आया कि बात क्या हो गयी? फिर से पूछा कि जैसा बताया था उसी के अनुसार तैयार किया है लेकिन स्वाद क्यों नहीं आया? जैसा सुना था वैसा आनन्द नहीं आया।तो वह बताने वाला हँसने लगा, बोला कि अकेले तीनों को मिलाने से स्वाद नहीं आयेगा। हलुआ का स्वाद तो तीनों को ठीक-ठीक प्रक्रिया करके मिलाने पर आयेगा और इतना ही नहीं, अग्नि पर तपाना भी होगा। फिर तीनों जब धीरे-धीरे एकमेक हो जाते हैं, स्वाद तभी आता है और सुगन्ध तभी फूटती है।
'जहँ ध्यान-ध्याता-ध्येय को न विकल्प वच भेद न जहाँ'
(छहढाला, छठवीं ढाल)
ध्यान में पहुँचकर ऐसी स्थिति आ जाती है। चेतना इतनी जागृत हो जाती है कि ध्यान करने वाला, ध्यान की क्रिया और ध्येय, तीनों एकमेक हो जाते हैं। बिना अग्नि-परीक्षा के तीनों का मिलना सम्भव नहीं है। ध्यान की अग्नि में तपकर ही परम पद का स्वाद पाया जा सकता है। मिलना ऐसा हो कि जैसे हलुआ में यह शक्कर है, यह घी है और यह आटा है- ऐसा अलग-अलग स्वाद नहीं आता, एकमात्र हलुआ का ही स्वाद आता है, ऐसा ही आत्मा का स्वाद ध्यान में एकाग्रता आने पर आता है।
किसी को पकौड़ी या बड़ा खाने की इच्छा हुई तो वह क्या करेगा? सारी सामग्री अनुपात से मिलाने के उपरान्त कड़ाही में तलना पड़ेगा। बड़ा बनाने के लिए बड़े को अग्नि परीक्षा देनी होगी। बिना अग्नि में तपे बड़ा नहीं बन सकता। इसी प्रकार केवलज्ञान की प्राप्ति रत्नत्रय के साथ एक अन्तर्मुहूर्त तक ध्यानाग्नि में तपे बिना सम्भव नहीं होती। रत्नत्रय के साथ पूर्व कोटि व्यतीत हो सकते हैं, लेकिन मुक्ति पाने के लिए चतुर्विध आराधना करनी होगी। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना अर्थात् रत्नत्रय की आराधना के साथ ही साथ, चौथी तप आराधना करना भी आवश्यक है। जिस समय कोई दीक्षित हो जाता है, श्रमण बन जाता है तो उसे रत्नत्रय या पज्चाचार का पालन करना होता है। किन्तु ध्यान रखना, उसके साथ ही साथ उसके लिए एक तप और विशेष रूप से दिया जाता हैं। इसलिए कि तप का अनुभव वह साधक यहीं से प्रारम्भ कर दे और रत्नत्रय का स्वाद उसे आने लगे। साक्षात् मुक्ति रत्नत्रय से युक्त होकर तप के द्वारा ही होती है। अकेले रत्नत्रय से अर्थात् भेद रत्नत्रय से मुक्ति परम्परा से होती है। जैसे दुकान पर तुरन्त लाभ पाने के लिए आप कड़ी मेहनत करते हैं, ऐसे ही मोक्षमार्ग में तुरन्त मुक्ति पाने के लिए आचार्यों ने तप को रखा है। परमात्म प्रकाश में योगीन्दु देव ने लिखा है कि-
जे जाया झाणग्गियएँ कम्म-कलंक डहेवि।
णिच्च-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि॥३॥
उन परमात्मा को हम बार-बार नमस्कार करते हैं, जिन्होंने परमात्मा बनने से पहले ध्यान रूपी अग्नि में अपने को रत्नत्रय के साथ तपाया है और स्वर्ण की भाँति तपकर अपने आत्म-स्वभाव की शाश्वतता का परिचय दिया है। स्वर्ण की सही-सही परख अग्नि में तपाने से ही होती है। उसमें बट्टा लगा हो तो निकल जाता है और सौ टंच सोना प्राप्त हो जाता है। जैसे पाषाण में विद्यमान स्वर्ण से आप अपने को आभूषित नहीं कर सकते, लेकिन अग्नि में तपाकर उसे पाषाण से पृथक् करके, शुद्ध करके, उसके आभूषण बनाकर आभूषित हो जाते हैं। इसी प्रकार तप के माध्यम से आत्मा को विशुद्ध करके परम पद से आभूषित हुआ जा सकता है। यही तप का माहात्म्य है।
