Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 22 - सत्य धर्म

       (2 reviews)

    आज पर्व का पंचम दिन है। आचार्यों ने धर्म की परिभाषा कई प्रकार से की है। रत्नत्रय को भी धर्म कहा है, कहीं 'अहिंसा परमो धर्म:' और कहीं ‘वत्थु सहावी धम्मो'। आज हम सत्य के बारे में कुछ खोज करें। सत्य का मतलब वह जो सन्तोष दिलावे। सत्य के सन्निकट जाने वाला व्यक्ति उस प्रकार अनुभव करे, जिस प्रकार प्यासा व्यक्ति पानी का स्थान जानकर अनुभव करता है। यद्यपि पानी की प्राप्ति हुई नहीं है, पर वह यह अनुभव कर लेता है कि अब प्यास ज्यादा देर तक नहीं रहेगी। सत्य जहाँ है, वहाँ आनन्द के अनुभव का पार नहीं है, सभी चिन्ताएँ आकुलताएँ समाप्त हो जाती हैं। हम सुखेच्छु हैं और चाहते हैं कि दुख का अभाव हो। साधक को सत्य के बारे में मालूम हो जाता है तो वह अपने आपको धन्य समझने लगता है। जहाँ सत् है वहीं सत्य है। जहाँ सत्य है, वहाँ सभी सुख विद्यमान हैं। जहाँ सुख है, वहीं पर सत्य है। रात दिन पल-पल सत्य का अवलोकन करने वाले योगी राज होते हैं। सत्य इस मनुष्य का केन्द्र बनना चाहिए। पंखे पर किनारे में रखी वस्तु इधर उधर गिर जाएगी और केन्द्र में (बीच में) रखी स्थिर रहेगी। सत्य तीन भागों में विभक्त है उत्पाद, व्यय, श्रीव्य के रूप में ‘उत्पादव्ययश्रीव्ययुक्सत्। तीनों मिलकर सत् है। आप चाहते हैं वर्तमान काल बना रहे, यह तीन काल में नहीं हो सकता। आप के पास दस लाख रुपया है आप उसको स्थिर रखना चाहते हैं,

     

    यही चेष्टा दुख का कारण है। कहा है-

    आकाश सदृश विशाल, विशुद्ध सत्ता,

    योगी उसे निरखते, वह बुद्धिमत्ता।

    सत्यं शिवं परम सुन्दर भी वही है,

    अन्यत्र, छोड़ उसको सुख ही नहीं है ॥

    मनुष्य पर्याय बुलबुले के समान है, योगी उसके साथ-साथ मिटने का भी आनन्द लेते हैं। सत्य उत्पाद में भी है, व्यय में भी है और श्रौव्य में भी है। पर्याय में सुख नहीं है। पर्याय में जो उत्पत्ति हो रही है, उसमें सुख का अनुभव हो रहा है। प्राय: पुण्य का उदय आने पर मुख कमल खिल जाता है, जब असाता का उदय आता है, तब जैसे सूर्य का उदय न होने पर कमल मुरझा जाता है इसी प्रकार मुख मुरझा जाता है। दरिद्र हो जाता है। वह भूलता है कि-

     

    आता यदि उदय में वह कर्म साता,

    प्राय: त्वदीय मुख में सुख दर्प छाता।

    सिद्धान्त का इसलिए तुझको न ज्ञान।

    तू स्वप्न को समझता असली प्रमाण ॥

    सत्य को अगर भूल जाओगे और मात्र उत्पाद या व्यय या श्रौव्य को पकड़ लोगे तो दुख का अनुभव करोगे। उषा काल के पीछे अंधेरी शाम भी आएगी। उषा बेला स्थिर नहीं रहेगी। सत्य रूप पर्याय जो उत्पन्न हुई है, वह सत् नहीं है ऐसा समझकर सुख मनायें। क्योंकि उत्पाद हुआ वह अपने समय पर ही व्यय होगा, समय पर ही श्रौव्य होगा, उसकी सुरक्षा उस द्रव्य के पास है। पर्याय को लेकर भटकना, भूलना, हर्ष विषाद का अनुभव करना सत् से दूर होना है। हर्ष-विषाद जहाँ है, वहाँ सत् नहीं है। सत् की पूजा करते हुए भी मांग करना, अपने को पीड़ित या दुखी समझना है। जो ऐसा नहीं कर रहा है, सिर्फ पूजा कर रहा है, निरख रहा है उसे ही सुख का लाभ होगा, वही सत्य का अवलोकन, खोज कर रहा है। दुनियादारी का प्राणी सत्य का अनुभव नहीं कर सकता है।

