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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • धर्म देशना 5 - प्रतिकार नहीं करने की साधना : सत्य

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    झूठ नहीं बोलने का नाम सत्य है, न कि सत्य बोलने का नाम सत्य है। इसलिए सत्यधर्म बहुत ही कठिन है।


    कर्मों के उदय का प्रतिकार न करने की जो इच्छा/साधना होती है, उसका नाम सत्य है। चार दिन तक उत्तम क्षमा आदि चार धमोर्गे का विश्लेषण हुआ। इन चार धमोर्गे के विश्लेषण के लिए प्रतिपक्ष का सहारा लिया गया, प्रथम दिन क्रोध का, दूसरे दिन मान का, तीसरे तीन माया का और चौथे दिन लोभ का। अब आज सत्य का प्रतिपक्षी कौन ? असत्य। क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों का ही आधार लेकर असत्य बोला जाता है।


    क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पंच॥

    तत्त्वार्थसूत्र – ७/५

    कभी क्रोध के आवेश में असत्य बोलते हैं, कभी लोभ के कारण असत्य बोलते हैं। और आप असत्य बोलें या न बोले जब तक सत्य का संकल्प नहीं लेते, तब तक वह असत्य की कोटि में ही आता है। सता युतं सत्यं जो सत के साथ जुड़ा रहता है वह सत्य माना जाता है।


    लोक व्यवहार में सत्य की परिभाषा असत्य नहीं बोलना मानी जाती है। बोलना और नहीं बोलना यह सत्य की कोटि में नहीं आता है। जो असत्य नहीं बोल रहा है, इसलिए वह सत्यवान् माना जाये, ऐसा नहीं है। और जो सत्य बोल रहा है, वह भी कथचित् सत्य में ही आता हो, ऐसा नहीं है। आचार्यों ने बोलने के लिए नहीं कहा। किन्तु असत्य नहीं बोलने के लिए कहा है।


    अर्थ यह निकाल लिया जाता है कि असत्य नहीं बोलना अर्थात् सत्य बोलना। नहीं, किन्तु सत्य की परिभाषा, सत्य की पहचान बहुत ही कठिन, बहुत दूर और बहुत गहराई में छिपी है। हम जैसा देखते हैं, वैसा वह पदार्थ नहीं रहता। हम जैसा सुन भी लें, वैसा भी पदार्थ नहीं रहता। नहीं रहता, यह एकान्त से नहीं, पर वैसा रहता ही हो ऐसा भी कोई आग्रह नहीं कर सकता। क्योंकि बाहर ही सुहावना लगता है। दूर के ढोल सुहावने समझ में आ गई। अपने यहाँ दूर का ढोल सुहावना। ढोल कभी सुहावना नहीं होता। दूर का पहाड़ भी सुहावना लगता है, किन्तु पास में जाकर के देखो, तो चलना मुश्किल होता है। यह कहावत है। देश-देश की बात है। पास जाकर चलना मुश्किल हो जाता है। तब यद्वा-तद्वा चलना तो सही हो ही नहीं सकता। इसलिए सत्य के बारे में बहुत सोचकर निर्णय लेना पड़ता है। और असत्य के बारे में भी बहुत सोचकर निर्णय लेना पड़ता है। असत्य वत्ता को असत्यवान् कहना, यह और गलत हो जाता है।


    सत्यमपि विपदे न बूयात्।

    जिसके बोलने से किसी के ऊपर विपत्ति आती हो, वह सत्य सत्य नहीं है। यह अणुव्रती के लिये कहा है। महाव्रती के लिये तो बहुत ही कठिन बात हो गई। किसी को एक ऑख से देखने में नहीं आता, तो उसको काना नहीं कहा जाता। काना कहने से उसको बहुत गुस्सा आता है, उसको पीड़ा होती है। इसलिए आप उसको घुमाकर के पूछ सकते हैं-भाई साहब आँखों को क्या हो गया ? बीमारी हुई या लकड़ी चुभ गई थी या और कुछ हुआ? ऐसा क्या कुछ हुआ, जो एक आँख में कमी आ गई ? ऐसा पूछोंगे तो बहुत अच्छे ढंग से उत्तर दे देगा। इसलिए कि जिसके माध्यम से हिंसा की बात सामने आ जाती है, वह बात भी हिंसा से बोली हुई मानी जाती है।


    यद्यपि सत्यं लोकविरुद्ध न करणीयं न चरणीयम्।

    यद्यपि सत्य है, लेकिन लोकविरुद्ध बात सत्य होते हुए भी असत्य मानी जाती है। सत्य क्या है ? इसको देखना चाहिए, पहचानना चाहिए, उसके उपरान्त भी एकदम निर्णय नहीं लेना चाहिए। इससे बहुत ही बड़ी-बड़ी हानियां हो सकती हैं। निर्णय लेना बहुत ही कठिन होता है। इसलिए जल्दबाजी का सत्य भी असत्य में आ जाता है। इसलिए सत्य महाव्रत के बारे में जब कभी भी उल्लेख मिलता है, तब असत्य से विरति लेना ही सत्य है। सत्य बोलने को उन्होंने सत्य कहा ही नहीं है। किन्तु हिंसा से, अनृत से, चोरी से, कुशील से और परिग्रह से विरति का नाम व्रत है। तो झूठ नहीं बोलने का नाम सत्य है, न कि सत्य बोलने का नाम सत्य है। इसलिए सत्यधर्म बहुत ही कठिन है। इसकी पहचान क्रोध से बचे तो, मान से बचे तो, माया से बचे तो, लोभ से बचे तो हो सकती है। एक भवन के चारों तरफ यदि दरवाजे हों, तो चोर कहीं से भी आ सकता है। इसलिए वास्तुशिल्प के अनुसार तीन तरफ तो दरवाजा हो और एक तरफ दरवाजा नहीं। सबसे अच्छा तो यही है कि सामने से दरवाजा हो और तीनों तरफ दरवाजा न हो। भगवान् का मन्दिर ही एक ऐसा है, जिसमें कथचित् चारों तरफ से दरवाजा होते हैं। समवसरण में दरवाजे नहीं होते हैं। अपितु चारों तरफ से रास्ते रहते हैं, प्रवेश करने के लिए। कहीं से भी आओ, कहीं से भी जाओ। इसीलिये भगवान् के चारों तरफ मुख भी रहते हैं। किसी भी तरफ से आकर बैठो और दर्शन करो।


    सत्य को प्राप्त करने के लिये चारों कषायों के ऊपर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। नहीं बोलें, तो बहुत अच्छा। और बोलें तो हित-मित-मिष्ट वचन ही बोलें। नहीं तो सामने वाला कुछ भी अर्थ निकाल सकता है। उस वक्ता का भाव कुछ भी हो, लेकिन सामने व्यक्ति को उल्टा भी नजर आ सकता है। यदि वह नहीं भी निकाले तो भी मुख से गलत शब्द निकल सकता है। और व्यक्ति पूर्ण हो यह भी कोई नियम नहीं है। इसलिए नहीं बोलना ही ठीक है। भगवान् केवलज्ञान होने के बाद क्यों बोलते हैं ? केवलज्ञान होने के उपरान्त सत्य और अनुभयवचन योग ही रहते हैं। इसलिए उनके बोलने में कोई बाधा नहीं है। फिर भी इसके उपरान्त भगवान् की वाणी सुनकर ३६३ मतों का निष्पादन हो ही गया। उन्हीं वचनों का यह परिणाम है, जो ३६३ मत बन गए। लेकिन उनके मन ने कभी किसी प्रकार से यह भाव नहीं किया कि असत्य का प्रचार-प्रसार हो।


    अर्थ का अनर्थ निकालने से ३६३ मत बने। अर्थान्तर गति मानी व्यक्ति के माध्यम से हुआ करती है। अर्थ समझ में नहीं आता और वह उसे यद्वा-तद्वा लगा लेता है। उसी का परिणाम यह निकलता है। अनुभवयवचन संशय का भी कारण हो सकता है। सत्य के लिए साक्षात् पदार्थ का निर्णय हम नहीं कर सकते। इसलिए 

     

    कन्निद नोडिदरु किविन्दि केडिदरु वायिन्द नुडिवारढु

    आँखों से देख लिया, कानों से सुन लिया, फिर भी मुख से उच्चारित न करें। क्योंकि उसमें It may be possible वहाँ पर भी असत्य होने की संभावना बनी रह सकती है, रहती है। इसलिए सत्य का आचरण किया जा सकता है। सत्य का प्रदर्शन एक प्रकार के शब्दों से संभव नहीं। नहीं बोलते हुए भी हम सत्य का दिग्दर्शन करा सकते हैं।

     

    अवाग्विसर्ग वपुषा मोक्षमार्ग निरूपयन्तम्।

    आचार्यों ने कहा है कि बिना बोले भी वह अपनी मुद्रा के माध्यम से मोक्षमार्ग का निरूपण कर रहे हैं। सामने वाला व्यक्ति यदि अर्थ निकालता है तो मानो, नहीं तो मत मानी। इसका यह अर्थ है। ऐसे सत्य का पालन हमें करना है, जिसके द्वारा किसी भी प्रकार से स्व और पर को बाधा उत्पन्न न हो। स्व और पर में स्व पहले और मुख्य है। पर गौण है। कहीं-कहीं पर पर मुख्य हो जाता है और स्व गौण। सत्य धर्म में यही एक बात कही गई है।


    शब्दों के माध्यम से सत्य का उद्घाटन करने के लिये साधुओं में ही उसका बार-बार प्रयोग करें। समिति का प्रयोग एक बार करो। हित-मित मिष्ठ वचनों से करो। व समिति का प्रयोग साधु व असाधु दोनों से किया जाता है। इसलिए प्रवचन में कभी प्रश्न नहीं पूछा करते। सुना है, जब तत्वचर्चा, संगोष्ठियां वगैरह होती हैं, उस समय बार-बार पूछा जाता है। और बार-बार उसे समझाया भी जाता है। जब एक बार सुन लिया, दो बार सुन लिया और तीसरी बार वह पुनः पूछता है तो उससे प्रतिप्रश्न भी पूछा जा सकता है। तुम्हें समझाने के उपरान्त भी समझ में नहीं आया है, तो बात कहाँ पर अटकी है मुझे बताओ ? ऐसा कहा जाता है। इसकी ध्वनि में कुछ अन्तर आ गया है। क्या बात है ? कल रात में ऐसी ही बात सुनने में मिली। तो हमने कहा-किसी ने बार-बार पूछ लिया होगा। इसलिए स्वर में थोड़ा-सा अन्तर आ गया। समझ में यह भी आ सकता है, कि मेरे ही सुनने में थोड़ी-सी गड़बड़ हो गई हो, संभव है। प्राय: प्रश्नसह: इसलिए कहा है। सामने वाला यदि प्रश्नोत्तर करता है तो प्रश्न सहन करने की क्षमता भी रहना चाहिए। लेकिन यदि कोई आकर यद्वा-तद्वा बोलने लग जाय, तो वह प्रश्न नहीं माना जाता और उसका कोई उत्तर भी नहीं होता। क्योंकि वहाँ पढ़ाई नहीं हो रही है।


    आचार्यों ने साधुओं के लिए सत्यधर्म कहने के लिए भी कहा है। जिस व्यक्ति का क्षयोपशम कमजोर है, विस्मरणशील है, अधूरा समझ में आ जाता है अथवा आधा छोड़ देता है, उसके लिए दोबारा इसी ढंग से कहना आवश्यक हो जाता है, तब सत्य के उद्घाटन के लिये बहुत सारे द्वार हैं। व्रत जो लिया जाता है, वह स्व के लिये लिया जाता है। सत्य धर्म कथचित् पर के लिये है। पर के साथ ही उसका प्रयोग किया जाता है। और भाषासमिति भी पर के सामने ही है। स्व का भी उसमें हित है। लेकिन स्व का हित बहुत कम रहता है, पर का हित विशेष रूप से या ज्यादा रहता है।


    सत्यधर्म, भाषासमिति, वाक् गुप्ती और सत्य महाव्रत इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के प्रसंग के अनुसार इनके प्रयोग किये जाते हैं। वचन का एक बल हुआ करता है। वचन का बल क्या काम करता है ? दोनों तरफ से काम करता है। हित के बारे में भी और अहित के बारे में भी। वचन बोलने में स्व का हित कम रहता है, पर का हित ज्यादा। क्योंकि वचन बोलने में एक प्रकार से व्यवहार होता है। वचन का प्रयोग करने में यदि प्रमाद नहीं है, तो हिंसा गौण है और यदि प्रमाद है, तो हिंसा को हम गौण नहीं कर सकते। बोलते हुए आप अहिंसक रह ही नहीं सकते। इन सब बातों को देखकर ही तीर्थकरों ने दीक्षित होते ही मौन व्रत को अंगीकार कर लिया था। और मौन व्रत का अर्थ आचार्यों ने यह कहा है कि वहाँ पर उत्तम अथवा सम्यक्र शब्द भी लगा हो।


    सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः॥

    तत्त्वार्थसूत्र – ९/४

    गुप्ति और उत्तम सत्य इस प्रकार प्रयोग किया। इसका अर्थ ख्याति, पूजा, लाभ इत्यादि से रहित होकर संवर और कर्म की निर्जरा की विवक्षा में लेना, ये महानतम साधन हेाते हैं। इसी प्रकार सत्य धर्म को भी हमें अपनाना पड़ता है। क्योंकि जिस समय सत्य धर्म का अवलम्बन लिया जाता है, वह परीषहविजय के साथ है। उसके बिना नहीं किया जा सकता। और परीषहविजय चारित्र के साथ ही किया जा सकता है। जब तक सप्तम गुणस्थान या छठवां गुणस्थान प्राप्त नहीं होता, तब तक परीषह के माध्यम से संवर और निर्जरा का कोई प्रावधान नहीं रखा। एकान्त से नहीं कहें, फिर भी महाव्रतों के साथ परीषहजय होता है। अणुव्रत के साथ परीषहजय का कोई प्रकरण नहीं। नवम अध्याय में आपके लिए उपलब्ध होता है


    मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्या परीषहा:॥

    तत्त्वार्थसूत्र – ९/८

    इस सूत्र की व्याख्या करते हुए आगे कहा गया है-मुनियों को परीषह सहन कर लेना चाहिए। अन्यथा वह निर्जरा के लिए कारण नहीं होता, संवर के लिए भी कारण नहीं होता। और परीषहविजय के साथ ही सत्य धर्म का आलम्बन लिया जाता है। अनुप्रेक्षा के साथ ही ये सब कार्यक्रम होते हैं। इस प्रकार कार्यकारण की व्यवस्था के साथ ही यह सूत्र निष्पादित होता है। पहले एक बात कही थी-बोलना कब होता है ? और उसका कारण क्या है ? आकुलता के बिना बोलना नहीं होता। भीतर के भावों की अभिव्यक्ति के लिए बोलना होता है। कई लोग मन को मुदित करने के लिए खूब बोल लेते हैं। ताकि मन हल्का हो जाय। किसी को दुख की घुटन हो रही हो तो रो लेता है। बड़ी शान्ति मिलती है महाराज। रोने दो न, आपको क्या हो रहा है ? लेकिन सोची, विचार करो, रोयेंगे तो संभव है हमें भी असाता का बंध हो और तुमको भी। संभव क्या ? तत्वार्थसूत्र तो चल ही रहा है। भगवान् के सामने भी रोते हैं, महाराज।


    वाणीं गद्गद्यन्वपुः पुलकयन् नेत्रद्वयं स्त्रावयन्...

    ईयपिथ भक्ति – १५

    आज तक हमने किसी भी व्यक्ति को नहीं देखा कि भगवान् के सामने रो रहा हो। और स्वयं पश्चाताप करने से भगवान् को असाता का बंध हो। महाराज, उनको असाता का बंध कभी भी नहीं हो सकता। क्योंकि असाता व साता की उदीरणा के साथ ही यह कार्यक्रम हो सकता है। साता की उदीरणा हो, फिर भी साता का बंध हो सकता है। अप्रमत्त अवस्था में साता का ही बंध होता है। और साता की उदीरणा पीछे रह गई। भगवान् के सामने स्तुति करते समय, आलोचना करते समय खूब रो लेना चाहिए। लेकिन दूसरों को डिस्टर्ब नहीं होना चाहिए। कोई पूजा कर रहा हो और आप अच्छे ढंग से रोने लग जायें, तो वह ठीक नहीं माना जायेगा। जब कोई नहीं है, भगवान् अकेले मिल जायें, तो अच्छे ढंग से रो लें। असाता का बंध हो चुका और होता है। इसलिए असाता के बंध से बचने के लिए अपने को हमेशा-हमेशा असत्य से भी बचना चाहिए। क्या भगवान् को भी जो छद्मस्थ अवस्था में हैं, छटवाँ गुणस्थान होता है ? असाता का बंध हो सकता है ? हाँ हो सकता है। वह बहुत गूढ़ बात जैसी लगती है। लेकिन अस्थिर, अशुभ, असातवेदनीय, अरति और शोक ये प्रकृतियाँ छठवें गुणस्थान तक बंध के योग्य मानी गई हैं। बंध हो यह नियम नहीं। लेकिन बंध होगा तो छठवें गुणस्थान तक ही होगा। जब हमने सोचा कि असत्य बोलते नहीं किन्तु प्रमाद में तो आ रहे हैं। विपदा में इनको असाता का बंध क्यों संभव है ? भोजन के समय प्रमाद की एक विशेष भूमिका बनती है। उससे असाता का बंध हो सकता है।


    इसलिए असत्य से बचने के लिए प्रमाद से भी बचना चाहिए। और बोलना जहाँ से प्रारम्भ होता है वहाँ पर निश्चित रूप से प्रमाद है। यह समझ कर चलना चाहिए। क्योंकि बोलने की आकुलता के बिना हम वचन बल का प्रयोग कर ही नहीं सकते। और प्रमाद एक ऐसा रास्ता है, ऐसा गुणस्थान है, उस गुणस्थान से चढ़ने पर एक ही सातवां गुणस्थान है और उतरने को कितने ही गुणस्थान हैं। इसका ज्ञान यदि कर लें तो भयभीत होने लगते हैं। छठे से पंचम में आ सकता है, छठे से चतुर्थ में आ सकता है, छठे से तृतीय और द्वितीय में आ सकता है। यदि उसको औपशमिक सम्यग्दर्शन है, तो छठे से सारे गुणस्थान नीचे की ओर खुल गये। सप्तम गुणस्थान तक पहुँचना बन्धुओं। बहुत कठिन होता है। सत्य बात यह है कि कषायों से बचना बहुत कठिन होता है। कषायों को जानना यह और कठिन है। और कषायों से बचना इसलिए सरल हो सकता है, क्योंकि कषायों से बचने का एकमात्र रास्ता है कषायों को जानना। चाहे सप्तम में जाओ, चाहे छठवें में जाओ। कषाय तो रहेगी ही, वह कहीं नहीं जा सकती। कषायमय ही गुणस्थान हैं, उसका उपशमन तो ऊपर के गुणस्थान में होता है। अत: बच नहीं सकते। स्वमुख से कोई भी कषाय नहीं आ रही है। एकमात्र संज्वलन रह सकती है, इस अपेक्षा से छठवें-सातवें में बहुत सावधानी के साथ रहना पड़ता है, यह सत्य बात है। इसमें थोड़ा-सा स्खलन हुआ कि छठवें में आ गये, फिसल गये। सप्तम से छठवें में आ गये। सीढ़ी से कोई भी फिसल जाता है, गिर जाता है, तो एक सीढ़ी नीचे आएगा ही, यह निश्चित बात है। उस सीढ़ी पर कोई नहीं गिर सकता। हाँ, ऊपर नहीं चढ़ेगा, उछलेगा नहीं। गेंद के समान। अब लुढ़क गये, एक सीढ़ी लुढ़क गया, दूसरी लुढ़क गया, तीसरी और चौथी लुढ़क गया। इस प्रकार लुढ़कता-लुढ़कता अन्तिम सीढ़ी यानि जमीन के पास आ गया। छठे गुणस्थान से कहाँ जा रहा है ? जमीन में। और दूसरे में भी जायेगा तो निश्चित रूप से मिथ्यात्व में ही जायेगा। यह भी सिद्धान्त है।


    धर्मात्मा जब भीतर के परम आनन्द को जानता है, उस समय वह सत्य का सही-सही पालन करता है। सत्य का पालन बाहर देखते हुए नहीं हेाता। ध्यान रखो, दुनियाँ को देखने से यह सत्य सिद्ध नहीं होंगे। सत्य का रक्षण नहीं कर सकेंगे। किन्तु परिणामों को देखने से ही सत्य का संरक्षण हो सकता है। अन्यथा नहीं। यदि तीर्थकर छद्मस्थावस्था में बोलने लग जायें तो, उनके हजारों-लाखों शिष्य और बन/बढ़ सकते हैं। लेकिन नहीं। क्योंकि यदि बोलेंगे तो उसमें निश्चित रूप से राग होगा। इसलिए वे प्रणय या स्नेह रूप प्रमाद से भी बचना चाहते हैं। प्रमाद से बचने के बहुत तरीके ढूँढ़े हुए हैं। लेकिन उनका प्रमाद कभी भी २८ मूलगुणों में दोष नहीं लगाता। उनका प्रमाद उत्तरगुणों में कभी भी दोष नहीं लगाता। उनका हमेशा वर्धमानचारित्र रहता है। सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने हजारो वर्षों तक संकल्प पूर्वक मौन धारण कर लिया। सत्य बोलने से असत्य का निषेध नहीं होता। उनके सत्य महाव्रत का पालन सत्यधर्म के माध्यम से ही है। वे सत्य धर्म के रक्षक हैं। सत्यधर्म, सत्य महाव्रत का रक्षक है। इसके माध्यम से दूसरा भी सत्य महाव्रत का संरक्षण कर सकता है। और अपने सत्य महाव्रत का तो संरक्षण होता ही है। भूमिका के अनुसार यह सब काम चल सकता है। बोलने रूप समिति को सत्य महाव्रत नहीं माना गया है। शुद्धोपयोग की भूमिका के लिए समिति डायरेक्ट कारण नहीं है। किन्तु सत्य महाव्रत डायरेक्ट पथ माना गया है। सत्य महाव्रती ज्येां ही यह प्रवृत्ति छोड़ देता है, तो शुद्धोपयोग की ओर चला जाएगा। और धर्म की व्याख्या करते-करते एक घंटा भी निकाल दे, तो शुद्धोपयोग का लाभ नहीं होगा। प्रवृत्ति मात्र बंधक है। धर्म और समिति में बोलना क्यों होता है? यह पूछा था। आकुलता को हम सहन नहीं कर पाते इसलिए बोल जाते हैं। दो प्रकार की आकुलताएँ होती हैं। मानलो-कोई किसी को अनोखी बात, अच्छी बात मिल गई तो वह घूमने लग जाता है कि कब जाकर इसको सबके सामने रख दूं। और कोई नहीं आता तो आकुलता होने लग जाती है। ठीक है कि नहीं ? बिल्कुल ठीक है। इस आकुलता को सहन करने की क्षमता रखने वाले मौन धारण कर लेते हैं। रागद्वेष के कारण नहीं। पहले ही उत्तम शब्द लगाया था। सम्यक् शब्द लगाया था। जो राग-द्वेष के कारण मौन धारण कर लेते हैं, वह मौन नहीं माना जायेगा। हाँ, यदि प्रायश्चित के रूप में मौन धारण कर लेते हैं तो वह मौन माना जाता है।


    सत्य के उद्घघाटन के लिए जो आकुलता होती है वह भी असत्य की ओर ले जाती है। भीतर की अभिव्यक्ति को रोकने के लिए, मौन धारण करने के लिए बहुत सशक्त व्यक्ति की आवश्यकता होती है। मन से भी मौन न तोड़ें, मुख से तो तोड़े ही नहीं। अब देखो, यह समझ में नहीं आता अपने को, कि कोई एक शब्द बोले तो फिर भी ठीक है। उसके द्वारा वह उल्टा अर्थ ले लेगा। तो क्या करें? हमारा भाव तो था नहीं, आपके भाव कुछ भी हों। लेकिन सामने वाला व्यक्ति उसको कुछ भी ले सकता है। इसलिए जहाँ पर मन से, वचन से और काय से कुछ भी प्रवृत्ति न हो और बोलने के भाव हो जायें तो भी मौन में दूषण आ गया। कठिन तो है, वचन को किस ढंग से ढाला जाय ? सत्य कैसे पलता है ? इसके बारे में सोचना चाहिए। कोई क्या कहेगा ? इसके बारे में नहीं सोचना चाहिए। यदि सोच लें तो सत्य का पालन नहीं हो सकता।


