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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • समागम 2 - रागी का वैराग्य

       (1 review)

    खून नहीं है जिसमें उसको नाखून कहते हैं लेकिन खून की पहचान नाखून से होती है। इसका रहस्य युगों-युगों से चला आ रहा है और जिसे यह रहस्य खुल कर सामने आ गया उसकी बात मैं आपके सामने कह रहा हूँ। दुनियाँ इस रहस्य से वंचित है, दुनियाँ इस भेद-विज्ञान से दूर है, दुनियाँ इस तात्पर्य से दूर है इसलिए यह गाफिल है और वह अपनी रक्षा, अपनी शान्ति के लिये दुनियाँ को खोज रही है। रात-दिन एक कर रही है। रहस्य जब तक ज्ञात नहीं होता तब तक संसारी जीव का दुख कोई भी कम नहीं कर सकता, दूर करने का उपाय जब तक प्राप्त नहीं होता तब तक वह उपायों से घिरा हुआ रहेगा और उसके लिए कोई भी उपाय काम नहीं आयेगा। चिन्तातुर प्राणी दर-दर भटक रहा है, वह बहुत कुछ सोच रहा है। किन्तु बीच-बीच में यह भी लहर आ रही है इस प्राणी को, देखो! मेरा अज्ञान और मेरा ही किया हुआ कर्म मेरे लिए पथ-प्रशस्त न करते हुए अंधकार फैला रहा है। मेरी शान्ति को उसने छीनने का प्रयास किया और मैं शान्ति से रहित होकर दुख का अनुभव करता आया। वैद्य लोग, डॉक्टर लोग किसी की चिकित्सा से पूर्व सर्वप्रथम उसके हाथ को अपने हाथ में लेते हैं और अँगुलियों के जो नाखून हैं, उन नाखूनों को देखते हैं। देखने के उपरांत ज्ञात होता है तो ठीक है और यदि नहीं होता है तो नाखूनों को एक किनारे पर थोड़ा सा दबा देते हैं उसमें से कुछ झलकता सा उन्हें लग जाता है तो ज्ञात कर लिया जाता है खून है कि नहीं। ध्यान रखें नाखून में कभी खून नहीं हुआ करता। लेकिन खून की पहचान बिना नाखून के भी नहीं हो पाती। आप थोड़ा सा दबाकर देख लीजिये कि तल के भीतर से वह चेतना बाहर की ओर झलक जाती है। थोड़ा सा दबा दो, कितना खून है आपको नाखून के बल पर ज्ञात हो गया, किन्तु नेलकटर आपके जेब में ही रहता है हमेशा । नाखून को हमेशा काटकर फेंकते रहते हैं। इसका नाम पुनभू है, बार-बार वह नाखून आ जाता है लेकिन जब तक खून रहता है तब तक नाखून आता रहता है। यह खून की पहचान है। जिस प्रकार नाखून खून की पहचान है, चिकित्सा के लिए रास्ता खोल देता है, उसी प्रकार संसार अवस्था में तन से चेतन की पहचान की जाती है। लेकिन तन ने आज तक चेतन का आविष्कार नहीं किया, जो जड़ होता है वह कभी भी आविष्कार नहीं करता है किन्तु जो चेतन होता है वह जड़ के आविष्कार को करता आया है। लेकिन अपने आप का आविष्कार, अपने आप की पहचान, अपने आप का ज्ञान उसे प्राप्त नहीं हुआ। आज तक इस रहस्य से दूर रहा। मैं भी ऐसा एक व्यक्ति था सोच रहा था, उस रहस्य को बार-बार खोल करके देख रहा था, अब समझ में आ गया।

     

