Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • समागम 1 - नियोग

       (1 review)

    भगवान् कुन्दकुन्द ने इस पंचमकाल में सुख के इच्छुक प्राणियों के लिए संक्षेप में सुख, शान्ति का रास्ता प्रशस्त किया है क्योंकि जहाँ तक हमें जाना है, वहाँ का रास्ता बहुत लम्बा है और शक्ति भी हमारी सीमित है तथा काल बहुत ही छोटा है। अनुभव की बात जो कही जाती है वह बात छोटी हो करके भी चोटी तक ले जाने वाली होती है। मंजिल तक पहुँचने के लिए अनुभव की बड़ी आवश्यकता होती है। किताबों के मर्म को समझने के लिए शब्द ज्ञान की आवश्यकता होती है। अनुभव की कोई आवश्यकता नहीं होती। अध्यात्म ग्रन्थों में कुन्दकुन्द भगवान् ने लौकिक उदाहरणों के माध्यम से उसे समझाने का प्रयास किया है। जैसे दलदल है और उसमें एक स्वर्ण का टुकड़ा और उसी दल-दल में एक लोहे का टुकड़ा गिर गया। कुछ काल व्यतीत होने पर उन टुकड़ों को निकाला गया। लोहे का टुकड़ा पहले हाथ लगता है जो जंग खा गया है और सोने का टुकड़ा जो पूर्व में था उसी प्रकार प्राप्त हो जाता है। जिसकी ये दोनों वस्तुएँ गिरी थीं वह सोचता है कि स्वर्ण ने अपने स्वरूप को नहीं छोड़ा और लोहे के उस टुकड़े ने कुछ समय के उपरान्त ही दलदल के सहयोग से अपने स्वरूप को छोड़ दिया और वह इतना खतरनाक बन गया कि अगर कोई भी उसके ऊपर पैर रख दे तो टिटनेश हो जाता है। जिसको कहीं यह लग जाये और खून आ जाये तो फिर हजारों रुपए खर्च करने को वह मजबूर हो जाता है, नहीं तो उसमें भयानक स्थिति आ सकती है। यह समयसार का सार है किन्तु इस उदाहरण को देते हुए किन जीवों के लिए उन्होंने सम्बोधित किया है, यह विचारणीय है। अर्थात् ज्ञानी वह होता है जो सोने की मिट्टी के समान रह जाता है और अज्ञानी वह होता है जो लोहे की टुकड़ी के समान रह जाता है। संसारी प्राणी के पास ज्ञान भी है तो अज्ञान रूप परिणमन करने की क्षमता भी है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार के निर्जरा अधिकार में कहा भी है

    णाणी रागप्पजहो सव्व दव्वेसु कम्ममज्झगदो।

    णो लिप्पदिकम्मरएण दुष्कडूममज्झे जहाकणयं॥

    अण्णाणी पुण रतो सव्वदव्वेसुकम्ममज्झगदो।

    लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोह ||

    (समयसार-२२९/२३० युग्मं)

