पाप को शत्रु के रूप में तथा धर्म को बन्धु के रूप में स्वीकार करना ही शास्त्र को जानने की सार्थकता है और वही व्यक्ति निश्चत रूप से अक्षय सुख को प्राप्त कर सकता है अन्यथा जो कुछ भी ज्ञान है वह सांसारिक सम्पदाओं के लिए कारण तो हो सकता है लेकिन आत्मिक वैभव को प्राप्त करने में उसका सहयोग नहीं मिल पायेगा।
सम्यकदर्शन के आठ अंगों में एक अन्तिम प्रभावना अंग है। इस अंग के सम्बन्ध में रत्नकरण्डक श्रावकाचार में बहुत मार्मिक बात कही है। किसको प्रभावना का साधन मान लिया जाये ? कौन सा वह भाव है ? कौन सा वह द्रव्य है ? जो जिनेन्द्र भगवान् के शासन में प्रभावना का कारण होता है।
अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम्।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥१८॥
अज्ञानरूपी अंधकार दूर करने के लिए दूसरे प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं होती किन्तु उस प्रकाश की आवश्यकता है जिसके माध्यम से हमारे परिणाम निर्मल हो जाते हैं। हमें हेय और उपादेय का विवेक जागृत हो जाता है। हित और अहित के बारे में हमें पर्याप्त बोध प्राप्त हो जाता है, उस प्रकार का कार्य करना चाहिए। ‘यथायथम्' यह शब्द अपने आपमें बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे हम उत्साह के साथ सांसारिक कार्य करते हैं और अपनी शक्ति को पूरी तौर पर लगाते हैं उसी प्रकार धार्मिक कार्य में तन भी लगाओ, मन भी लगाओ, वचन भी लगाओ और गृहस्थ आश्रम में हैं तो धन भी लगाओ। धन मुख्य नहीं है किन्तु उसके माध्यम से जो धर्म होगा वह मुख्य है। कई लोगों की यह धारण बनती चली जाती है कि धनवान ही धर्म का अर्जन कर सकता है क्योंकि जमाना ही ऐसा है। लेकिन ऐसा नहीं है, चूँकि अनेक प्रकार के आरम्भ करने से जो धन का अर्जन होता है उसको हम पुण्य के रूप में परिवर्तन करना चाहते हैं तो धन का भी त्याग करना आवश्यक होता है। जिसने अनेक प्रकार के आरम्भ और परिग्रह आदि किये नहीं और उसके पास यदि धन नहीं भी है तो धन के त्याग के बिना भी वह परिणाम उज्ज्वल कर सकता है। तन के माध्यम से सेवा करके भी वह आगे धार्मिक क्षेत्र में बढ़ सकता है। वचनों के माध्यम से भी दूसरे को अभयदान देकर सम्बोधित कर दे तो भी उसका विकास अवश्य हो सकता है। और इन दोनों का यदि साधन उसके पास नहीं है तो मन के माध्यम से भी वह विश्व के कोने-कोने में प्राणी मात्र के प्रति सद्रावना कर सकता है।
सुखी रहें सब जीव जगत के कोई कभी न घबरावे।
वैर पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे।
(मेरी भावना)
