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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • धर्म की देशना 6 - तप की महिमा

       (3 reviews)

    इसी संहनन के माध्यम से आर्तध्यान और रौद्रध्यान किया जाता है, तो आत्मा का अहित हो जाता है। और धर्मध्यान व शुक्लध्यान किया जाता है, तो आत्मा अन्तर्मुहूर्त में ऊपर उठ जाता है।


    मोह के कारण वह शक्ति उत्पन्न नहीं हो पा रही है। और मोह जहाँ समाप्त कर दिया, बस फिर रास्ता चालू हो गया। ऐसा तप होता है। जिस किसी को मोक्ष का लाभ हुआ, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र के द्वारा नहीं। यह बात सुनकर आप लोगों को आश्चर्य अथवा अटपटा-सा भी लग सकता है। इस बात का प्रवचनसार में भलीभांति अर्थात् बहुत अच्छे ढंग से स्पष्टीकरण दिया गया है। जीवन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र जब तक रहेंगे, तब तक ना ही केवलज्ञान होने वाला है, और ना मुक्ति मिलने वाली है। कुछ समझ में नहीं आता, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: कहा और मार्ग मंजिल तक पहुँचा देता है, ऐसा भी कहा गया है।


    सूर्यप्रकाश के माध्यम से ही फसल खड़ी होती है। लेकिन ध्यान रहे, यदि सूर्य बालभानु के रूप में ही रहे, तो फसल कभी भी पकेगी नहीं। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की फसल को पकाना अनिवार्य है। तभी वह मुक्ति प्रदान कर सकती है। और उसे पकाने का साधन यदि कोई है, तो वह है सम्यक् तप। इसलिए उसका रत्नत्रय से अलग कथन किया जाता है। और तप को मिलाने से सम्यग्दर्शन आराध्य बन जाता है, ज्ञान आराध्य बन जाता है, सम्यक्रचारित्र आराध्य बन जाता है। यह तप की ही महिमा है। तीन के साथ सम्यग्दर्शन की आराधना नहीं कहलाती। सम्यग्ज्ञान की आराधना नहीं कहलाती। सम्यकचारित्र की आराधना तब कहलाती है, जब उसके साथ तप जुड़ जाता है।


    तप मूलगुण नहीं है। तप उत्तर गुण है। व्रत, संयम आदि ये सारे के सारे मूल गुण में आ जाते हैं। किन्तुतप जो है, वह उत्तरगुण के रूप में ही प्राप्त होता है। इसलिए सर्वप्रथम जब वैरागी को दीक्षित किया जाता है, उस समय तप नहीं दिये जाते, आचार दिया जाता है। दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार। तप तो आ गया महाराज ? यह जो दिया गया है वह तप एक प्रकार से ठण्डा रहता है। जैसे सूर्य उदित हुआ तब तक बालभानु कहलाता है। कोई भी व्यक्ति आज तक ऐसा नहीं मिला अपने को, जो मध्याह्न काल के सूर्य को देखने के लिए दूर से आया हो। सनराइज और सनसेट अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्त को होते हुए तो बहुत लोग देखते हैं। कारण, दोनों वक्त वह बालभानु रहता है। जिस प्रकार बालक से आप नैसर्गिक रूप से प्यार करते हैं, वैसा ही प्रौढ़ होने पर कर सकते हैं क्या? क्यों ? तो वह है ही नहीं प्यार करने योग्य। वह तो दुकान में बैठने योग्य है। इसी प्रकार जब दीक्षित हो जाता है, तो बालभानु की भांति दिखता है। इसलिए उस बालभानु के प्रकाश या आतप से कोई फसल तपती नहीं। जब तक प्रखर किरणों को बिखेरते हुए मध्याह्न नहीं होता, तब तक किसी प्रकार से भेद-विज्ञान की बात नहीं आती। ज्ञान में जो प्रखरता आती है, वह तप के बिना नहीं आती।


    बहुत अन्तर होता है। भेद का ज्ञान करना भी भेद-विज्ञान है। भेद करके जो ज्ञान होता है, वह भेदविज्ञान अलग क्वालिटी का होता है। जिस प्रकार यह लोक तीन वलयों पर आधारित है। इसके भार का वहन वे वलय ही ढोते हैं। उनके माध्यम से इसकी सुरक्षा है। उसी प्रकार इस शरीर का कोई संरक्षण हो रहा है, तो वह भी तीन बातों के ऊपर आधारित है-वात, पित्त और कफ। किन्तु यह ध्यान रखना, वात,पित्त और कफ को सामंजस्य में, अनुपात से बनाये रखने का श्रेय यदि किसी को जाता है, तो उसको टेम्प्रेचर कहते हैं। वात, पित्त और कफ के माध्यम से चलते तो हैं। लेकिन यदि उसमें टेम्प्रेचर उष्मा नहीं रहेगी, तो आपका शरीर समाप्त हो जायेगा। जैसे-जैसे टेम्प्रेचर बढ़ने लग जाता है, वैसे-वैसे यह शरीर भी हिलने लग जाता है। जैसे-जैसे घटने लग जाता है वैसे-वैसे ठण्डा होता चला जाता है। बोलना समाप्त हो जाता है, जब टेम्प्रेचर डाउन होने लग जाता है। और ज्यादा बढ़ जाता है तो ज्यादा बोलने लग जाता है। एक ही बात है, वह समन्वय किसके माध्यम से बनेगा तो उष्मा के माध्यम से बनेगा। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र लेकर बैठे रहो, तप के बिना कोई कार्य नहीं होता।


    तपसा निर्जरा च॥

    तत्त्वार्थसूत्र - ९/३

    तप के द्वारा निर्जरा का विकास होता है और जब तक निर्जरा तीव्रगति के साथ नहीं होती तब तक कार्य नहीं होता। मोक्ष प्राप्त करने से पूर्व जब केवलज्ञान को प्राप्त किया भगवान् ने, उस समय भी उन्होंने दो तप बहुत अच्छे ढंग से किये। पृथक्त्ववितर्कवीचार व एकत्ववितर्कअवीचार नामा, ये ध्यान तप के अन्तर्गत आ जाते हैं। तप का उपसंहार ध्यान में हुआ करता है। जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र की बात तो करते हैं, लेकिन तप से दूर रहना चाहते हैं। उसके लिए कहा जाता है-तुम्हारा काम पूर्ण नहीं हो सकेगा। मनोरंजन नहीं है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र, इन तीनों के माध्यम से आगे बढ़ना है।


