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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 18 - स्वाभिमान करो अभिमान नहीं

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    दु:खियों को देखकर कभी भी किसी को अभिमान नहीं होता। अभिमान वहाँ होता है जहाँ हम अपने स्वभाव से च्युत हो जाते हैं। जहाँ जितना परिचय होगा वहाँ उतना ही अधिक संघर्ष होता रहा है। भगवान् को देखकर कभी किसी को अभिमान नहीं होता, अपितु अहंकार चला जाता है, और वस्तुत: अहंकार को चकनाचूर करना ही भगवान् की सही उपासना करना है। अहंकार मत करो चाहे महल हो या झोपड़ी किसी का अभिमान मत करो क्योंकि ये दोनों छूटने वाले हैं फिर अभिमान किसका करना यह आदमी अपनी मान प्रतिष्ठा के लिये अपना और दूसरों का शिकार करता है यानि अहंकारी अपना और पराये का विनाश करता है अहंकार मत करो यह प्रतिष्ठा किसके लिए, कल मर जाओगे कुछ भी साथ नहीं जायेगा ये झूठे अहंकार के लिये क्यों अपना माथा काट रहे हो। दरिद्रता में कभी अहंकार नहीं होता, अहंकार वहाँ ही जन्म लेता है जहाँ धन-दौलत की धनाड्यता होती है।

     

    दुनियाँ में सबसे अधिक अनर्थ, पाप अहंकार के कारण ही होता है। आज दुनियाँ में जो संघर्ष छिड़ा है वह अहंकार का तमाशा ही है और कुछ नहीं आज जितना धन सौरमण्डल की खोजों में खर्च किया जा रहा है उससे विश्व की तीन वर्ष तक की खुराक की पूर्ति की जा सकती है। अहंकार झूठा है, यदि हम दीन-दुखियों के बारे में सोचना प्रारंभ कर दें तो हमको अहंकार नहीं हो सकता हम अपने समान वालों के बारे में सोचते हैं। एक धनी, धनी के बारे में सोचेगा तो निश्चित ही वहाँ अहंकार का ही कार्य होगा, दुखियों के बारे में सोची, गरीबों के बारे में सोची, दरिद्रों के बारे में सोची, तुम्हारा अहंकार मर जायेगा, अहंकार को जीतना ही मनुष्य जीवन की सफलता है। अपने अहंकार, मान, प्रतिष्ठा के कारण हमने बहुत सारे गुणों का अनादर किया। अहंकारी व्यक्ति गुणों का सम्मान नहीं कर सकता, अहंकारी अपने जीवन को छोड़ देता है लेकिन अहंकार नहीं छोड़ता। रावण अहंकार के कारण ही नरक गया। याद रखो, यदि हम अहंकार करते हैं तो हम भी रावण से कम नहीं और हमारी गति भी नरक गति हो सकती है।

     

    अहंकार करना छोड़ दो अनर्थ अपने आप छूट जायेगा। तत्वज्ञान का सम्मान करो, ज्ञानी का सम्मान करो, अज्ञानी का सम्मान मत करो क्योंकि ज्ञानी का सम्मान करने से बहुत से अज्ञानी ज्ञानी बन जाते हैं जबकि अज्ञानी का सम्मान करने से उस अज्ञानी का अहंकार उसके लिए पतन का कारण बन जाता है इसीलिए तो अपने धन का घमण्ड मत करो अपनी जाति का घमण्ड मत करो। जिसका तुम घमण्ड कर रहे हो यह मद का विलोम ही दम होता है याद रखो मद के कारण ही दम घुटता है तुम्हारा दम घुट रहा है क्योंकि तुम मद कर रहे हो, मद करना छोड़ दो दम घुटना बंद हो जायेगा।घमण्ड करने वाले अन्धे होते हैं तुम्हारे पास ज्ञान की आँखें है उस ज्ञान की आँखों से देखो अहं धन, दौलत, रूप, बल, जाति, वंश किसी का भी अहंकार मत करो अहंकार से जीवन का पतन होता है यदि तुम अपना उत्थान चाहते हो तो दूसरों का सम्मान करना प्रारंभ कर दो।

     

    जीवन में दूरदृष्टि की आवश्यकता है दूरदर्शन की नहीं। दूरदर्शन से आँखें खराब होती हैं जबकि दूरदृष्टि से मानसिकता का विकास होता है आज हम दूरदर्शन के आदी होते जा रहे हैं जबकि हमको दूरदृष्टि को मजबूत करना है। जिसके पास दूरदृष्टि है वही आत्मा को समझ सकता है दूरदर्शन में तो दुनियाँ की खबरें है आत्मा की नहीं। आज हमको इस बात की आवश्यकता है कि हम अपनी दृष्टि को उन्नत दृष्टि बनायें यानि हम अन्तर्मुखी बनें। मनुष्य को तो दूरदृष्टि वाला होना ही चाहिए क्योंकि मनुष्य मनु की सन्तान है मनुष्य को मनु के अनुसार चलना चाहिए। मनु मान नहीं करते वह तो मान सम्मान सिखलाने वाले होते हैं हम मनु को भूल गये हैं इसीलिये मान करने लगे अत: हमको किसी भी कीमत पर मान (घमण्ड) नहीं करना चाहिए।

     

    आप अपनी पेटी नहीं पेट भरो। पेट तो आधे घण्टे में भी भर सकता है जबकि पेटी जीवनभर में भी नहीं भर सकती आज हम अपनी पेटी के चक्कर में लगे हैं इसलिए हम अपना पेट नहीं भर पा रहे हैं। पेट पापी नहीं है, पेटी पापी है क्योंकि आदमी पेट के लिये कम पेटी के लिये अधिक पाप करता है। आज की दुनियाँ में पेटी भरने के लिये ही लोग पाप कर रहे हैं। यह कौन सा जमाना है कि लोगों की पेटियाँ लबालब भरी हैं लेकिन पेट खाली है। पेट भरने वालों ने लोगों का पेट खाली किया है। अपना पेट भरो पेटी नहीं।

     

    भारत की संस्कृति अहिंसा है और उस संस्कृति की रक्षा अहिंसा से होगी साहित्य से नहीं। आज साहित्य का प्रकाशन एवं संरक्षण तो कर रहे हैं लेकिन जिससे हमारी संस्कृति जिन्दा रहने वाली है उसको हम भूलते जा रहे हैं। अहिंसा को भूलकर अकेला साहित्य क्या करेगा। आखिर हमारा साहित्य भी तो इसीलिए है कि हम हिंसा को छोड़कर अहिंसक बनें, साहित्य अहिंसा ही तो सिखलाता है। भारतीय साहित्य यह कभी नहीं कहता कि तुम हिंसा करो, वह तो अहिंसावादी है। क्योंकि उसका सृजन अहिंसकों के द्वारा हुआ है हिंसकों के द्वारा नहीं। जब हमारा साहित्य अहिंसावादी है, हमारी संस्कृति अहिंसावादी है तो फिर हमारी सरकार अहिंसावादी क्यों नहीं बन रही है? कत्लखाने खोलना, मांस निर्यात करना, यह कहाँ तक उचित है अहिंसक भारत के लिए? भारत की शान मांस निर्यात करने में नहीं है, भारत का गौरव, भारत की प्रतिष्ठा, भारत की विजय मांस निर्यात करने में नहीं है, कत्लखाने खोलकर खून, मांस बेचकर क्या हम विश्वशांति ला सकते हैं? हमें विश्व शान्ति की आवश्यकता है कत्लखानों की नहीं।

    Edited by admin


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