    महाराज, आपको सत्य के बारे में बताना है। कब तक बताते चले जायें ? और बताने के उपरांत भी यदि असत्य सिद्ध हो गया तो वचनों को पकड़ कर सत्य को असत्य और असत्य को सत्य भी किया जा सकता है। इस जंजाल से ऊपर उठने का एक ही तरीका है, सत्य का पालन।

    अपने आप में एक अनूठा साधन है। कर्मों के उदय का प्रतिकार न करने की जो इच्छा/साधना होती है, उसका नाम सत्य है। क्योंकि बोलने की तो इच्छा होती है। या कोई भी घटना घट जाती है तो उसको सिद्ध करने के लिये या सोचने के लिए बैठ जाते हैं। यह सोचने के लिए बाध्य कब किया जा रहा है ? किसको बाध्य किया जा रहा है ? कौन बाध्य कर रहा है ? कर्म का उदय बाध्य करता है, लेकिन धन्य हैं तीर्थकर जो हजारों वर्षों मौन धारण कर सत्य का पालन करते हुए अपने जीवन को व्यतीत करते हैं। और कोई ऐसे भी मुनि महाराज रहते हैं जो सत्य का पालन करने के लिए, महाव्रत का पालन करने के लिए आठ वर्ष कम पूर्वकोटी तक मौन धारण कर सकते हैं। इसमें कोई बाधा नहीं। उपवास के लिए भले ही ६ महीने का नियम बनाया हो, पर मौन के लिए कोई ६ महीने का नियम नहीं बनाया। तो उतनी ही सुनेंगे, जितनी भीतर से आकुलता है। तरंग तो उत्पन्न होते होंगे, लेकिन सत्य यही देखा जा रहा है। कर्म के उदय आ रहे हैं, बोलने की इच्छा होती होगी, लेकिन इच्छा के अनुसार काम करना नहीं है। इच्छा के निरोध करने का नाम तप बतलाया गया है। इच्छानिरोधस्तप:। बोलने की इच्छा हुई तो बोल लिया। नहीं, संयम रखो। महाराज, कल के लिए संयम है, आज क्यों रखें ? तो बोलो। यदि आकुलता सहन नहीं होती है, तो अपने आप ही बोलते-बेालते रोने भी लग जाओगे।


    जहाँ पर रोने के लिए कहा गया है, वहाँ पर संसारी प्राणी रोता नहीं। जहाँ पर बोलने के लिए कहा गया, वहाँ पर बोलता नहीं। जहाँ पर जैसा कहा गया है उसके अनुसार वह नहीं करता। कर्म के उदय में वह अपनी इच्छा के अनुरूप करना चाहता है। इच्छा के अनुरूप संयम नहीं पलता। मोक्षमार्ग आगम के अनुरूप ही संयम के साथ चलता है। कई बार कई लोग कहते हैं- महाराज! जब सामने ही किसी के दोष हम देख रहे हैं, और उनको कुछ संकेत न दें, यह कैसी बात है? हाँ, बिल्कुल सामने-सामने देखना चाहिए। लेकिन अपने ही औदयिक भाव हैं, जो सामने ही हैं उनको देखना चाहिए। है तो बात यही, फिर तो क्यों लगा रहे हो ? यह आक्षेप पर के ऊपर करना चाहता है और यहीं असत्य का समर्थन हो गया। असत्य का समर्थन बहुत जल्दी हो जाता है। निमित्त के ऊपर टूटने वाला सत्य का पालन नहीं कर सकता। निमित्त की ओर दृष्टि रखी नहीं कि सत्य कथचित् गायब हो गया। निमित्त ज्ञेय भी बन सकता है। लेकिन ज्ञेय की परिधि में निमित्त बहुत कम समय के लिए रुकता है। बाद में वह हेय या उपादेय, साधन या उपाय के रूप में सामने आ जाता है। परन्तु सब अपने आप को भूल जाते हैं। सत्य के लिए बहुत कठिनाई के साथ साधना करनी पड़ती है। सत्य के लिए सब कुछ न्यौछावर करना पड़ता है। सत्य की रक्षा के लिए कषायों के गुण-धर्मों को भी सही-सही समझ लेना चाहिए? क्या आप असत्य बोलकर सिद्ध कर सकते हैं। क्या आप सत्य बोलकर सत्य सिद्ध कर सकते हैं।

    आज न्यायालय में देख रहे हैं। कोई एक घटना हुई। उसका केस चला। केस की स्वर्ण जयन्ती नहीं, हीरक जयन्ती होती हैं। उसका भी उल्लंघन करके शताब्दी भी पूर्ण होने को होती है। फिर भी केस अभी तक चल रहा है। सत्य और असत्य का निर्णय नहीं हुआ। निर्णय नहीं हुआ, ऐसा नहीं। वह तो निर्णीत है। लेकिन घोषणा नहीं हुई। यह कौन से सत्य में गिना जायेगा ? इसलिए सबसे अच्छा तो यह है कि आये हुए कर्मों की चिकित्सा न करें। निर्विचिकित्सा किसी को हुई है। निश्चयमोक्षमार्ग/निश्चय सम्यग्दर्शन के अंगों के बारे में कुन्दकुन्द स्वामी ने निर्जरा अधिकार के उपसंहार में कुछ ऐसी गाथाएँ रखी हैं, जिन गाथाओं के अर्थ की ओर देखने में समन्तभद्र जी के रत्नकरण्डकश्रावकाचारगत आठ अंग का प्रकरण बहुत ही नीचे की ओर चला जाता है। गृहस्थों का सद्धर्म, गृहस्थों का सम्यग्दर्शन, गृहस्थों के आठ अंग से, मोक्षमार्ग या रत्नत्रयलीन मुनि के सम्यग्दर्शन के आठ अंग बहुत ही सरल है। उसमें कुछ करना नहीं है। सबमें निश्चय लगा दिया गया है। और भले ही नामोल्लेख किया है। लेकिन नामोल्लेख में कषाय के बिना जो कुछ भी परिणाम बनते हैं, वे सारे के सारे निश्चय सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के साथ घटित होते चले जाते हैं। निर्विचिकित्सा अंग के विषय में क्या बोलते हैं


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    (समयसार-२४६)

    निश्चय सम्यग्दर्शन का सत्य अंग क्या है ? इसे कुन्दकुन्द भगवान् ने अपने अध्यात्म में लिख दिया। किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं करता, ग्लानि नहीं करता। कहाँ नहीं करता ग्लानि ? सभी धर्मों के ऊपर ग्लानि नहीं करता। चाहे वह पदार्थ अच्छा हो, या बुरा, खट्टा हो या मीठा, या चरपरा हो, चाहे दुर्गन्ध या सुगन्ध हो। ऐसा तो वहाँ पर नहीं लिखा ? रत्नत्रय के बारे में कहा है। सभी धर्मों के ऊपर कहा है। सभी धर्मों के ऊपर कहने से चाहे वह सराग धर्म हो, चाहे वह वीतराग धर्म हो। किसी को अच्छा-बुरा नहीं कहेगा। वह जो समझेगा वह ज्ञान की परिणति समझी जाएगी। किन्तु रत्नत्रय के प्रति भी आकांक्षा नहीं करता और सराग धर्म के प्रति भी चिकित्सा भाव नहीं करना ।


    वह सभी के प्रति निर्विचिकित्सक होता है। चाहे वह अपना हो या पराया। ये तो प्रवृत्ति की भूमिका में है। ऊपर की भूमिका में अपना और पराया, इन सबका सफाया हो जाता है। कोई मतलब नहीं, कोई विकल्प नहीं, न अच्छा कर रहा है, न बुरा कह रहा है, न स्वीकार कर रहा है, न त्याग। न त्याग, न आदान, कुछ भी नहीं है। ऐसी दृष्टि में ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध होना बड़ा सहज हो जाता है।

    धर्मोपदेश करने वाले भी सबके प्रति एक-सा भाव रखते हैं। एक के प्रति अलग परिणाम रखना और दूसरे के प्रति अलग यह प्रवृत्ति के काल में तो ठीक है। लेकिन निवृत्ति के काल में सत्य आ सकता है, जिसे सार्वभौम सत्य या वैकालिक सत्य बोलना चाहिए। उसका अनुपालन करते समय आनन्द आता है, साक्षात् मोक्षमार्ग का। यह अन्य दूसरे मार्ग में नहीं मिल सकता। ऐसा सत्य है। सत्य क्या है ?


    सता युतं सत्यम्।

    अर्थात् उत्पाद, व्यय और धौव्य से युक्त सत् है और सत्य से जो प्रभावित होता है, उसका भाव सत्य होता है। जिसको महासत्ता भी बोलते हैं। उस सत्य के विषय में क्या कहें हम ? वही साक्षात् मोक्षमार्ग माना जाता है। ज्ञान सत्य नहीं है। ज्ञान का फल उपेक्षा जो है, वह सत्य है। जिस ज्ञान के साथ चयन है, जिस ज्ञान के साथ छोड़ना और ग्रहण करना है, सही पूछा जाय तो वह सत्य नहीं माना जाता। वह उपेक्षा है। उपेक्षा का अर्थ द्वेष नहीं। उपेक्षा का अर्थ दोनों के ऊपर उठ जाना है। सही पूछा जाय, तो ज्ञान का मुख्य लक्षण क्या है ? यान। एक जलयान और एक वायुयान होता है।


    याति इति यानम्।

    जो जाता है, चलता है, उसका नाम यान है। यान जल में चलता नहीं, तैरता है। किन्तु रास्ते के ऊपर, धरती के ऊपर तो वह भागता है। और जब वह यान इन दोनों की उपेक्षा कर जाता है, तो ऊपर उठता है, तो तीनों दृश्य देख सकते हैं हम यान के, एक ही यान तीन काम करता है। जल के ऊपर चला जाता है, तो वह स्टीमर का काम करता है। और यदि उसे पट्टी के ऊपर चलना होता है, तो उसमें चाक लग जाते हैं और वह भागने लग जाता है। और जब इन दोनों से वह ऊपर उठ जाता है, तब वह सही यान कहलाता है। वायुयान कहलाता है। जल में तैरने की अपेक्षा से उसे स्टीमर की संज्ञा देते हैं या जलयान कहा गया है। धरती पर भाग रहा है, इसलिए उसको गाड़ी कह सकते हैं। भले ही विमान है, पर भागते समय तो उसको गाड़ी ही कहेंगे। जब वह ऊपर उठ जाता है तो किसकी उपेक्षा हो गई ? धरती की भी उपेक्षा हो गई और जल की भी। ज्यों ही दोनों की उपेक्षा हो गई, त्यों ही उसके चाक अपने आप छुप जाते हैं। भीतर की ओर हो जाते हैं। नीचे की ओर बाद में आते हैं, जब वह उतरना प्रारम्भ कर देता है। उतरना प्रारम्भ करते ही, नहीं आते हैं, अपितु धरती पर आने के समय वे चाक उसमें आ जाते हैं। आपके पास पैर हैं कि नहीं ? देख लेते हैं, महाराज! हैं, कि नहीं। क्योंकि चलने की प्रक्रिया अभी गौण हो गयी है। एक घंटे अपने को चलना नहीं है। इसलिए एक घंटे तक अपने पास पैर नहीं हैं। फिर बैठे कैसे हैं ? पालथी मारकर बैठे हैं। फिर भी पैर महसूस नहीं होते हैं। इस प्रकार पैर की उपेक्षा आपने की। हमेशा-हमेशा उपेक्षा करें, तो भागा दौड़ी नहीं होगी। इसी प्रकार ज्ञान का प्रयोग करते समय सत्य नहीं होता। लेकिन ज्ञान का जो विषय है, उसकी उपेक्षा करने से सत्य उद्घाटित होता है। इसलिए ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध के साथ, उपेक्षा संयम की बात नहीं कही है। किन्तु उपेक्षा संयम तो यह है कि