    ज्ञानी जानता है, देखता है, किन्तु रागद्वेष नहीं करता है। जानना-देखना आत्मा का स्वभाव है, वह स्वभाव कभी मिटता नहीं लेकिन स्वभाव का कभी अभाव नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह विभाव भी नहीं होता है। किसी भी पदार्थ का अभाव नहीं होता फिर भी सत् का अभाव असत् का प्रादुर्भाव नहीं होते हुए भी कुछ तीसरी वस्तु आती है जिसका नाम विकार है। जैसा संयोग मिल जाता है उसके अनुसार पदार्थ भी अपना परिणमन कर जाता है। ज्ञानी के लिए भी दलदल का और अज्ञानी के लिए भी दलदल का संयोग मिला लेकिन यह ध्यान रखना कि ज्ञानी दलदल में फेंसता नहीं और वह कभी दलदल में रह भी जाता है तो भी वह अनेक दल वाला नहीं होता हमेशा निर्दलीय रहता है। निर्दलीय का मतलब कोई राजनीति नहीं चल रही है फिर भी अर्थ यह हुआ वह किसी के साथ सम्बन्ध रखते हुए भी उसका नहीं होता और किसी का नहीं होना, अपना ही रहना, यह एक वस्तुत: साधना की बात है। संयोग तो मिलेंगे, वियोग भी मिलेंगे, रात आई है, दिन आयेगा, प्रभात आयेगा। दिन और रात का जोड़ा है। यह संकल्प-विकल्प जिस प्रकार होते रहते हैं संसारी प्राणी के लिए उसी प्रकार यह रात-दिन की कल्पना; संयोग-वियोग की कल्पना यह वस्तुत: है लेकिन हमारी परीक्षा तो तभी है जब इन संयोग और वियोग में भी उस सोने के समान स्वतंत्र बने रहें। हम बनते नहीं बनने की इच्छा रखते हैं। इच्छा होना भी बहुत ही शुभ लक्षण है। यदि आपकी इच्छा है और वह भीतर से है तो नियम से एक दिन वह इच्छा पूर्ण हो सकती है। यदि भावना है तो नियम से उसमें ढल सकते हैं लेकिन वह भावना सही होनी चाहिए। जैसा भाव होगा वैसा ही हमें फल मिलेगा इसलिए भाव-विभाव के रूप में ना रहें। भाव केवल भाव के रूप में रहें। उसके पीछे किसी योग-संयोग की बात न हो तो उन्होंने बहुत अच्छी बात कही कि ज्ञानी वह जो अपने ऊपर विश्वास रखने वाला हो। राग-द्वेष करना मेरा स्वभाव नहीं है, इस प्रकार जानने/देखने वाला हो, जो कभी राग-द्वेष नहीं करता वही ज्ञानी है। और जो राग-द्वेष मेरा स्वभाव नहीं है इस प्रकार जानकर भी करता है वह कथञ्चित ज्ञानी इसलिए है कि वह राग-द्वेष छोड़ने के लिए तत्पर तो है फिर भी रागद्वेष हठात् हो रहे हैं। कुछ हठात् भी हुआ करते हैं, कुछ बलात् भी हुआ करते हैं, कुछ रुचिपूर्वक भी हुआ करते हैं। अब रुचि की बात आ गई तो इसी से मैं कहना प्रारंभ कर देता हूँ। प्रकृति और पुरुष के खेल का नाम ही संसार है यह कहना मति-मन्दता ही है क्योंकि खेल खेलने वाला पुरुष होता है और प्रकृति केवल उसका खिलौना है। पुरुष और प्रकृति के विषय को मैं थोड़ा सा खोलना चाहूँगा। पुरुष का अर्थ आत्मा है और प्रकृति का अर्थ भोग्य पदार्थ हैं। प्राय: लोगों के यह कहने में आ जाता है कि हम क्या करें इतना सारा आकर्षण है और हम आकर्षित नहीं हों तो और कौन होगा? बात तो बिल्कुल ठीक है कि ये सारी-सारी भोग्य सम्पदा तीन लोक में भरी हुई है, भोक्ता पुरुष इसके बीच में चला जाये और भोग के भाव जागृत न हों यह कैसे सम्भव है? लेकिन यह ध्यान रखना कि प्रकृति कभी भी हठात् आप को बुलाती नहीं। कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है -

     