    जब कोई गणित में चूक हो जाती है तो आप लोग रात को बारह बजे भी उठकर बैठ जाते हैं। आज व्यापार तो बहुत हो गया लेकिन यह कुछ समझ में नहीं आया कि आय कितनी, व्यय कितना? इसलिए माथे को खुरचते हुए सोचते रहते हैं और जब गणित फिट बैठ जाती है, आँकड़ा ठीक आ जाता है, मालूम हो जाता है कि क्या भूल थी हमारी तो अकेले में ही हंसने लग जाते हैं। विचलित हो जाते हैं, अकेले क्या-क्या सोचने लग जाते हैं। युगों-युगों से कहाँ पर भूल थी इस गणित की, यह पता नहीं था और यह ज्ञात होने के उपरान्त भीतर ही भीतर अकेला-अकेला बैठा मुस्कान ले रहा है। कोई लोग सोच रहे हैं कि यह पागल हो गया है, कोई लोग सोच रहे हैं कि इसे कुछ मिल गया होगा। इसी प्रकार ज्ञानी जीव की जब उलझन सुलझ जाती है तब वह अकेले में बैठे बैठे आनंदित होने लग जाता है। जो आनन्द की प्राप्ति होती है वह "भूतो न भविष्यति" वाली बात है और वह अनन्त? अखण्ड सुख का स्रोत है। तन था उसके पास, वैभव था उसके पास, परिवार था उसके पास, हुकूमत थी उसके पास, क्या नहीं था उसके पास दुनियाँ में। ए-वन चीजें सारी-सारी प्राप्त थीं। लेकिन ज्ञानी सोचता है यह भी एक भूल थी, उस प्राप्ति को देखकर वह फूला नहीं समाता था किन्तु आज उस भूल के ऊपर वह सोच रहा है कि किस जड़ की माया में किस जड़ की छाया में अपने आप को खुश करने का, अपने आप को सुख सम्पन्न करने का प्रयास करता रहा।

     

    ओ हो ! अज्ञान अंधकार में जीवन जीता रहा अनन्तकाल तक, लेकिन आज यह रहस्य खुल गया। जहाँ वह रहस्य खुल जाता है वही उसके लिए क्षेत्र बन जाता है और वही उसके लिए तिथि बन जाती है और अतिथि की बात मैं आपके सामने कह रहा हूँ-जिसे तिथि भी मिल गई फिर भी वह अतिथि है, जिसे क्षेत्र मिल गया फिर भी सोचता है हमें इससे कोई मतलब नहीं क्योंकि यह सारी की सारी बाहरी चीजें हैं मुझे जो प्राप्त हो गया है, मुझे जो ज्ञात हो गया है वह अभूतपूर्व है, पूर्व में ऐसा कभी प्राप्त नहीं हुआ, अब आगे पुन: प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि वह अविनश्वर पथ पर है। नश्वर जीवन स्वार्थी जीवन माना जाता है चेतना हमेशा-हमेशा अविनश्वर है, उसका कभी नाश नहीं। मैं नित्य हूँ, शाश्वत हूँ, सत्य हूँ, अजर, अमर, अविनाशी हूँ। यह एक प्रकार की बात उसके सामने आ जाती है। अभी तक भय होता था शरीर टूट न जाये, कहीं फूट न जाये, शरीर छूट न जाये। अनेक प्रकार की वेदनाएँ होती थी, कहीं यह गल न जाये, कहीं यह सड़ न जाये, कहीं यह दुबला-पतला न हो जाये आदि-आदि। इस शरीर के माध्यम से वह आपा खोकर चलता था किन्तु आज यह भेद विज्ञान मिल चुका है, जिस प्रकार कि दूध में जल मिला हुआ रहता है किन्तु जल को अलग करने के उपरान्त दूध का सही रूप सामने आ जाता है उसी प्रकार इस तन के माध्यम से आत्मा भीतर है यह ज्ञात हो जाता है। "देह मध्ये यथा शिव"। इस आत्मा का परमात्मा के रूप में जिसे बोध हो जाता है कि आत्मा देहातीत है किन्तु देह में अनन्त काल से रहता आ रहा है वह यह रहस्य खुलते ही आनन्दविभोर हो जाता है।

     

