यह आदमी जहाँ रोना चाहिए था वहाँ रोता नहीं जहाँ बोलना चाहिए वहाँ बोलता नहीं। हमको भगवान् के सामने जाकर रोना चाहिए अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहिए लेकिन हम भगवान् के पास रोते नहीं हम तो अपने घर में रोते हैं। यदि हम अपने पापों के पश्चाताप में रोने लगें तो हमारे सारे पाप धुल जायें। हम अपने पापों को धोना कहाँ चाहते हैं। भगवान् के पास जाकर रोना प्रारंभ कर दो तो तुम्हारे सारे पाप धुल जायेंगे। इसी प्रकार हमको जहाँ बोलना चाहिए वहाँ हम मौन रहते हैं। घरों में दुनियाँ की बातें करते हो, यहाँ वहाँ की बातें करते हो, बेअर्थ और बेकार की बातें करते हो, अपने मतलब की बातें करते हो लेकिन भगवान् के सामने जाकर अपने पापों की बातें क्यों नहीं करते? अपने पापों की बात करो। अपने पापों की निन्दा करो, अपने पापों की आलोचना करो यदि तुम अपने पापों की आलोचना करना प्रारंभ कर दोगे तो तुम्हारा बोलना सार्थक हो जावेगा।
आवेग नहीं वेग बढ़ाओ और वह वेग-निर्वेग बढ़ाओ संवेग को बढ़ाओ यदि संवेग व निर्वेग का विकास हो जायेगा तो तुम अपनी आत्मा में लीन हो जाओगे लेकिन किसी भी हालत में आवेग मत बढ़ाओ। यह आवेग, उद्वेग हमको आकुल व्याकुल करते हैं। इनसे हम परेशान होते हैं यह आवेग हमारे मन को विचलित करते हैं, चंचल करते हैं इन आवेगों से हमारा मन कमजोर हो जाता है अपने स्वभाव से च्युत हो जाता है। अत: उन आवेगों को सबसे पहले छोड़ दो और आवेगों को छोड़ने का सरल तरीका यही है कि हम उपेक्षा वृत्ति को अपना लें। उपेक्षा का अर्थ द्वेष नहीं है उपेक्षा तो ज्ञान का फल है अत: इस उपेक्षा वृत्ति को अपने जीवन में स्थान दो। उपेक्षा का अर्थ तिरस्कार नहीं है अपितु समदृष्टि, समता, समभाव है।
आप अपने अंदर जाना सीखी। आपके भीतर सुख का खजाना है लेकिन आप उस सुख को भूलकर बाहर भटक रहे हो। जो अपने अन्दर रहते हैं वे मुनि महाराज कभी बाहर आना नहीं चाहते। जिस प्रकार आप एअर कण्डीशन (ए.सी.) से बाहर निकलना नहीं चाहते जिसके अन्दर अध्यात्म की ए.सी. लगी है वह उसको कभी छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि वह उसकी ए.सी. कभी समाप्त नहीं होगी। जबकि आपकी ए.सी. कभी भी बिगड़ सकती है। अपने अन्दर पहुँच जाओ बस। तुमको सब कुछ मिल जायेगा। तुम्हारे अन्दर वह सत्य छुपा है, वह धर्म छुपा है, वह अध्यात्म छुपा है यदि तुम एक बार भी अपने अन्दर झांक लोगे तो तुम्हारी अनन्तकालीन प्यास एक क्षण में तृप्त हो जायेगी।
सत्य की पहिचान, सत्य की परिभाषा बहुत गहराई में छुपी है, सत्य का निर्णय कठिन है जल्दबाजी करने से सत्य भी असत्य सा प्रतीत होने लगता है। असत्य से विरक्ति ही सत्य है। सत्य बोलने का नाम सत्य नहीं, अपितु झूठ नहीं बोलना सत्य कहलाता है। सत्य को प्राप्त करने के लिए क्रोध, मान, माया, एवं लोभ इन चारों पर नियंत्रण करना बहुत जरूरी है क्योंकि हम क्रोध की वजह से झूठ बोलते हैं अहंकार की वजह से झूठ बोलते हैं, छल की वजह से झूठ बोलते हैं, लोभ की वजह से झूठ बोलते हैं। हम इन चारों को जीतें तब ही सत्य का पालन कर सकते हैं। सत्य का आचरण किया जा सकता है लेकिन उसका प्रदर्शन नहीं किया जा सकता। सत्य दर्शन का विषय है प्रदर्शन का नहीं। जो व्यक्ति सत्य का प्रदर्शन करता है वह अभी सत्य से परिचित ही नहीं है। अत: सत्य का आचरण करो। सत्य ही जीवन का सार है। हम ऐसा सत्य बोलें जिससे हमारा और दूसरों दोनों का कल्याण हो। लेकिन ऐसा सत्य भी नहीं बोलें जिससे दूसरों पर संकट खड़ा हो जाये। सत्य स्व और पर दोनों के लिये कल्याणकारी होना चाहिए।
'व्रत' और 'सत्य' में क्या अन्तर है? व्रत अपने लिये होता है और सत्य दूसरों के लिये होता है। सत्य के माध्यम से हम दूसरों का भला करें। व्रत के माध्यम से हम अपना कल्याण करते हैं। सत्य से कभी अकल्याण नहीं हो सकता। असत्य से बचने के लिये हमें प्रमाद से बचना चाहिए क्योंकि हम प्रमाद से ही असत्य का काम करते हैं। कषायों से बचना बहुत कठिन है और उनको जानना और भी कठिन है हमको इन कषायों की जानकारी करना चाहिए ताकि हम अकल्याण से बच सकें। सत्य का पालन बाहरी दुनियाँ को देखने से नहीं हो सकता। सत्य के लिये अपने अन्दर देखना पड़ेगा। सत्य की रक्षा, सत्य का संरक्षण अपने भीतरी भावों को देखे बिना नहीं हो सकता। मौन का पालन करो। लेकिन विदाऊट इंडिकेशन यानी बिना संकेत दिये मौन का पालन करना चाहिए। मौन का पालन वही व्यक्ति कर सकता है जो अपनी भीतरी आकुलता को सहन करने वाला हो क्योंकि हम आकुलता के कारण ही बोलते हैं।
हम बोलना क्यों चाहते हैं क्योंकि हम आकुल हैं। यदि हम अपनी भीतरी आकुलता को जीत लें तो हम आज भी मौन हो सकते हैं सत्य बोलने मात्र से सत्य का पालन नहीं हो सकता है अपितु सत्य को जीवन में उतारना है। जो व्यक्ति अपने जीवन में सत्य का पालन नहीं करता उसका सत्य बोलना कोई मायने नहीं रखता। जीवन में सत्य का पालन करो। सत्य का पालन करने का अर्थ ही अपने अस्तित्व की पहचान है।
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