    णाणस्स फलमुवेक्खा.।

    जब फल की ओर, कार्य की ओर देखते हैं, तो ज्ञान की डेफिनेशन सामने आ जाती है। प्रयोजन, संज्ञा, लक्षण या संख्या की ओर जाते हैं, तो ज्ञान की सारी की सारी प्रवृत्ति चलने लग जाती है। और जब ज्ञान के फल की ओर देखते हैं, तो ये चारों गौण हो जाते हैं। न्याय के ग्रन्थों में इस ज्ञान के चार लक्षण बना लेते हैं, जो चार प्रयोजन सिद्ध करते हैं। लेकिन सत्य बात तो यह है, जो कुन्दकुन्द महाराज कहते हैं-ज्ञान का सही लक्षण तो वही है, जब वह उपेक्षा में ढल जाता है। फल की ओर जब तक नहीं देखते तब तक उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। फल ही प्रयोजन है, और ज्ञान का सही फल उपेक्षा माना गया है। ज्ञान के माध्यम से ही छोड़ा जाता है और ज्ञान के माध्यम से ग्रहण होता है। यह भी ज्ञान के लिये ग्रहण है। ग्रहण का अर्थ क्या होता है ? ग्रहण का अर्थ एक से अभिप्राय है। यह वरदान नहीं, घाटा है। क्योंकि इसमें परिश्रम है और ज्ञान का फल परिश्रम रूप नहीं होता है। संसारी प्राणी कभी भी फल का सेवन नहीं करते। क्योंकि सत्य क्या है ? यह उद्घाटित ही नहीं हो पाता, उन्हें।


    धन्य हैं, उस सत्य में जो तैर रहे हैं। धन्य हैं, जो उस सत्य में डुबकी लगा रहे हैं। धन्य हैं, उस सत्य में जो अनुभूत कर रहे हैं। तरंग दो प्रकार के होते हैं। तरंग जब आती है, जबकि पानी में स्पन्दन हो। स्पन्दन यद्यपि समग्र जल में है, फिर भी तरंग ऊपर उठती है। पानी नीचे रहते हुए भी लहर देखने के लिये ऊपर ही मिलती है। जितने डीप (Deep) में आप पहुँचेंगे तो वहाँ जल तरंगरहित ही मिलेगा और शीतल भी। बहुत ठण्डा लगेगा। वहाँ पर दूसरे पदार्थों का कोई प्रभाव देखने को नहीं मिलेगा।


    वस्तुत: छठवां गुणस्थान कोई विकासोन्मुखी मार्ग रूप नहीं है। बोलना प्रमादमूलक ही होता है, इसलिए वह कभी भी धर्म की ओर नहीं ले जाता। और जो असत्य है, पाप है, उन्मार्ग है, उससे बचने के लिए एक ही रास्ता है। इसलिए गिरते समय ही इसका दर्शन होता है। चढ़ने समय कभी भी छठवें गुणस्थान का दर्शन नहीं होता। जब हीयमान लेश्या होती है, तभी छठवां गुणस्थान देखने को मिलता है, वर्धमान लेश्या के साथ नहीं। क्योंकि वह गिरते समय ही होता है, गिरते समय ही आता है। जैसे आप सर्वप्रथम टिकट लेकर के ही चित्रगृह इत्यादि में चले जाते हैं। कोई काम करने के लिए यदि बाहर आना पड़ता है, तो टिकट नहीं मिलता। क्या मिलता है ? पास मिलता है। पास लेकर पास हो जाओ। अब टिकट नहीं मिलेगा। भीतर पहुँचने के लिए ही टिकट माध्यम है। इसी तरह पहले सप्तम गुणस्थान में ही प्रवेश होता है, बाद में नीचे आना पड़ता है। भगवान् कुन्दकुन्द कहते हैं-उपेक्षा संयम, जो सत्यमय है, उसको अनुभव करने का सौभाग्य मुनि महाराजों को ही होता है।


    जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह य सव्वधम्मेसु।
    सो णिक्कं खो चेदा, सम्मादिट्टी मुणेयव्वो॥

    जो किसी धर्म में आकांक्षा नहीं करता है। यही सत्य, निश्चय सम्यग्दर्शन का अंग है। उसका पान करना सौभाग्य का विषय है और उसी को प्राप्त करने के लिये सत्य का आलम्बन लिया जाता है। व्यवहार से सत्य का आलम्बन लिया जाता है।


    सर्वप्रथम सत्यधर्म नहीं होता, सत्य महाव्रत आता है। बाद में सत्यधर्म आता है। अथवा भाषा समिति आती है, अथवा सत्य मनोयोग आ जाता है। सत्य मनोयोग के माध्यम से भक्ति के माध्यम से, वह भीतर पहुँच जाता है। अनुभयवचन और सत्यवचन बोलने के लिए छुट्टी दी गई है। बोलने की आवश्यकता पड़ जाये, तो सत्य बोलो और अनुभयवचन बोलो। लेकिन यह मार्ग नहीं है। आकुलता को कम करना चाहो, तो करो। कई व्यक्ति इस आकुलता से बचने के लिए बोलना प्रारम्भ करते हैं। किन्तु इस आकुलता से जो ऊपर उठना चाहता है, वह अपने आपको यान के समान रत्नत्रय को भी आत्ममुखी बना लेता है। स्नय के माध्यम से ही चलना होता है।


    यान जब चलता है, सो ऐसा चलता है कि उस यान को देखना पसन्द करेंगे। हम उस यान को देखना चाहते हैं, जो चलता नहीं, अपितु जो चढ़ता है। जो चढ़ता है, उस समय भेद रत्नत्रय नहीं रहता। कहाँ पर चले गये तीनों पहिया ? गायब। अब गिर जाय तो क्या हो ? पैर तो समाप्त हो गये, पैरों से चलते समय ही गिर सकते हैं। चढ़ते समय गिर नहीं सकते।


    आचार्यों के द्वारा एक प्रसंग बहुत अच्छा कहा गया है-जिस समय श्रेणी चढ़ता है, तो उस समय प्रथम भाग में मरण नहीं होता। चढ़ता है, चढ़ता चला जाता है, वेग बढ़ जाता है। और वेग बढ़ने के कारण अपने आप बैलेंस हो जाता है। वेग बढ़ाओ, आवेग नहीं। वेग बढ़ाओ, उद्वेग नहीं। वेग बढ़ाओ, निर्वेग बढ़ाओ। वेग बढ़ाओ और संवेग बढ़ाओ। संवेग और निर्वेग का विकास यदि होता है, तो अपने आप ही वह अपने आप में लीन हो जाता है। उस समय कितनी रफ्तार से वह जा रहा है, इसका भी अनुभव नहीं होता। यहाँ तक कि बाहर जो आवाज उमड़-घुमड़ करके बादलों के समान होती रहती है, वह भीतर बैठे हुए विमानयात्रियों को नहीं आती। ऐसी यात्रा होती रहती है, महाराज। आपने देखी है क्या ? आप बैठे हैं क्या ? बैठे नहीं हैं, तो क्या हुआ, जो बैठे हैं, उनसे सुन नहीं सकते क्या ? दूसरी बात यह है, कि हम बैठते और चलते हैं, प्रवृत्ति के समय। समाधि के समय पर चढ़ते हैं। बस, वहाँ ऐसा हो जाता है, कि पता नहीं चलता, कि देह है कि नहीं? बैठे हैं कि खड़े हैं ? यह भी पता नहीं रहता।


    सत्य का आलम्बन लेने का एक मात्र फल है, उस ज्ञान का आलम्बन लेकर आपको, उस सत्य को महसूस करना चाहिए।शरीर के आश्रित सत्य होने पर प्रवृत्तिमूलक धर्मकाण्ड ही करायेगा। किन्तु जब उसके ऊपर उठ जाते हैं, तो आनन्द का कोई पार नहीं रहता। अभी आनन्द की शुरूआत देखी है। जब बिल्कुल ही सत्य हो जायेगा, तो इन्द्रियातीत, देहातीत भवातीत और सबसे अतीत होकर वह रहता है। दुनियाँ में रहते हुए भी, दुनियाँ का नहीं है। जल में होते हुए भी कभी कमल के समान वह सड़ता नहीं, गलता नहीं। यही एक मात्र सत्य होता है। किसी प्रकार से चिकित्सा करना, प्रतिकार करना सत्य नहीं है। इसलिए निश्चयसम्यग्दर्शन में जो अंगों की व्यवस्था की गई है, वह बहुत ही अनोखी व्यवस्था है और प्रवृतिमूलक भेदरत्नत्रय के साथ जो व्यवस्था की गई है, वह आठ अंग, जो रत्नकरण्डकश्रावकाचार में भी उपलब्ध होते हैं।


    भेदरत्नत्रय से अभेदरत्नत्रय को पाने वाले मुनिराज कभी बाहर आना ही नहीं चाहते हैं। जैसे आप लोग एयरकंडीशन में से बाहर नहीं आना चाहते। वैसे ही वे मुनि अपने अभेदरत्नत्रय रूपी एयरकंडीशन से बाहर नहीं आना चाहते। अपने स्वरूप के दर्शन, अपने शाश्वत सत्य को पाने में लीन होते हैं। वे सत्यधर्म के बारे में कहते नहीं, अनुभव करते हैं। इसी भावना के साथ उत्तम सत्यधर्म की जय...

     

    देवावि  तस्स पणमंति...

    आज्ञा संयम के लिए परम अनिवार्य है। संयम का बंधन बिना आज्ञा के संभव नहीं हो सकता। जब तक आज्ञा-सम्यक्त्व नहीं होगा, हमारा चारित्र चारित्र की संज्ञा नहीं पा सकता। हमारे ये पर्व जीवरक्षा के पर्व होना चाहिए। मात्र गाने बजाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए। पाँच पापों को रोकने का कार्य इन पर्व के माध्यम से होता है। अपना इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम रखते हुए जीवरक्षा की भी बात करना चाहिए। प्रयास करना चाहिए कि कोई भी जीव दुखी न रहे।


    पर्व प्रारम्भ हो चुका है। यहाँ के लिए नहीं कहा जा रहा है। पर्व प्रारम्भ हो चुका और पर्व आने से पूर्व में ही सबको निर्दिष्ट किया गया था। सबके लिए एक प्रकार से संयम से बांध दिया गया था। सबके मन-वचन-काय की प्रवृत्ति, जो उस पाप को करने की होती है, उसको बिल्कुल नियन्त्रण में लाकर रख दिया गया था। और यह कह दिया गया था कि यह इतने दिन के लिए जो नियम दिया जा रहा है, उसमें किसी प्रकार की कमी न हो जाए। क्योंकि राजा की आज्ञा होने के कारण इसमें यदि कमी आती है, तो ध्यान रहे, चाहे वह कोई भी हो, उसका मरण निश्चित है, ऐसी आज्ञा है।


    आज के विधान/संविधान ऐसे होते हैं, जिनमें संविधानसूत्र लिखने के पूर्व में ही उसके उल्लंघन के सूत्र प्राप्त हो जाते हैं। आज की राजनीति और उस समय की राजनीति, इन दोनों की तुलना करना अभी से प्रारम्भ कर देनी चाहिए।


    आज वैसे संयम का दिन है। आप लोगों को भी तो सबको इन दिनों की बड़ी प्रतीक्षा थी। यह जो राजा ने आज्ञा दी है, इससे कोई मतलब नहीं। क्योंकि यह तो हमारे लिए पहले से ही स्वीकृत हैं। इसके प्रति हमारा आदर है और इस पर्वराज के प्रति क्या कहें ? देव लोग भी इसके लिए तरसते रहते हैं। यह पर्व केवल मनुष्य और तिर्यच तक ही सीमित नहीं रहता है। विलासिता में हमेशा डूबा रहने वाला देवों का समूह भी इन घड़ियों की प्रतीक्षा में रहता है। यह ध्यान रखना, कि वहाँ पर न तिथि है, न मिति और न वार। सूर्य नहीं, चन्द्रमा नहीं, कुछ भी नहीं है। लेकिन वे हमेशा एस.टी.डी. से सम्पर्क बनाए रखते हैं, कि यहाँ कौन सी मिति चल रही है। हम हमेशा असंयम में व्यस्त रहने वाले हैं, हमारा जीवन असंयम से नियंत्रित रहता है। यानि नियंत्रण से बाहर नहीं होते हैं हम। असंयम ही हमारे लिए एकमात्र बंधन है। कई लोग संयम को बंधन मानते हैं और हम असंयम को एक बंधन मानते हैं। इस बंधन में अपने आप को गति नामकर्म व आयुकर्म के उदय से ऐसा बांध रखा है कि हम भीतर ही भीतर पिंजड़े के पंछी के समान छटपटाते रहते हैं। जैसे एक व्यक्ति को सीमा में बंद कर दिया जाता है। वह घटाकूप में रहता है लेकिन फिर भी कुछ ऐसे समय दिए जाते हैं वह अपने सम्बन्धियों से, अपने मित्रों से और कोई अन्य व्यक्तियों से मिलकर थोड़ी बहुत राहत का अनुभव करता है।


