यदि धर्म का सेवन हम विषयों का विमोचन किये बिना करेंगे तो स्वाद नहीं आयेगा, शान्ति और तृप्ति नहीं मिलेगी। कम से कम धर्म को अंगीकार करने से पहले विषयों के प्रति रागभाव तो गौण होना ही चाहिए। उनके प्रति आसक्ति तो कम करनी ही चाहिए।
कल पर्वराज आ रहा है और आत्मा के धर्म अर्थात् स्वभाव के बारे में वह हमसे कुछ कहेगा। दस दिनों में आप तरह-तरह से आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति के लिये प्रयास करेंगे। कोई बार-बार भोजन की आकांक्षा छोड़कर एक बार भोजन करेगा। कोई एकाशन करने वाला कभी-कभी उपवास करने का अभ्यास करेगा और किसी दिन जो जोड़ रखा है उसे छोड़ने का भाव लायेगा। कोई भी कार्य किया जाता है तो भूमिका बनाना आवश्यक होता है। नींव यदि कमजोर है तो उसके ऊपर महाप्रासाद निर्मित करना सम्भव नहीं होता। इसी प्रकार आगामी दस दिनों में आप जो भी अपने आत्म-विकास के लिये करना चाहें, उसकी आज से ही भूमिका मजबूत कर लेनी चाहिए।
एक रोगी व्यक्ति वैद्य के पास गया कि कुछ इलाज बताइये ताकि कमजोरी दूर हो और शान्ति मिले। तब वैद्य जी ने रोग का निदान करके औषधियाँ बना दीं और कह दिया कि इन सभी का हलुवा बनाकर सेवन करना। कुछ दिनों के उपरान्त इसके सेवन से शक्ति और शान्ति मिल जायेगी। सभी चीजों का अनुपात और बनाने की विधि भी बता दी। उस व्यक्ति ने ठीक वैसा ही किया लेकिन उससे वह पौष्टिकता देने वाला हलुवा ठीक से खाया नहीं गया। दो-तीन दिन तक प्रयास करने के उपरान्त जब उससे वह हलुवा नहीं खाया गया तो वह वैद्य जी के पास पहुँचा और कहा कि रोग में कोई लाभ नहीं हुआ। वह हलुवा जैसे तैसे खाया तो, लेकिन ठीक-ठाक खाया नहीं गया। आपने जैसा बताया था, वैसा ही किया। उसमें किसी बात की कमी नहीं रखी लेकिन उसके सेवन के उपरान्त मुझे जरा भी सुख, शान्ति या तृप्ति नहीं मिली। जैसा आस्वादन मिलना चाहिए वह भी नहीं मिला। वैद्य जी ने कहा यह सम्भव ही नहीं है। बताओ क्या क्या मिलाया था? सभी चीजें मंगाई गयीं। कहीं कोई कमी नहीं थी। सभी चीजें नपी-तुली थीं, अनुपात भी ठीक था, बनाने की विधि भी ठीक थी पर केशर की डिब्बी जब वैद्य जी ने उठाई तो समझ गये कि बात क्या है। पूछा कि यही केशर डाली थी। उस व्यक्ति ने कहा कि हाँ यही डाली थी। केशर तो असली है, उसमें गड़बड़ कैसे हो सकती है? वैद्य जी मुस्कराये कहा कि केशर तो असली है पर केशर रखने की डिबिया में पहले क्या था? तो मालूम पड़ा कि डिबिया में पहले हींग रखी थी। उस हींग के संस्कार के कारण पूरा का पूरा हलुवा बेस्वाद हो गया। यही गलती हो गयी। इसलिए शान्ति नहीं मिली और तृप्ति भी नहीं मिली।