    एक साधु एक शिला पर बैठे थे। वहीं से दो-तीन व्यक्ति गुजर रहे थे, दो दोस्तों में से एक दोस्त की अभी शादी हुई थी। ये तीनों वहाँ से गुजर रहे थे। जिसकी शादी हुई उसकी बात मैं आपके सामने कह रहा हूँ। वह मित्र, उसके साथ पत्नी। तीन दिन ससुराल में वह पत्नी रही। अब वह माँ के घर जा रही है किन्तु ध्यान रहे, पति भी कहता है यह ससुराल में आई थी, मैं भी तो ससुराल जाऊँ। सोचिए, आप विचार करिये। शादी होने के उपरान्त तीसरे दिन पत्नी ससुराल से जाती है। पति छोड़ने के लिए तैयार नहीं। पत्नी के साथ चल देता है। साथ में मित्र भी है और उसकी दृष्टि साधु के ऊपर पड़ जाती है, देखता रह जाता है। क्या शरीर है? क्या तेज है? क्या ओज है? क्या सुडौलता है? क्या मुस्कान है? यह जंगल है, शिला पर बैठा है, प्रकृति चारों ओर से घेरे हुए है, पास कुछ नहीं है, लेकिन पास में क्या-क्या है पता नहीं लग रहा है, आखिर थोड़े से नजदीक होकर के देख लें तो उसके पास क्या है यह ज्ञात हो जाये। कुछ समझ में आया तो ठीक, नहीं तो बाइपास से चले जायेंगे। थोड़ा सा वह आगे कदम बढाता है, मित्र इशारा करता है, क्यों क्या बात हो गई ? जल्दी थी उधर क्यों खिसक रहे हो। वह कहता है- अरे जाना तो है लेकिन एक झलक इधर भी तो देख लें। आ, तू भी देख ले भइया। वह नजदीक गया। पास में देखता रहा, प्रेरित हुआ, मंत्र-मुग्ध हुआ सा वह देखता रह गया और बात दोस्त के मुँह से निकल जाती है कि तुम यदि रुक जाते हो तो मैं भी अवश्य रुक जाऊँगा तुम्हारे साथ। लेकिन तुम्हारा रुकना तो ऐसा ही है-‘न भूतो न भविष्यति'। उसने उत्तर नहीं दिया और उत्तर न देना ही प्रश्न का सही उत्तर माना जाता है कभी-कभी। जवाब ही जवाब नहीं लाजवाब भी हुआ करता है, नहीं बोलना भी अपने आप में उत्तर हुआ करता है और वह मुँह से भले ही न बोले लेकिन भीतर का भाव जब हम व्यक्त करते हैं तो बोलियाँ छोटी पड़ जाती हैं। जैनधर्म वस्तुत: प्राणी मात्र का है लेकिन आज जैनधर्म बनियों का है यह और किसी का नहीं। वैष्णव धर्म ब्राह्मणों का है आदि-आदि। ये नाम को, शब्द को लेकर जो आज वर्तमान में चल रहे हैं, यह भी एक रहस्य है इसको खोलना अनिवार्य है। जैनधर्म क्या धर्म है, किसके माध्यम से चला है यह ध्यान रखना चाहिए। यहाँ पर जितने भी बनिये हैं उनका यह धर्म है ही नहीं। केवल क्षत्रियों का धर्म है। वेदी में यदि भगवान् नहीं हैं तो राजस्थान में बोला जाता है कि ठाकुर जी नहीं। वहाँ तो भगवान् को ठाकुर कहते हैं। आप लोग तो वैश्यवृत्ति करने वाले हैं अत: धर्म को भी तोलने लगे हैं। जिधर ज्यादा है उधर खिसक गये ऐसा नहीं होता। क्षत्रियता के माध्यम से ही जैनधर्म की प्रभावना हुई है और आगे ऐसे ही क्षत्रिय लोग रहेंगे तो उनके माध्यम से वह जीवित रहने वाला है। अत: प्राणिमात्र को जो जीवन प्रदान करता है, रक्षा करने का बीड़ा उठा लेता है, प्राणिमात्र की रक्षा के लिए जो अपना जीवन सर्वस्व न्यौछावर कर देता है वही व्यक्ति जैन धर्म के रहस्य को समझ सकता है।

     