    युवराज को रणांगन में ले जाने का प्रयास किया जाता है। और युवराज, तो युवराज होता है। लेकिन फिर भी एकदम रणांगन में नहीं ले जाते। पहले अभ्यास कराते हैं। बाद में रणांगन में ले जाते हैं। आगे-पीछे अंगरक्षक भी साथ होते हैं, उनको बचाने की अपेक्षा से, सुरक्षा की दृष्टि से, बीच में रखते हैं। लेकिन जब तक वह बीच में रहेगा युवराज कहलायेगा, राजा नहीं कहलायेगा। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को तुम रखते तो हो, लेकिन दहाड़ करके सामने नहीं आते, उससे कोई काम नहीं निकलने वाला। असंख्यातगुणी निर्जरा नहीं होने वाली। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र को तुम रखते हो जो तीन रूप में हैं, उनको एकमेक बनाने का श्रेय यदि किसी को जाता है, तो वह तप आराधना को ही प्राप्त होता है। ये तब तक बने रहेंगे, जब तक तप उद्दीप्त नहीं होता।


    मानली, आप लोगों के यहाँ कोई खाद्य पदार्थ, मीठा पदार्थ बन रहा है। हलुआ कहो या सीरा। उसमें क्या-क्या डाला जाता है ? आटा रहता है, घी रहता है। और क्या रहता है ? बूरा रहता है। अब इन तीनों को रख दो। साथ में पानी भी चाहिए, पानी भी रख दो। आटा, बूरा, घी और पानी रख दो तो हलुआ बन जायेगा ? नहीं, जब तक अग्नि देवता की आराधना नहीं होगी, तब तक ये तीनों अभेद रूप चरितार्थ नहीं हो सकते। जिस समय तप की अग्नि उसमें लग जाती है तब कहीं से भी, किसी भी पार्ट से निकाल कर देख लो न आटा आयेगा, न घी आयेगा, न बूरा आयेगा। सभी रग-रग में एक ही रूप हो गये हैं। तप एक प्रकार से रत्नत्रय को अभेद रूप प्रदान कर देता है। और अभेद रूप प्रदान करने से ही उस ज्ञान को विश्राम मिलता है। नहीं तो कभी श्रद्धान की ओर लुढ़क जाता है, कभी अधिगम की ओर लुढ़क जाता है। कभी रागद्वेष छोड़ने की ओर लुढ़क जाता है। छोड़ना तो है, महाराज छोड़ना जब तक है, तब तक तप काम नहीं करता। सब कुछ छोड़ने के उपरान्त शान्ति से बैठे रहें। तप रूपी अग्नि में जब उसको तपाया जाता है, तब कहीं जाकर वह इस रूप में आता है।


    अध्यात्मनिष्ठ योगियों के द्वारा यह जीव धनिक हो जाता है, यानि उसको तपाया जाता है। तप रूपी धौंकनी से ध्यानरूपी अग्नि में जीव रूपी लोह को रखकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्ररूपी औषध जब लगाते हैं, उस समय वह कंचनवत् बन जाता है। खान में स्वर्णपाषाण है। लेकिन वह कंचन का रूप क्यों नहीं प्राप्त कर पा रहा है? जब तक अग्नि का योग नहीं पाता है।

     

    इष्टोपदेश है ना, उसके दूसरे श्लोक में मंगलाचरण के उपरान्त योग्योपादान अर्थात् रत्नत्रय रूप स्वकाल माना है। अध्यात्म ग्रन्थों में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव का कथन है। काल क्या है? आचार्य कहते हैं-स्वकाल तो इसी का नाम है। काल कहने से घड़ी की ओर मत देखो। काल कहने से स्वकाल अर्थात् रत्नत्रय आदिक की योग्यता, यही स्वकाल है। इसके माध्यम से ही वह स्वर्ण बनने वाला है, ऐसा सुनार जान लेता है। पाषाण का टुकड़ा, जो कि स्वर्णमय है। उसको दिया गया। तो यूँ करता है पहले, देख लेता है। इसमें पाँच तोला सोना है और जबकि वह आधा किलो का पाषाण है। आधा किलो स्वर्णपाषाण है, और इसमें इतना ही स्वर्ण है, यह भेद कैसे हो गया? यह ज्ञान कैसे हो गया ? तत्व का अभ्यास करने से। इसी प्रकार आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, यह ज्ञान हो जाता है। लेकिन महसूस नहीं होता। इसको पृथक् करने की बात अलग है। वह सुनार के पास नहीं है। अनुपात में जब अग्नि का ताप दिया जाता है, तब वह स्वर्ण निकल आता है। उसमें से जो निकलता है वह सोलहवानी का स्वर्ण माना जाता है। सोलह बार उस धौंकनी के द्वारा विधिवत्तपाया जाता है, तब वह सौ टंच सोना हो जाता है। उसमें एक भी बट्टा अब नहीं रहा। जिस प्रकार स्वर्ण सारी की सारी किट्टिमा-कालिमा से दूर होकर शुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार

     

    पाषाणेषु यथा हेमं दुग्धमध्ये यथा घृतम्।

    तिलमध्ये यथा तैलं देहमध्ये तथा शिवम्॥

    क्या-क्या बातें कही गयीं हैं ? चार बातें कही हैं। जिस प्रकार पाषाण में हेम है। दूध में घी है। तिल में तैल है। उसी प्रकार इस देह में शिव यानि परमात्मतत्व है। लेकिन यह कहने मात्र से महसूस नहीं होता। दूध को चख लो, तो घी का स्वाद नहीं आता। दूध को सूघ लो, तो घी की गन्ध नहीं आती। दूध को छू लो, तो घी का स्पर्श नहीं होता। दूध को देख लो, तो घी नहीं दिखता। अब क्या करें ? दूध को फेंक दें ? फेंको नहीं। इस प्रकार उसमें रहकर भी घी नहीं दिखता। मात्र आस्था की आँखों से देखने में आता है। और बच्चों को नहीं दिखता। कम से कम आठ वर्ष की उम्र हो जाय, तब जैसा माँ कहती है, वैसा श्रद्धान कर लेता है। हमें दूध नहीं चाहिए, ऐसा कहता है।


