कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंग जदि हवेदि सक्खादं।
ण कुणदि किंचिवि कोहो तस्स खमा होदि धम्मोति॥
(बारसाणुवेक्खा ७१)
क्रोध के उत्पन्न होने के साक्षात् बाहरी कारण मिलने पर भी थोड़ा भी क्रोध नहीं करता, उसे क्षमा धर्म होता है। अभी कार्तिकेयानुप्रेक्षा का स्वाध्याय चल रहा है, उसमें एक गाथा आती है |
धम्मो वत्थुसहावो,खमादिभावो स दसविहो धम्मो।
रयणात्तयं च धम्मो, जीवाणां रक्खणं धम्मो॥
अर्थात् वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। दस प्रकार के क्षमादि भावों को धर्म कहते हैं। रत्नत्रय को धर्म कहते हैं और जीवों की रक्षा करने को धर्म कहते हैं।
यहाँ आचार्य महाराज ने धर्म के विविध स्वरूपों को बताया है। वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है और यह भलीभाँति ज्ञात है कि वस्तु की अपेक्षा देखा जाए तो जीव भी वस्तु है। पुद्गल भी वस्तु है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल भी वस्तु है। सभी का अपना-अपना स्वभाव ही उनका धर्म है। अधर्म द्रव्य का भी कोई न कोई धर्म है। (हँसी) तो आज हम कौन से धर्म का पालन करें, कि जिसके द्वारा कम से कम दस दिन के लिए हमारा कल्याण हो। तब आचार्य कहते हैं कि स्वभाव तो हमेशा धर्म रहेगा ही, लेकिन इस स्वभाव की प्राप्ति के लिए जो किया जाने वाला धर्म है वह है- 'खमादिभावो या दसविहो धम्मो'- क्षमादि भाव रूप दस प्रकार का धर्म वह आज से प्रारम्भ होने जा रहा है। ध्यान रखना आप लोगों की अपेक्षा, विशेष अनुष्ठान की दृष्टि से आज से प्रारम्भ हुआ माना जा रहा है, साधुओं के तो वह हमेशा ही है।
यह दस प्रकार का धर्म रत्नत्रय के धारी मुनिराज ही पालन करते हैं। इसलिए गाथा में आगे कहा गया कि ‘रयणतयं च धम्मो'- रत्नत्रय भी धर्म है। सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप आत्मा की जो परिणति है उसका नाम भी धर्म है। लेकिन इतना कहकर ही बात पूरी नहीं की। इस रत्नत्रय की सुरक्षा किस तरह, किस माध्यम से होगी, यह भी बताना आवश्यक है। इसलिए कहा कि 'जीवाण रक्खण धम्मो'- जीवों की रक्षा करना धर्म है। जीव का परम धर्म यही अहिंसा है। जो उसे अपने आत्मस्वभाव-रूप धर्म तक पहुँचायेगा। इस अहिंसा धर्म के बिना कोई भी जीवात्मा अपने आत्म-स्वरूप की उपलब्ध नहीं कर सकता।
इस अहिंसा धर्म की व्याख्या आचार्यों ने विभिन्न प्रकार से की है। जो अहिंसा से विमुख हो जाता है उसके भीतर क्षोभ उत्पन्न होता है। जैसे कोई सरोवर शान्त हो और उसमें एक छोटा सा भी कंकर फेंक दिया जाये तो कंकर गिरते ही पानी में लहरें उत्पन्न होने लगती हैं। क्षोभ पैदा हो जाता है, सारा सरोवर क्षुब्ध हो जाता है और अगर कंकर फेंकने का सिलसिला अक्षुण्ण बना रहे तो एक बार भी वह सरोवर शान्त, स्वच्छ और उज्ज्वल रूप में देखने को नहीं मिल पाता। अनेक प्रकार की मलिनताओं में उसका शान्त स्वरूप खो जाता है। क्षोभ भी एक प्रकार की मलिनता ही है। मोहराग-द्वेष रूप भाव भी एक मलिनता है। जैसे सरोवर का धर्म शान्त और निर्मल रहना है, लहरदार होना नहीं है, ऐसा ही आत्मा का स्वभाव समता परिणाम है जो लहर रूपी क्षोभ और मोह रूपी मलिनता से रहित है, जो निष्कम्प और निर्मल है।