    मित्र की बात सुनकर उसने उत्तर दिया और जाकर साधु के सामने विराजमान होकर वह कहता है कि आखिर एक-आध मंत्र इधर भी तो सरका दो। मैं आपका अनुचर तो बन सकूं। पीछेपीछे में और आगे-आगे आप और वह वहीं पर रुक गया। दोस्त सोचता है कि क्या बात हो गई? कहीं इस प्रकृति में सम्मोहन शक्ति तो नहीं है। कहीं यहाँ पर भूत तो नहीं लगा। कहीं बाहरी बाधा, कहीं भीतरी बाधा, कहीं नीचे की बाधा, कहीं ऊपरी बाधा तो नहीं है। बाधाएँ अनेक प्रकार की हुआ करती हैं। जो व्यक्ति शादी के बाद तीसरे दिन पत्नी जा रही है तो साथ में ससुराल चलने वाला हो और वह व्यक्ति यहाँ बीच में रुक गया और ऐसे साधु का सामना, ऐसी वीतरागता का दर्शन कि सारा प्रदर्शन समाप्त हो गया। पत्नी देखती रह गई, मित्र पीड़ित हो गया और वह था कि टस से मस नहीं हो रहा। वहीं पर बैठ जाता है और प्रार्थना करता है, विनती करता है कि मुझे स्वीकार कर लीजिये भगवन् और इसके अलावा कुछ नहीं चाहिए। खून का ज्ञान नाखून से हो गया। धर्म की पहचान वीतरागता के माध्यम से हुआ करती है। धर्म की पहचान किसी स्थान से नहीं हुआ करती है, किसी काल से नहीं हुआ करती अपितु जिस काल में जिस स्थान में वीतरागता रह जाती है वह क्षेत्र बन जाता है, वह तिथि बन जाती है, दोनों की स्मृति रखकर संसारी प्राणी उसकी आराधना करना प्रारंभ कर देते हैं। जहाँ पर ऐसी पवित्र आत्माएँ गुजरती चली गयीं वहीं प्रकृति की गोद में ऐसे क्षेत्र बनते चले गये। और वे वर्तमान में अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान के भण्डार बने हुए हैं। अपने आत्मसात् हो चुके हैं। जिनकी बीमारी समाप्त हो चुकी है जो रोगातीत हो गये हैं वे विश्व के लिए आज आदर्श हैं। उन्होंने ऐसा पथ-प्रदर्शन कर दिया कि अनन्त काल के उपरान्त भी आप उसको सोचेंगे, देखेंगे, पूछेगे तो वीतरागता ही एकमात्र धर्म प्रतीत होगा। कहाँ शादी? कहाँ नवोढ़ा पत्नी? कहाँ ये बातें राग की? मित्र और पत्नी सोचते हैं कि ये वीतरागता की बात कहाँ आ गई? क्यों आ गई? भावों में परिवर्तन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव की अपेक्षा से हुआ करते हैं। लेकिन उस राग का अन्त भी आ जाता है जब जिसके नेत्र खुलने लग जाते हैं तो रहस्य का उद्धाटन हो जाता है फिर वहाँ पर अंधकार के लिए अवकाश ही नहीं रहता। जितनी गति से प्रकाश आता है उतनी ही गति से अंधकार भी कहाँ चला जाता है, पता नहीं लगता। यह वैज्ञानिक सत्य उस प्रकाश के बारे में तो आप बार-बार सोचते हैं लेकिन अंधकार का मिटना भी अपने आप में बहुत बड़ी घटना है। जो बैठे हैं साधु उन्होंने तो उसका अनुभव किया ही है लेकिन उनके दर्शन मात्र से, एक झलक मात्र से राग जो बिल्कुल आग के समान सताने वाला था, जलाने वाला था वह नौ-दो-ग्यारह हो गया। नौ-दो-ग्यारह ये गणित नहीं है। नौ-दो-ग्यारह का अर्थ यह है-कहाँ पर राग गया पता नहीं। यह वीतरागतारूपी प्रकाश का प्रभाव है जो रागरूपी अंधकार पलायन हो गया। यह रहस्य समझ में आना चाहिए।

     