    आप लोग मेले-ठेले में जिस प्रकार उत्साह के साथ जाते हैं। कितने उत्साह के साथ जाते हैं? क्या बतायें, फूले नहीं समाते। और जब पैसा हजम तो मेला खतम। यही बात है। तो आठ दिन तक ऐसे रहते हैं। कैसे रहते हैं ? सबको भूल जाते हैं। और कुछ भी नहीं बीच में, अष्टाहिका पर्व का वह अवसर है।


    देवावि तस्स पणमति, जस्स धम्मे सया मणो।

    वीर भक्ति – ८

    अहिंसा धर्म में जिसका चित्त लीन रहता है। इस धरती पर वह मानव देवों से भी पूज्य है। वे सपरिवार– दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुप्फेण, दिव्वेण धूवेण दिव्वेण ण्हाणेण. इत्यादि। भवनवासी, ज्योतिष, व्यन्तर और वैमानिक सपरिवार आ रहे हैं। अपने परिवार के साथ दिव्य गन्ध, दिव्य पुष्प, दिव्य वस्त्र, दिव्य फलफूल आदि सभी दिव्य-दिव्य लेकर इस भव्य धरती पर उतर आते हैं। वे गये तो इधर भी प्रतीक्षा थी। आठ दिन तक वह पर्व है। आप लोगों का तो यह दस दिनों का है। आठ दिन का वहाँ के लिए कहा जा रहा है। वे सभी के सभी व्यस्त हो जाते हैं। कुछ लोगों को, जैसे यह चन्द्रमा खटकता है, चोर को चन्द्रमा की चांदनी परेशान कर देती है। उसी प्रकार ये आठ दिन आठ वर्ष से भी ज्यादा लग रहे थे।


    कई प्रकार के व्यक्ति हुआ करते हैं। सागरोपम आयु भी आठ दिन जैसे नहीं लगती। और आठ दिन भी इनको आठ वर्ष जैसे लग रहे हैं। बीच में रहा नहीं गया। एक व्यक्ति राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है। उसने सोचा होगा राजा तो दूसरों के लिए हुआ करते हैं, हमारे लिए थोड़े ही राजा हैं। यही सोचकर उसने आज्ञा का उल्लंघन किया। लेकिन कौन आज्ञा का उल्लंघन करता है ? यह केवल मन्दिरों में ही नहीं देखा जा रहा था। इस आज्ञा का अनुपालन करने वाले व्यक्ति कितने हैं और उसमें कमी रखने वाला कौन है ? कहाँ पर कमी रखता है? सारे के सारे सी.आई.डी. के माध्यम से देखते हैं। उस अपराधी को पकड़ लिया गया। अपराधी ने कहा-जाकर कह देना, हम तुम्हारे साथ नहीं आते। शायद डर गया हो, यह बात तो बिल्कुल ठीक है। जब पहचान में आ गया तो सही बात है। लेकिन पूछताछ की जाती है, कोई भी प्वाइंट गलत नहीं हो सकता, घुमाया नहीं जा सकता है, और सब लोग आस्था के धनी थे।


    महाराज! एक व्यक्ति ने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है। कहने के लिए क्यों आये हो, जो कहा था वही करो। महाराज। आपकी आज्ञा के बिना कैसे किया जा सकता है कहिये ? आज्ञा दीजिए। इन दिनों इधर-उधर की बात नहीं करते। तुम्हारे लिये क्या इसलिए नियुक्त किया गया है ? तुम्हारा कर्तव्य क्या था ? फिर भी महाराज। कुछ विशेष केस है। विशेष केस, हमारी विशेष आज्ञा है। आज्ञा न सामान्य रहती है और न विशेष। आज्ञा तो आज्ञा है। धरती पर ही आज्ञा रहती है, ऐसा भी नहीं है। किन्तु देवगति में भी आज्ञायें रहा करती हैं।


    अभ्युदय के बारे में स्वामी समन्तभद्र महाराज ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है-अभ्युदय की प्राप्ति किसे होती है ? पंचव्रतों या प्रतिमा इत्यादिक का जो निरतिचार-निरतिक्रमण, अतिक्रमण यानि दोषों से रहित होकर के पालन करता है। वह कहाँ पर जाता है ? स्वर्ग में। वहाँ जैसा अभ्युदय अन्यत्र नहीं मिलता। आज्ञाकारी देव मिल जाते हैं। जैसे कोई मन्त्री होता है, तो उसके लिए बॉडीगार्ड की व्यवस्था हो जाती है, एक, दो, तीन या चार इत्यादि रूप से। आजू-बाजू आगे-पीछे के लिये बॉडीगार्ड की व्यवस्था हो जाती है। उनको लेकर चलते हैं। जहाँ वे जावेंगे, उनके पीछेपीछे वह व्यवस्था लगी रहती है। इसमें एक सेकेंड के लिये भी कोई गड़बड़ी नहीं करता। मानली, यदि वे सो गये, तो ये भी सो जायें, ऐसा नहीं। ये सोयेंगे नहीं। बिल्कुल उनके चारों ओर रक्षक के रूप में रहते हैं। ऐसा अभ्युदय वहाँ भी है, आज्ञाकारी देव मिल जाते हैं। मनुष्य नहीं, देव मिल जाते हैं। क्योंकि आगम की आज्ञापालन करने के फलस्वरूप उनके पास ऐसी शक्ति आ गई है कि देव, दानव, असुर या सुर सभी उनकी आज्ञा में २४ घंटे रहते हैं।


    हम आज्ञा देना तो चाहते हैं, लेकिन आज्ञा का पालन नहीं करना चाहते। हम बड़े तो बनना चाहते हैं, किन्तु बड़ों का काम नहीं करना चाहते। हम नेतृत्व तो देना चाहते हैं, लेकिन नेतृत्व किसी का लेना नहीं चाहते। हम डायरेक्ट सीनियर होना चाहते हैं। तब जूनियर कौन बनेगा? किन्तु यह एक सिद्धान्त है कि किसी भी क्षेत्र में डायरेक्ट हम सीनियर नहीं हो सकते। योग्यता के अनुसार हो सकते हैं।


    वहाँ पर जन्म लिया अर्थात् उपपाद जन्म हुआ और एक दम आज्ञा कैसे देने लगे ? हम तो बहुत सागरोपम की आयु लेकर जी रहे हैं। मानली, कोई सौधर्मस्वर्ग में इन्द्र हो गया। उसे अभी अन्तर्मुहूर्त ही हुआ है। और दो सागरोपम से कुछ अधिक की आयु है वहाँ की, उतने पुराने देव वहाँ होंगे। वे हाथ जोड़कर वहाँ खड़े हो गये। आपकी प्रतीक्षा थी और आप आ गये। आने वाला अभी किशोर जैसा ही है अर्थात् २० साल के भीतर और १५ साल से ऊपर। इस ढंग से वे खड़े कैसे हो जाते हैं ? क्योंकि सौधर्म इन्द्र वही बनता है, जो विशेष रूप से जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा का पालन करता है। केवल १२ ही सीट हैं। सोलह स्वर्ग है और सीट १२ हैं। एक-एक स्वर्ग में देव असंख्यात-असंख्यात होते हैं। नव-ग्रेवेयकों में असंख्यात हैं। अपराजित इत्यादि जो चार हैं उनमें भी असंख्यात हैं। सर्वार्थसिद्धि में संख्यात हैं। सारे के सारे स्वगों में असंख्यात कह ली। उन असंख्यात सीटों में, मात्र बारह सीट्स ऐसी हैं, जो इन्द्रों के लिये मिल जाती हैं। लेकिन बारह सीटों में से सौधर्म इन्द्र की सीट अपने आप में अलग है।


    जब पंचकल्याणक होते हैं, तो उस समय इसका महत्व क्या है ? यह आपको ज्ञात हो जाता है। बाकी जितने भी देव हैं, वे उसके पूरक ही हैं। सौधर्म इन्द्र का सारा का सारा आधिपत्य अलग रहता है। उसके कहने से पूर्व ही उनके सहयोग के लिये चारों प्रकार के देव आकर खड़े हो जाते हैं। अभिषेक होना है, पाण्डुकशिला पर। सब लोग आकर खड़े हो जाते हैं, वहाँ पर। देवगण क्षीरसागर से घड़े भरकर लायेंगे और यहाँ पर सौधर्म इन्द्र खड़ा है, वही सबसे पहले अभिषेक करेगा। सारे के सारे प्रबन्ध को देखकर ऐसा लगता है कि उनकी आज्ञा देने की कोई आवश्यकता नहीं, लीजिये.लीजिये। एक आध चित्र देखा तो ऐसा लगा। जब नन्दीश्वरभक्ति पढ़ते हैं तो ऐसा ही लगता है। सब अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हैं। क्षीरसमुद्र के जल से भरे घड़े आ रहे हैं। पंक्तिबद्ध रूप से आ रहे हैं। और उनके हाथों में चले जा रहे हैं। इधर से खाली, और उधर से भरे। समझ में नहीं आता, इन्द्र की आज्ञा को उल्लंघन करने वाला कोई देव नहीं ? सभी आज्ञाकारी हैं। इसका इतिहास कुछ समझना चाहिए। पहले उन्होंने अपने जीवन को असंयम में व्यतीत न करके, संयम से व्यतीत किया और आज्ञा का ऐसा पालन किया, जिसे आज्ञासम्यक्त्व कहते हैं। जो कि


    सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिनैव हन्यते ।

    आज्ञामात्रं तु तद्ग्राहयं नान्यथा वादिनो जिनः॥

    आज तर्कणा करना बुद्धिमत्ता का प्रतीक माना जा रहा है। लेकिन आज्ञा सम्यक्त्व अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। तर्कणा करने की हमारे पास क्या शक्ति है ? दिव्यज्ञान के माध्यम से जिस जिनवाणी का सृजन हुआ हो, उसमें हमारी क्या तर्कणा है ? हम अपनी बुद्धि को बढ़ाने की अपेक्षा से तर्क कर सकते हैं। जैसे तोतले बच्चे बोलते हैं। उसी प्रकार से हम भी अपने ढंग से करते हैं। यह भी ज्ञान के विकास में एक साधन है, यह मान कर चलते हैं। वस्तुत: हम बहुत बड़े ज्ञानी हैं, ऐसा नहीं है। वह इन्द्र भी आज्ञा से बना है। और जब कभी भी सौधर्म इन्द्र बालक महावीर के सामने आता है तो हाथ जोड़े ही आना होता है। विकल्प भीतर हो सकता है, कि यह आज का बालक और ५०० धनुष की काया वाले तीर्थकर। इनकी ५०० धनुष की काया तो है नहीं। जब महावीर की आयु ७२ वर्ष की हुई, तब ऊँचाई सात हाथ की थी। छोटा लड़का या छोटा बालक छोटा ही है, और बड़े-बड़े मुख के घड़े और यह ठण्डा पानी, और उसकी यह धारा। इसको झेलना मुश्किल है। हे भगवन्! अब क्या करूं ? लेट करूं ? तो गड़बड़। तभी भगवान् ने एकदम अंगूठा दबाकर पाण्डुकशिला को हिला दिया। अरे! यह क्या हो गया ? यह सब करामात तो होनहार भगवान् की है। सौधर्म इन्द्र भूल गया, तीर्थकरों की शक्ति इतनी होती है चाहे वह शारीरिक हो या वाचनिक या मानसिक। आत्मिक बल भी उनके पास अनुपम होता है। सौधर्म इन्द्र कहता है-भगवन्। चूक हो गई। बालक आज का ही जन्म लिया है। हाँ! हमारी गोद में पला है और मुझे ही आज्ञा दे, ऐसा नहीं। इस जगह विस्मय होता है कि उधर सागरों आयु वाले और इधर एक नवजात शिशु। शिशु की काया छोटी लग रही है। लेकिन काया में जो आत्मा है, वह तीन लोक को हिलाने की क्षमता रखती है। तीर्थकर होनहार हैं। ऐसी जो आगम की आज्ञा सुन रखी है, और कई बार देख रखा है, उसमें बिना कान फड़फड़ाये, ननु न च किये, हे भगवन्! गन्धोदक लेता हूँ, सिर पर चढ़ाता हूँ। साफ-सुथरे मुकुट में धूल लगाकर अलंकृत करता है। धूल लगने से तो मुकुट गंदा हो गया होगा? आप लोग टोपी पहनते हैं। और जब धूल आती है, तो उतार लेते हैं। जबकि यहाँ पर धूल लगाई जा रही है। ऐसा क्यों ? क्या मुकुट को खराब करना है ? खराब नहीं, पवित्र बनाया जा रहा है। अपने आप को उपकृत किया जा रहा है। तीन लोक के नाथ हैं ये। वह अपने परिवार को साथ लेकर आज्ञा देता है। यहाँ पर कुछ नहीं बोलें, जैसा संकेत देते हैं, उसके अनुसार करते चले जाना है। हाँ! भगवान् यद्यपि नाराज नहीं होने वाले, यह ध्यान रखना, लेकिन यह कर्तव्य है कि अपने आपके सम्यग्दर्शन को मलीन न बनायें।