    असुहो सुहो य गंधो ण त भणदि जिग्ध मंति सो चेव।

    ण य एड़ विणिग्गहिर्दू धाण विसयमागदं तु गंध॥

    इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों के विषय में कहा है। कितनी अच्छी इन्होंने व्याख्या की। पाँच इन्द्रियों के विषयों से यह लोक भरा हुआ है, ज्ञानी उसके बीच में है और अज्ञानी भी उसी के बीच में है। दोनों बीच में हो करके भी बहुत अन्तर रखते हैं। एक कहता है कि प्रकृति मुझे बुला रही है, मुझसे खेलो ऐसा कह रही है, सुंघ लो, सूंघ लो कह रही है। देख लो मैं कितने रूप वाली हूँ इस प्रकार कह रही है इसलिए तो हमें रूप को देखने का आकर्षण बढ़ जाता है, सूघने की भावना भी जागृत हो जाती है आदि-आदि जो विकल्प उत्पन्न होते हैं यह हमारी ही देन नहीं है किन्तु प्रकृति के बलात् ये कार्य हो रहा है। इस प्रकार कह कर प्राणी उस दलदल में और फैंसता चला जा रहा है। जिसके पास ज्ञान है वही तो खेल खेलेगा और जिसके पास ज्ञान नहीं वह क्या खेलेगा? तो प्रकृति के पास यह ज्ञान नहीं है, वह शुभ-अशुभ के रूप में विद्यमान जरूर है लेकिन यह नहीं कहती है कि हमें खा लो, पी लो, सूंघ लो, चख लो आदि-आदि। कितनी बड़ी बात कह दी। हम स्वतंत्र हैं। हमारी आत्मा स्वतंत्र है। फिर भी हमें ऐसा बोध हो जाता है कि सामने वाला हमारा कोई स्वागत कर रहा हो, बुला रहा हो, प्रतीक्षा कर रहा हो।

     

    कभी यह नहीं सोचना कि प्रकृति के द्वारा यह सारा हमारा खेल चल रहा है। खेल नहीं चल रहा। खेल खेलते समय अज्ञानी के लिए कुछ खिलौने भी आवश्यक हो जाते हैं। अज्ञानी खेलता है और ज्ञानी भी खेलता है। ज्ञानी खिलौनों के बिना खेलता है और अज्ञानी खिलौना टूटने से रोता है। अज्ञानी का खिलौना जब टूट जाता है तो वह रोता है कि मैं ही मिटता चला जा रहा हूँ। वस्तुत: खेल खेलने वाला भीतर भी खेल सकता है और ऐसा खेल सकता है कि उसके लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं कि कितने आनन्द का अनुभव वह कर सकता है। अकेला जो खेलता है, दो के बीच में भी खेल होते हैं और बहुतों के बीच में भी खेल होते हैं लेकिन यह ध्यान रखना कि दो के बीच में जो खेल होते हैं वे अत्यधिक कमजोर होते हैं। एक बिगड़ जाय तो खेल समाप्त हो जाता है। दो में खेल का आनन्द पराधीन होता है लेकिन एक के बीच में जब खेल होता है तो उसमें कभी द्वन्द्र नहीं होता। अपने आप में ही लीन हो जाता है, अनुभव में यह बात आती चली जाती है कि पर वस्तु मेरे लिए खतरनाक है और इस बात को जब पहचान लेता है तो वह दूसरे के साथ संयोग और वियोग को कोई खेल नहीं समझता। वह केवल एकमात्र देखने में आता है। इसी बात को समझाने के लिए अनेक दर्शनकार और भी हुए हैं। यह सब माया है और यह सब संस्कार हैं और एक मात्र यह कहने में आता है और यह एकमात्र देखने में आता है लेकिन वस्तुत: यह बात नहीं है और यह बात कथञ्चित कहें तो बहुत अच्छी बात है। यह बिल्कुल ठीक है कि जब तक हम संयोग की ओर देखते जाते हैं तब तक हमारा जो मालिक बैठा हुआ है आत्मतत्व उसको हम गौण कर जाते हैं क्योंकि आनन्द लेने वाला खिलाड़ी आत्मा है, वह कभी भी ले सकता है, कैसे भी ले सकता है, पर जब वह सही वस्तुस्थिति पर आ जाता है तो उसको मात्र देखने और जानने में ही बहुत आनन्द का अनुभव हो जाता है।

     