    यह पाँच तत्व का पिंजड़ा है, यह तोते के लिए पिंजड़ा है, यह तोते के लिए बन्धन है, यह तोते के लिए जेल है, यह तोते के लिये बाधक है। भले ही वह पिंजड़ा सोने का बना लो तो भी पिंजड़ा पिंजड़ा ही है। वह तोता उसमें बैठे-बैठे अखरोट, बादाम, काजू, किशमिश खाता रहता है और दूध का कटोरा भी वहाँ पर रखा रहता है लेकिन फिर भी वह बाहर झाँकता रहता है, दरवाजा कब खुले और कब मैं अपने दोनों पंखों का प्रयोग करूं और आप लोग कबूतर के टाइप के हैं। कबूतर क्या होता है? वह क्या करता है? कबूतर तो वह होता है जो खुला रहता है। उसके लिए पिंजड़े की जरूरत नहीं। उसको उड़ा भी दो तो भी वह उड़ता-उड़ता चला जाता है और फिर आकर आपके कंधों पर बैठ जाता है लेकिन तोते को आप देख लो, एक बार उड़ेगा तो फिर बाद में बाय-बाय और धन्यवाद आपके लिये, आपने हमारे ऊपर बहुत उपकार किये और तुम देखते रहो और वह उड़ता ही उड़ता आसमान में स्वतन्त्र विचरण करने लग जाता है। उसको कोई पकड़ने वाला नहीं होता। एक बार भूल के कारण वह पकड़ में आया है, पिंजड़े में है लेकिन वह रात-दिन यही मन्त्र दुहराता रहता है।

     