    इसी प्रकार इस देह में आत्मतत्व-शिवतत्व है। उसका श्रद्धान किया जाता है। जिस प्रकार पाषाण में स्वर्ण का श्रद्धान किया जाता है। जैसे दूध में घी का श्रद्धान किया जाता है। इसी प्रकार दूध में घृत शक्ति रूप से विद्यमान है। क्योंकि उसके कुछ अलग लक्षण हैं। हम उसको एकदम हाथ डालकर निकालना चाहे, तो संभव नहीं हो सकता। कुछ लोग आठ-दस दिन प्रयास करते हैं, शिविर लगाते हैं, दशलक्षण पर्व का शिविर लग रहा है, चलो कुछ मिल जायेगा। उसके कुछ लक्षण तो आपको मिल सकते हैं। लेकिन प्रक्रिया की पूर्णता दस दिन में नहीं हो सकती। वैसे वह दस मुहूर्त में भी हो सकती है या अन्तर्मुहूर्त में भी हो सकती है और युगों-युगों तक बैठे रहो तो भी कुछ होने वाला नहीं है। कुछ लोग प्रतीक्षा में बैठे हैं, कि सम्यक्र आराधना का उद्भव होने वाला है। कुछ लोग जीवन के अन्त में तप की आराधना करना चाहते हैं। अरे, यदि जीवन के अन्त में तप की आराधना करना चाहोगे, तो प्रखर सूर्य तो रहेगा नहीं। वही सनसेट वाली बात है। सनराइज वाली बात है। बीच में सन आता है, वह छोटा नहीं रहता। सन माने लड़का भी होता है। इसीलिये तो हमने कहा-जिस समय राइज होता है, उस समय लड़का ही रहता है। और इधर भी देखो क्षितिज पर, तो वही लड़का बालभानु है। उसकी सभी लोग प्रशंसा करते हैं। आरती जब कभी भी करेंगे, तो उसी की करेंगे। हमने अभी तक मध्याह्न सूर्य को जलांजलि देने वाला कोई नहीं देखा। क्यों ? सही आराधना तो उनकी वही है, सुबह और शाम को देखो। सूर्य के पास क्या इतनी प्रखरता है ? क्या इतनी शक्ति है ? क्या इतना तेज है  ? अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। गर्मी के दिनों की बात अलग है। छोटा-सा लगता है, लेकिन जैसे-जैसे सूर्य ऊपर चढ़ता जाता है, वैसे-वैसे कितना प्रखर होता जाता है। आचार्यों ने कहा-अपने तप को प्रखर बनाने के लिए क्या करना चाहिए ? इन्द्रियविषयों की ओर दृष्टि चली गई, ध्यान चला गया, तो उसको कैसे मोड़ दें? जैसे प्रखर सूर्य की ओर भूल से मानो दृष्टि चली गई, तो यूँ कर देते हैं। उसी प्रकार बना जाये, तो समझ लेना कि तप अब प्रखरता की ओर है। यदि बालभानु को जैसे देखते हैं, उस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को लेकर पंचेन्द्रिय विषयों की ओर देखेंगे, तो वह प्रखर नहीं माना जायेगा। बालभानु और प्रौढ़भानु, दोनों एक होते हुए भी कार्य की विवक्षा से देखने पर बहुत अन्तर है। छह घंटे के उपरान्त वही बालभानु महान् ताप को उत्पन्न करने वाला बन जाता है। जब उसका तापमान ज्यादा बढ़ जाता है, तो उस समय पानी छूटने लग जाता है। देखो, बारह बजे शरीर में जो जल तत्व रहता है, बाहर की ओर आने लग जाता है। कितना ताप हो जाता है, कि भीतर का जल बाहर आ जाता है। इसी प्रकार आत्मा के प्रदेशों के साथ जो एक क्षेत्रावगाह को लेकर बंधे हुए कर्म हैं अर्थात् आत्मा के प्रदेशों में कर्म के प्रदेश, कर्म के प्रदेशों में आत्मा के प्रदेश एक दूसरे में घुल-मिल रहे हैं और स्थिति कषाय के द्वारा बंध जाती है, तब वे किसी भी प्रकार से बाहर आना नहीं चाहते। मत जाओ। लेकिन ताप के द्वारा अपने आप ही बाहर आ जाते हैं।


    जब किसी को बुखार चढ़ जाता है, मलेरिया का बुखार होता है, तो उसको तब तक आराम नहीं हेाता, जब तक कि पसीना नहीं आता। पसीना आते ही ऐसा आराम हो जाता है, कि जैसे कोई बुखार आया ही नहीं हो। उसी प्रकार तप के माध्यम से जब आत्मतत्व को तपाया जाता है, तो भीतर बैठे हुए जो कर्म हैं, वे सब भावों के द्वारा बाहर आ जाते हैं।


    तपसा निर्जरा च॥

    तप से वे पानी-पानी हो जाते हैं। लेकिन यह ध्यान रखना, स्वास्थ्य में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। वैज्ञानिकों का कहना है-परिश्रम का जल बहुत ही शुद्ध होता है। पीने के लिए नहीं कहा। लेकिन वह परिश्रम का जल, श्रम करने से निरोगधाम बन जाता है। इस शरीर के भीतर जो कूड़ाकचरा गया है वह तप के माध्यम से सारा का सारा बाहर आ जाता है। ज्यों ही तप को अंगीकार कर लेते हैं, त्यों ही कर्म हाथ जोड़कर सामने आ जाते हैं।