    प्रभावित होना और प्रभावित करना ये दो बातें हैं। प्रभावित करने का मतलब क्या है? दूसरे को जो अन्य दिशाओं में प्रभावित हो रहा है, उसको इस ओर आकर्षित करना, यह भी एक प्रभावित करना ही है। लेकिन प्रभावित होना जो है वह बहुत ही समझदारी के साथ होना चाहिए। किस वस्तु से हम प्रभावित हो रहे हैं देख लीजिए। आप किस प्रकार से प्रभावित होते हैं। कोई हजारपति हो सकता है, कोई लखपति हो सकता है, कोई करोड़पति हो सकता है। तीनों व्यक्ति मिल करके जा रहे हैं घूमने के लिए और उनके सामने एक चमकीली वस्तु दिखने में आ रही है। तीनों की आँखों में वह चमकीली वस्तु आ रही है, वस्तु आँख में आ गई। क्या वस्तु वस्तु में है, यह पहले ध्यान रखें। हाँ, आँख ने उस वस्तु को देख लिया। देख लिया तो ध्यान रखना आँख उस ओर गई है, वस्तु इस ओर नहीं आई है। अब जाने के बाद भी जानना- देखना, यह सब आत्मा का स्वभाव है इसलिए हम इसको मंजूर कर लेते हैं। ठीक है, जानने-देखने के लिए तो आँख है, जानो लेकिन तीनों के मुख में पानी छूट गया। पानी छूटना क्या आत्मा का स्वभाव है? यदि है तो सिद्धालय में भी पानी झरना चाहिए। वहाँ पर भी पानी छूटना चाहिए। जिस-जिस व्यक्ति ने उस वस्तु को देख लिया, उस-उस व्यक्ति के मुँह में पानी आना चाहिए। लेकिन पानी सबके भीतर नहीं आता, कुछ ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो वस्तुओं से पानी-पानी हो जाते हैं। अपने आप को प्रभावित कर देते हैं। तो वह तीनों व्यक्ति प्रभावित हो गए। ‘‘यह क्या चीज है, देखो', हजारपति व्यक्ति कह देता है तो कथञ्चित ठीक है। लखपति भी कह रहा है तो फिर भी ठीक है लेकिन करोड़पति भी कह रहा है। अब देख लीजिए चार कदम आगे बढ़ना है। हजारपति पहुँच गया, मुझे पहले देखने दो। नहीं-नहीं, लखपति कहता है, मुझे भी दिखी है। करोड़पति कहता है, तुम दो ही नहीं, मालिक हम भी हैं। तीनों झुकने के लिए प्रयास करते हैं। करोड़पति की कमर झुक नहीं पाती, लखपति वाला झुक तो लेता है लेकिन वह घुटने तक ही झुक पाता है और हजारपति वाला? वह बैठ करके ले लेता है। जिसने लिया उसी की है, अब देखो, लखपति के मन में भी बात रह गई और करोड़पति के मन में भी बात रह गई। यदि हमारी कमर ठीक होती तो तुम्हारे से पहले हम उठा लेते। ये विकल्प क्यों उत्पन्न हो गए? एक सिक्के से भी सबके मुँह में पानी आ गया। करोड़पति भी प्रभावित हो गया। हाँ, इसी प्रकार पंचेन्द्रिय के विषयों से संसारी प्राणी प्रभावित होता आया है और उसके लिए समझाया जा रहा है कि अब ज्ञानी बन चुका है, अब मुख में पानी नहीं आना चाहिए, पानी नहीं होना है। तुझे ऐसा रहना है कि जिससे विषय तुझे प्रभावित न करें।

     