     

    जिन्होंने पुण्य व पाप दोनों को मिटा दिया है, वे सोने आदि को अंगीकार नहीं करते। जिसने सोने में आनन्द का अनुभव किया, उसका सोना मिटने पर वह रोता है, दुख का अनुभव करता है। कृपा को कृपाण के रूप में न लो क्योंकि कृपा में सत्य है पर कृपाण में असत्य है। ज्ञानी जीव कर्म के उदय में आयी भोग सामग्री को भी हेय समझता है, पैरों से ठुकराता है। वह कभी भी पूर्व में भोगे हुए को स्मरण में नहीं लाता है, भावी की आकांक्षा भी नहीं करता। वह सोचता है जो आया है, वह जायेगा, जो गया है वह आएगा नहीं और जो आएगा उसका पता नहीं है। हरेक व्यक्ति किसी न किसी पदार्थ में रम रहा है। जब प्राणी सत्यरूपी कुर्सी पर बैठ जाता है, तब हिलना-डुलना भी नहीं होता। जितना-जितना सत्य की खोज करेंगे, उतना-उतना आनंद आएगा। रूप, रस, गंध, वर्ण वाले पदार्थ में न सुख है, न दुख है। सोना तो पुद्गल है, उसे मिट्टी जानना वास्तविक सत्य है, उसे सोना जानना सत् को खोना है। आँखों के सामने जब सत् आ जाता है, तब पर्याय ओझल हो जाती है। राग द्वेष के साथ कोई भी व्यक्ति किसी भी पदार्थ की खोज कर उसके अंत स्थल तक नहीं पहुँच सकता। राग का प्रध्वंस होना, मिटना, तभी वीतरागता प्राप्त होती है। जिसका राग व्यतीत हो गया है, वही वीतरागी है। सुख बाहर से नहीं आता, जिसकी अपेक्षा की जाये वह तो स्वयं में प्रादुर्भुत होता है। उसे बाहर खोजना सत्य से दूर होना है। हर्ष विषाद का अनुभव सत्य से दूर ले जाता है। अत: हर्ष विषाद छोड़ो।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    जिसका राग व्यतीत हो गया है, वही वीतरागी है। सुख बाहर से नहीं आता, जिसकी अपेक्षा की जाये वह तो स्वयं में प्रादुर्भुत होता है। उसे बाहर खोजना सत्य से दूर होना है। हर्ष विषाद का अनुभव सत्य से दूर ले जाता है। अत: हर्ष विषाद छोड़ो।

    Link to review
    Share on other sites

    Samprada Jain

      

    हर्ष विषाद का अनुभव सत्य से दूर ले जाता है। अत: हर्ष विषाद छोड़ो।

     

    जहाँ सत् है वहीं सत्य है। जहाँ सत्य है, वहाँ सभी सुख विद्यमान हैं। जहाँ सुख है, वहीं पर सत्य है। सत्य तीन भागों में विभक्त है उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और तीनों मिलकर सत् है।

     

    सुख बाहर से नहीं आता, वह तो स्वयं में प्रादुर्भुत होता है। उसे बाहर खोजना सत्य से दूर होना है।

     

    ज्ञानी जीव कर्म के उदय में आयी भोग सामग्री को भी हेय समझता है, पैरों से ठुकराता है। वह कभी भी पूर्व में भोगे हुए को स्मरण में नहीं लाता है, भावी की आकांक्षा भी नहीं करता। वह सोचता है जो आया है, वह जायेगा, जो गया है वह आएगा नहीं और जो आएगा उसका पता नहीं है। 

     

    पर्याय में सुख नहीं है। पर्याय में जो उत्पत्ति हो रही है, उसमें सुख का अनुभव हो रहा है। प्राय: पुण्य का उदय आने पर मुख कमल खिल जाता है, जब असाता का उदय आता है।

    सत्य का मतलब वह जो सन्तोष दिलावे। 

     

    सत्य इस मनुष्य का केन्द्र बनना चाहिए। 

     

    ~~~ ॐ ह्रीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नमो नमः।

    ~~~ णमो आइरियाणं।

     

    ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा!

    ~~~ जय भारत!

    2018 Sept. 18 Tue. @ J

    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...