    तीन लोक के नाथ, कैसी आज्ञा और कैसा मार्ग ? यह समझ में नहीं आता। आज नवजात शिशु और उसके गन्धोदक को ऐसे पकड़ते हैं, जैसे बहुमूल्य वस्तु हो। यदि आपके हाथ में वह है तो यूँ-यूँ करके लगा लिया। धो नहीं लिया, अपितु बड़े आदर से लगाना चाहिए। उन्होंने रत्न के पिटारे में उस गन्धोदक को रखा। महापुराण में बहुत बढ़िया वर्णन किया है। यह अभी शिशु है, और इस गन्धोदक को स्वर्ग ले गये
     

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    स्वयं पवित्र है और दूसरों को पवित्र बना देता है। निर्मल है, निर्मल बना देता है। पापकर्म विनाशक है। महाराज, कहाँ से कहाँ आ रहे हैं आप। इसके पीछे आज्ञा चल रही है, यह कह रहा हूँ। आज्ञा संयम के लिए परम अनिवार्य है। संयम का बंधन बिना आज्ञा के संभव नहीं हो सकता। जब तक आज्ञा-सम्यक्त्व नहीं होगा, हमारा चारित्र चारित्र की संज्ञा नहीं पा सकता।


    अज्ञानपूर्वक आचरण का निषेध करने के लिये चारित्र के पीछे सम्यक्त्व यह विशेषण लगाया गया है। और सम्यग्ज्ञान के बाद चारित्र का नम्बर है। यह पूज्यपाद स्वामी ने कहा है। मैंने अपनी तरफ से यह नहीं रखा। भगवान् की आज्ञा है, चारित्र बाद में है। वह भले ही साक्षात् मुक्ति का कारण है। लेकिन सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान का पूर्व में सपोटर होना अनिवार्य है। और इसके बिना वह चारित्र चारित्र नहीं माना जा सकता, यह भगवान् की आज्ञा है। दो सागर की आयु को प्राप्त करने वाला वह सौधर्म इन्द्र कहता है, नहीं। यह शिशु नहीं। यह हमारे लिए गुरु है। और हम इसके शिष्य हैं। भगवान् की आज्ञा है। राजकुमार को मन्त्री वगैरह विशेष रूप से अभिवादन करते हैं। क्योंकि राजकुमार ही हमारे लिए भावी राजा हैं। यह क्यों ? राजा के प्रति बहुमान है तो राजकुमार के प्रति भी बहुमान है। आज्ञा के माध्यम से ही संयम असंख्यात गुणी निर्जरा के लिए कारण हो सकता है।

    तो वहाँ पूछने की कोई आवश्यकता नहीं, सारे के सारे लोग ऐसे व्यस्त हो गये हैं, ऐसे व्यस्त हो गये हैं, कि आठ दिन कैसे निकले, पता नहीं। और वह भी २४ घंटा जागरण के साथ। कोई भजन में, कोई कीर्तन में, कोई स्तुति में, कोई जाप में, कोई नृत्य में एक के बाद एक समय का उपयोग किया जा रहा है। प्रश्नमंच है, इटोपदेश है, फिर तत्वार्थसूत्र है, फिर बाद में और। भत्तामर बीच में है और तत्वार्थसूत्र है। शंका-समाधान है। सबका समय निकल रहा है। लेकिन जैसे चोर का समय रात में नहीं निकलता, चाँदनी के समय पर। उसी प्रकार वह असंयमी, वह पाप का समर्थक, असंयम का समर्थक असंयम में ऐसा डूबा हुआ है जबकि देव भी जहाँ पर संयम, व्रत का अनुभव करते हैं, इन दिनों में। किन्तु इसका क्या ठिकाना ? कुछ भी नहीं। चोरी-छिपे वह काम कर गया और राजा के सामने जो व्यक्ति नियुक्त किया गया था, बोला-महाराज! विशेष केस है। अत: विशेष आज्ञा की आवश्यकता है। लेकिन महाराज! Extra Ordinary का मतलब क्या होता है बताओ, घबरा रहे हो क्या ?


    नहीं, महाराज! लेकिन Exception अपवाद भी आवश्यक होता है। उसकी व्यवस्था अलग से होना चाहिए। यह कॉमन नहीं है, महाराज। कॉमन नहीं है, तो फिर क्या है ? कौन सा मेन है और कौन सा मेन कॉमन नहीं है ? महाराज, कैसे कहैं ? कहो.कहो, डरो नहीं ? इतना समय खर्च नहीं करते। जब गरम होकर कह दिया। महाराज, अब क्या कह दें ? हम अपनी तरफ से कुछ नहीं कह रहे हैं, किन्तु उनकी तरफ से ही कहा जा रहा है, महाराज। बोला क्या है ? कौन है वह? महाराज.। क्या कण्ठ में गड़बड़ हो रहा है ? गड़बड़ तो कुछ नहीं महाराज, किन्तु राजकुमार.।


    राजकुमार कहाँ है ? उसको यहाँ पाँच मिनट में लाकर समाप्त कर दी। उसने ऐसा अपराध किया। जाओ. बस यमपाल चाण्डाल के पास जाओ। राजा की आज्ञा है, वह चला गया। यमपाल से जाकर कहा। यमपाल स्वयं उपस्थित होकर हाथ जोड़कर खड़ा होता है-मैंने संकल्प लिया है महाराज! जो आपका अनन्य भत है, अनन्य शिष्य, अनन्य सेवक है, वह आपकी आज्ञा मानने के लिये तैयार नहीं है। यह कहने वाला कौन होता है यमपाल ? ध्यान रखना, हम यहाँ पालन भी करते हैं और यमलोक भी पहुँचा सकते हैं। उसको और राजकुमार, दोनों को बोरी में बन्द कर, भिन्न-भिन्न बोरी में अच्छे ढंग से बांधकर मन्दिर के सामने वाले तालाब में, जिसमें असंख्य मगर-मच्छ हैं, सर्प हैं, पटक देना। यह ध्यान रखना, कोई किसी से कुछ भी बात नहीं करेगा। यह कार्य करके आना।


    जैसी आपकी आज्ञा। राजा के नियम का उल्लंघन करना भी प्रजा के लिए अभिशाप सिद्ध होता है। क्योंकि विधि-विधान/संविधान का उल्लंघन एक प्रकार से महान् आपत्तिजनक हुआ करता है। आज्ञा के माध्यम से ही शासन सुचारु रूप से चलता है। जिसके माध्यम से स्व और पर का जीवन संरक्षित होता है, हजारों, लाखों, करोड़ों जनता का उसी में हित निहित रहता है।


    अनुशासनबद्ध नहीं रहेगा, तो काम नहीं चलेगा। इसलिए राजा-महाराजा जो क्षत्रिय होते हैं, उनको इतनी जल्दी मुक्ति मिल जाती है कि बैठने की ही देरी होती है, और बनिया के लिये कुछ देर लग जाती है। ऐसा क्यों ? वह तराजू इधर-उधर देखता रहता है, इसलिए ऐसा होता है। दुकानदार एक तरफ ऊपर देख रहा है। वह क्या देखता है, मालूम है आपको ? ग्राहक कैसा क्या कर रहा है? इसको देखता रहता है। इसलिए इनको क्षपकश्रेणी आरूढ़ होने में कुछ देर लगती है। और क्षत्रियों के लिये, उनका तो कोई तराजू रहता ही नहीं, उन्होंने शस्त्र हाथ से रखा ही नहीं, बस बैठ गये। इनके लिये बहुत सारे सामान हैं ना, लेन-देन बहुत रहता है। उनके यहाँ कोई लेन-देन नहीं है। न दुकान है, न मकान। लेकिन यह ध्यान रखना, दुकान में कैसा कार्य होता है ? सारा का सारा ज्ञात होता रहता है। एवन् वस्तु पहले यहाँ पर भंडार में लाईये। ध्यान रखना, कोई गड़बड़ हो जाय, तो। महाराज! हम थोड़ा-बहुत रख लेते हैं, बाकी सब आपका ही है। हाँ, ठीक है। ऐसा चलता है। महाराज! ये सब आपका ही है। हम भी आपके, ये सब भी आपका है। बस मेहरबानी बनी रहे, कृपादृष्टि बनी रहे और कुछ नहीं। महाराज, यदि ऐसा राजा नहीं होगा, तो प्रजा का जीवन खतरे में आ गया। धर्मध्यान कर रहे हैं, यहाँ बैठे-बैठे। यह ध्यान रखना, यदि वहाँ पर शासन ढीला हो जायेगा, तो यहाँ आप पालथी मारकर धर्म की बात भी नहीं कर सकते। बिल्कुल चुप बैठ जाना होगा। कहाँ पर बैठ जायेंगे? पता नहीं चलेगा। जिस समय ऐसा शासन चलता था, उस समय बाहर निकलना मुश्किल होता था। इसलिए चैत्यालय आदि की व्यवस्था भी होती चली गई। घर-घर में मन्दिर होते चले गये।


    महाराष्ट्र में कुछ दिनों पहले देखा था, प्रत्येक घर में मूर्तियाँ हैं। क्यों ? बाहर नहीं निकल सकते। बाहर निकल गये, मन्दिर के लिये भी चले जायें, तो मुश्किल हो जाता था। तोड़फोड़, भगवान् का भी खंडन-मंडन हो जाता। ऐसा क्यों होता ? जैसा राज्य, उसी के अनुसार वातावरण बन जाता है। कोई पूछताछ नहीं कर सकता। और कोई पूछताछ कर ले तो उसका सम्यग्दर्शन और व्रतों का पालन भी समाप्त हो जाता है, ऐसी दशा रहती है।


    तो ऐसा ही किया गया। दोनों को बोरी में बांध दिया गया। कई लोग कहने लगे कि, राजकुमार को भी, हाँ। नहीं.नहीं तो आपको भी। राजकुमार को भी एक बोरी में अच्छा पैक कर दिया गया। एक बोरी में यमपाल चाण्डाल को बंद कर दिया गया और जाकर बीचों-बीच में उसको पटक दिया गया। अब क्या होगा. अब क्या होगा ? निकालने का कोई सवाल ही नहीं उठता। निकालने की चर्चा भी कर लें, तो फिर देख लो। यह कैसा राजा होगा ? राजकुमार का पालन किया जा रहा है और उत्तरदायित्व भी उसी के कंधों पर रखना है। तिलक लगाना ही शेष था। किन्तु दिन पूरे हो चुके हैं। दूसरा कोई राजकुमार नहीं है। यहाँ पर तख्त, अरे तख्त पर बैठने के लिए ताकत की भी आवश्यकता है और उस ताकत को अर्जन करने के लिये समय भी आपेक्षित है। वस्तु चीजों की आवश्यकता होती है। तख्त खाली पड़ जाय, इसकी कोई चिन्ता नहीं। लेकिन तख्त पर कोई गलत व्यक्तित्व न चला जाय, इसकी चिन्ता रखनी चाहिए, राजा-महाराज को। तभी जनता का संरक्षण संभव है। हमारे कुल में और उनके कुल में, यह हमारा-तुम्हारा सब गड़बड़ है। तव-मम, तवमम, यह परिग्रह बुद्धि मानी जाती है। आश्चर्य की बात तो यह है कि एक बोरी तो कहाँ चली गई। पता नहीं। और एक बोरी खाली होकर, अपने आप ही सब टूट-टाट कर वह ऊपर आ गई। और एक कमल, स्वर्णिम कमल, जो कि सहस्त्रदल पांखुडियों से युक्त है, उसकी कर्णिका अलग, उसकी नाल-मृणाल अलग है, पांखुड़ियां पूरी-पूरी खिली हुई हैं, उसके ऊपर एक चांदी का बढ़िया सिंहासन। क्योंकि स्वर्णिम कमल पर चांदी का सिंहासन बहुत अच्छा लगता है। चांदी के सिंहासन के ऊपर एक और आसन है और उसके ऊपर वह। वह कौन मूछों वाला ? उसमें कोई परिवर्तन तो आयेगा नहीं। वह वही व्यक्तित्व, अच्छा जो है। पृथ्वीराज चौहान से भी बढ़कर बढ़िया मूंछे हैं, गलमूछ जिसको बोलना चाहिए, कान तक पहुँच गये हैं।