    जो अभी नवविवाहित था, अभी-अभी शादी हुई थी, उसके मन में इस प्रकार का भाव जागृत हुआ। तीर्थकरों के वंश में ऐसे ही हुआ करते हैं। क्षत्रियों का कार्य भी हमेशा ऐसा ही रहा करता है। बहुत राज्य कर लिया, छीना-झपटी हो गई, अपने हक को जमाने के लिए बहुत प्रयास कर लिया, लेकिन जब रहस्य समझ में आ जाता है तो वहीं का वहीं छोड़कर उसकी ओर पीठ दिखाते चले जाते हैं और ऐसे ही जंगलों में आकर वह अपने आप को मुक्त कर लेते हैं। उन्हीं में से यह भी एक स्थान है। नर्मदा का यहाँ पर समागम मिला है और यहाँ पर चारों ओर पहाड़ घिरा हुआ है। इस सुरम्य स्थान के इतिहास के पत्रों से यह ज्ञात होता है कि यहाँ पर अनेक ने सिद्धत्व को प्राप्त किया है। यह सिद्धवरकूट विख्यात है, प्रसिद्धि पाई है। यहाँ पर सन्त और आप जैसे भव्य जीव हमेशा आया करते थे। पहले सुना था, पढ़ा था, बार-बार लोगों से प्रशंसा सुनी थी और आज तीन दिन से हम यहाँ पर देख रहे हैं। वस्तुत: सिद्धवरकूट अच्छा है लेकिन कई लोग कहते हैं महाराज यहाँ पर कोई प्रबन्ध है ही नहीं। बन्ध को काटना चाहते हो तो प्रबन्ध को पहले गौण करो। जब बन्ध को काटने की बात यहाँ पर होती है, मुक्ति की बात होती है, परतन्त्रता को छोड़कर स्वतन्त्रता की बात होती है। आप लोग कहते हैं यहाँ पर टैन्ट लगा नहीं। भइया देखो छत्र तने हुए हैं वृक्ष लगे हुए हैं और यहाँ पर जो हजारों की जनता है उसके लिए छाया है। देखो, किसी को धूप नहीं लग रही और यदि लग भी रही है तो सुहा रही है उनको। कोई भी व्यक्ति परेशानी का अनुभव नहीं कर रहा। प्रत्येक व्यक्ति का मुँह ऐसे खिला हुआ है वैसे जैसे सरोवर में कमल खिलता है! क्या है? आनन्द की अनुभूति तो है। यहाँ बहुत कुछ हमने पाया, बहुत कुछ हमने देखा, यहाँ पर कोई सार है तो एकमात्र वही आत्म तत्व सार है जो जाननहारा है, जो देखने वाला है। रहस्य जानने में और देखने में आ जाता है तो यहाँ पर दुख का कोई नाम ही नहीं। यह दुख व सुख मात्र अज्ञान की उपज है। मोह माया के कारण ही हम मान लेते हैं, स्वीकार कर लेते हैं, वस्तुत: देखा जाये यह कुछ है नहीं। दुनियाँ की बातों में कोई रस नहीं आना चाहिए, एकमात्र तत्व का रहस्योद्धाटन होना चाहिए। ग्रन्थों में, वेदों में, उपनिषदों में, सूत्रों में, ऋचाओं में एक ही मात्र कहा है-आत्मा को जानो। किसी ने सम्यग्ज्ञान कहा, किसी ने भेद-विज्ञान कहा, किसी ने स्थित-प्रज्ञ कहा, किसी ने सम्यग्दृष्टि कहा, किसी ने वीतरागता कहा। इस प्रकार अनेक प्रकार के नामों से घोषित यह आत्म-तत्व वस्तुत: स्व और पर के लिए कल्याणकारी है। सन्तों ने इन सबको छोड़-छाड़ कर एकमात्र उसी भेद-विज्ञान के उद्धाटन के लिए अपनी प्रज्ञा को स्थिर करने के लिए प्रयास किया। उस प्रयास के लिए क्या-क्या छोड़ना पड़ता है। यदि उसको प्राप्त करना चाहते हो तो स्व और पर को जानने की आवश्यकता है, जो पराया है उसको बाँधने की क्या आवश्यकता है? और जो स्व है उसको प्राप्त करने की भी क्या आवश्यकता है? जो है उसको जानने का प्रयास करो। नदी तटों में रह करके, पहाड़ों के ऊपर रहकर के उन्होंने अपने निजी ज्ञान के माध्यम से यह रहस्य जाना। धन्य हैं ऐसे साधु-सन्त जो हमारे लिए ऐसे मार्ग प्रशस्त करके गये हैं। इनकी पवित्रता हमेशा बनाये रखें। यहाँ पर आ करके तप किया। तप करने का अर्थ यही है कि जिनसे कोई आनन्द प्राप्त होने वाला नहीं है उन वस्तुओं को अपने आप छोड़ते चले जाते हैं, यही वस्तुत: तप है। यदि मान लीजिए आपके हाथ में दूध है वह बहुत गर्म है, विशेष गर्म है तो कहने की कोई आवश्यकता नहीं, मुहूर्त देखने की कोई आवश्यकता नहीं कि मैं इसको छोड़ ढूँ। अपने आप ही अँगुली दूर हो जाती है, हाथ का प्याला दूर हो जाता है क्योंकि आप जानते हैं कि वह दोबारा भी मिल सकता है लेकिन हाथ चला जायेगा तो बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। इसी प्रकार जिन-जिन पदार्थों से कठिनाई का अनुभव होता है, आनन्द का मार्ग रुक जाता है, भेद-विज्ञान के लिए कठिनाई हो जाती है, उन सबसे वह पीठ फेरते हुए चले गये और वह