दक्षिण भारत में कर्नाटक के आसपास विशेष रूप से बेलगाँव जिले में ज्वार की खेती प्राय: अधिक होती है। वहाँ कुछ लोग पानी गिर जाने के डर से समय से पूर्व आठ-दस दिन पहले ही यदि ज्वार को काटकर छाया में रख लेते हैं, तो घाटे में पड़ जाते हैं। लेकिन जो अनुभवी किसान हैं, वे जानते हैं कि यदि मोती जैसी उज्वल ज्वार चाहिए हो तो उसे पूरी तरह पक जाने पर ही काटना चाहिए। इसलिए वे पानी की चिन्ता नहीं करते और पूरी की पूरी अवधि को पार करके ही ज्वार काटते हैं। जो पूरी की पूरी सीमा तक तपन देकर ज्वार काटता है, उसके ज्वार धुंघरू की तरह आवाज करने वाले और आटे से भरपूर रहते हैं। वे वर्ष भर रखे भी रहें तो भी कीड़े वगैरह नहीं लगते। खराबी नहीं आती। इसी प्रकार पूरी तरह तप का योग पाकर रत्नत्रय में निखार आता है, फिर कैसी भी परिस्थिति आये, वह रत्नत्रय का धारी मुनि हमेशा अपनी विशुद्धि बढ़ाता रहता है। संक्लेश परिणाम नहीं करता। जो आधा घण्टे सामायिक करके जल्दी-जल्दी उठ जाते हैं, वे जल्दी थक भी जाते हैं, विचलित हो जाते हैं। लेकिन जो प्रतिदिन दो-दो, तीन-तीन घण्टे सामायिक और ध्यान में लीन रहने का अभ्यास करते हैं, उनकी विशुद्धि हमेशा बढ़ती ही जाती है। इधर-उधर के कामों में उनका मन नहीं भटकता और वे एकाग्र होकर अपने में लगे रहते हैं।
तप की महिमा अपरम्पार है। दूध को तपाकर मलाई के द्वारा घी बनाते हैं। तब उसका महत्व अधिक हो जाता है। घी के द्वारा प्रकाश और सुगन्धी, दोनों ही प्राप्त किये जा सकते हैं। वह पौष्टिक भी होता है। घी की एक और विशेषता है कि घी को फिर किसी भी तरल पदार्थ में डुबोया नहीं जा सकता। घी को दूध में भी डाल दो तो भी वह दूध के ऊपर-ऊपर तैरता रहता है। इसी प्रकार तप के माध्यम से विशुद्ध हुई आत्मा लोक के अग्र भाग पर जाकर विराजमान होती है।
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा कि जब भी मुक्ति मिलेगी, तप के माध्यम से ही मिलेगी। विभिन्न प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर जी समय-समय पर आत्मा की आराधना में लगा रहता है, उसे ही मोक्षपद प्राप्त होता है। जब कोई परम योगी, जीव रूपी लोह-तत्व को सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूपी औषधि लगाकर तप रूपी धौंकनी से धौंक कर तपाते हैं, तब वह जीव रूपी लोहतत्व स्वर्ण बन जाता है। संसारी प्राणी अनन्त काल से इसी तप से विमुख हो रहा है और तप से डर रहा है कि कहीं जल न जायें। पर वैचित्र्य यह है कि आत्मा के अहित करने वाले विषय-कषायों में निरन्तर जलते हुए भी सुख मान रहा है। 'आतम हित हेतु विराग ज्ञान। ते लखें आपको कष्ट दान।' जो आत्मा के हितकारी ज्ञान और वैराग्य हैं, उन्हें कष्टकर मान रहा है। बन्धुओ! जब भी कल्याण होगा ज्ञान, वैराग्य और तप के माध्यम से ही होगा।
आचार्यों ने तप के दो भेद कहे हैं- एक भीतरी अंतरंग तप और दूसरा बाह्य तप। बाहरी तप एक प्रकार से साधन के रूप में है और अंतरंग तप की प्राप्ति में सहकारी है। बाहरी तप के बिना भीतरी तप का उद्भव सम्भव नहीं है। जैसे दूध को तपाना हो तो सीधे अग्नि पर तपाया नहीं जा सकता। किसी बर्तन में रखकर ही तपाना होगा। दूध को बर्तन में तपाते समय कोई पूछे कि क्या तपा रहे हो, तो यही कहा जायेगा कि दूध तपा रहे हैं। कोई भी यह नहीं कहेगा कि बर्तन तपा रहे हैं। जबकि साथ में बर्तन भी तप रहा है। पहले बर्तन ही तपेगा फिर बाद में भीतर का दूध तपेगा। इसी प्रकार बाहरी तप के माध्यम से शरीर रूपी बर्तन तपता है और बाहर से तपे बिना भीतरी तप नहीं आ सकता। भीतरी आत्म-तत्व को तप के माध्यम से तपाकर सक्रिय करना हो तो शरीर को तपाना ही पड़ेगा। पर वह शरीर को तपाना नहीं कहलायेगा, वह तो शरीर के माध्यम से भीतरी आत्मा में बैठे विकारी भावों को हटाने के लिए, विकारों पर विजय पाने के लिए किया गया तप ही कहलायेगा।