    जब हम गणित पढ़ते थे, उस समय ब्रेकिट ३-४ प्रकार के थे। उसमें एक मूछों वाला ब्रेकिट होता था। उसी प्रकार की मूछों वाला यमपाल चाण्डाल उनके सामने कमल के ऊपर आसीन हो गया और देवगण आकर उसकी परिक्रमा लगाना प्रारम्भ कर देते हैं। आरती उतारना प्रारम्भ हो जाता है। कौन सौभाग्यशाली आरती उतारे ? उस यमपाल चाण्डाल की आरती उतारने, बोलने वाला भी सौभाग्यशाली है। आरती बोलने वाला भी धन्य है। क्योंकि देव साक्षी हैं, वहाँ पर। देखकर के लगता है, यह क्या होने लगा ? जिन्होंने पटकने की आज्ञा दी थी, वह सब डर गये। अब यमपाल चाण्डाल हमारी ओर देखेगा, तो हमारा क्या होगा ? क्या पता। यदि इनको भी बोरे में बंद करके इसी तालाब में पटक दो, ऐसा कह देगा तो। कुछ तो एकदम चले गये। महाराज, आपकी आज्ञा का उल्लंघन। उल्लंघन तो कइयों ने किया, महाराज पता नहीं लग रहा है। क्योंकि भीड़ आ गई। पता नहीं ऐसी भीड़ है कि यमपाल चाण्डाल को सिंहासन पर बैठाया। महाराज, जिसको आपने मारने की आज्ञा दी थी, डुबाने के लिए आज्ञा दी थी। राजा की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला महाअपराधी पापी है। महाराज, बड़ा विचित्र लग रहा है। हम लोगों का भविष्य अब आपकी छत्र-छाया में है। हमारा संरक्षण, संरक्षण था, लेकिन अब गड़बड़ा गया है। आज कौन सी तिथि है ? महाराज, पता नहीं। सुबह से ही आज्ञा का उल्लंघन प्रारम्भ हो गया। राजकुमार ने आज्ञा का उल्लंघन किया। यमपाल चाण्डाल ने आज्ञा का उल्लंघन किया। लेकिन यह महान् व्यक्ति आज वहाँ बहुत सारी भीड़ में है। महाराज, वह हमारी ओर देख तक नहीं रहा। उसकी तो लोग स्तुति कर रहे हैं। ऐसे-ऐसे पुष्प हैं महाराज, ऐसे पुष्प हैं, जो आपको भी नहीं मिलते। महाराज कौन से बगीचे से लिये गये होंगे ? महाराज, वह आरती भी कुछ अलग ढंग की है। दिव्य नृत्य है महाराज। ऐसा नृत्य हमने अन्यत्र कहीं नहीं देखा। लेकिन आपको बताने के लिये आये हैं। हमने आपकी आज्ञा का पालन तो कर दिया, लेकिन..। क्या हुआ, क्या बताएं? महाराज, आप स्वयं वहाँ आ सकते हैं और देख सकते हैं, जो कुछ वहाँ हो रहा है। पर्व के दिन हैं। मन्दिर खाली हो गये। सब के सब देखने के लिए मन्दिर को छोड़ सकते हैं। राजा की आज्ञा का उल्लंघन कर दिया, चलो. सारी की सारी भीड़, केवल वेदी में भगवान् मात्र बैठे हैं, सब वहाँ पर चले गये। वहाँ पर देवों की संख्या इतनी है कि सब वह तालाब जैसा भी नहीं लग रहा है। ऐसा लग रहा है कि हम भी जाकर उसी में मिल जायें। लेकिन राजा की आज्ञा के बिना हम कैसे मिल सकते हैं। राजा ने कहा-यह क्या हुआ ? मंत्री ने कहा-महाराज, स्थिति यह है कि राजकुमार का कोई पता नहीं और वह यमपाल चाण्डाल वहाँ बैठा है। हम बोल नहीं सकते, इनके सामने। यमपाल चाण्डाल को एकाएक इतना वैभव कहाँ से आ गया महाराज, पता नहीं?


    राजा धर्मनिष्ठ था। राजा अहिंसा का पालन करने वाला था। राजा रत्नत्रय की आराधना का लक्ष्य बनाये था। प्रजा का पालन करने के लिये ही राज दरबार में सिंहासन पर बैठता था। उसकी हुकूमत देने में आनन्द का अनुभव होता हो, ऐसा नहीं। वह मात्र कर्तव्य का पालन करने वाला था। उसने देखा-यह यमपाल चाण्डाल, और इसकी आरती उतारी जा रही है, इसलिए कि इसने अहिंसा का पालन किया है। क्योंकि यह आठ दिन तक किसी की हत्या नहीं कर रहा था। पाप नहीं करूंगा, कोई आ जाय और वैसे ही एक प्रकार से चौदस इत्यादि के दिन उसका जीवन पर्यन्त के लिए त्याग है। इसलिए यह किसी की बात को सुनेगा नहीं। राजा की आज्ञा मिलने के उपरांत, जो उसका अनुपालन करता है, उसके लिये मालामाल कर दिया जाता है। पैसा मिलता है। कितना ? जिसका कोई ठिकाना नहीं रहता। केवल राजप्रिय बनना अनिवार्य होता है, आज्ञा का अनुकरण करना अनिवार्य होता है। लेकिन यह अहिंसा का महान् रूप से पालन करने वाला है। इसलिए इसकी देवों के द्वारा पूजा हो रही है।


    जब तक अहिंसा महाव्रत का संकल्प लेने के लिए तैयार नहीं होता, तब तक मुनि बनाना कोई भी स्वीकार नहीं करता। तीर्थकर भी जब तक महाव्रती नहीं होते, तब तक मन:पर्ययज्ञान प्राप्त नहीं होता। अवधिज्ञान तो घर में भी था। अनुगामी होकर आ गया था, छाया की भांति। सर्वार्थसिद्धि से आये थे आदिनाथ भगवान्। अनुगामी अवधिज्ञान वहीं से लेकर के आये थे। लेकिन जब तक ८४ लाख पूर्व में से ८३ लाख पूर्व पूरे नहीं हुए, तब तक मन:पर्ययज्ञान नहीं हुआ। मन था कि नहीं ? उनके पास मन तो था । तो मन:पर्ययज्ञान हो जाय ? मन नहीं था तो बात अलग थी। क्या उन्हें तीर्थकर प्रकृति का बंध नहीं हो रहा था ? हो तो रहा था। अवधिज्ञान भी था, पर मन:पर्ययज्ञान नहीं हुआ। परमावधि क्यों नहीं हो गया ? सर्वावधि क्यों नहीं हो गया ? मन:पर्ययज्ञान क्यों नहीं हो गया? उत्कृष्ट होना चाहिए था ? नहीं हो सकता। क्यों ? छठवें-सातवें गुणस्थान रूप संयम की भूमिका के बिना अवधिज्ञान, परमावधिज्ञान और सर्वावधिज्ञान के रूप में परिवर्तित नहीं हो सकता और मन:पर्ययज्ञान प्राप्त ही नहीं हो सकता। क्योंकि असंयममार्गणा में यह संभव नहीं है।


    तीर्थकर भी क्यों न हों, घर में रहने वाली धोती-कुर्त में रहने वाले तीर्थकर भी क्यों न हों, लेकिन जो आगम को रखने वाले हैं, आगम किसी के घर की बात नहीं रखना चाहता, आगम के अनुसार चलना पड़ेगा। तीर्थकर हो और तीर्थकरों के भाई भी क्यों न हों, और पिता जी भी क्यों न हों, यह निश्चित बात है, कि आगम के सामने किसी का कुछ नहीं चलेगा। राजा हो या महाराजा हो, न्याय के सामने वह भी एक मेम्बर के अनुरूप है। उसको यदि वह अपने घर का बना लेगा, तो वहाँ से वह निकाल दिया जावेगा। राजा ने कहा- इन्हें प्रताप प्राप्त क्यों हुआ ? इन्होंने अहिंसा संयम का पालन किया। वह एक दिन हो या एक घंटा हो। एक घड़ी हो या एक मिनट भी क्यों न हो । वह संयम तो संयम माना जाता है। मन से, वचन से और काय से क्षमा करना हमने आपके लिए आज्ञा दी। वह कहता है-आपका कर्तव्य था। आप यदि आज्ञा नहीं देते तो वे देव लोग नहीं आते। ये देव तब आते हैं, जब हम संयम पालन करते हैं। धर्म का पालन तो सब लोग करते हैं। लेकिन वह आस्था के साथ होना चाहिए। सम्यग्दर्शन कितना अटूट है। यदि सम्यग्दर्शन के बिना संकल्प लिया होता, तो देव तीन काल में नहीं आ सकते। क्योंकि वे जानते हैं, कि इसकी आस्था कैसी है? यह संयम आस्था या सम्यग्दर्शन के साथ चल रहा है। इसलिए इसको दिव्यपूजा उपलब्ध हो गई। और पंचाश्चर्य हो गये। उसके सामने सब लोग देखते रह गये। राजा ने भी हाथ जोड़ लिये। जैसा यमपाल चाण्डाल आकर हमेशा राजा के सामने हाथ जोड़ता था। अब वह उसके सामने हाथ जोड़ रहे हैं।


    धन्य है, हमारा राज्य। धन्य है हमारा राष्ट्र। धन्य है यह धरती और धन्य है यह सब कुछ, जो स्वर्ग से देव आकर अहिंसा की महिमा गा रहे हैं। और गाकर आप लोगों को दिखा रहे हैं। सुना रहे हैं। जब देव साक्षी हो जाते हैं तो फिर किसी अन्य की साक्षी देने की आवश्यकता नहीं रहती। राजा सोचने लगा, यमपाल चाण्डाल कहीं ऐसा न हो, हमने आज्ञा का उल्लंघन करने पर इसको मरवाने के लिए आज्ञा दी थी, अत: यह कहे कि यह राजा निकृष्ट परिणाम वाला है। मैं धर्म का पालन करना चाहता था और उसने मेरे लिए मौत के घाट उतारने के लिए आज्ञा दी। इनको छोड़ो नहीं, ऐसा कह देगा, तो क्या होगा ? यमपाल चाण्डाल कहता है-मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ? मैं कहूँगा नहीं। आपने गलती की ही नहीं, तो क्यों कहूँगा ? और जिसने गलती की थी, उसको तो दण्ड देने की कोई आवश्यकता नहीं। इसलिए नहीं, कि इतने सारे देवों ने राजकुमार को क्यों नहीं बचाया ? जबकि वह राजा का लड़का था। राजकुमार था। और राजा ही बनने वाला था। उसकी रक्षा देवों ने क्यों नहीं की ? उसकी आरती क्यों नहीं की ? यमपाल चाण्डाल की तो हम कर सकते हैं। लेकिन राजकुमार की हम आरती नहीं उतार सकते। दक्षिण में या महाराष्ट्र में कहावत है-रूप राजा था। नहीं समझे, रूप तो राजा का है, लेकिन गुण जो हैं ना, वह महानिकृष्ट। उनके पास गुण ही नहीं। ऐसा रूप लेकर के क्या करना ? और मूछों वाले यमपाल का रूप यद्यपि काला है। लेकिन काला होकर भी वह पूज्य बना। फिर काले से क्या होता है ? वह शरीरनामकर्म का उदय है। वर्ण का एक भेद काला भी आता है। धवल भी आता है। पीला भी आता है। भगवान् नेमिनाथ भी काले थे। पाश्र्वनाथ भगवान् भी काले थे। नारायण जितने होते हैं, वे प्राय: करके इसी रंग के होते हैं। वह भी एक बढ़िया चमक को लिए हुए शरीर वाले होते हैं।


    यह रंग तो रंग है। पुदूल की परिणतियाँ हैं। उससे क्या होता है ? लेकिन हृदय में धर्म के प्रति आस्था के भाव हमेशा शुक्ल होना चाहिए। भावों की परिणति की ओर देखो। राजा ने उनको नमस्कार किया और चाण्डाल ने उनको गले लगाकर कहा-इसमें आपका कोई दोष नहीं। अब वह चाण्डाल यमपाल नहीं रहा। उसके लिए विशेष प्रमोशन हो गया। अरे, राजकुमार के स्थान पर यही तो राजा बनेगा। इसमें संदेह नहीं है। इस प्रकार हमारे राजकुल में कोई व्यक्ति रहेगा, तो निश्चित रूप से प्रजा का कल्याण होगा। जो व्यक्ति अहिंसा के लिए तैयार हो गया। जैसी आपकी आज्ञा, मैं मरने के लिए तैयार हूँ। लेकिन मैं मारने के लिए तैयार नहीं हूँ।