इस प्रकार की भावना भाकर हर व्यक्ति धर्म कर सकता है, इसके लिए धन की कोई आवश्यकता नहीं है। जिसके माध्यम से अज्ञानरूपी अंधकार दूर हो जाये वह सब कुछ धर्म के अन्तर्गत आ जाता है। जिसके माध्यम से शासन की प्रभावना हो जाती है, शासन उसी का नाम है। जिसके माध्यम से हमें इस प्रकार का प्रकाश मिले, वही धार्मिक भाव माना जाता है। शासन से सम्बन्ध हमारा तब तक बना रहता है जब तक हमारे पास इस प्रकार के उज्ज्वल भाव विद्यमान रहते हैं। स्व और पर इन दोनों के अंधकार को दूर करने में यथायथम् जब जैसी आवश्यकता होती है तब उस प्रकार का कार्य करना ही यथायथम् का अर्थ माना गया है। केवल हम आहारदान के माध्यम से ही काम चलाएँ ऐसा नहीं होगा। केवल हम ज्ञानदान के द्वारा ही काम चलाएँ ऐसा नहीं होगा। एक मन्दिर में हम बैठते हैं भाव अलग होते हैं। एक बगीचे में जाकर बैठ जाते हैं तो भाव अलग हो जाते हैं और एक औषधालय में जायें और वहाँ पर बहुत सारे जीव, बहुत सारे साथी/भाई लेटे हुए हैं, जिनके मुँह से ऐसी दयनीय आवाजें निकल रही हैं कि जिसको सुनकर अलग ही भाव पैदा हो जाते हैं। जो हमेशा बगीचे में गलीचे पर बैठता है उनको कभी-कभी थोड़ी सी हवा खाने के लिए औषधालय लेकर आना चाहिए। तब उन्हें यह ज्ञात होगा कि आरोग्य कितनी महत्वपूर्ण होती है और उन्हें यह भी ज्ञात होगा कि पैसा ज्यादा महत्वपूर्ण है या इन लोगों के दुख-दर्द को दूर करना महत्वपूर्ण है। कृपण से कृपण व्यक्ति भी हो और उसका पाषाण हृदय भी यदि हो, दूसरे के दुख को देखने का यदि वह प्रयास कर ले तो निश्चत रूप से उसका दिल पिघल जायेगा। वह पत्थर का या लोहे का नहीं होता वह भी आखिर भारतीय संस्कृति में ही पला हुआ है। कष्ट से जब गुजरते नहीं हम या जो कष्ट से गुजर रहे हैं उनको देखते नहीं तब तक जीवन का रहस्य समझ में नहीं आता। अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए चाहे तो मंच बनाकर, माइक लगाकर बैठ जाओ और कहो कि इधर आ जाओ हम बता देते हैं धर्म को तुम्हारा अंधकार दूर हो जायेगा, केवलज्ञान की ज्योति जल जायेगी। ऐसे ज्योति नहीं जलने वाली क्योंकि जिसमें ज्योति जलने वाली है। उसको भी कुछ देखना चाहिए। किसमें जलने वाली है? आप में जलती है तो दूसरे में भी जल सकती है। दीपक है फिर भी ज्योति नहीं जल रही तो उसमें कोई न कोई बाधक कारण जरूर होगा या तो बाती का अभाव हो सकता है या तेल का अभाव हो सकता है या तेल, बाती दोनों होने के उपरान्त भी यदि नहीं जल रही है तो बाती के ऊपर किट्ट कालिमा जमी हुई है | अथवा वहाँ शुद्ध आक्सीजन नहीं हैं, प्राणवायु जिसे बोलते है यदि वाही नहीं मिले तो भी नहीं जलेगी ज्योति। अॉक्सीजन जहाँ नहीं है वहाँ पर आप दीपक जला दो तो भी वह बुझ जायेगा। वातावरण को तैयार करना होता है इसलिए यथायथम् यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। किस क्षेत्र में अपने धन का प्रयोग करना, किस क्षेत्र में अपने तन का और मन का और वचन का प्रयोग करना, यह भी विवेक होना चाहिए हम लोगों को। कितने समय तक करना है, यह भी हमें ज्ञान होना चाहिए। इस दिशा में हम लोग कुछ भी विवेक नहीं करते, कुछ भी नहीं जानते, कुछ भी नहीं सोचते। कुछ दान दातार जो हैं दान देते चले जाते