यह संसार असार है ऐसा बहुत लोग कहते हैं। किन्तु लगता नहीं कि यह असार है क्योंकि कहने वालों की अपेक्षा सार ढूँढ़ने वालों की संख्या ज्यादा है और जो कहते हैं कि संसार में सार नहीं उन्होंने इसे छोड़ा क्यों नहीं ? संसार को सार कहने वालों में छोटे-बड़े, धनी-निर्धनी, बालक-बुड़े और ज्ञानी-अज्ञानी सभी हैं। इन सब की भीड़ बेशुमार है। जो दूसरों को असार कह कर स्वयं उसमें यदि सार मानता है वह लौकिक व्यक्तियों के बीच में भले ही ज्ञानी माना जाये, किन्तु जब स्वयं को बोध होता है तो पश्चाताप के अलावा कुछ हाथ नहीं लगता। संसार को असार घोषित करने वाला उसी में सार ढूँढ़े तो पागलपन ही माना जायेगा। जिस वस्तु का असार के रूप में वास्तविक ज्ञान या अनुभव हो जाता है उसके प्रति कोई आकर्षण नहीं रह जाता है।
एक व्यक्ति अपने महल के ऊपर बैठकर इन्द्रजाल के समान आकाश नगर को देख रहा है। उसे कागज पर उतरवाना चाह रहा है सेवक को बुलाया उसके कहने पर सेवक ने सारी सामग्री ला कर रख दी, किन्तु जैसे ही कागज पर बनाना शुरू करना चाहता है वैसे ही वह (आकाशनगर) बिखर गया (आकाशनगर का अर्थ बादलों का समूह होता है) इस दृश्य को देख वह ऊपर से नीचे उतरकर महल से बाहर सीधे वन की ओर चला जाता है। वे थे धर्मनाथ स्वामी।
हमारे सामने कितनी बार ये घटाएँ छा गयीं और कितनी बार मिट गयीं फिर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा किन्तु ज्ञानी के लिए बादलों का एक टुकड़ा संसार को असार जानने के लिए पर्याप्त है।
तीर्थकर बादलों के निमित्त से मुक्त हो गये किन्तु बादलों को आजतक मोक्ष नहीं मिला। जिसका उपयोग हमेशा सावधान रहता है उसको वस्तु स्थिति जानने के लिए एक छोटी सी घटना पर्याप्त है। संसार की असारता का जिसे ज्ञान हो गया हो उसे घर छोड़ने में समय नहीं लगता। सागर के पानी की एक बूंद को चखने के बाद ज्ञात हो गया कि खारी है तो फिर पूरे सागर को चखने की आवश्यकता नहीं है। जब संसारी प्राणी का उपयोग सावधान हो जाता है तब सारे प्रश्न चिह्न समाप्त हो जाते हैं। संबोधन उसके लिए होता है जो सावधान होना चाहता है। मोक्ष मार्ग में सावधान का अर्थ है सार और असार का ज्ञान होना किन्तु संसारी प्राणी सावधान है संसारमार्ग में। संसार महत्वपूर्ण नहीं, किन्तु संसार में रहकर सावधानी महत्वपूर्ण है।
तीर्थकरों को कोई मना नहीं सकता। उनकी मान्यता मनाने से बदलती नहीं है। वे एक बार जिसे छोड़ देते हैं उसे फिर पीछे मुड़कर देखते भी नहीं हैं। तीर्थकरों के जैसी बारह भावनाएँ और संसार शरीर भोगों से विरक्ति के प्रति चिंतन धारा चलती है वैसी अन्य किसी की नहीं चलती।
देवों में सबसे महत्वपूर्ण पद लौकांतिकों का माना जाता है। वे देव ऋषि माने जाते हैं, उनका अपना एक अलग आकर्षण होता है। उनका सम्बन्ध अतीत के जीवन से जुड़ा रहता है। प्रवचनसार की गाथा नं- १०८ में १०८ मुनि श्री को कहा कि तुम अपनी दीक्षा की तिथि को याद करो। तुम दीक्षा की तिथि को याद रखो ऐसा कहने के पीछे उनका अपना अनुभव छुपा है। दीक्षा की तिथि को याद करने से वैराग्य का दृश्य सामने आ जाता है।
तीर्थकरों के पैर अन्य साधकों की तरह फिसलते नहीं वे पैरों को जमा जमा कर रखते हुए सिंह वृत्ति से चलते हैं। सिंहवृत्ति का अर्थ क्रूरता नहीं बल्कि अपने स्वभाव के अनुरूप कार्य कर लेना चाहिए। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है जो प्रमाद में भी रह जाता है। जब हमारी धर्मनाथ भगवान् के समान प्रमाद छोड़कर सावधानी होगी, तभी हमारा मोक्ष कार्य सम्पन्न हो सकता है। जिन घटनाओं से जिन्हें वैराग्य हुआ है उनकी उन घटनाओं को पढ़ने सुनने से भी हमें वैराग्य हो सकता है। तीर्थकर ऐसी भावनाएँ भाते है कि १३वें गुणस्थान के लिए कारण होती हैं, ऐसी भावनाएँ हमारे अंदर भी बनी रहें इसी भावना के साथ धर्मनाथ भगवान् की जय।
धर्म के दो भेद किये गये हैं। एक निश्चय, दूसरा व्यवहार। इन दोनों में कार्य कारण का सम्बन्ध है। व्यवहार धर्म को सराग धर्म भी कहा गया है, सराग धर्म में भक्ति सर्वोपरि है, क्योंकि भक्ति से चित्त की शुद्धि होती है, चित्त की शुद्धि से मन एकाग्र होता है, मन की एकाग्रता का नाम ध्यान है, ध्यान ही सर्वोपरि तप है और तपसा निर्जरा च तप से कर्मों का संवर और निर्जरा होती है, सम्पूर्ण निर्जरा का नाम मोक्ष है इसलिए भक्ति परंपरा से मोक्ष का कारण है।
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