सरोवर में कंकर फेंकने के उपरान्त उसमें हम जब जाकर देखेंगे तो अपना मुख देखने में नहीं आयेगा और न ही सरोवर के भीतर पड़ी निधि/वस्तु का अवलोकन कर सकेंगे। मान लीजिये सरोवर शान्त है तथा कंकर भी नहीं फेंका गया किन्तु कीचड़ उसमें बहुत है तो भी उस सरोवर के जल में मुख दिखने में नहीं आयेगा। आज मुझे यही कहना है आप लोगों से कि ऐसे ही हमारी आत्मा का सरोवर जब तक शान्त और मलिनता से रहित नहीं होगा तब तक हमें अपना उज्ज्वल स्वरूप दिखाई नहीं देगा। क्रोध के अभाव में ही क्षमा धर्म जीवन में प्रकट होगा। एक बार यदि यह क्षमा धर्म अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाये और आत्मा से क्रोधादि कषायों का सर्वथा अभाव हो जाए तो लोक में होने वाला कोई भी विप्लव उसे प्रभावित नहीं कर सकता, उसे स्वभाव से च्युत नहीं कर सकता, नीचे नहीं गिरा सकता।
'काले कल्पशतैपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या' अर्थात् सैकडों कल्पकाल भी बीत जायें तो भी सिद्धत्व की प्राप्ति के उपरान्त किसी भी तरह की विकृति आना सम्भव नहीं है। सरोवर का जल स्वच्छ होकर बर्फ बनकर जम जाये, उसमें सघनता आ जाये तो कंकर के फेंकने से कोई क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकता, ऐसा ही आत्मा के स्वभाव के बारे में समझना चाहिए। हमें आत्मा की शक्ति को पहचानकर उसे ऐसा ही सघन बनाना चाहिए कि क्षोभ उत्पन्न न हो सके। आत्मा को ज्ञान-घन रूप कहा गया है। हमारा ज्ञान, घन-रूप हो जाना चाहिए। अभी वह पिघला हुआ होने से छोटी-छोटी-सी बातों को लेकर भी क्षुब्ध हो जाता है। हमारे अंदर छोटी सी बात भी क्रोधकषाय उत्पन्न कर देती है और हम क्षमा धर्म से विमुख हो जाते हैं।
अनन्त काल हो गया तब से हम इस क्रोध का साथ देते जा रहे हैं। क्षमा धर्म का साथ हमने कभी ग्रहण नहीं किया। एक बार ऐसा करो जैसा कि पाण्डवों ने किया था। पाण्डव जब तक महलों में पाण्डव के रूप में रहे तब तक कौरवों को देखकर मन में विचार आ जाता था कि ये भाई होकर भी हमारे साथ वैरी जैसा व्यवहार करते हैं अत: इनसे हमें युद्ध करना ही होगा। इन्हें धर्म-युद्ध के माध्यम से मार्ग पर लाना होगा। इस तरह कई प्रकार की बातें चलती थीं, संघर्ष चलता था। किन्तु जब वे ही पाण्डव गृहत्याग कर निरीह होकर ध्यान में बैठ गये तो यह विचार आया कि 'जीवाणां रक्खण धम्मो' जीवों की रक्षा करना, उनके प्रति क्षमा भाव धारण करना ही हमारा धर्म है। कौरव भी जीव हैं, अब उनके प्रति क्षमा भाव धारण करना ही हमारा कर्तव्य है। इसी क्षमा धर्म का पालन करते हुए जब उन पर उपसर्ग आया तो लोहे के गरम-गरम आभूषण पहनाने पर भी वे शान्त रहे, क्षुब्ध नहीं हुए, न ही मन में शरीर के प्रति राग-भाव आने दिया और न ही उपसर्ग करने वालों के प्रति द्वेष भाव को आने दिया। तप से तो तप ही रहे थे, ऊपर से तपे हुए आभूषण पहनाये जाने पर और अधिक तपने लगे। क्षमा-धर्म के साथ किये गये इस तप के द्वारा कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होने लगी। जैसे प्रोषधोपवास या पर्व के दिनों में आप लोग उपवास करते हैं या एकाशन करते हैं और भीषण गर्मी ज्येष्ठ मास की कड़ी धूप पड़ जाये तो कैसा लगता है? दोहरी तपन हो गयी। पर व्रत का संकल्प पहले से होने के कारण परीषह सहते हैं। ऐसे ही पाण्डव भी लोहे के आभूषण पहनाये जाने पर भी शान्त भाव से परीषह-जय में लगे रहे। कौरवों पर क्रोध नहीं आया क्योंकि जीवन में क्षमा-धर्म आ गया था।'जीवाण रक्खण धम्मो"यह मन्त्र भीतर ही भीतर चल रहा था।