    स्वामी समन्तभद्राचार्य ने कहा-शान्तिनाथ भगवान् शान्त बैठे रहते हैं। ऐसा नहीं, उनकी भीतरी प्रक्रिया अलग है। जब दीक्षित हो, समाधि में लीन हो जाते हैं या समवसरण में विराजमान हो जाते हैं या धर्मचक्र, कर्मचक्र और देवताचक्र सभी पिघल जाते हैं, जब ध्यानचक्र में ज्यों ही चलाते हैं, वे सारे के सारे चक्र समाप्त हो जाते हैं। यह विशेषता है। पसीना लाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन, नहीं आता। कब तक नहीं आता ? जब तक भीतर तपन व घुटन नहीं होती। सूर्य बारह घंटे तक दिन में तो रहता है। लेकिन यदि गर्मी रात के बारह घंटे भी रह जाती है, तो देख ली सुबह-सुबह भी पसीना आना प्रारम्भ हो जाता है। यह दशा होती है। लेकिन बारह घंटे तक लगातार उस तपन को सहन करने की क्षमता धीरे-धीरे डाउन हो जाती है। उठाये तो उठ नहीं सकता। बैठाये तो बैठ नहीं सकता। बुलवाये तो बोल नहीं सकता। खिलाये तो खा नहीं सकता। कुछ अच्छा नहीं लग रहा। कैसे नहीं अच्छा लग रहा ? अच्छा इसलिए नहीं लग रहा, क्योंकि भीतर कोई गया है, उसे निकल जाने दो, तो सब अच्छा लगने लग जायेगा।


    स्वभाव का अनुभव इसीलिये नहीं हो रहा है। स्वभाव में वैभाविक भावों का मिश्रण हो चुका है। उस मिश्रण को हम किसी चालनी के द्वारा, छत्री के द्वारा रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा निकाल नहीं सकते। विज्ञान ने आज तक ऐसा कोई अविष्कार नहीं किया कि कर्म, जो आत्मा के साथ बंधे हुए हैं, उन्हें किसी रसायन के माध्यम से निकाल दें। आणविक शक्ति के प्रयोग भी कर ले एक साथ, जैसे जापान के ऊपर हुआ था। तो आज भी वहाँ पर अंकुर उत्पन्न नहीं हो रहे। जहाँ पर आणविक शक्ति का प्रयोग किया गया था, वहाँ राख जैसी जमीन हो गयी। वे सारे के सारे किसी एक व्यक्ति के ऊपर भी डाल दो, तो भी कार्मणशरीर का कुछ भी होने वाला नहीं। कौन-सी शक्ति होगी, आप सोच ली। शुक्लध्यान में ऐसी कौन-सी रसायन शक्ति है, जो अन्तर्मुहूर्त के प्रयोग से अनन्तकाल के घातिया कर्मों की धारा भी शान्त हेा जाती है। अनन्त काल में भी वह पुन: उग नहीं सकती। कितनी बड़ी शक्ति होगी ? उसको कैसे सहन करते होंगे ? देखो, जो बहुत शक्ति सम्पन्न या पावरफुल हो जाता है, वह बहुत सूक्ष्म हो जाता है।


    तपाने से कुछ थोड़ा-सा प्रभाव पड़ जाता है, कालिमा या धुंआधार जैसा रंग हो सकता है। इसी प्रकार की प्रक्रिया है, कि वह शरीर को ज्यों का त्यों रखते हुए भीतरी भाव को भी जलाता नहीं, बल्कि परम औदारिक शरीर बना देता है। और कार्मण शरीर को वह जला देता है। घातिया कर्म के रूप में जो कर्म थे, उनको तो उसने नष्ट कर दिया। अन्य शरीर को किसी प्रकार से क्षति नहीं पहुँचाई।


    ध्यान भी ऐसा ही होता है। जैसे जल को सुखाकर दूध को सुरक्षित रखा जाता है। तभी तो खोवा बनता है, पेड़ा बनता है। यदि आप दूध को तपाते-तपाते बाहर चला जाने दें, तो क्या होगा?


    तो आपका वह दूध ही जल जायगा। मात्र पानी जलना चाहिए। पहले तो वह लाल हो जायेगा, लाल क्यों हो गया ? तुम्हारे ऊपर लाल हो गया। हमें क्यों जला रहे हो ? और आप चले जायेंगे बाहर और वह जल जायेगा। बैठे रहियेगा। इसलिए केवलज्ञान खड़े होने या बैठने से होता है, घूमते-घूमते नहीं। जैसे आप इधर-उधर चले जाओ और चाहो दूध का खोवा बन जाय तो ऐसा संभव नहीं। सामने बैठिये और वहाँ पर ताप अनुपात से दीजिये। नीचे की अग्नि कम भी नहीं होना चाहिए। और ज्यादा भी नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार न तो आज तक केवलज्ञान स्वाध्याय करने से हुआ न ही विहार करने से हुआ और न ही उपदेश देते हुए और न ही अन्य कोई कार्य करते हुए आया। जब खड्गासन या पद्मासन से निश्चल होते हैं, उस समय यदि आप दूसरी प्रक्रिया को भी अपनाना चाहते हैं, शुक्लध्यान करके समुद्घात करना हो, तो वहाँ भी अन्तर्मुहूर्त में सीधा पहुँचा देता है, माल सहित। यह कौन सी प्रक्रिया है जिसको विश्व के किसी भी रसायन के माध्यम से हम नहीं कर सकते। अन्तर्मुहूर्त में शरीर भिन्न व आत्मा भिन्न।


    अनन्तगुणों के नाम को देख लो, जिस प्रकार आटोमेटिक मशीन के द्वारा कुछ वस्तुयें स्वत: निर्मित होती हैं, पेकिंग होती हैं, और निर्यात कर दी जाती हैं। उसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त के अन्दर आपके व्यक्तित्व को बिल्कुल पृथक् करके बाहर जो कुछ भी था, सबको एकदम ठीक कर देती है। यह कौन सी प्रक्रिया है ? रागद्वेष भीतर रहते हैं। बीच में एक छोटी-सी बात कहता हूँ, जिस व्यक्ति को ज्ञान नहीं होता वह व्यक्ति क्या-क्या सोच सकता है ?


