मानसिक विचारों की संकीर्णता के कारण ही हम संसारी प्राणियों की वृत्ति हिंसा, झूठ, चोरी आदि की ओर बढ़ रही है और क्षत्रियता समाप्त होती जा रही है। यह वही भारत है जहाँ लोगों के जीवन में, ग्रन्थों में, गीतों में, वाद्यों में अहिंसा का जयगान होता रहता था। किन्तु उसी भारत में अब अन्याय और पापाचार की ओर कदम बढ़ने लगे। इससे हृदय की धड़कन बदल गई। पाप के कारण गति ही बदल गई है। जिनके परिणामों में शैथिल्य आया उनकी उन्नति नहीं हो सकती। अत: शैथिल्य को दूर से ही छोड़ देना श्रेयस्कर है। पुराण पुरुषों की जीवन घटनाओं को सुनकर, उनसे दिशा- बोध प्राप्त कर आचरण में उतारने से मोह, या ममत्व का नशा दूर होगा। तभी हम आपे में आ सकेगे और तभी आत्मा का वैभव हमारे सम्मुख होगा। आचार्य श्री ने धर्म के बगैर मानव एवं पशु की स्थिति को दर्शाया है -
खुला खिला हो कमल वह, जबलों जल-सम्पर्क।
छूटा सूखा धर्म बिन, नर पशु में ना फर्क॥
आँखों में निद्रा होने से देखने की इच्छा होते हुए भी वस्तु दिखाई नहीं पड़ती, निद्रा के अभाव होने पर ही वस्तु दिखाई पड़ती है, वैसे ही मोह की निद्रा को दूर करने पर ही आत्मा को पाया जा सकता है। जैन दर्शन की यह मौलिक विशेषता है कि वह हमारे अन्दर परमात्मा या भगवान् बनने की क्षमता प्रकट करता है यहीं जैन दर्शन अन्य दर्शनों से जीवमात्र को दिग्दर्शन कराता है। जैन जाति या धर्म किसी व्यक्ति विशेष से संचालित नहीं होता बल्कि वह स्वयं को जीतने से ही संभव है। अत: सही मार्ग को खोजें और उस पर कदम रख कर मुक्ति शाश्वत सुख को प्राप्त करें। जाति या धर्म किसी व्यक्ति विशेष से संचालित नहीं होता बल्कि वह स्वयं को जीतने से ही संभव है। अत: सही मार्ग को खोजें और उस पर कदम रख कर मुक्ति सुख प्राप्त करें।
वस्तुत: हमें आज तक जाति शब्द का रहस्य ही समझ में नहीं आया है। विचारों एवं आचारों के साम्य से सजातीयता-समान जाति होती है इसके अभाव में विजातीयता होती है। विचार एवं आचार के साम्य का नाम ही एक जाति है, उसके अभाव में परस्पर खून का संबंध होने पर भी वह किसी काम का नहीं। क्षत्रिय सदा जाति की रक्षा करने में तत्पर रहता है। वह रक्षा हेतु कदम बढ़ाने पर मर सकता है, पर पीछे कदम नहीं लौटा सकता न रुक सकता और न वापस मुड़ सकता है।
वचन-सिद्धि हो नियम से, वचन-शुद्धि पल जाय।
ऋद्धिसिद्धि-परसिद्धियाँ, अनायास फल जाय।
जिसके सिर पर छत्र हो वह क्षत्रिय नहीं है बल्कि स्वयं तथा जनता में व्याप्त पाप को उनसे पृथक् करता/कराता है, वही क्षत्रिय है। रणभूमि में खड़े पूज्यजन, परिवारजन, पुरजन या परिचितों से संबंध नहीं जोड़ता बल्कि अनर्थ के लिये तत्पर व्यक्ति को सही राह दिखाने हेतु कमान पर तीर चढ़ाता वही क्षत्रिय है। जिसने जन्म लिया उसकी मृत्यु अवश्य होगी। जन्म शरीर का होता अत: उसका मरण भी अनिवार्य है। भीतरी आत्म तत्व को तलवार या भाले आदि के द्वारा वार करके मारा काटा नहीं जा सकता। एक वंश के होकर भी जो अनर्थ की ओर कदम बड़ा रहे हों उन्हें रोकने तथा शिक्षा देने के लिये ही युद्ध करता है। रणांगन से भागने वाला श्री कृष्णजी से इस दिशाबोध तथा वास्तविकता को प्राप्त कर मरते दम तक वह अर्जुन रूप मध्यम पाण्डव असत्य हिंसा या असत् विचारों को रोकने में तत्पर रहता, यही क्षत्रियता है।
दूर दुराशय से रहो, सदा सदाशय पूर ।
आश्रय दो धन अभय दो, आश्रय से जो दूर।
आज के इस भारत को उस महाभारत से शिक्षा लेनी चाहिए। क्षत्रिय के एक हाथ में ढाल और दूसरे हाथ में तलवार होती है, वह कभी पैसा हाथ में नहीं लेता। जिसके हाथ में पैसा होता वह स्वयं या पर की ओर दृष्टि नहीं दे पाता और न किसी की रक्षा कर पाता है। आज भारत को पुन: एक अर्जुन और पाण्डवों की आवश्यकता है, उसके बिना कुपथ या उन्मार्ग पर जाती हुई जनता या राजनीति को सुधारा नहीं जा सकता। आत्मा और परमात्मा को भूलकर मात्र अर्थ की ओर दृष्टि रखने वालों को परमार्थ की ओर उन्मुख कराने की आज आवश्यकता है। भारत को विश्व-हितकर्ता माना जाता है, खाने-पीने की वस्तुओं की भरमार से नहीं/बल्कि आत्म/धर्म की सही-सही जानकारी देकर शांति और सुख का मार्ग बताने वाला एक मात्र देश होने से/किन्तु यदि वही उसे भुला देगा तो फिर कौन उत्थान का रास्ता दिखला सकेगा। गलत राह की ओर जाते कदम भी आत्मा या धर्म की चर्चा सुन समझकर पलट जाते। अत: चिड़िया के द्वारा खेत चुग जाने के पूर्व जागृत हों जावें तभी अपनी फसल की रक्षा करके फल प्राप्त कर पायेंगे ये ही सही पुरुषार्थ है।
उन्नत बनने नत बनो लघु से राघव होय।
कर्ण बिना भी धर्म से, विजयी पाण्डव होय।
"अहिंसा परमो धर्म की जय !"
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