वे सोच रहे थे कि अब तो कोई भी जीव आकर हमारे लिए कुछ भी करे- उपसर्ग करे, शरीर को जला भी दे तो भी हम अपने मन में उसके प्रति हिंसा का भाव नहीं लायेंगे, क्रोध नहीं करेंगे और विरोध भी नहीं करेंगे। अब चाहे कोई प्रशंसा करने आये तो उसमें राजी भी नहीं होंगे और न ही किसी से नाराज होंगे क्योंकि अब हम महाराज हो गये हैं। महाराज हैं तो नाराज नहीं और नाराज हैं तो महाराज नहीं। लेकिन बात ऐसी है ध्यान रखना कि कभी-कभी लोगों के मन में बात आ जाती है कि महाराज जी तो नाराज हैं और आहार देते समय कह भी देते हैं कि महाराज तो हमसे आहार ही नहीं लेते, नाराज हैं। हमारी तरफ देखते तक नहीं हैं। अब उस समय हम कुछ जवाब तो दे नहीं सकते और ऐसा कहने वाले बाद में सामने आते भी नहीं हैं। कभी आ जायें तो हम फौरन कह देते हैं कि भइया, हम नाराज नहीं हुए और अगर आपकी दृष्टि में राजी नहीं होने का नाम ही नाराज होना कहलाता है तो आप अपनी जानी। आप तो इसी में राजी होंगे कि महाराज आप हमारे यहाँ रोज आओ।
संसारी प्राणी राग को बहुत अच्छा मानता है और द्वेष को अच्छा नहीं मानता। लेकिन देखा जाये तो द्वेष पहले छूट जाता है फिर बाद में राग का अभाव होता है। दसवें गुणस्थान तक सूक्ष्म लोभ चलता है। मुनि महाराज तो प्रशंसा में राजी नहीं होते और न ही निन्दा से नाराज होते हैं, अपितु वे तो दोनों दशा में साम्य रखते हैं। राग और द्वेष दोनों में साम्य भाव रखना ही अहिंसा धर्म हैं, क्षमा धर्म है।
रागादीणमणुप्पा अहसगत्तं ति देसिदं समये।
तेस चे उप्पत्ती हसेति जिणहि णिद्दिट्टा॥
यह आचार्यों की वाणी है। रागद्वेष की उत्पत्ति होना हिंसा है और रागद्वेष का अभाव ही अहिंसा है। जीवत्व के ऊपर सच्चा श्रद्धान तो तभी कहलायेगा जब अपने स्वभाव के विपरीत हम परिणमन न करें अर्थात् रागद्वेष से मुक्त हों। क्रोधादि कषायों के आ जाने पर जीव का शुद्ध स्वभाव अनुभव में नहीं आता। संसारी दशा में स्वभाव का विलोम परिणमन हो जाता है। यही तो वैभाविक परिणति है, जो संसार में भटकाती है।
पाँचों पाण्डव ध्यान में लीन थे। सिद्ध परमेष्ठी के ध्यान में लीन थे। शरीर में रहकर शरीरातीत आत्मा का अनुभव कर रहे थे। वास्तव में यही तो उनकी अग्नि परीक्षा की घड़ी थी।
जह कणायमग्गितवियं पि कणयसहावं ण तं परिच्चयदि ।
तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णणी दु णाणिक्तं॥
(समयसार - १९१ )
जिस प्रकार स्वर्ण को तपा दिये जाने पर भी स्वर्ण अपनी स्वर्णता को नहीं छोड़ता बल्कि जितना आप तपाओगे उतनी ही कीमत बढ़ती जायेगी, उतने ही उसके गुणधर्म उभरकर सामने आयेंगे। स्वर्ण को जितना आप कसौटी पर कसोगे उतना ही उसमें निखार आयेगा, उसकी सही परख होगी। आचार्यों ने उदाहरण दिया है कि जिस प्रकार अग्नि में तपाये जाने पर स्वर्ण, स्वर्णपने को नहीं छोड़ता उसी प्रकार ज्ञानी भी उपसर्ग और परीषह के द्वारा खूब तपा दिये जाने पर भी अपने ज्ञानीपने को नहीं छोड़ता, 'पाण्डवादिवत्।' यानि पाण्डवों के समान।