    एक व्यक्ति हलवाई की दुकान पर आया। यह क्या है ? यह क्या है ? यह जलेबी है। अच्छा यह मुझे एक किलो दे दी। लेकिन यह बताओ यह कैसे बनायी गयी है ? इसमें रस कैसे भरा गया है ? दुकानदार बोला-इंजेक्शन के माध्यम से इसमें रस भरा गया है। अच्छा ऐसी प्रक्रिया है क्या? जिस व्यक्ति को निर्माण की प्रक्रिया ज्ञात नहीं होती, उस व्यक्ति के लिए कुछ भी कहा जा सकता है।


    आत्मा के साथ कर्म कैसे बंधते हैं ? यह जिसको ज्ञात हो जाय, तो वह इधर-उधर की बातों में नहीं आ सकता। और उनको निकालने की प्रक्रिया कैसी है ? इंजेक्शन देने से वह होने वाली नहीं। कोई भी इंजेक्शन का निर्माण कर दो उसके माध्यम से चार प्रकार के या आठ प्रकार के कमाँ का विनाश/निधन होने वाला नहीं है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से सब कुछ ठीकठाक होने वाला है। कैसा यह रसायन हो गया, शरीर कैसा चिपक गया औदारिकशरीर तो नष्ट हो सकता है, वैक्रियिकशरीर कथचित् नष्ट हो सकता है। कथचित् का मतलब अपने समय पर बिखर जाता है। लेकिन भीतर के कार्मण व तैजस जो अनादिसम्बन्धे च। अप्रतिघाते। हैं, कोई भी घात या प्रहार इनके ऊपर करो तो भी नहीं हो सकता। वज्र से भी कठिन और कठिनतम हैं। उनका भी अन्तर्मुहूर्त में ही क्या परिणाम होता है ? अन्तर्मुहूर्त में सारा का सारा बिखर जाता है। वह कौन-सा ध्यान है ?


    उन परमात्माओं को हम बार-बार नमस्कार करते हैं, जिन्होंने ध्यान रूप अग्नि के द्वारा अपने आत्मतत्व को तपा दिया। ऐसा तपा दिया, कि एक तरफ वह मटेरियल हो गया और एक तरफ वह आत्मतत्व हो गया, अन्तर्मुहूर्त में। अनन्तकाल तक कोशिश करने पर अभी तक नहीं हुआ था, वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व सम्यक्र तप की यह ऐसी प्रक्रिया है, आस्था के बिना ज्ञान समीचीन नहीं। ज्ञान के बिना चारित्र समीचीन नहीं। इन तीनों के समीचीन होने के बाद भी इनमें प्रबलता/प्रौढ़ता नहीं आती। सम्यग्दर्शन के द्वारा निर्जरा हो सकती है। सम्यग्दर्शन के द्वारा ही असंख्यातगुणी निर्जरा हो जाती है। सम्यग्दर्शन के द्वारा ही सभी भंग घटित हो जायें, तो संयमासंयम के द्वारा क्या होता है ? कई लोगों की धारणा, कई लोगों की भावना समझ में नहीं आती। केवल अकेले सम्यग्दर्शन के द्वारा यदि निर्जरा होती है, तो मानना पड़ेगा कि छोटा सम्यग्दर्शन भी होता है और बड़ा सम्यग्दर्शन भी होता है। संभव है, चतुर्थ गुणस्थान में बालकवत् सम्यग्दर्शन रहता है, वही पंचमगुणस्थान आने पर नौ बजे का हो जाता है, फिर सकल संयम ले लेता है तो बारह बजे का होता होगा। अन्यथा असंख्यातगुणी निर्जरा कैसे बनी ? चारित्र के द्वारा आपके यहाँ निर्जरा तो है ही नहीं। सम्यग्दर्शन एक बार हो गया सो हो गया। उसमें विकास नहीं होना चाहिए।

     

    थोड़ा-सा विचार करने से, थोड़ा-सा चिन्तन करने से भी ज्ञात हो सकता है, कि सम्यग्दर्शन की प्रौढ़ता यदि बढ़ रही है, तो वह किसके माध्यम से ? यदि नहीं बढ़ रही है, तो निर्जरा क्यों बढ़ रही है ? ये दो बातें पूछ लो, तो अपने आप ज्ञात हो जायेगा। लेकिन पक्षपात ही ऐसा है कि सम्यग्दर्शन से राग व सम्यक्चारित्र से द्वेष हो गया, ऐसा लगता है। बहुत समय से स्वाध्याय करने से ही ऐसा लगता है। लेकिन यह ध्यान रखना, एक के प्रति राग व एक के प्रति द्वेष होने से ही पक्षपात होता है। और यदि पक्षपात हो जायेगा, तो वह कभी भी संसार से मुक्त नहीं हो सकता। निष्पक्ष व्यक्ति ही मुक्त हो सकता है। अन्यथा संभव नहीं।


    सम्यग्दर्शन के प्रति तो आस्था बननी ही चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन उसी को सर्वे-सर्वा मान बैठना, एक प्रकार से सम्यग्दर्शन के यथार्थ सिद्धान्त से दूर होना है। क्योंकि स्वरूपविपर्यास इसी को कहते हैं। निर्जरा तत्व का यदि कोई आधार है, तो केवल सम्यग्दर्शन है, ऐसा कहेंगे, तो उमास्वामी महाराज, अमृतचन्द्र महाराज, जयसेन महाराज और भी जितने महाराज हैं, वे सारे के सारे उस व्यक्ति को स्वरूपविपर्यासी कहेंगे। अब सोच लो, अपने आप स्वाध्याय करने से यह परिणाम निकला। कुछ बड़ों से पूछा करो।

    उसी से तो हम पढ़ते हैं। पढ़ते तो हैं, लेकिन अर्थ तो अपने दिमाग से निकाल लेते हैं। अपने आप अर्थ मत निकाला करो। चार-चार, आठ होते हैं, कभी बारह बना दो, तो नहीं। प्रक्रिया समझो। इसलिए समझना चाहिए, कि किसी एक के रहने से स्वरूपविपर्यास होने में देर नहीं लगेगा। स्वरूपविपर्यास इसी को बोलते हैं। जो असंख्यातगुणी निर्जरा हो रही है, वह सब सम्यग्दर्शन की देन है। तो सम्यक्चारित्र ने यहाँ पर क्या काम किया बताओ ? उसके साथ स्वयं ही वह हो जाता है। हो जाता है, सही है। लेकिन असंख्यातगुणी निर्जरा कम क्यों थी ? या तो चारित्र के द्वारा बढ़ गई अथवा सम्यग्दर्शन प्रौढ़ हो गया, यह मानना ही पड़ेगा। या तो सम्यग्दर्शन के भेद-प्रभेद मानो अथवा सम्यक्चारित्र के लिए श्रेय दो। अथवा सम्यग्दर्शन में प्रौढ़ता कैसे आई ? चारित्र के द्वारा आई, यह मानो। तीन बातें हैं, तीन सौ बातें तो हैं ही नहीं।