    एक उदाहरण आपको देता हूँ इस सम्बन्ध में। दो व्यक्ति, एक लड़का और एक लड़की। लड़के को मिला है एक गुरु का/संत का समागम, लड़की को मिला है एक आर्यिका का समागम।दोनों का विद्याध्ययन हो जाता है। जीवन क्या है? यह समझ में आ जाता है। क्या पाना है? क्या पाना चाहिए? ये सब समझ में आ जाता है। जिस समय उस लड़के का विद्याध्ययन पूर्ण हो गया, महाराज के चरणों में आ करके वह कहता है- महाराज जी ! अब आगे क्या करना है? तो महाराज जी ने कहा कि देखो बेटा! तेरा शिक्षण तो समाप्त हो गया, अब तुझे जो चाहिए वह कर ले। यहाँ पर रहना चाहता है तो रह जा और घर जाना चाहता है तो ठीक है तो लड़के ने कहा कि कुछ दिन के लिए घर जाना चाहता हूँ। कोई बात नहीं, जाना चाहता है तो जा। जाते समय गुरु ने कहा कि कुछ दक्षिणा तो देकर जाओ यह सुनते ही आप क्या करेंगे? आप तो जेब में हाथ डाल लेंगे। कोई नोट का बण्डल चाहिए होगा? नहीं, मैं यह इसलिए कह रहा हूँकि अगला जो रविवार आने वाला है वह दीपावली का है। चातुर्मास पूर्ण हो जायेगा। इसलिए उस रविवार को कुछ गुरु दक्षिणा आप भी दे दें तो अच्छा है। लेकिन आप ध्यान रखना, जो त्यागी होता है वह दक्षिणा त्याग की ही माँगता है। जो रागी होता है वह राग की दक्षिणा माँगता है, अत: उन महाराज जी ने उस बच्चे से कहा सही दक्षिणा देओ। बच्चे ने कहा ठीक है महाराज जी दे दूँगा। यदि विवाह कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करूंगा तो शुक्ल पक्ष में मैं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगा। शाबास! बेटा शाबास! कह दिया ठीक है आधा जीवन त्याग का, आधा जीवन राग का। अब किसकी कीमत सबसे ज्यादा होती है, देख लीजिए। इसी प्रकार इसी दिन उस आर्यिका के पास रहने वाली लड़की का भी विद्याध्ययन पूर्ण हुआ। आर्यिका ने पूछा कि जाना चाह रही हो क्या? उत्तर मिला हाँ। आर्यिका नहीं बनना चाहती। लड़की बोली कि थोड़ा घर जाकर फिर बाद में। ठीक है, कोई बात नहीं। फिर वह जाने के लिए तैयार होती है। आर्यिका कहती है कि दक्षिणा देकर के जाना बेटी। वह कहती है कि कृष्ण पक्ष में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगी। इसे कहते हैं सच्चा ज्ञानी, सम्यग्दृष्टि। अर्थ की उन्नति ही मात्र सुपुत्र का लक्षण नहीं है, परमार्थ की ओर भी उसके कदम बढ़ने चाहिए। वीतरागता की उपासना उसके जीवन में आ जानी चाहिए। यही एकमात्र शिक्षण का परिणाम होता है। विद्याध्ययन अर्थ के लिए नहीं होता। विद्या वैभव का अधिकारी कौन? समंतभद्र स्वामी कहते हैं- ‘दर्शनपूत:।' सम्यग्दृष्टि का वर्णन करते हुए समन्तभद्र महाराज थकते नहीं, उनकी यह विशेषता है। वह सम्यग्दृष्टि कैसा होता है? संसार शरीर भोगों से उदासीन होता है, वह ‘पूत' माना जाता है। 'दर्शनपूत:'। पूत का अर्थ पवित्र भी होता है और पूत का अर्थ पुत्र भी होता है। जो पवित्र होगा उसी का नाम यहाँ पर पूत है। दोनों के माता- पिता सोचते हैं अपने सम्बन्धियों से कहते हैं कि इनकी अब शादी/विवाह करना आवश्यक है। योग्य कन्या का चुनाव करना है। ऐसा नहीं कि जिसने दहेज ज्यादा दे दिया उसको बेच दिया, ऐसा नहीं। हमारे बेटे को बेचना नहीं, समझे। आप लोग अपने-अपने बेटों को बेचते हैं दहेज लेकर।