बात आपके समझ में आ गई होगी। यदि धर्म का सेवन हम विषयों का विमोचन किये बिना करेंगे तो स्वाद नहीं आयेगा, शान्ति और तृप्ति नहीं मिलेगी। कम से कम धर्म को अंगीकार करने से पहले विषयों के प्रति रागभाव तो गौण होना ही चाहिए। हमारा धर्म महान् है जिसमें भगवान् आदिनाथ से लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीस तीर्थकर हुए। भरत जैसे चक्रवर्ती और बाहुबली जैसे कामदेव हुए। बाहुबली भगवान् का कोई चिह्न भले ही नहीं है लेकिन उनकी तपस्या से हर कोई उन्हें पहचान लेता है।
वे तप की मूर्ति हैं। त्याग की मूर्ति हैं। वे संयम की मूर्ति हैं। विदेशी पर्यटक भी श्रवणबेलगोल (हासन-कर्नाटक) में जाकर गोम्मटेश बाहुबली स्वामी की मूर्ति देखकर ताज्जुब करते हैं कि यह कैसी विशाल, भव्य और मनोज्ञ प्रतिमा है, जो बिना बोले ही शान्ति का उपदेश दे रही है। हमें कहने की आवश्यकता न पड़े और हमारा जीवन स्वयं ही उपदेश देने लगे, यही हमारा धर्म है। यही धर्म का माहात्म्य भी है।
विषय भोगों में उलझते रहने की वजह से ही हमारे उपयोग की धारा आज तक भटकती आ रही है। बँटती चली आ रही है और सागर तक नहीं पहुँच पाती, मरुभूमि में ही विलीन हो रही है। पञ्चेन्द्रिय के विषयों के बीच आसक्त रहकर आज तक किसी को धर्मामृत की प्यास नहीं जगी। आज तक आत्मा का दर्शन नहीं हुआ। दशलक्षण धर्म के माध्यम से हमें दुनियाँ की और कोई वस्तु प्राप्त नहीं करना है किन्तु जो पञ्चेन्द्रिय के विषय हैं, उनको छोड़ते जाना है। जिस रुचि के साथ ग्रहण किया है उसी के अनुरूप उसका विमोचन करना भी आवश्यक है। जिस प्रकार कचरे को व्यर्थ मानकर फेंक देते हैं उसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय के विषयों को व्यर्थ मानकर उनका त्याग करना होगा। उनके प्रति आसक्ति कम करना होगी। धर्म की व्याख्या तो आप कल से सुनेंगे, लेकिन आज कम से कम धर्म की केशर की सुगन्ध लेने से पहले अपनी डिब्बी का पुराना संस्कार अवश्य हटा दें।
तो बात यह है कि वीतराग-धर्म सुनने से पूर्व उसके योग्य पात्रता बनाना भी आवश्यक है। जैसे सिंहनी का दूध स्वर्ण पात्र में ही रुकता है उसी प्रकार वीतराग धर्म का श्रवण करके उसे धारण करने की क्षमता भी सभी में नहीं होती। उसके लिये भावों की भूमि में थोड़ा भीगापन होना चाहिए तथा आद्रता होनी चाहिए, जिससे वीतरागता के प्रति आस्था और उत्साह जागृत हो सके। चारों ओर भोगोपभोग की सामग्री होते हुए भी इस काया के द्वारा उस माया को गौण करके भीतरी आत्मा को पहचानने और शरीर से पृथक् अवलोकन करने के लिये दश-लक्षण धर्म को सुनना मात्र ही पर्याप्त नहीं है, उसे प्राप्त करना भी अनिवार्य है।
जीवन का एक-एक क्षण उत्तम-क्षमा के साथ निकले। एक-एक क्षण मार्दव के साथ, विनय के साथ निकले। एक-एक श्वाँस हमारी वक्रता के अभाव में चले। ऋजुता और शुचिता के साथ चले। पूरा जीवन ही दश-धर्म मय हो जाये। दश धर्म की व्याख्या तो कोई भी सुना सकता है, लेकिन धर्म का वास्तविक दर्शन और अनुभव तो दिगम्बर वेश में ही सम्भव है। उसके प्रतिफल रूप मुक्ति भी इसी दिगम्बरत्व के साथ सम्भव है। जो व्यक्ति दश धर्म के श्रवण और दर्शन के माध्यम से एक समय के लिये भी जीवन में धर्म के प्रति संकल्पित होता है, उत्तम क्षमा धारण करने का भाव जागृत करता है, मैं समझता हूँ उसका यह भाव ही उसके लिए भूमिका का काम करेगा।