    केवलज्ञानी कहते हैं-प्रत्येक बात को खुलासा करने के लिए प्रश्न उठाना चाहिए। ऐसा तार्किक प्रश्न उठाना चाहिए, कि सामने वाले व्यक्ति को हूँ कहना ही पड़े। तीन में से क्या मानना चाहोगे ? कहो, सम्यग्दर्शन को छोटा-बड़ा मानना चाहते हो, तो आगम से ही विरोध आ जायेगा। यदि फिर भी मानते हो, तो कोई बात नहीं। वह बड़ा क्यों हुआ ? अपने आप क्यों नहीं हुआ ? पूर्वकोटि वर्ष तक सम्यग्दर्शन के साथ रहा, उसमें असंख्यात-गुणी निर्जरा बड़ी क्येां नहीं ? और अन्तर्मुहूर्त में संयमासंयम के द्वारा बढ़ी क्येां ? इसलिए स्पष्ट हो जाता है, कि कोई अद्वितीय शक्ति है, जो रत्नत्रय को प्रौढ़ता की ओर ले जाने की क्षमता रखती है। और वह तप के पास विद्यमान है।

     

    कोई संदेह नहीं। कार्य को देखकर कारण का अनुमान और कारण को देखकर कार्य का अनुमान किया जाता है। यदि यह प्रक्रिया अपने जीवन में आती है, तो स्वरूप–विपर्यास कोई वस्तु नहीं। जिसका जो रूप है, उसको उसी रूप में मानना चाहिए। ऐसे ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा ध्यान करके वे ध्याता लोग परमात्मपद को प्राप्त हो जाते हैं। कर्मकलक सबै दहे कर्म रूपी कलक को दग्ध कर देते हैं। स्वर्ण पाषाण को दग्ध करो, तो पाषाण जल जायेगा। स्वर्ण व ज्ञानी की पहचान के लिए एक उदाहरण देकर कुन्दकुन्दाचार्य ने संवराधिकार में दो गाथायें कही हैं।


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    ज्ञानी ज्ञानपने को कभी भी नहीं छोड़ता, चाहे कर्म रूपी अग्नि के द्वारा तपता चला जाये। कमों के उदय आते हैं, तब ऐसा लगने लग जाता है, कि कैसे बचेगा यह जीवन ? लेकिन अजरअमर आत्मतत्व के ऊपर श्रद्धान रखने वाला व्यक्तित्व कमाँदय को गौणकर जाता है। और मौन ले लेता है। स्थिति ऐसी आ जाती है, कि कर्म तो दग्ध हो जाते हैं और आत्मा कंचन के समान रह जाता है। जितना भी आप तपाओ कंचन को, वह और निखरेगा, खरा उतरेगा। स्वर्ण को कैसे कसते हैं ? पाषाण की कसौटी होती है। उसके ऊपर कसते हैं। उसको तोड़ते हैं। उससे भी ज्ञान कर लेते हैं। उसको यूँ-यूँ करते हैं, तोलते हैं, तो उससे भी ज्ञान कर लेते हैं। और सही सौ टंच सोने की जांच करना चाहो, तो उसको तपा देते हैं। इससे सारा का सारा मल निकल जाता है। और स्वर्ण शुद्ध हो जाता है। इससे भिन्न अज्ञानी राग को ही अपने आत्म रूप में मानता चला जाता है। वह राग, द्वेष व मोह से प्रभावित होता है। इसलिए वह कभी भी स्वर्ण के समान नहीं बन पाता। वह कर्म बंध को ही निरन्तर प्राप्त करता चला जाता है।


    तप की महिमा तीन लोक में अनूठी मानी जाती है। जिस रसायनशास्त्र के द्वारा इस आत्मतत्व व जड़ तत्व को पृथक् नहीं किया जा सकता, तो फिर उस रसायनशास्त्र से क्या मतलब? पाषाण से तो स्वर्ण को पृथक् कर लिया गया, अग्नि के द्वारा। लेकिन इस सामान्य अग्नि के द्वारा कर्म व आत्मा को कभी पृथक् नहीं किया जा सकता। दूसरी बात एक और है, जब परिणामों की बात आती है। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन के काल में जीव का कभी भी अकालमरण नहीं हेाता। कभी का मतलब उस समय में मरण नहीं बताया। उस गुणस्थान से या तो वह ऊपर जाय या नीचे जाय, तब मर सकता है। अन्यथा उस चतुर्थ गुणस्थान में, जब उपशम सम्यग्दर्शन के काल में रहता है, उस समय उसका मरण नहीं हो सकता। इसका अर्थ यह हो गया, कि कदलीघात के योग्य उस समय उसका शरीर नहीं रहता, यह मानना पड़ेगा। इतने अल्पकाल में वह मरण को प्राप्त नहीं हो सकता। कैसे कितने भी बड़े लोहधन को ले आओ। लोहे का एक पाटा रखो और उसके ऊपर हीरे की कणिका को रखो और हीरे के ऊपर घन पटक दिया, अब तो हीरा चूर-चूर होना चाहिए। लेकिन वह चट से बाहर चला जाता है। और हँसता रहता है। तुम पचासों बार प्रहार करो, तो भी मेरे ऊपर कोई चोट नहीं पड़ने वाली है।


    वह कैसा रसायन है ? हीरे की कणिका में ऐसा कौन-सा बंध हुआ ? परंपरं सूक्ष्मम् पढ़ा था आपने। कब पढ़ा था ? पर्व के दिनों में पढ़ा था। दूसरे ही दिन परंपरं सूक्ष्मम् कहा। लेकिन प्रदेश तो वह मिट्टी की ढेली नहीं है। वह रसायन की गुठली नहीं है। वह लोहे का टुकड़ा नहीं है। वह कोई रसायन की प्रक्रिया नहीं है। वह हीरे की कणिका है। क्या कहते हैं ?