जो सही समय पर इन तपों को अंगीकार कर लेते हैं, वास्तव में वह समय के ज्ञाता हैं और समय-सार के ज्ञाता भी हैं। ऐसे तप को अंगीकार करने वाले विरले ही होते हैं। तप के ऊपर विश्वास भी विरलों को ही हुआ करता है, उसकी चर्चा भी विरले लोग ही सुन पाते हैं। यह सभी दुर्लभ से दुर्लभ बातें हैं। कल्पना करें कि कैसा होता होगा, जब साक्षात् भगवान् के समवसरण में तप की देशना होती होगी और भव्य आत्माएँ भगवान् के सम्मुख समवसरण में दीक्षित होकर तप को अंगीकार करती होंगी। इतना ही नहीं, बल्कि तप को अंगीकार करके अल्पकाल में ही अपनी विशुद्ध आत्मा का दर्शन भी कर पाते होंगे। आप लोग यहाँ थोड़ा बहुत Programe (कार्यक्रम) बना लेते हैं। दस दिन के लिए घर द्वार छोड़कर तीर्थ-क्षेत्र पर धर्म ध्यान करते हैं, तब सब भूल जाते हैं। लगता है, संसार छूट गया और मोक्ष की ओर जा रहे हैं। दस-अध्यायों में भी देखा जाए तो क्रमक्रम से मोक्ष-तत्व की ओर जा रहे हैं।
ज्यों-ज्यों भावनाएँ पवित्र होती जाती हैं तो आत्मा को विशुद्ध बनाने की भावना भी प्रबल होती जाती है। इसी के माध्यम से क्रम-क्रम से एक न एक दिन हमें भी तप की शरण मिलेगी और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। जैसे रोगी की जठराग्नि मन्द हो जाने पर पहले धीरे-धीरे मूंग की दाल का पानी देते हैं। बहुत भूख लग जाये तो भी एक दो चम्मच मूंग की दाल के पानी से अधिक नहीं देते, फिर बाद में थोड़ी शक्ति आने पर रोटी वगैरह देना प्रारम्भ कर देते हैं। उसी प्रकार हम भी पुराने मरीज हैं। एक साथ तप की बात बहुत मुश्किल लगती है तो धीरे-धीरे चारित्र को धारण करके हम अपने तप की अग्नि को बढ़ाते जाएँ और जितनी-जितनी तप में वृद्धि होती जायेगी, उतना-उतना आनन्द आयेगा और यही आनन्द तप में वृद्धि के लिए सहायक बनता जाएगा।
विशुद्धि के साथ किया गया तप ही कार्यकारी होता है। इसलिए आचार्यों ने कहा है कि अणुव्रतों को धारण करके क्रम-कम से विशुद्धि बढ़ाते हुए आगे महाव्रतों की ओर बढ़ना चाहिए। विशुद्धि हो तो विदेह क्षेत्र भी यहीं पर आ सकता है और विशुद्धि न हो तो विदेह भी लुप्त हो सकता है। जहाँ निरन्तर तीर्थकर का सान्निध्य बना रहता है वहाँ भी यदि विशुद्धि नहीं है तो तीन-तीन बार दिव्यध्वनि सुनने वाला भी उतनी निर्जरा नहीं कर सकता जितनी कि यहाँ व्रतों के माध्यम से विशुद्धि बढ़ाकर निर्जरा की जा सकती है। बहुत कम लोग ही अवसर का लाभ उठा पाते हैं। संसारी प्राणी की यही विचित्रता है कि जब तक नहीं मिलता तब तक अभाव खटकता है और मिल जाने के उपरान्त वह गौण हो जाता है। उसका सदुपयोग करने की भावना नहीं बनती। जो निकट भव्य-जीव होते हैं वे नियम से तप का अवसर मिलते ही पूरा का पूरा लाभ लेकर अपना कल्याण कर लेते हैं।
आप लोगों से मेरा इतना ही कहना है कि तप एक निधि है, जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अंगीकार करने के उपरान्त प्राप्त करना अनिवार्य है। बिना तप का अनुष्ठान किये मुक्ति का साक्षात्कार सम्भव नहीं है। जैसे दीपक की लौ आदि टिमटिमाती हो और स्पन्दित हो, चंचल हो तो न ही प्रकाश ठीक हो पाता है और न ही उससे पर्याप्त ऊष्मा ही मिल पाती है। इसी प्रकार रत्नत्रय के साथ जब तक ज्ञान स्थिर नहीं होता और जब तक उसमें एकाग्रता नहीं आती, तब तक अपने स्व-पर प्रकाशक स्वभाव को वह ज्ञान अनुभव नहीं कर सकता। अर्थात् मुक्ति में साक्षात् सहायक नहीं बन सकता। चेतना की धारा एक दिशा में बहना चाहिए, और ध्याता और ध्येय की एकरूपता होनी चाहिए।