पाण्डवों का उदाहरण दिया, सौ कौरवों के साथ युद्ध करते समय के पाण्डवों का या राज्य सुख भोगते हुए पाण्डवों का उदाहरण नहीं दिया। बल्कि उन पाण्डवों का उदाहरण दिया जो राजपाट छोड़कर वीतरागी होकर ध्यान में लीन हैं और उपसर्ग आने पर भी 'जीवाणां रक्खण धम्मो, रयणतयं च धम्मो'- जीवों की रक्षा की धर्म मानकर, रत्नत्रय को धर्म मानकर उसी की सुरक्षा में लगे हुए हैं। वे क्षमाभाव धारण करते हुए विचार कर रहे हैं कि जानना-देखना ही हमारा स्वभाव है। जो कोई इस आत्मा के स्वभाव को नहीं जानता और अज्ञानी होता हुआ यदि बाधा उत्पन्न करता है, तो वह भी दया और क्षमा का पात्र है।
कोई यदि स्वर्ण की वास्तविकता के बारे में संदेह कर रहा हो तो यही उपाय है कि उसको तपाकर दिखा दिया जाए या कसौटी के पाषाण पर कस दिया जाए ताकि विश्वास प्रादुभूत हो जाए। पाण्डव ऐसी ही अग्नि परीक्षा दे रहे थे। आप भी यदि दूसरे के अंदर स्वभाव के प्रति श्रद्धान पैदा कराना चाहते हैं या स्वयं के ज्ञानीपने की परीक्षा करना चाहते हैं तो आपको भी ऐसी अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ेगा। अपने जीवत्व की रक्षा के लिए सभी जीवों की रक्षा का संकल्प पहले करना होगा। तुलसी दया न छोड़िये, जबलों घट में प्राण-जब तक घट में अर्थात् शरीर में प्राण हैं तब तक हम जीव दया अर्थात् जीवों की रक्षा करने रूप धर्म को नहीं छोड़ेंगे, ऐसा संकल्प होना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने बोधपाहुड में कहा है कि 'धम्मो दया विसुद्धो।' धर्म, दया करके विशुद्ध होता है। इस दया-धर्म के अभाव में मात्र धर्म की चर्चा करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि रत्नत्रय में निष्ठा के बिना नहीं होती और रत्नत्रय में निष्ठा दया धर्म के माध्यम से, क्षमादि धर्मों के माध्यम से ही जानी जाती है। जहाँ रत्नत्रय के प्रति निष्ठा होगी वहाँ नियम से क्षमादि धर्म उत्पन्न होंगे। तभी आत्मा के शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति होगी। दस प्राणों से अतीत (मुक्त) आत्मा ही अपनी वास्तविक ज्ञान-चेतना का अनुभव करती है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि-
सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं।
पाणित्तमदिक्कंता ।णाणं विंदंति ते जीवा।
सभी स्थावर जीव शुभाशुभ कर्मफल के अनुभवन रूप कर्मफल चेतना का अनुभव करते हैं किन्तु त्रस-जीव उसी कर्मफल के अनुभव में विशेष रागद्वेष रूप कर्मचेतना का भी अनुभव करते हैं। यह कर्मचेतना तेरहवें गुणस्थान तक चलती है क्योंकि रागद्वेष का अभाव होने के बावजूद भी वहाँ अभी योग की प्रणाली चल रही है, कर्मों का सम्पादन हो रहा है। भले ही एक समय के लिए हो लेकिन कर्मबंध चल ही रहा है। चौदहवें गुणस्थान में यद्यपि अभी स्वभाव की पूर्णत: अभिव्यक्ति अर्थात् गुणस्थानातीत दशा की प्राप्ति नहीं हुई है तथापि तेरहवें गुणस्थान की अपेक्षा वह श्रेष्ठ है। वहाँ योग के अभाव में कर्म का सम्पादन नहीं हो रहा अपितु मात्र कर्मफल की अनुभूति अभी शेष है। इसके उपरान्त दस प्रकार के द्रव्य प्राणों से रहित सिद्ध भगवान् ही शुद्ध ज्ञान चेतना का अनुभव करते हैं।