क्षत्रियता के नाते ही इस प्रकार के महत्वपूर्ण कार्य कर गये। एक युग में जैन धर्म के चौबीस तीर्थकर होते हैं, वे चौबीस तीर्थकर क्षत्रिय ही होते हैं। उनमें से एक भी वैश्यवृत्ति वाला नहीं होता है। और जितने चक्रवर्ती भी हुए हैं सारे के सारे क्षत्रिय ही हुए हैं, उन्हीं का यह काम है, वह ही प्राणिमात्र की रक्षा कर सकते हैं, स्वयं सुरक्षित रह सकते हैं और अन्त में अपने आपको सिद्धत्व का रूप दे सकते हैं। ऐसे आदिनाथ से लेकर महावीर भगवान् और उनके बीच में जो कोई भी हुए हैं उन सब के लिए मेरा बारम्बार नमस्कार है। उनकी जीवन-गाथा पढ़ने का प्रयास करें उनको समझने का हम प्रयास करें क्योंकि उनकी जीवन-गाथा ही हमारे लिए प्रशस्त रास्ता बनाती चली जाती है और कोई पढ़ने की आवश्यकता नहीं। किस ओर उनके कदम उठे, किस साहस के साथ वे बढ़ते चले गये, उनके साथ और कितने व्यक्ति मुक्त हो गये हैं। उनकी जीवन गाथा पढ़ने से हमें साहस आ जाता है। रास्ता पता चल जाता है। सम्पति बिछी हुई है, उसको देखने की आवश्यकता है। ऐसा जैन धर्म जिन धर्म माना जाता है। यह जाति परक नहीं माना जाता है। जो अपनी कषायों को, जो अपनी इन्द्रियों को, अपनी आत्मा को वशीभूत करते हैं, शासन की बात नहीं करते हैं, आत्मानुशासन की बात करते हैं वे ही जिन हैं। जब आत्मा संयत होगी तो निश्चत रूप से दुख नहीं होगा और उसके लिए प्रबन्ध की कोई आवश्यकता नहीं। ऐसे आत्मानुशासित होते हुए ये तीर्थकर आगे बढ़ते गये। कषायों को आप समाप्त करिए, इन्द्रियों को अपने काबू में रखिये, अपनी आत्मा की चंचलता को मिटाने का प्रयास करिए। निश्चित रूप से हम भी महावीर भगवान् के समान, आदिनाथ के समान बन सकते हैं, बनने की क्षमता हमारे पास विद्यमान है। प्रत्येक जीव के पास परमात्मा बनने की क्षमता है। यह मन्त्र घोष, जयघोष महावीर का/आदिनाथ भगवान् का है। जैन धर्म की विशेषता है कि यह धर्म परटीक्यूलर एक व्यक्ति का नहीं है। यह असाधारण भाव प्रधान धर्म, वीतराग धर्म जो कि इस गुणवत्ता के साथ ही आगे बढ़ता है। समय आपका हो गया है, अब सावधान होइये, वह बीच में जो आया है वह साधु हो जाता है और उसका मित्र भी साधु हो जाता है। वह नवविवाहिता है वह भी अब कहाँ जाये? वह भी साध्वी हो जाती है। अब आपकी स्थिति क्या है? आप यह देख लीजिए। आप कथा सुन रहे हैं सुन ली है, पढ़ी होगी, अब इसको याद करने का प्रयास करिये। क्या होता है? कैसा होता है? जीवन में किस प्रकार परिवर्तन होता है? इसका एकमात्र उन्हीं बिन्दुओं के माध्यम से, गाथाओं के माध्यम से हम अपने आप को परिवर्तित करने का प्रयास कर सकते हैं और कोई रास्ता नहीं है। कोई ऐसे मुहूर्त नहीं आने वाले हैं जो हमें बह्मा बना दें, किन्तु आदिब्रह्मा आदिनाथ भगवान् को देखकर हम अपने आप को शुद्ध कर लें जैसे दर्पण में देखकर अपने मुख को साफ किया जा सकता है। उसी भाँति हमें अपने जीवन की कमियों को निकाल करके अपने आप के स्वरूप को व्यक्त करने का प्रयास करना है, चाहे आज करो, चाहे कल करो, कभी भी करो करना आपको है। जब कभी भी दर्पण मिलेगा तो यही एकमात्र आदर्श मिलेगा। इन्हीं के लक्षण से, इन्हीं के दर्शन से और इन्हीं के कहे हुए के अनुसार आचरण करने से वह बुद्धत्व, सिद्धत्व प्राप्त हो जाता है।

    ॥ अहिंसामय धर्म की जय॥


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    रतन लाल

      

    कोई ऐसे मुहूर्त नहीं आने वाले हैं जो हमें बह्मा बना दें, किन्तु आदिब्रह्मा आदिनाथ भगवान् को देखकर हम अपने आप को शुद्ध कर लें जैसे दर्पण में देखकर अपने मुख को साफ किया जा सकता है। उसी भाँति हमें अपने जीवन की कमियों को निकाल करके अपने आप के स्वरूप को व्यक्त करने का प्रयास करना है, चाहे आज करो, चाहे कल करो, कभी भी करो करना आपको है। जब कभी भी दर्पण मिलेगा तो यही एकमात्र आदर्श मिलेगा। इन्हीं के लक्षण से, इन्हीं के दर्शन से और इन्हीं के कहे हुए के अनुसार आचरण करने से वह बुद्धत्व, सिद्धत्व प्राप्त हो जाता है।

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