बन्धुओ! दुनियाँदारी की चर्चा में अपना समय व्यतीत नहीं करना चाहिए, उससे कोई भी लाभ मिलने वाला नहीं है। सही वस्तु का आलोढ़न करने से ही उपलब्धि होती है। दस किलो दूध के दही से आप किलो, दो किलो नवनीत निकालो तो निकल भी आयेगा, लेकिन उससे चौगुनी मात्रा में भी पानी को मथकर नवनीत चाहो तो जरा भी नहीं निकलेगा। आप लोग दस दिन तक सुबह से शाम जिस प्रकार धार्मिक, आध्यात्मिक कार्य में लगे रहते हैं, उसी प्रकार का कार्यक्रम हमेशा चलता रहना चाहिए। तब कहीं जाकर आत्मा में पवित्रता आना प्रारम्भ होगी। जितना समय इसमें देंगे उतना ही कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा।
यावत् स्वास्थ्यं शरीरस्य, यावत् इन्द्रियसंपदा।
तावत् युक्तं तपश्कर्म वार्धक्ये केवलं श्रमः॥
जब तक शरीर स्वस्थ है, इन्द्रिय सम्पदा है, ज्ञान है और तप करने की क्षमता है तब तक तप को एकमात्र कार्य मानकर कर लेना चाहिए। क्योंकि वृद्धावस्था में जब शरीर साथ नहीं देता, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और ज्ञान काम नहीं करता, तब हाथ क्या आता है? केवल पश्चाताप ही हाथ आता है। यह शरीर भोगों के लिए नहीं मिला और न ही देखने के लिए मिला है, इसके द्वारा तो आत्मा का मन्थन करके अमृत पा लेना चाहिए। आज तो मात्र खाओ, पिओ और मौज करो वाली बात हो रही है। इसके बीच भी यदि कोई विषय-कषाय से विरक्त तप की ओर अग्रसर होता है तो यह उसका सौभाग्य है। इतना ही नहीं, उसका सान्निध्य भी जिसे मिलता है वह भी सौभाग्यशाली है। संसारी प्राणी ने आज तक दृढ़ता के साथ तपश्चरण को स्वीकार नहीं किया। और तो सैकड़ों कार्य सम्पादित किये लेकिन एक यही कार्य नहीं किया। परिणाम यह हुआ कि दुख में ही सुख का आभास करने का संस्कार दृढ़ होता गया। आप पूजन करते समय देवशास्त्रगुरु-पूजा की जयमाल में बोलते अवश्य हैं कि
संसार महादुख सागर के, प्रभु दुखमय सुख आभासों में।
मुझको न मिला सुख क्षण भर भी, कञ्चन-कामिनी प्रासादों में॥
लेकिन भीतर इस बात का अनुभव नहीं हो पाता। तप में दुख जैसा प्रतीत होता है और इन्द्रिय विषयों में सुख जैसा लगता है। पर वास्तव में देखा जाए तो सच्चा सुख तो तप में ही है। इन्द्रियसुख तो मात्र सुखाभास है।
आत्मा की शक्ति अनन्त है। इस श्रद्धान के साथ जो व्यक्ति अपने इस जीवन को अविनश्वर सुख की खोज में लगा देता है उसका जीवन सार्थक हो। जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने मोक्षपाहुड में कहा है कि
अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहदि इंदत्तं ।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति॥ ७७॥
आज भी रत्नत्रय की आराधना करके आत्म-ध्यान में लीन होकर इन्द्रत्व की प्राप्त कर सकते हैं, लौकान्तिक देव बन सकते हैं। इतना ही नहीं, वहाँ से नीचे आकर मनुष्य होकर नियम से मुक्ति पा सकते हैं। बन्धुओ! शेष जीवन न जाने किसका कितना रहा? अगर चाहें तो कम समय में भी पूरी की पूरी कर्म-निर्जरा अपने आत्म-पुरुषार्थ और आत्मबल के द्वारा कर सकते हैं। जो व्यक्ति निमित्त पाकर भी अपने उपादान को जागृत नहीं करता, वह अभी निमित-उपादान के वास्तविक ज्ञान से विमुख है। निमित्त में कार्य नहीं हुआ करता, कार्य तो उपादान में ही होता है, लेकिन निमित्त के बिना उपादान का कार्य रूप परिणाम भी न हुआ और न कभी होगा। रत्नत्रय के साथ बाह्य और अंतरंग दोनों प्रकार के तपों का आलम्बन लेकर साधना करने वाला ही मुक्ति सम्पादन कर सकता है। यही एक मुक्ति का मार्ग है।