ऐसे सिद्ध भगवान् के स्वरूप के समान हमारा भी स्वरूप है। 'शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहं, निरज्जनोऽहं, निर्विकार स्वरूपोऽहं' आदि-आदि भावों के साथ पर्यायबुद्धि को छोड़कर पाण्डव ध्यान में लीन हैं। लेकिन प्रत्येक की क्षमता एक सी नहीं होती। क्षमा-भाव सभी धारण किये हैं, पर देखो कैसा सूक्ष्म धर्म है कि अपने बारे में नहीं, अपने से बड़े भाईयों के बारे में जरा सा विचार आया कि मुक्ति में बाधा आ गयी। वे नकुल और सहदेव सोचने लगे कि 'हम तो अभी युवा हैं, यह परीषह सह लेंगे। लेकिन बड़े भाई तो वृद्ध होने को हैं, वे कैसे सहन कर पायेंगे। अरे! कौरवों ने अभी भी वैर नहीं छोड़ा' -ऐसा मन में विकल्प आ गया। कोई विरोध नहीं किया, मात्र विचार आया। क्षमा धर्म में थोड़ी कमी आ गयी और उस विकल्प का परिणाम ये हुआ कि उन्हें सर्वार्थसिद्धि की आयु बँध गयी, मुक्ति पद नहीं मिल पाया।
मान लीजिये, कोई अरबपति बनना चाहता है तो कब कहलायेगा वह अरबपति? तभी कहलायेगा जब उसके पास पूरे अरब रुपये हों। लेकिन ध्यान रखना यदि एक रुपया भी कम है तो भी अरबपति होने में कमी मानी जायेगी। एक पैसे की कमी भी कमी ही कहलायेगी। यही स्थिति उन अंतिम पाण्डवों की हुई। 'जीवाण रक्खण धम्मो' जीवों की रक्षा तो की लेकिन अपने आत्म परिणामों की संभाल पूरी तरह नहीं कर पाये। शेष तीन पाण्डव निर्विकल्प समाधि में लीन होकर अभेद रत्नत्रय को प्राप्त करके साक्षात् मुक्ति को प्राप्त करने में सफल हुए।
भइया! क्रोध पर विजय पाने के लिए ऐसा ही प्रयास हमें भी करना चाहिए। आज तो सर्वार्थसिद्धि भी नहीं जा सकते, तो कम से कम सोलह स्वर्ग तक तो जा ही सकते हैं। सोलहवें स्वर्ग तक जाने के लिए सम्यकदर्शन सहित श्रावक के योग्य अणुव्रत तो धारण करना ही चाहिए। आप श्रावक हैं तो इतनी क्षमा का अनुपालन तो कर ही सकते हैं कि कोई भी प्रतिकूल प्रसंग आ जाये तो भी हम क्रोधित नहीं होंगे। क्षमाभाव धारण करेंगे। रत्नत्रय हमारी सहज शोभा है और क्षमादि धर्म हमारे अलंकार हैं, इसी के माध्यम से हमारा जीवत्व निखरेगा। अनन्तकाल से जो जीवन संसार में बिखरा पड़ा है, उस बिखराव के साथ जीना, वास्तविक जीना नहीं है। अपने भावों की सम्भाल करते हुए जीना ही जीवन की सार्थकता है। किसी कवि ने लिखा है कि
"असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। और मृत्यो र्मा अमृतोगमय।"
जो असत् है या जो सत्य नहीं है, जो झूठ है, जो अपना नहीं है, जो सपना है, उससे मेरी बुद्धि हट जाये। मैं मोह की वजह से उस असत् को सत् मान रहा हूँ और अपने वास्तविक सत् स्वरूप को विस्मृत कर रहा हूँ। हे भगवन्! मुझे अज्ञान के अंधकार से बचा लें और जल्दी-जल्दी केवल ज्ञान रूप ज्योतिपुञ्ज तक पहुँचा दें। मेरा अज्ञानरूपी अंधकार मिट जाये और मैं केवलज्ञान में लीन हो जाऊँ।
हे भगवन्! यह जन्म, यह जरा, यह मृत्यु और मेरे कषाय भाव- यही हमारे वास्तविक जीवन की मृत्यु के कारण हैं। अमृत वहीं है जहाँ मृत्यु नहीं है। अमृत वहीं है जहाँ क्षुधा-तृषा की वेदना नहीं है। अमृत वहीं है जहाँ क्रोध रूपी विष नहीं है। इस तरह हम निरन्तर अपने भावों की सम्भाल करें। रत्नत्रय धर्म, क्षमा धर्म या कहो अहिंसा धर्म यही हमें अमृतमय हैं। क्षमा हमारा स्वाभाविक धर्म है। क्रोध तो विभाव है। उस विभाव-भाव से बचने के लिए स्वभाव भाव की ओर रुचि जागृत करें। जो व्यक्ति प्रतिदिन धीरे-धीरे अपने भीतर क्षमा-भाव धारण करने का प्रयास करता है उसी का जीवन अमृतमय है। हम भगवान् से यही प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन्! क्षमा धर्म के माध्यम से हम सभी का पूरा का पूरा कल्याण हो। जीवन की सार्थकता इसी में है।