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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 21 - सही सरल शौच धर्म

       (2 reviews)

    धर्म करत संसार सुख धरम करत निर्वाण।

    धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यञ्च समान ॥

    यह दोहा वास्तविक जो चाहने वाले हैं, मुक्ति पद रूप हैं। इस मनुष्य को क्या करना चाहिए, यह दोहा बता रहा है। सुन तो सभी प्राणी सकते हैं पर श्रवण के साथ उस पर मनुष्य ही चल सकते हैं। देशना मुख्य रूप से मनुष्य के लिए है। मनुष्य ही देशना के अनुसार अपने को ढाल सकते हैं। मनुष्य और मनुष्य का धर्म, ये समझना बड़ा कठिन है। मनुष्य शब्द के आगे एक शब्द जोड़ना है। मनुष्यत्व जोड़ दिया जाये तब मनुष्य का अर्थ हो जायेगा। मनुष्य का अर्थ मनुम् अनुसरोति इति मानवः। जैनाचार्यों के अनुसार मनुष्यों के सुख सुविधा के लिए युग के आदि में जो व्यवस्था करते हैं, उन्हें मनु कहते हैं, उनके इंगित पर चलने वाले मनुष्य कहलाते हैं। हम कर्तव्य से स्खलित होते हुए विरुद्ध दिशा में दौड़ रहे हैं।

     

    आज शौच धर्म का दिन है। जहाँ शुचिता (पवित्रता) आ जाती है, वहाँ शौच धर्म आ जाता है। यह शौच धर्म लक्स, लाइफबाय आदि साबुनों, क्रीम पाउडर आदि के द्वारा नहीं आएगा। अनादिकाल से आत्मा अशुद्ध हो रही हैं। हमारे अन्दर क्या मल, गन्दगी है उसको हटाना है। आत्मा की शुचिता अलग हैं। एक हिसाब से तो शरीर में तो शुचिता आ ही नहीं सकती। शरीर को कैसे भी शुद्ध बनाओ तो भी वह अशुद्ध ही रहेगा। निरन्तर नव मल द्वार मुख्यत: बहते रहते हैं। जिसके पास जो है, वह वही तो प्राप्त कराएगा। इसके पास शुचिता है ही नहीं, तब शुचिता कैसे प्राप्त करेगा। आत्मा की जो गन्दगियाँ, विकृतियाँ हैं, उनको साफ करना है। अनादि से लोभ लगा हुआ है, उसी के कारण आत्मा अशुद्ध है। जो शौच धर्म से युक्त हैं, उसका अनुपालन करते हैं वे अपनी आत्मा को गन्दगी युक्त नहीं करते हैं, पवित्र रखते हैं। विषयों के बीच रहते हुए भी उसमें रचते-पचते नहीं हैं। जब आत्मा में राग द्वेष की प्रादुभूति होती है तभी वह शौच धर्म से दूर हो जाता है, चाहे वह साबुनों से स्नान कर ले, चाहे चन्दन से लेप कर ले। अज्ञानी जीव वास्तविक शुचिता व अशुचिता के बारे में नहीं जानते। अपने स्वभाव को छोड़कर अज्ञानी जीव अपने आप को अशुद्ध बना रहा है। हमें राग द्वेष को छोड़कर ध्यान करना है। ध्यान तो सब करते हैं। यह संसार ज्यों का त्यों बना रहे, यह अप्रशस्ता या कुध्यान कहा है। धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान मोक्ष का कारण और संसार का विच्छेद करने वाले हैं। आर्त व रौद्र ध्यान संसार के कारण व मोक्ष से दूर करने वाले हैं। आपका ध्यान राग-द्वेष और मोह से युक्त है, जो कि संसार का कारण है। जो भी अपने वास्तविक स्वरूप में लवलीन लगा हुआ है तभी वह (Real) वास्तविक बन पाता है। वैराग्य की प्राप्ति के लिए शरीर की अशुचिता के बारे में बार-बार चिन्तन करना पड़ेगा। आपका अनुचिंतन शरीर की अशुचिता के बारे में न होकर शुचिता के बारे में है, साबुन, तैल, क्रीम, पाउडर इत्यादि से शुद्ध करने में है। आपको विचार करना है कि क्या हम इससे उसको शुद्ध बना सकते हैं? यह शरीर तो बिल्कुल अशुचि है, अपवित्र है। दुख रूप है, अनात्मक रूप है, ऐसा चिंतन करने से वैराग्य की प्राप्ति होती है। हम चक्षु के द्वारा आत्मा को नहीं देख सकते हैं। सम्यक दर्शन के द्वारा आत्मा जानी जाती है, देखी जाती है। शरीर की अशुचि के साथ आत्मा में जो कालिमा लगी है, उसके बारे में विचार नहीं करते हैं। विचार करने वाले विरले हैं। वास्तविक शरीर में अशुचि का अनुभव वही करता है जिसने अपने आपको पहचान लिया है। घृणा की चरम सीमा तब है जब दूसरों के साथ स्वयं भी नाक सिकुड़ने लग जाये। अशुचि अनुभव करें। आप बाहर अशुचि होने पर घृणा करने लगते हैं। शरीर के प्रति जो मोह है, वही आत्मा की अशुद्धि है, वही राग है। शरीर के प्रति प्रेम का अभाव, निरीहता होना वही शौच है। शरीर आत्मा के लिए कारागार है, हीन स्थानों को प्राप्त हुआ है। शरीर आत्मा के लिए बन्धन है। शरीर का मोह बन्धन को पुष्ट करता है। शरीर की गन्दगी को देखकर वास्तविक शौच धर्म का चिंतन हो सकता है। जन्म, जरा, मृत्यु का विनाश करने वाले वैद्य तो वास्तविक शौच धर्म का पालन करने वाले निग्रन्थ मुनि हैं। शरीर तो जड़ पदार्थ है, बिखरने वाला है। इसकी सुरक्षा के लिए इस प्रकार मोह नहीं करना चाहिए, इससे अनन्त संसार बढ़ जायेगा, वह अपने आपके प्रति निर्दयी बन जायेगा। शरीर के स्नान से आरम्भ परिग्रह हिंसा होती है, इसलिए मुनि शरीर का स्नान नहीं करते। वे हवा, धूप, वर्षा आदि से प्राकृतिक स्नान करते हैं। शरीर को जितना जितना शुद्ध करेंगे उतना शुचिता से दूर हो जाओगे। शरीर अशुचि है, आत्मा शुचि है। शरीर के प्रति मोहभाव है, इसलिए आत्मा अशुचि है।