    आज संयम का दिन है। प्रसंग बहुत अच्छा जुट गया है। आज ऐसे-ऐसे निरपराध पशुओं के ऊपर, जिनमें धर्म के प्रति आस्था भी संभव है, आप लोगों ने कोई उपकार नहीं किया। उनको मौत के घाट उतारते हुए आप लोग देख रहे हैं, परन्तु कोई व्यक्ति भी आगे-पीछे नहीं दिख रहा है, इनको बचाने के लिए। जवान पाडों को, जवान बैलों को, जवान गायों को और जवान प्राणियों को लेकर के एक साथ कत्लखाने के सामने खड़ाकर दिया जाता है। जिस प्रकार एक पिस्तौल के माध्यम से अनेकों को उड़ाया जाता है, उसी प्रकार पाँच मिनट की देरी भी नहीं लगती और एक साथ हजारों पशु समाप्त हो जाते हैं। आप लोग बहुत महान् माने जा रहे हैं। क्या आपको पता है, एक दिन आप लोगों के पाप की उदीरणा होगी। क्योंकि सामूहिक हत्या का एक न एक दिन समय आता है। और उस समय इसका कोप, इसका फल भोगना पड़ सकता है। डायरेक्ट या इनडायरेक्ट, सब लोग उसके समर्थक सिद्ध हो रहे हैं। निरपराधी को इस प्रकार का दण्ड देना, यह कौन सा लोकतंत्र है, हमें समझ में नहीं आता ? दण्डसंहिता तो होनी चाहिए। लेकिन अपराध के लिए दण्डसंहिता होनी चाहिए। इन्होंने कुछ भी नहीं किया। यह शरीर पृथ्वी के लिए भारमय है, ऐसी कई लोगों की धारणा है। प्रचार-प्रसार भी किया जा रहा है। ये धरती पर भारमय हैं। ये खर्चा के घर हैं। कितनी गलत बात है।


    पशु कभी भी धरती के लिए भारमय नहीं हुए। आप लोगों के लिए भारमय नहीं। हाँ, आप लोगों को लगता है। उनका तो कभी भी, किसी भी प्रकार से उपयोग किया जा सकता है। जब तक वे जीवित हैं, तब तक वह निश्चित रूप से जितना खाते हैं, उससे भी बढ़कर वे खाद देते हैं, आप लोगों की। आज वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि जिस खाद के माध्यम से आज फसल लेते हैं, उसके सामने गाय-भैंस या बैलों की खाद के माध्यम से आने वाली फसल अच्छी आती है। धान्य की पोटेंसी-शक्त्यंश और इस धान्य की पोटेंसी, दोनों की तुलना करने से, बताया जा रहा है, ये बहुत गुणकारी है। इसके अलावा वर्तमान में जो रासायनिक खाद है, वह पृथ्वी को, जमीन को जलाने लगी है। जैसे एटमबम के माध्यम से मिट्टी जल जाती है, तो वहाँ पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता। उसी प्रकार आठ-दस साल इस खाद का प्रयोग कर दिया जाता है तो . इसको बताने की कोई आवश्यकता नहीं। आज सांगली जिला, कोल्हापुर जिला और जो बड़े-बड़े जिला हैं, उनमें हजारों एकड़ों की काली मिट्टी, जो भारत वर्ष में बहुत प्रसिद्ध मिट्टी मानी जाती है, वहाँ का गन्ना प्रसिद्ध क्वालिटी का गन्ना होता है। एक-एक एकड़ में भी अस्सी हजार से भी बढ़कर गने का उत्पादन करने वाला यह क्षेत्र माना जाता है। अब तो और भी बढ़ गया होगा। लेकिन वहाँ पर आज एक अंकुर नहीं आ रहा है। हाँ, ये (अन्य महाराज की ओर इशारा) कह रहे हैं। अभी जाकर आये हैं। बाहुबली भगवान् की यात्रा और मस्तकाभिषेक देखकर आये हैं। बीच-बीच में सब क्षेत्रों को देखते आये हैं। उस एरिया में एक एकड़ में १३५ टन उत्पादन होता था। १३५ टन का अर्थ होता है एक प्रकार से, एक लाख पैंतीस हजार किलो नेट। मारुति में घूमता है वहाँ का किसान। काम तो खेती का करेगा, लेकिन मारुति लेकर जाता है, जिस किसान के पास चार-पाँच एकड़ है। दसबीस एकड़ हो, तो फिर कहना ही क्या ? सौधर्म इन्द्र जैसा घूमने लग जाता है।


    क्या कह रहा था मैं। यह कह रहा था, कि आज यह विज्ञान का युग कहाँ से आ गया ? कुछ समझ में नहीं आता। धरती को भी वह समाप्त किये दे रहा है। हजारों एकड़ की जमीन, सब नष्ट-भ्रष्ट हो गई। खूबी यह है, कि वह जमीन मेनरोड पर हो, तो भवन के निर्माण योग्य भी नहीं रहती। क्षार-क्षारमय हो गयी है। वहाँ पर फाउण्डेशन भी ठीक नहीं बैठता। संभव है लोहे का फाउण्डेशन भी रखेंगे, तो वह गल जावेगा। इतना क्षार का निर्माण हो चुका है। यह सब इस खाद का परिणाम है। जबकि गाय-भैंस की खाद का प्रयोग से धरती कोमल और एक प्रकार से कुमकुमवत् बन जाती है। उसमें जितनी चाहो उतनी फसल ले सकते हैं। उसकी उम्र भी दस-बीस वर्ष बढ़ जाती है। यह सब आज के विज्ञान के युग में अन्याय होता चला जा रहा है। उस फसल के रंग और इस फसल के रंग के बारे में भी पूछा गया, तो काफी अन्तर पाया गया। एक आम का वृक्ष है, आधुनिक रासायनिक खाद के माध्यम से खड़ा है, और एक आम का वृक्ष है जो इधर खड़ा है। दोनों को देखा जाये, तो एक टी.बी. का मरीज है और एक हृष्ट-पुष्ट है। ऐसा क्यों ? फल तो यह भी देता है और यह भी देता है। यह बिल्कुल हरा-भरा, अलग ही रंग को लेकर रहता है।


    इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक आज की खाद सिद्ध हो रही है। वह जितनी भी उपजाऊ जमीन है, सबको अपनी चपेट में ले रही है। सबसे ज्यादा पर्यावरण का दोष इन खादों के माध्यम से आ रहा है। इनमें जो पानी चला जाता है, वह क्षार हो जाता है। धरती बिल्कुल सूखकर लकड़ी के समान, पत्थर के समान हो जाती है। यह स्थिति देखकर कई लोग कह रहे हैं-उधर के लोग इस बात को जानकर इसका प्रयोग बिल्कुल बंद कर दिये हैं। लेकिन भारत नहीं मान रहा है। भारत फिर भी अनुबन्ध के साथ चल रहा है। रासायनिक प्रक्रिया से यह सब गड़बड़ झाला है। जिस देश की कृषि समाप्त हो जायेगी, उस देश की सबसे ज्यादा बुरी दशा होगी। वह एक-एक दाने के लिए मुँहताज हो जायेगा। पैसे और सोने के द्वारा कुछ नहीं होने वाला, यह ध्यान रखना। कोई इस ओर भी नहीं देख रहा है, जो ध प्राणी हैं, उनको काटकर, मारकर, उनके मांस को निर्यात किया जा रहा है। और बदले में मात्र कुछ राशि लेकर के आ रहे हैं। इसके साथ वहाँ से गोबर खरीद करके ला रहे हैं। अब सोचने की बात है, आज के राजा, महाराज व नेता, इन लोगों से कौन कहने वाला है ? क्या आप लोग कहते नहीं ? सोचना चाहिए। इससे बड़ी हानि हो रही है। दया तो चली गई। लेकिन जो दया का पालन करने वाले हैं, उनके लिए भी बड़ी समस्या आ सकती है। यहाँ का पर्यावरण बिल्कुल दूषित हो जायेगा। यह जो खाद डाली जा रही है, इससे पानी के सतह/स्तर में भी बहुत गड़बड़ी आ गयी है। पर संभव है, एक दिन जब फसल नहीं खड़ी होगी, उस समय भारत क्या करेगा ? विदेश से गोबर ले आयेंगे, विदेश से खाद ले आयेंगे, विदेश से ही बीज ले आयेंगे।


    जब छठवां काल का अन्त आयेगा उस समय ४१ दिन तक प्रलय होगा। सात-सात दिन तक अग्नि, पत्थर आदि की वर्षा होगी। लगता है उस प्रलय काल के पूर्व लक्षण दिखने लगे हैं। पर्यावरण जब दूषित हो जायेगा, उस समय आप क्या करेंगे आज आप जो खा रहे हैं, सब दूषित होता जा रहा है। रोगनिवारण की दवायें बनाते जा रहे हैं, लेकिन रोग उत्पन्न क्यों हो रहे हैं इस ओर किसी की भी दृष्टि नहीं है। मूल की ओर देखो, चूल की ओर दृष्टि क्यों रखते हैं मूल के आश्रय से ही चूल रहता है।


    आप लोग संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य है और आपके इस वतन में आपके समान संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी का वध किया जा रहा है। उसको आप लोग नहीं देख रहे हैं। उसका आप समर्थन करते जा रहे हैं। क्योंकि आप अपना समर्थन रूपी वोट देखकर सपोट कर रहे हैं। वे समर्थन जुटाकर अपने स्वार्थ की सिद्धि करें, यह ठीक नहीं है। पहले उद्योगी हिंसा का निषेध किया जाता था। लेकिन आज तो हिंसा का ही उद्योग होने लगा है। इस हिंसा के उद्योग को रोकने के लिए आन्दोलन होना चाहिए। आन्दोलन हो, लेकिन वह भी शान्ति के साथ हो। हम अहिंसा की बात उन तक पहुँचाना चाहते हैं।


    भारतीय संस्कृति में गाय को गौमाता कहा जाता है। आज उसी गौमाता का वध भारत की धरती पर हो रहा है। उसके मांस को विदेशों में भेजा जा रहा है। जिस गाय के गोबर को अपने आंगन में लीपते हैं, उसे अच्छा मानते हैं। वह गाय का मल तो है, लेकिन वह अछूता मल नहीं है, जैसा कि आप लोगों का मल होता है। एक लेख पढ़ा था, कि जहाँ पर गाय आदि को बांधा जाता है, उस स्थान पर यदि कुछ दिन टी.बी. के रोगी को रखा जाता है तो उसका रोग ठीक हो सकता है। एक छोटी सी राशि के लिए अपने गौधन का वध करते जा रहे हैं। सही धन है तो वह गौधन ही है। यह चेतनधन है। अचेतन धन के लिये संहार करना ठीक नहीं है। हमें प्रयास करना चाहिए और गौ वध को अतिशीघ्र रुकवाना चाहिए। अभी सुनने में आया है कि गुजरात सरकार ने अहमदाबाद शहर के जितने भी कत्लखाने हैं, उनकी दशलक्षण पर्व के दिनों में बंद रखने का आदेश दिया है। आप लोगों को अपनी राज्य सरकार के सामने भी यह बात रखना चाहिए और निवेदन करना चाहिए कि दश दिनों के लिये यहाँ भी हिंसागृहों को बंद रखा जाये।


    हमारे ये पर्व जीव रक्षा के पर्व होना चाहिए। मात्र गाने बजाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए। पाँच पापों को रोकने का कार्य इन पर्व के माध्यम से होता है। अपना इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम रखते हुए जीव रक्षा की भी बात करना चाहिए। प्रयास करना चाहिए कि कोई भी जीव दुखी न रहे। क्योंकि सभी जीव जीने का अधिकार लेकर इस भूतल पर आते हैं। सभी को अभय मिले इसी भावना के साथ उत्तम संयमधर्म की जय.
     


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    Samprada Jain

      

    कर्मों के उदय का प्रतिकार न करने की जो इच्छा/साधना होती है, उसका नाम सत्य है।

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    सत्य  धर्म  को  अपनाने से  किसी तप जप करने की  जरूरत नही है ।

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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    कर्मों के उदय का प्रतिकार न करने की जो इच्छा/साधना होती है, उसका नाम सत्य है। 

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