     

    प्रसंग आया है इसलिए कह रहा हूँ आप लोग क्या करते हैं? जैसे कोई लड़की वाला आया। वह कहे कि आपके लड़के के साथ लड़की का संबंध करना चाहते हैं। ठीक है, लेकिन अभी तो लड़का पढ़ रहा है। नहीं समझे, अभी तो लड़का पढ़ रहा है, आप कहते हैं कि जब तक पोस्ट ग्रेजुएट नहीं होता तब तक तो वह बात नहीं करता है और बीच-बीच में सम्बन्ध बहुत आ रहे हैं। अभी एक सज्जन आये थे उन्होंने पाँच लाख देने को कहा था, लेकिन हमने कहा कि नहीं यह हमारा लड़का है यह पसन्द नहीं करेगा, दस लाख आ जायें तो हम सोचेंगे। तो इस प्रकार उसका मूल्य बढ़ता जा रहा है। जिस प्रकार यहाँ पर पन्ना की खानों में हीरा निकलता है तो यह आज ५००० में बिकता है तो दूसरे के हाथ में १०००० का बिक जाता है तो तीसरे के हाथ में ५०००० का चला जाता है और जयपुर के जौहरी बाजार में जाकर उसकी कीमत लाखों हो जाती। उसी प्रकार जैसे-जैसे आप लोग प्रचार-प्रसार करते चले जाते हैं वैसे-वैसे हीरे की तरह आपके लड़के की कीमत बढ़ती जाती है। वाह! भैया वाह! यह बेचना नहीं तो और क्या है? यह खरीदना नहीं तो और क्या है? वे आप लोगों जैसे नहीं थे, वे माता-पिता ज्ञानी थे। उन्होंने दहेज की ओर नहीं देखा, संस्कारित लड़की को ढूँढ़ना है, ढूँढ़ना-ढूँढ़ते, विचार करते-करते, चर्चा करते-करते वही लड़की जो आर्यिका के पास पढ़ी थी, संस्कारित थी, उसके पास पहुँचे। उधर लड़की के पिता भी सोच रहे थे कि लड़की तो बड़ी हो गई अब इसके लिए योग्य वर कहाँ मिलेगा। यह संयोग की बात है। जैसी भावना होती है उसी प्रकार काम भी हो जाता है। दोनों का मेल हो जाता है। माता-पिता को भी खुशी होती है। दोनों के मातापिता को जोड़ा देखकर खुशी होती है। लड़के को देखकर लड़की के माता-पिता खुश हैं व लड़की को देखकर लड़के के माता-पिता खुश हैं। दोनों का सम्बन्ध हो गया। फिर क्या कहना? मिलते हैं जाकर रात्रि में तो लड़की कहती है- अभी नहीं, मेरा कृष्ण पक्ष का नियम है। लड़का कहता है मेरा भी शुक्ल पक्ष का नियम है। दो-तीन साल निकल गए, इसके उपरान्त भी कोई सन्तान नहीं। तो इसके उपरान्त पूछा गया तो वह शर्माते हुए, डरते हुए बोले, अब कैसे कहें? बहुत कठिनाई हो गई। फिर भी किसी प्रकार से उनको पूछा गया। दोनों माता-पिता को मालूम पड़ जाता है कि इन दोनों का इस प्रकार का नियम है कि शुक्ल पक्ष में इस लड़के का नियम है और कृष्ण पक्ष में इस लड़की का, और संयोग की बात है कि इन दोनों का विवाह हो गया और ये दोनों परीक्षा में खरे उतरे। एक बात और मैं कहना चाहता हूँकि एक दिन पति से पत्नी ने कहा कि आप दूसरा विवाह कर लें तो अच्छा है, कुल परम्परा चल जायेगी। आप पुरुष हैं दूसरा विवाह कर सकते हैं। किसी लड़की के साथ विवाह हो जाये तो कम से कम आपके माता-पिता की वंश परम्परा चल जायेगी। पति कहता है कि असम्भव, ऐसा पवित्र नियोग किसे मिलता है? हमें संसार की परम्परा नहीं बढ़ानी। हम तो जन्म-मरण से छुटकारा पाना चाहते हैं। हमारी भावना है कि जन्म-मरण की यह परम्परा टूट जाए।