हैं, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है कुछ मतलब नहीं। हमारे लिए तो पुण्य मिल ही जायेगा, ऐसा नहीं मानना चाहिए 'विधि द्रव्य दातृपात्र विशेषातद्वशेष: 'दान, दाता एवं पात्र की मुख्यता को लेकर फलता है। अत: पात्र को दान देना ही फलदायी है। विवेक उस दाता के पास होना चाहिए, हमने तन लगाया, मन लगाया, धन लगाया, वचन लगाया और सहयोग दिया वह कार्य उपयुक्त है या नहीं यह भी देखना चाहिए। अपना लड़का है बहुत आग्रह कर रहा है, हठ कर रहा है, दे दो उसको सौ का नोट। कभी-कभी पिताजी विवेक नहीं रखते लेकिन माँ जानती है कि वह क्या खायेगा, क्या खरीदेगा और बीमार पड़ जायेगा तो उसको अस्पताल भेजना पड़ेगा। घर का खाना वह बच्चा छोड़ देता है। जिस बच्चे की जेब हमेशा गर्म रहती है वह पैसा लेकर के बाजार में जायेगा। क्या खाता है पिता को मालूम ही नहीं है, घर में माँ एक सेर घी लाकर चाट-पकौड़ी करके दे दे तो वह अच्छी नहीं लगती और वहाँ पर जाकर चाट-पकौड़ी खाकर आ जाता है। कब का बना है? क्या है? यह पता नहीं लेकिन वह खाकर आ जाता है। और एक बार इस प्रकार की आदत उसकी बन जायेगी, फिर माँ के द्वारा लाड़-प्यार से कुछ भी खिलाओ उसको अच्छा नहीं लगेगा। देखिये पैसा गया, संस्कार गये और बच्चा गया। अब आकर के महाराज जी के पास कहते हैं। हम लोगों के पास ऐसी शिकायतें आतीं हैं। महाराज, आप इसको ऐसा आशीर्वाद दे दो ताकि यह मेरा कहना मान ले। यदि आप मेरी बात मानते तो अपने आप ठीक हो जाता। आपने तो मानी ही नहीं इसलिए लड़का बिगड़ गया, जिन्दगी बर्बाद हो गई। इसलिए यथायथम् का अर्थ बहुत महत्वपूर्ण है। हमें अपने परिवार को ही नहीं देखना है, अपने अड़ोसपड़ोस को भी देखना है इसलिए ये आप लोगों की कुशलता मानी जायेगी, दूरदर्शिता मानी जायेगी कि आप दूसरे के दुख-दर्द के बारे में सोची। आप लोग इसलिए पता लेते हैं दूसरों का, कि यह हमारे काम में आयेगा। लेकिन अब, अब ऐसे एड्रेस लेना भी प्रारम्भ कर दो कि इसके लिए मैं कब काम आऊँगा। वहीं से धर्म प्रारम्भ हो जाता है। यह हमारे काम का है, अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए एड्रेस लेते हैं कई लोग। यह स्वार्थ धर्म नहीं। उनके काम के लिए उनका एड्रेस लो। अपने परिवार की चिन्ता करते हो लेकिन यह स्वार्थ की बात हो गई। दूसरे के परिवार की भी चिन्ता करो। कूप का उदाहरण हमेशा याद रखने योग्य है, ताजा-ताजा पानी मिलता है और वितरण करते-करते आप चले जायें। नीचे का स्त्रोत अपने आप ही बलवान हो जाता है और उसमें से पानी आ जाता है। आप निकालते जायें। नहीं निकाला तो ऊपर के पानी का भार ज्यादा बढ़ जाता है तो पानी की आवक रुक जाती है। आप लोग यदि ऐसा विचारें कि प्रतिदिन पानी न निकालकर एक साथ सात दिन में निकाल लें तो एक दिन में इतना पानी निकलता है तो दो दिन में कितना पानी निकलेगा और चार दिन न निकाल करके हम पूरा एकत्रित कर लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं होगा। पानी उस अनुपात से नहीं बढ़ेगा। इसी प्रकार हम पूरे के पूरे जीवन पर्यन्त अच्छे ढंग से कमा लें। ऐसा नहीं कि जीवन के अन्त में कोई चेरिटेबल ट्रस्ट बना करके चले जायें तो वो भी ठीक नहीं रहता क्योंकि उसकी भावना यद्यपि अच्छी है लेकिन यह गणित ठीक नहीं बैठता। प्रतिदिन जो होता है उसके माध्यम से उसका ताजा हिसाबकिताब होता चला जाता है। उससे उसको ज्यादा चिन्ता भी नहीं होती। सबसे ज्यादा संकल्पविकल्प होते रहते हैं, संग्रहीत की रक्षा के। हमेशा-हमेशा चिन्ता संग्रह करने की ही होती है, ऐसा नहीं है; संग्रहीत की रक्षा का भी बहुत बड़ा विकल्प होता है। कैसे विकल्प होता है? आप अपनीअपनी चाबी को सम्भाले रहो। इतनी भीड़ है कि क्या पता इस भीड़ में ऐसे भी व्यक्ति हो सकते हैं कि आप मनोयोग के साथ सुनने लग जायें और अड़ोस-पड़ोस में बैठा व्यक्ति चाबी पार कर दे तो? इसलिए वहाँ चिन्ता है। संग्रहीत की रक्षा की चिन्ता तब तक नहीं छूटेगी जब तक आप लोग महाव्रत अंगीकार नहीं करेंगे, इसलिए महाव्रतियों की संख्या कम है, घर-बार छोड़ने वालों की संख्या कम है और घर-बार वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। आप लोग यहाँ तो घर छोड़कर के आये हैं लेकिन बार-बार जेब को देख रहे हैं कि चाबी है कि नहीं, चाबी गुम हो गई तो क्या करेंगे? इसके लिए आचार्यों ने कहा कि संग्रह करते ही क्यों हो? अपने ही द्वारा अपने लिए ही बन्ध की व्यवस्था हम करते आए हैं। यथायथम् का अर्थ हमें यह सोचना चाहिए। बच्चा यदि भूख के कारण तड़प रहा है तो उसके लिए प्रबन्ध कर लेते हैं और यदि अधिक खाने से पेट के दर्द से तड़प रहा है तो अब आहार की कोई आवश्यकता नहीं, अब औषध की आवश्यकता है, यह आप जानते हैं। इन दोनों के बाद भी यदि कोई आवश्यकता है तो उसका भी प्रबन्ध किया जाता है।
एक धर्मात्मा जो धर्म से विमुख हो रहा है जिन समस्याओं के कारण, उनकी पूर्ति करके उसको धर्म की ओर ला सकते हैं। यह सबसे बड़ा कार्य है और सबसे ज्यादा कर्म निर्जरा इसी में होती है। एक व्यक्ति जो धर्मात्मा था लेकिन स्खलित हो रहा है उसको पुन: उस स्थान पर स्थापित कर देना और यदि स्थापित है तो उसके जीवन में, धार्मिक क्षेत्र में प्रगति कर देना यह सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। स्वयं चलते हुए दूसरे को चलाना, नि:स्वार्थ भाव से, यह महान् कार्य है। इसलिए अज्ञानरूपी अंधकार जो फैला है उसको दूर करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार/अनुरूप मार्ग का प्रकाशन यानि शासन की प्रभावना हमें करनी चाहिए। स्वामी समन्तभद्र ने यह लिखा तथा तत्वार्थसूत्र की टीका में पूज्यपाद स्वामी ने भी लिखा है कि ज्ञान, तप, पूजा, विधान आदि से भी शासन की प्रभावना कर सकता है, बड़े-बड़े विधानों से भी प्रभावना होती है। जैसे यहाँ पर विधान किया सोलह दिन