एक बार गुरु और शिष्य यात्रा के लिये निकले। छोटी सी कथा पढ़ी थी। आप लोगों को याद हो तो ठीक है अन्यथा पुन: याद ताजा कर लें। कैसा है संगी साथी का प्रभाव? गुरु और शिष्य दोनों चले जा रहे थे। चलते-चलते शाम हो गई। सामायिक ध्यान का काल हो गया। एक पेड़ के नीचे बैठ गये। आगे भयानक जंगल था। वह ध्यान में बैठे ही थे कि शिष्य की दृष्टि जंगल की ओर से आते हुए सिंह पर पड़ी। शिष्य घबरा गया कि अब बचना सम्भव नहीं है। गुरु जी को पुकारा पर गुरु जी तो भगवान् के ध्यान में तल्लीन थे। शिष्य चुपचाप उठा और धीरे से पेड़ पर चढ़कर ऊँचाई पर बैठ गया। वहीं से बैठे-बैठे उसने देखा कि सिंह गुरु जी के पास आया और सूंघ कर परिक्रमा लगाकर सब ओर से देखकर लौट गया। शिष्य तो थर-थर कांपने लगा कि पता नहीं क्या होने वाला है। जब सिंह चला गया तब दीर्घ श्वाँस लेकर वह नीचे उतरा और गुरु जी के चरणों में प्रणाम करके बैठ गया।
थोडी देर बाद जब गुरु जी ध्यान से बाहर आये और कहा कि चलो तब शिष्य को बड़ा आश्चर्य हुआ। शिष्य ने कहा कि गुरुजी आज तो बड़ा भाग्योदय था। बच गये। एक सिंह आया था और बिल्कुल आपके पास तक आया था। आपको सुंघा भी था। क्या आपको मालूम नहीं है? गुरुजी ने कहा कि नहीं मुझे नहीं मालूम। अब तो शिष्य और भी अचम्भे में पड़ा और श्रद्धा से पैरों पर गिर पड़ा कि अद्भुत है आपका धैर्य और आपकी दृढ़ता। गुरुजी ने अपनी प्रशंसा सुनकर अनसुनी कर दी और कहा कि चलो अभी और यात्रा करना है। दोनों फिर आगे यात्रा पर बढ़ गये। थोड़ी दूर चलने के उपरान्त एक घाटी में से गुजरते समय कुछ मधुमक्खियाँ आने लगीं और गुरुजी को एक-दो स्थान पर काट लिया। गुरुजी पीड़ा से कराहने लगे और वहीं बैठ गये। कहने लगे कि अब चलना सम्भव नहीं है।
शिष्य बड़ी दुविधा में पड़ गया कि आखिर बात क्या है? उसने पूछ ही लिया कि गुरुजी अभी अभी तो सिंह के आ जाने पर आप बिल्कुल विचलित नहीं हुए थे और अब इतनी छोटी-सी मधुमक्खियों से विचलित हो गये। कुछ समझ में नहीं आया? गुरुजी मुस्कराये और बोले उस समय जब सिंह आया था तब मेरे साथ भगवान थे, मैं उन्हीं में लीन था। विचलित या भयभीत होने की बात ही नहीं थी लेकिन अब तो तू मेरे साथ है। भयभीत होना स्वाभाविक है। यह है संगति का असर |