    पर्वतों के ऊपर भी ऐसा वज्रपात हो जाता है,तो वे टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। लेकिन वह उस समय शरीर पर कथचित् प्रहार हो सकता है। असातावेदनीय की छठवें गुणस्थान तक ही उदीरणा मानी गई है। अप्रमत्त अवस्था ज्यों ही हो जाती है, उस सर्कल में कोई भी नहीं आ सकता। उस रेंज में कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता। आप लोगों ने सुना होगा, एक दरवाजा होता है। लेकिन हवा के भी दरवाजे होते हैं। वहाँ ताले की कोई आवश्यकता नहीं होती। खुला रखिये आप। चारों ओर अपनी बहुमूल्य वस्तुयें रखिये और बटन दबाकर हवा के डोर को तैयार कर दीजिए। कुछ नहीं होगा। ऐंगल से ऐसी जोर की हवा चलना प्रारम्भ हो जाती है, कि उस स्थान पर कोई भी नहीं जा सकता। संभवत: गोली भी बाहर आ जाये। कोई वहाँ पर घुस नहीं सकता। हाथ जा नहीं सकता। कोई प्रयास करे, तो उसे बाहर ढकेल दे। वह कह दे-भैया, यहाँ पर भूत बैठा है। जबकि भूत वगैरह कुछ नहीं है। क्योंकि उसमें हवा ही वैसी दी जाती है। उसी प्रकार सप्तम गुणस्थान में एक डोर (गुप्तियां) आ जाती हैं। उससे वह पैक हो जाता है। महाराज आगे कुछ भी हो, उस स्थान में जब तक रहेगा, तब तक कुछ भी नहीं होता। साता का ही आस्रव होता है। और साता का अर्थ होता है रक्षा ।


    छठवें गुणस्थान में साता भी रह सकता है और असाता भी रह सकता है। किन्तु असाता सप्तम गुणस्थान में नहीं पहुँच सकता। सप्तम गुणस्थान में असाता का उदय रह सकता है। लेकिन बंध साता का ही होगा। देखो, भगवान् ने हम लोगों के लिए कैसा पथ दिया है, कि आयुकर्म की उदीरणा छठवें गुणस्थान तक ही होती है। असाता की उदीरणा भी छठवें गुणस्थान तक ही होती है। भूलकर के नीचे आओगे तो संभव है, कि आपत्ति आये। और ऊपर ही बैठे रहोगे, तो चैलेंज है वहाँ कोई नहीं आ सकेगा। अब नमोऽस्तु करके दूर-दूर से चले जायेंगे। कोई छू नहीं सकता। यह स्थिति है। कोई बाधा आ नहीं सकती। जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते चले जाते हैं, तप की ऐसी अग्नि धधकने लग जाती है, कि वहाँ पर कोई भी सामने नहीं आ सकता।


    सूर्य को दूर से देखो आँख बंद कर लेंगे। क्योंकि वह सर्चलाइट है। उसे कोई नहीं देख सकता। वज्र के प्रहार के माध्यम से बहुत-सी चीजें छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। लेकिन वज्र छिन्न-भिन्न नहीं होता। काँच में जहाँ चाहे वहाँ वज्र की लकीर थोड़ी-सी खींच लो, वह टूट जायेगा। जितना चाहें, उतना टूट जायेगा। जिस नाप से तोड़ना चाहे, उस नाप से टूट जायेगा। मात्र एक लाइन खींचने की आवश्यकता है। ज्यादा आवश्यकता नहीं। जैसे आप बरफी के ऊपर खींचते हैं ना, चम्मच से। उसी प्रकार ध्यान में भी ऐसी शक्ति है। उस शक्ति के माध्यम से बड़े-बड़े कर्मों का क्षय हो जाता है। तप के लिए बहुत हिम्मत और ताकत लगानी पड़ती है। जितनी बड़ी-बड़ी चीजें होती हैं, उनके लिए उतनी ही बड़ी राशि की आवश्यकता होती है। कोई मुनिधर्म धारण करना चाहे, शुक्लध्यान करना चाहे, तो उसे बड़ी राशि लगाना पड़ेगी। पूरी राशि लगाये, तो वह मिल सकता है। पूरी राशि लगाये और यह संकल्प ले ले, कि हमें इस राशि की कोई आवश्यकता नहीं है।

    मोह के कारण वह शक्ति उत्पन्न नहीं हो पा रही है। मोह जहाँ समाप्त कर दिया, बस फिर रास्ता चालू हो गया। ऐसा तप होता है। भगवान् महावीर ने ऐसा ही तप किया। हमारे लिए भी कुछ दे दें,ऐसा कह सकते हैं आप। हाँ, उपदेश तो दे सकते हैं। लेकिन तप देने की चीज है ही नहीं, लेने की चीज है ही नहीं। वह तो भीतर से प्राप्त करने की चीज है। जितनी हार्स पावर की मशीन आपके पास होगी, उतना ही विद्युत उत्पादन उससे होगी। यही है ना ? हाँ, जितनी हार्सपावर की मशीन होगी, उतनी ही विद्युत जनरेट कर देगी। उसी प्रकार आप लोगों को चाहिए, आज सम्यक्र तप है। उत्तम तप है। आप को भी ऐसी जनरेटर खरीद लेना चाहिए। ऐसा नहीं, कि बिल्कुल जीरो वाट पर जलाओ। सर्चलाइट लग जाय और सारे के सारे लोग उसमें प्रकाशित हो जाये।


    महाराज बहुत खर्चा लगता है। आप उत्पादन करने वाले हैं, खर्चे से क्यों डरते हो ? जितना खर्च करोगे, उससे कई गुणा उत्पादन और होगा। महाराज! हम लाइट जलाये और उससे दूसरे लोग लाभ लेने लगें तो ? ऐसी कृपणबुद्धि वालों को लाइट का प्रकाश नहीं मिलता। अरे, वह लाइट प्रकाशित करने के लिए है। स्व और पर के प्रकाश के लिए ही है। उन लोगों को भी इस प्रकाश को देखने से भाव उत्पन्न हो सकता है, कि मेरे भीतर भी ऐसा ही प्रकाश हो।