का। पहले सुनते हैं इन्द्रध्वज विधान हो गया। इस प्रकार से स्थान-स्थान पर विधान करने चाहिए। बड़े- बड़े पंचकल्याणक गजरथ महोत्सव होते हैं, बहुत बड़ी प्रभावना होती है। विधान नैमितिक होते हैं, पूजन हमेशा-हमेशा के लिए होती है। पूजन मुख्यत: स्वयं के द्वारा होती है, विधान में अपने साथ अन्यों को भी रखा जाता है। पूजन एवं विधान में कैसा अन्तर है, एक उदाहरण से समझाते हैं।
एक हफ्ते में सात दिन होते हैं और किसी भी गाँव में, कस्बे में, नगर में जहाँ कहीं भी बाजार का दिन होता है। होता हैन, होता है यह निश्चत बात है। किन्तु सात दिन तो बाजार में जो आप लोगों की दुकान रहती उसमें जो माल रहता है, वह भीतर ही भीतर रहता है और ग्राहक कोई आ जाता है तो दुकान पर ही आकर ले जाता है यह प्रतिदिन चलता रहता है सामान्य रूप से। लेकिन जब बाजार का दिन आ जाता है तो माल आप सारा का सारा बाहर निकाल कर रख देते हैं क्योंकि उस दिन भीड़ बहुत रहती है। दुकान में बहुत कम स्थान होने के कारण सब बाहर रख देते हैं ताकि जो ग्रामीण जनता आती है गाँव-गाँव से, वह उस माल को देख लेगी। वह सुनती नहीं देख करके ही खरीदती है। यह विधान एक प्रकार से बाजार के दिन होता है। तो सब लोग देखकर के एकत्रित हो जाते हैं। पूजन तो प्रतिदिन करते ही थे उसमें कोई भी आकर के पूछताछ नहीं करता था, सब परिचित व्यक्ति ही आते रहते हैं। पूजन में भावना की मुख्यता रहती है प्रभावना की नहीं। जिस प्रकार प्रतिदिन की अपेक्षा बाजार के दिन लाभ अधिक होता है उसी प्रकार प्रतिदिन की अपेक्षा बड़े-बड़े विधानों में भी लाभ अधिक होता है। बहुत प्रकार की वैरायटी जो है उस समय खोल के रख देते हैं और श्रद्धा भी बढ़ जाती है उसमें। सब लोग दुकान के बाहर आ जाते हैं। उसी प्रकार विधान में आप सामूहिक रूप में कार्य करेंगे। आठ दिन, दस दिन, बारह दिन, ऐसे ही विधान का समय होता है, उससे बहुतों को लाभ मिलता है। रथ उत्सव आदि निकालते हैं और उसके साथ-साथ जो जनता जुड़ती है उसको धार्मिक मार्ग पर लाने के लिए यह साधन हो जाता है। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि इसमें वात्सल्य अंग पनप जाता है और दोनों के माध्यम से साधक के तप की वृद्धि होती है, मार्ग का विकास हो जाता है तथा बड़े-बड़े विधानों के माध्यम से जो मार्ग से अज्ञात रहते हैं वे भी जुड़ जाते हैं। जिसकी क्षमता नहीं भी हो तो भी सामूहिक पूजन आदि देखकर सामथ्र्य आ जाती है। एकाध बार में सभी का भाव नहीं आ सकता। बार-बार करेंगे तो कभी किसी का तो, कभी किसी का भाव आ जाता है। एक साथ सभी का उद्धार नहीं होता प्राय: बहुत कम संख्या मिलती है जीवों की पुराण ग्रन्थों में जिनका बहुत जल्दी कल्याण हो गया हो। बड़े-बड़े महापुरुषों के कल्याण भी जो हुए हैं, बरसों ही नहीं, भव-भव में हुए हैं।