     

    शिव-मजर – मरुज–मक्षय – मव्याबार्ध विशोकभयशङ्कम्।

    काष्ठागतसुखविद्या-विभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः ॥

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४०)

     

    अर्थात् अब तो उस शिव पद का भजन करना है जो अजर, अमर, अविनाशी है। अव्यावाध, शोक, भय, शंका से रहित अचल सुख देने वाला है। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक्र चारित्र एक ऐसी लक्ष्मी है जिसके द्वारा अनंत सुख की उपलब्धि हो सकती है।

     

    वह लड़का कहता है नहीं, नहीं, मैं अब किसी के साथ सम्बन्ध नहीं रखेंगा। क्या पता हमारे भावों में इस प्रकार की उज्ज्वलता रहे या नहीं। माता-पिता की आँखों में दुख के आँसू नहीं किन्तु सुख का पानी आ जाता है क्योंकि हमारे घर में उत्पन्न हुई यह सन्तान और इसके मन में भरी जवानी में यह वैराग्य! जहाँ पर जवानी ऑगड़ाई ले रही हो ऐसी स्थिति में विषयों से अपने आपको मोड़ ले और मोड़े क्या उसी के बीच में रहे और सौ टंच सोना सिद्ध हो जाए। ज्ञानी विषयों के बीच में रहता है फिर भी वह अपने ज्ञानपने को नहीं छोड़ता है क्योंकि कनक कभी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ सकता। अज्ञानी विषयों के बीच में रहता है लेकिन वह लोहे के समान जग खा जाता है। यह जग खाने वाले लोहे के टुकड़े नहीं थे, किन्तु सौ टंच स्वर्ण थे क्योंकि ये वहाँ से तप करके आए थे जहाँ पर वीतरागियों ने इन्हें शिक्षण दिया था। इनके सिर पर ऐसे हाथ थे जिन हाथों में हमेशा राग नहीं वीतरागता रहती थी। वीतरागी का संस्कार मिले तो राग वीतरागता में बदलेगा नियम से। देखो, यही तो समागम की बात है। उस वीतरागता का ऐसा प्रभाव था। दस-दस, बारह-बारह साल तक ऐसे संस्कार मिले थे तभी दोनों ऐसे कनक के समान निकले। दोनों के माता-पिता की आँखों में आँसू आ गए और कह दिया कि बेटा! बेटी! तुम बहुत ही अच्छे विचार के हो, हम तुम्हारे जीवन से खुश हैं। हमें अब वंश परम्परा की कोई आवश्यकता नहीं। ऐसी सन्तान हुई, हमारा जन्म भी सफल हो गया। अब देख लीजिए कि यदि शरीर, भोग सामग्री ही आत्मा को हठात् भोग के लिए आकर्षित करती और बाध्य करती तो उन्हें भी बाध्य करना आवश्यक था। यही आचार्यों का कहना है कि जिस प्रकार प्रकृति तटस्थ स्वरूप निष्ठ रहती है उसी प्रकार आत्मा को भी स्वरूप निष्ठ रहना आवश्यक है। इसी का नाम स्वास्थ्य है।

     

    स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेषपुंसां।

    स्वार्थो न भोग: परिभङ्गुरात्मा॥

    (स्वयंभू स्तोत्र-७/१)