    एक बात और मैं कहना चहता हूँ- कृष्ण जी जब रुक्मणी को लेकर जा रहे थे, साथ में समुद्रविजय, जो रुक्मणी के भाई थे, थे। रिश्ता-फिस्ता हमें याद नहीं रहता, भैया! तो रुकमणि सोचती है, कि भैया आ गये अब तो कृष्ण जी का कुछ बचने वाला नहीं। अब क्या करूं ? हे भगवन्! रुक्मणी को ऊपर-नीचे होते देखकर उस समय विश्वास दिलाने के लिए कृष्ण जी क्या करते हैं ? अपनी अंगूठी में जो हीरे का नग था, उसको अंगूठे व तर्जनी के मध्य से यूँ निकाल दिया। और उसे यूँ-यूँ मसल दिया, तो वह बिल्कुल आटा बन गया। जो एक घन के द्वारा चूर नहीं हुआ, वही अंगूठे व तर्जनी के द्वारा यूँ-यूँ करते ही चूर-चूर होकर नीचे गिर गया। नकली हीरा हेागा। नकली नहीं, असली नग और संहनन था। इससे नारायण के बल की पहचान हो जाती है। कि हाँ, अब कोई चिन्ता नहीं, विश्वस्त हो गई रुक्मणी। महिलायें जल्दी विश्वास नहीं करती। सम्यग्दर्शन के बारे में उनको क्षायिक सम्यग्दर्शन इसीलिये नहीं बताया, लगता यही है। परन्तु पुरुषों के लिये सम्यग्दर्शन बहुत जल्दी होता है। नहीं समझे। सौधर्म इन्द्र तो वहीं बना रहता है, और चालीस नील की संख्या में शचियाँ पार हो जाती हैं। क्या अर्थ निकला ? अर्थ यह निकला, कि आत्मा की शक्ति का उद्घघाटन किस पर्याय में, किस ढंग से होता है, कोई कुछ नहीं कह सकता ?


    इन उदाहरणों से यह ज्ञात होता है कि आत्मा के पास अनन्तशति है। मोह के कारण अनेक पर्यायें बदलती रहती हैं। अभिमान के कारण जो पर्याय अच्छी मिली, वह भी धूमिल हो जाती है, नष्ट हो जाती है। पुरुष पर्याय हो या स्त्री पर्याय हो, कोई भी हो। मोह से जो आहत हैं, वे निश्चित रूप से ऐसे ही कर्मों का संपादन करते रहेंगे। पर्याय नहीं, आत्मतत्व, ध्रुवतत्व को देखने की आवश्यकता है। इसी में से ऐसी पर्यायें उत्पन्न होती हैं, यह ध्रुवतत्व का अवलोकन करने से ज्ञात हो जाता है, विश्वास हो जाता है।


    इधर आण्विक शक्ति के द्वारा भी कोई विस्फोट नहीं हो सकता। घन के द्वारा हीरा कणिका नहीं टूटी। लेकिन तर्जनी और अंगूठे से चूर-चूर हो गई। कर्मों की भी यही प्रवृत्ति होती है। वज्रवृषभनाराच संहनन से कर्म खिसकते चल जाते हैं और इसी संहनन के माध्यम से आर्तध्यान और रौद्रध्यान किया जाता है, तो आत्मा का अहित हो जाता है। और धर्मध्यान व शुक्लध्यान किया जाता है, तो आत्मा अन्तर्मुहूर्त में ऊपर उठ जाता है। अनन्तकालीन बंध भी समाप्त हो जाता है।

     

    अनादिसम्बन्धे च॥ अप्रतिघाते॥

    तत्त्वार्थसूत्र – २/४१, ४०

    दूसरा कोई पदार्थ नहीं, जो कर्म का प्रतिघात कर सके। लेकिन आत्मा जो अन्तर्मुहूर्त में निर्माण करता है, वही उसे खाक भी कर सकता है। अन्तर्मुहूर्त की देरी है। सत्तरकोड़ाकोड़ी स्थिति को बांधने वाला कोई व्यक्ति है, उसके साथ तो सारे के सारे अशुभ कर्म बंध रहे हैं। प्रथम गुणस्थान और कृष्ण-नील लेश्या के साथ तीव्र परिणामों की बात है। किन्तु उसे अन्तर्मुहूर्त नहीं लगा, कि अन्त:कोड़ाकोडी में आ जाता है। थोड़ी-सी आँख खोल देता है और सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। कुछ प्रकृतियाँ तो आँख खोलने के पहले ही कहने लग जाती है-भाई साहब, हम जाने के लिए तैयार हैं। हमारे भैया को तो आपने भेज दिया। बड़ा भैया तो चला गया, अब हम कहाँ चले जायें? दर्शनमोहनीय बड़ा है, चारित्रमोहनीय छोटा। छोटा पीछे से जाता है, यह सिद्धान्त है। छोटे भैया को अगुवा बनाना चाहते हैं आप। किन्तु वह बाद में जाता है। कई लोग कहते हैं-सम्यग्दर्शन की पहले बात करो। लेकिन दर्शन मोहनीय को भी समाप्त करने की बात करो। बड़े भैया को पीछे रखकर अनन्तानुबन्धी पहले चली जाती है। बाद में जो शेष रह गयी, वे भी जाती हैं। उत्पाद, व्यय और धौव्य रूप द्रव्य का परिणमन लगा ही रहता है। लेकिन धन्य हैं वे योगी लोग जिन्होंने वस्तु के परिणमन को जाना, और तप को अंगीकार कर उत्तम तपधर्म को धारण किया। उसके माध्यम से अपने आपके स्वरूप को पा लिया। आज धूप दशमी है, आप लोग धूप खेते हैं। आप लोग धूप खेकर सुगन्धि बिखेरते हैं, लेकिन उत्तम तपधर्म को स्वीकार करने वाले महामुनि प्रतिदिन तपाग्रि में कर्म रूपी धूप को जलाते हैं और अपनी आत्मा को सुगन्धित करते जाते हैं। मैं भी आत्मतत्व को सुगन्धित करना चाहता हूँ। आत्मतत्व को पाना चाहता हूँ। धन्य हैं ऐसे मुनिराज, जिन्होंने उत्तम तपधर्म के माध्यम से अपने आपको जाना। ऐसे मुनिराजों को बारम्बार नमोऽस्तु करता हूँ।


    अहिंसा परमो धर्म की जय...


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    Samprada Jain

      

    ???

    तप के बिना रत्नत्रय उपयुक्त फलदायी नहीं।

     

    इस प्रवचन जी को साझा करने के लिए बहुत बहुत आभार!

     

    ~~~ णमो आइरियाणं।

     

    ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा!

    ~~~ जय भारत!

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    Padma raj Padma raj

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    तप तो  मनुष्य गति  मे  अनिवार्य है ।

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    रतन लाल

       2 of 2 members found this review helpful 2 / 2 members

    कर्मों की निर्जरा ही तप है।

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