आप पुराण ग्रन्थ पढ़ियेगा, सब कुछ करते हुए तीर्थकर अपने जीवन काल को किस ढंग से व्यतीत करके गए हैं। इसका अवलोकन भी आप लोगों को करना चाहिए। जैसे आप लोग अपने हिसाब-किताब के ज्ञान को अच्छा रखते हैं और उसके लिए अखबार-पत्रिका वगैरह पढ़ते हैं। उसी प्रकार जो बड़े-बड़े बाजार होते हैं विश्व में जहाँ-कहीं भी, उन बाजारों से सम्बन्ध फोन इत्यादि के माध्यम से रखते हैं। उसी प्रकार यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो अपने भावों को सुदृढ़ बनाने के लिए ये ग्रन्थ हैं जिनका स्वाध्याय करना चाहिए और स्वाध्याय की रुचि बढ़ाने के लिए सर्वप्रथम, हमारे विचार से जो पुराण ग्रन्थ हैं उनको पढ़ लेना चाहिए। उनमें उन पुराण-पुरुषों की पूरी-पूरी हिस्ट्री लिखी हुई है। उसको सुनने से, देखने-पढ़ने से अपने भीतर मोक्षमार्ग के प्रति जिज्ञासा बहुत जल्दी पैदा हो जाती है तथा आदिनाथ भगवान् का जीवन कैसा बना? महावीर भगवान् का जीवन कैसा बना? इन लोगों ने किस ढंग से दीक्षा ली? कौन-कौन साथ हुए? यह सब सुनने से अपने आप ही धर्म भावना जागृत हो जाती है। संस्कार तो प्रत्येक व्यक्ति के पास रहते ही हैं लेकिन थोड़े बहुत उनको जागृत करने की आवश्यकता रहती है। राख में छुपी हुई अग्नि की भाँति हम लोगों की स्थिति है, थोड़े बहुत उपदेश सुन लेते हैं तो अपने आप ही भीतर हलचल होने लग जाती है। थोड़ा-सा फ्रैंक लो, राख उड़ जायेगी और वहाँ अग्नि प्रज्ज्वलित हो जायेगी। थोड़ी-सी माँजने की आवश्यकता है। दूसरे की चीज हमें काम में नहीं आने वाली किन्तु दूसरा किस ढंग से कार्य करता है उसे देखकर हम अपने आप कार्य करना सीख सकते हैं।
एक दुकानदार दूसरे दुकानदार के लिए कोई विशेष मदद नहीं देता है। लेकिन फिर भी वह मदद परोक्ष देता रहता है। उसकी दुकान एवं दुकानदारी को देखकर नया दुकानदार अपनी दुकानदारी करना सीख जाता है। इसी प्रकार धार्मिक कार्य भी आप लोग करेंगे तो अपना जो धार्मिक भाव है वह उन्नत होगा, समृद्ध होगा, प्रौढ़ होगा। जितनी प्रौढ़ता उसमें आयेगी उतनी ही आप लोगों को आगे जाने में सुविधा मिलेगी। दुविधा को छोड़कर सुविधा में आना चाहते हैं तो हमेशा-हमेशा ऐसे भाव करते चले जायें। स्वामी समन्तभद्राचार्य जैसे महान् आचार्यों ने आप लोगों की जागृति के लिए, उन्नति के लिए कुछ बातें लिखी हैं। रुनकरण्डकश्रावकाचार पढ़ो तो कर्मों की निर्जरा करने में सुविधा मिलेगी, भावना जागृत होगी, और संकल्प शक्ति भी आप लोगो की बढेगी | संकल्प शक्ति अगर लोगो की बढ़ाना चाहते हो तो स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। देवदर्शन करना, अभिषेक करना, पूजन करना और इसके साथ-साथ स्वाध्याय भी कर लेना चाहिए। हालाँकि इन पूजन में भी एक प्रकार से स्वाध्याय की बात आ जाती है।
