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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • कुण्डलपुर देशना 15 - त्याग का प्रभाव

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    जीव के तीव्र कर्म के उदय होने पर अनेक प्रयास करने पर भी वह प्रयत्न सार्थक नहीं है। त्याग तपस्या से कुछ कर्म रूपी फल पकते और झड़ भी जाते है। परन्तु ध्यान रूपी अग्नि के संयोग से कर्म शीघ्र ही पक कर निजरित हो जाते हैं। जिस प्रकार अधपका आम पाल में शीघ्र ही पक जाता है। ये पाल की संगति है। ठीक उसी प्रकार मार्ग से विपरीत कार्य या बुरी संगति भी पूर्व संस्कार के प्रतिफल स्वरूप उदय में आकर व्यवधान खड़े कर देती है। कुछ भीतरी भाव विकल्प मन में ऐसे स्थिर हो जाते जो उपदेश से नहीं निकाले जा सकते उन्हें तो तप के द्वारा ही निकाला जा सकता है। एक पौराणिक कथा को दृष्टि में रखकर मुनि वारिषेण ने बाल सखा नव दीक्षित साधु पुष्पडाल के भीतरी विकल्प को निकलवाने के लिये अनेकों बार संबोधन दिया। किन्तु जब सफलता प्राप्त नहीं हुई तो आहार चर्या के समय राजमहल का वैभव सुख-सुविधा की सामग्री अनेक राज परिवार की सुन्दर नारियों को दिखाया। और उन सबको त्यागकर मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने वाले वारिषेण की भोगोपभोग की सामग्री देखते ही पुष्पडाल के हृदय में परिवर्तन हुआ और वह नि:शल्य हो गये यह कहने से या देखने से नहीं बल्कि भीतरी भावों से निकलती है। -

    समता भज तज प्रथम तू पक्षपात परमाद।

    स्याद्वाद आधार ले समय सार पढ़ बाद।

     

    त्याग तपस्या का जीवन में प्रभाव रहता है तभी तो आर्यखण्ड की ६४ हजार रानियों के अतिरिक्त ३२ हजार म्लेच्छखण्ड से आई। रानियों के साथ रहते हुए भी चक्रवर्ती ने उन्हें ऐसे धर्म से संस्कारित किया जो वर्णलाभ रूप हुआ और म्लेच्छखण्ड की उस परिणति से छूटकर समीचीन ज्ञान श्रद्धा एवं चारित्र को अंगीकार करने के योग्य भूमिका तैयार हो सकी। जिससे भीतरी कर्म रूपी अधर्म के संस्कारों को धीरे-धीरे समाप्त किया जा सका।

     

    जैसे सर्प के काटने से मृत्यु हो ही यह निश्चित नहीं/परन्तु मोह ममतारूपी नागिन के दंश से हम भवों-भवों तक मूच्छ में गाफिल हो छटपटाते रहे यह निश्चित है। एक बार उस मोह को अंतरंग से त्याग देने पर जन्म-मरणरूपी संसार हमेशा-हमेशा को छूट जाता है। जैसे कृमि रंग वस्त्र पर चढ़ने पर वह वस्त्र फट भले ही जाये पर रंग छूटता नहीं है। वैसे ही शरीर भले ही छूट जाये परन्तु आत्मा पर कषायों रूपी कर्मों की पर्त ऐसी चिपकी हैं। जो अतीत काल में अनंतों बार तीर्थकरों के सान्निध्यसामीप्य तथा संबोधन रूप धर्मोपदेश पाकर भी नहीं छूट सकी। उसमें मुख्य कारण हमारे मोह के विसर्जन का अभाव रहा। बुद्धि पूर्वक कर्म करने पर ही कर्म प्रभाव से बचा जा सकता है।

     

    ऐतिहासिक प्रसिद्धि प्राप्त सम्राट् श्रेणिक को उसकी पत्नी रानी चेलना ने त्याग–तपस्या तथा जिनार्चना की ओर ऐसा प्रेरित किया जिसके कारण ही उन्हें तीर्थकर महावीर प्रभु का सामीप्य प्राप्त हुआ। तब वह क्षायिक सम्यक प्राप्त करके समवसरण में ६० हजार प्रश्नों को करने की योग्यता हासिल कर सके तथा ३३ सागर की बद्ध आयु को घटाकर नक की जघन्य आयु ८४ हजार वर्ष कर सके। "सिंधु के सामने बिन्दु" नगण्य होता है। पुरुषार्थ तथा उपादान में ही ऐसी योग्यता होती है कि वह सिंधु को समाप्त कर उसे बिन्दु में समेट सकता है।

    मंगलमय जीवन बने, छा जाये सुख छाँव।

    जुड़े परस्पर दिल सभी, टले अमंगल भाव।

     

    संसारी प्राणी को मोह, राग सबसे अधिक धन, पैसों से होता है, किन्तु त्याग से संबंध जुड़ने पर नहीं। कुछ लोग ही गांठ को खोल पाते हैं। जबकि कुछ तो गांठ पर गांठ लगाते चले जाते है। किसी वस्तु का जोड़ना कठिन नहीं पर उसे त्यागना बहुत अधिक कठिन होता है। धन का मोह समाप्त हो जाने पर वह घर में नहीं रह सकता। अर्थ पुरुषार्थ हो तभी काम पुरुषार्थ की ओर दृष्टि जाती है। जिन्होंने स्त्री संबंधी राग का त्याग कर दिया वह उस धन को अपने पास नहीं रख सकता। फिर भी यदि वह लोभ, लालच रखता है तो उसे (मृतक मण्डलवत्) शव कहा जाता है।

     

    जैसे मृतक को सजाया जाता है, पर वह कोई सार्थकता नहीं, वैसे ही धन से वह राग नहीं रखता क्योंकि धन तो जड़ ही है किन्तु राग तो चेतन के साथ किया जाता है। भोगोपभोग सामग्री का त्याग कर पाना कठिन है। अतीत में भोगे हुए भोगों का स्मरण न करना तथा भोगों की आकांक्षा न करना कदाचित संभव है। पर वर्तमान में भोगों को त्याग पाना साहस और वैराग्य से ही संभव है।

    पुनः भस्म पारा बने, मिले खटाई योग।

    बनो सिद्ध पर-मोहतज, करो शुद्ध उपयोग।

     

    ज्ञानीजन वर्तमान के भोगों के प्रति हेय बुद्धि रखते है, अन्यथा अनर्थ होने में देर नहीं लगती। धन को अनर्थ नहीं मानते हुए परमार्थ को अनर्थ कहना समझदारी के अभाव का ही प्रतिफल है। पुण्य के कारण अहद् भक्ति आदि के प्रति नहीं बल्कि उनसे प्राप्त फल की ओर हेय बुद्धि होनी चाहिए। ज्ञानीपन शब्दों से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। वस्तु वह तो तत्व का ज्ञान होने पर ही उसे सहजता से छोड़ जाता है। राग का त्याग हो जाने पर भोगोपभोग सामग्री सम्मुख होने पर भी वह उनसे प्रभावित नहीं होता। बल्कि उनकी वीतरागता से ही प्रभावित होता है। जिन परिणामों के द्वारा ही असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होती है। जिसे श्रावक एवं श्रमण की ओर संकेत किया है।

     

    "महावीर भगवान् की जय!"

    Edited by admin


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    रतन लाल

      

    वैराग्य के सामने सारी संसार की संपदा नगण्य है

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