आज चतुर्थ काल तो है नहीं। उत्तम संहनन का भी अभाव है। क्षायिक सम्यकदर्शन भी होना सम्भव नहीं है। ऐसे विषम समय में विषयों की संगति में पड़ कर अपने स्वभाव को भूल करके कर्तव्य से च्युत होने की सम्भावना अधिक है। इसलिए समय-समय पर वर्ष भर में बीच-बीच में ऐसे पर्व रखे गये हैं, जिनसे श्रावकों के लिये तीन सौ पैंसठ दिन में कुछ दिन विषय-कषायों के सम्पर्क से बचने का और धर्म के निकट आने का अवसर मिलता है। दश-लक्षण पर्व इसीलिए महत्वपूर्ण पर्व हैं कि इनमें लगातार दस दिन तक विभिन्न प्रकार से धर्म का आचरण करके अपनी आत्मा के विकास का अवसर मिलता है, जो कि श्रावकों के लिये अनिवार्य है। मुनि महाराजों का तो जीवन ही दशलक्षण धर्ममय होता है। धर्म के प्रति संकल्पित होता है।
रावण ने एक बार मुनि महाराज के मुख से धर्म श्रवण किया। उसके साथी भी साथ में थे। जब अंत में सभी ने एक-एक करके मुनि महाराज से कुछ न कुछ व्रत लिये तब चारण-ऋद्धधारी उन मुनिराज ने रावण को कहा कि हे अर्द्धचक्री रावण! तुम तो बलशाली हो। कौन सा व्रत लेते हो? ले लो। तब रावण ने कहा कि महाराज! आज मुझे अपने से बढ़कर कोई कमजोर नहीं लग रहा है। मैं आपसे अपनी कमजोरी कैसे कहूँ? एक छोटा-सा व्रत भी मेरे लिये पालन करना कठिन लगता है। इतना ही कर सकता हूँ कि जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी उसके साथ सम्बन्ध के लिये में जबरदस्ती उसे बाध्य नहीं करूंगा, यही मेरा व्रत रहा।
रावण ने सोचा था कि ऐसी कोई स्त्री नहीं होगी जो उसे नहीं चाहेगी। पर आपको ज्ञात ही है कि इस एक व्रत ने भी उसे बहुत अच्छी शिक्षा दी। सीता का हरण तो कर लिया लेकिन सीता को बाध्य नहीं कर सका। उसने जीवन को थोड़ा बहुत संस्कारित तो अवश्य किया। वैसे ही हमें भी व्रतों को अंगीकार करके स्वयं को संस्कारित करना चाहिए और व्रतियों को देखकर व्रतों के प्रति आकृष्ट होना चाहिए। सभी को व्रत, नियम, संयम के प्रति प्रोत्साहित भी करना चाहिए।
बन्धुओ! यदि एक बार शान्ति के साथ आप विषयों को गौण करके थोड़ा विचार करें, तो अपने आप ज्ञान होने लग जायेगा कि हमारा धर्म क्या है ? हमारा स्वभाव क्या है ? हमें विषयकषायों की संगति नहीं करनी चाहिए। वीतरागी की संगति करनी चाहिए ताकि धर्म का वास्तविक स्वरूप समझ में आ सके। आज विलासिता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। आज तीर्थ-क्षेत्रों पर भी सुख-सुविधा के प्रबन्ध किये जा रहे हैं। पर ध्यान रखना, सुख-सुविधा से राग ही पुष्ट होता है, वीतरागता नहीं आती। वीतरागता प्राप्त करने के लिए, धर्म धारण करने के लिये थोड़ा कष्ट तो सहन करने की क्षमता लाना ही चाहिए। स्वयं को संयत बनाने का भाव तो आना ही चाहिए। हिंसा से दूर रहकर अहिंसा का पालन करते हुए जो व्यक्ति इन दश धर्मों का श्रवण-चिन्तन-मनन करता है, उन्हें प्राप्त करने का भाव रखता है, वह अवश्य ही अपने जीवन में आत्म-स्वभाव का अनुभव करने की योग्यता पा लेता है और जीवन को धर्ममय बना लेता है।
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