सिद्धचक्र मण्डल विधान जो आप लोगों ने आठ दिन अष्टाहिका में किये होंगे, उसमें देख लो सिद्ध किस ढंग से बनते हैं?, सिद्ध का क्या स्वरूप होता है? इसको देखेंगे, समझेंगे तो समयसार में और उसमें कोई अन्तर नहीं पाया जाता। शुद्ध आत्मतत्व का वर्णन ही तो समयसार में है। उसी प्रकार सिद्धचक्र मण्डल विधान को गदगद भाव से करेंगे/सुनेंगे तो समझ में आ जायेगा कि सिद्धों का क्या स्वरूप है? मेरा भी स्वरूप सिद्ध स्वरूप के समान है, लेकिन हमने भुलाया हुआ है, इसलिए याद नहीं आ रहा है। उसको याद करके अपनी वर्तमान स्थिति की तुलना करने से क्या कमियाँ हैं यह ज्ञात हो जाती हैं। जिसको स्वाध्याय वगैरह करने की क्षमता नहीं है तो उसे उत्साह के साथ जाप करना चाहिए। णमोकार मंत्र का जाप करना भी आचार्यों ने कहा। यह भी एक परम स्वाध्याय है, यह भी ध्यान रहना चाहिए। लोगों की यह धारणा होती है कि केवल शास्त्र पढ़ने से ही कमाँ की निर्जरा होती है और उसी से सब कुछ होता है। उन लोगों की ऐसी एकाकी धारणा है तो उनके लिए हम बना चाहते हैं कि बहुत बड़ी कृपा होगी यदि वे अपनी इस धारणा को छोड़ दें और णमोकार मंत्र पढ़कर जो अपने कर्म काटना चाहते हैं उनको भी स्वाध्याय शील ही समझे क्योंकि पंच परमेष्ठी जो हैं एक प्रकार से उनमें सब तत्व पाये जाते हैं। पंच परमेष्ठी के त्रिकालिक स्वरूप का चिन्तन करने से, उनके स्मरण से समस्त तत्वों का चिन्तन हो जाता है। बड़े-बड़े जो साधक होते हैं, सन्त-साधु वे अन्य और कुछ कार्य नहीं करते हैं उनका केवल पंच परमेष्ठी का जाप चलता रहता है। वह कुछ करते नहीं ऐसा लगता है लेकिन ऐसा नहीं है, जो मेधावी छात्र होते हैं वे बहुत कम पढ़ते हैं पॉइन्ट्स बहुत लेते हैं और हमेशा चिन्तन में ही रहते हैं। उसी प्रकार जो शास्त्र स्वाध्याय नहीं कर रहे हैं उनकी कर्म की निर्जरा नहीं हो रही ऐसा नहीं है। कर्म निर्जरा जो होती हैं वह भावों के ऊपर आधारित है। सात्विक भाव, विकल्प रहित भाव जो होते हैं वह सबसे ज्यादा कर्म निर्जरा के लिए कारण होते हैं। उत्कृष्ट आचरण पालकर फल को पा चुके हैं, उनको स्मरण करना भी केवलज्ञान के लिए कारण है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पढ़ना-लिखना बन्द कर दें। जिनको पढ़ना नहीं आता उनको जाप का साधन बता रहा हूँ। जाप यदि निर्विकल्प होकर करेंगे तो निर्जरा होगी। माला फेरते समय भी विकल्प है। जो नारद के समान पैशून्यपने से भरा है, जैसे नारद साधु भेष में थे लेकिन चुगलखोरी, ईष्याभाव, एक दूसरे को भिड़ाना, अपमानित करना आदि करते थे। ऐसा अज्ञानी करोड़ों जाप कर ले तो भी कर्म की निर्जरा नहीं कर सकता। ऐसे अज्ञानी के जप की बात मैं नहीं कह रहा हूँ। मैं तो यह कह रहा हूँकि शब्द ज्ञान के बिना शिवभूति जैसे महान् साधक अपना कल्याण करके सिद्ध बन गये। यह उदाहरण बहुत ही प्रेरणास्पद है। ऐसे पूजन, जाप विधानों आदि के माध्यम से आप लोग अपना आर्त-रौद्रध्यानमय जो जीवन है, उसको दूर करके कुछ समय के लिए नैमितिक पूजन/विधान आदि कर लें और परमार्थ की प्रभावना के साथ-साथ अपनी भावना बनाये रखें।
॥ अहिंसा परमोधर्म की जय॥