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    Samprada Jain

      

    इच्छाओं को रोकने से आत्मा की पवित्रता शुचिता बढती है। इच्छा निरोध तप यह हमेशा आचरण में लावे। बोलने की इच्छा होने उसका निरोध कर स्वयं को मौन रखना भी इच्छा निरोध तप होता है वैसे ही कुछ या किसी को देखने की इच्छा होनेपर भी उस इच्छा का निरोध कर वह नहीं देखना भी तप है आदि आदि प्रकारसे पंच-इन्द्रिय विषय इच्छा निरोध कर तप करते रहने से आत्मा की पवित्रता बढती है।

     

    राग-द्वेष रहित धर्म एवं शुक्ल ध्यान ही करने चाहिये।

     

    आपका अनुचिंतन शरीर की अशुचिता के बारे में न होकर शुचिता के बारे में है, साबुन, तैल, क्रीम, पाउडर इत्यादि से शुद्ध करने में है। आपको विचार करना है कि क्या हम इससे उसको शुद्ध बना सकते हैं? यह शरीर तो बिल्कुल अशुचि है, अपवित्र है। दुख रूप है, अनात्मक रूप है, ऐसा चिंतन करने से वैराग्य की प्राप्ति होती है।  ...

     

    स्वभाव से अशुचि शरीर को शुचि बनाने के विचार-वचन-व्यवहार अशुचि है, हमें अपनी आत्मा को शुचि स्वभावी आत्मा को उसके वास्तविक पवित्र, शुचि स्वभावमें प्रतिष्ठापित करने केे विचार-वचन-व्यवहार करना चाहिये।

     

    ~~~ उत्तम शौच धर्मांगाय नमो नमः।

    ~~~ णमो आइरियाणं।

     

    ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा।

    ~~~ जय भारत।

    2018 Sept. 18 Tue. @ J

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    रतन लाल

       1 of 2 members found this review helpful 1 / 2 members

    शरीर तो जड़ पदार्थ है, बिखरने वाला है। इसकी सुरक्षा के लिए इस प्रकार मोह नहीं करना चाहिए, इससे अनन्त संसार बढ़ जायेगा, वह अपने आपके प्रति निर्दयी बन जायेगा। शरीर के स्नान से आरम्भ परिग्रह हिंसा होती है, इसलिए मुनि शरीर का स्नान नहीं करते। वे हवा, धूप, वर्षा आदि से प्राकृतिक स्नान करते हैं। शरीर को जितना जितना शुद्ध करेंगे उतना शुचिता से दूर हो जाओगे। शरीर अशुचि है, आत्मा शुचि है। शरीर के प्रति मोहभाव है, इसलिए आत्मा अशुचि है।

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