    भगवान् सुपार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए यह समन्तभद्र महाराज ने कहा कि हे भगवान्! आपने कहा, स्वास्थ्य किसको बोलते हैं? भोग स्वास्थ्य नहीं है, सुख यदि है तो स्वास्थ्य में है लेकिन भोग में सुख नहीं है इसलिए भोग स्वास्थ्य नहीं है, वह दुख का मूल है, वह तृष्णा के लिए एक कारण है इसलिए भोग सामग्री हममें कभी भी हठात्राग-द्वेष पैदा नहीं करती। यदि हम अपने स्वभाव को पहचानते हों तो। चार पंक्तियाँ देकर मैं उपसंहार कर रहा हूँ। प्रकृति के अनुरूप यदि हम पुरुष होकर रह जाते तो हम जड़ता वाद में फैंस जाते। इमली का सेवन तो दूर रहा, इमली का नाम स्मरण भी मुँह में पानी लाता है। लेकिन स्वस्थ को नहीं, प्यास पीड़ित मनुष्य को। यह तो सहज बात है किन्तु विस्मय की बात तो यह है कि भोक्ता के मुख में जाकर भी इमली के मुख में पानी नहीं आता। किसके मुख में पानी आ सकता है, जो प्यासा हो, पानी चाहता हो, उसके मुख में आ सकता है लेकिन जो स्वस्थ है उसके मुख में नहीं आ सकता। यह तो सहज बात है, विस्मय की बात तो यह है कि भोक्ता के मुख में जाकर के भी इमली के मुख में पानी नहीं आ रहा है। पानी तो आपके मुख में आता है। इसी प्रकार ज्ञानी के पास सारी की सारी भोग सामग्री लाकर के रख भी दी जायें तो भी जिस प्रकार सामग्री उठ करके नहीं जाती उसी प्रकार ज्ञानी भी उन सामग्रियों को देखेगा/जानेगा भले ही लेकिन उनके पास नहीं जायेगा अर्थात् वह उन्हें अपनी भोग्य सामग्री नहीं बनाएगा। धन्य हैं, आज भी इस प्रकार का शिक्षण पा करके जो विषयों से, कषायों से ऊपर उठने के लिए प्रयास करते रहते हैं, हमेशा ऐसी सन्तान एवं ऐसी संतान के जो माता-पिता हैं वह धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि इस प्रकार चारों ओर चकाचौंध विषयों की है फिर भी वे उन विषयों से प्रभावित न हो करके वे कुछ अलग ही वस्तु से प्रभावित हो रहे हैं। दुनियाँ जिस ओर देखना तक नहीं चाहती उस ओर उन लोगों की दृष्टि जा रही है। दिव्य दृष्टि वाले ही इस प्रकार के व्रतों को/ संयमों को अंगीकार करने की भावना करते हैं।

     

    आप लगातार यहाँ पर पाँच-छह महीने से भिन्न-भिन्न प्रवचन, भिन्न-भिन्न प्रकार की योजनाएँ सुनते आ रहे हैं, देखते आ रहे हैं, करते आ रहे हैं। कई लोग गौरव के साथ कहते हैं हमने तो संघ को निकट से देखा है, ऐसा कहते हैं ना, लेकिन निकट से देखते हुए भी अभी कह नहीं पा रहा हूँकि कौन-कौन निकट आ रहा है। अब ये कहेंगे कि महाराज हम निकट तो आ रहे हैं लेकिन आपके निकट आना बहुत विकट सा लग रहा है। यह विकट सा नहीं है, थोड़ा-सा आप प्रयास कर लीजिए यहाँ आ गए हैं तो? अब कोई विशेष बात नहीं है, अब कुछ भी नहीं करना है बस केवल हाथ उठाना है और हम हाथ पकड़ कर यूँ ले लेंगे। यह भी एक भावना है तो कोई बात नहीं है, भावना तो इसी प्रकार जागती है। किसी व्यक्ति को आत्मा के बारे में लगातार पाँच-छह महीने तक चर्चा सुनने के लिए मिल जाये और फिर भी यह भावना न हो, हम तो इसको मंजूर नहीं करते।

     

    कई प्रकार के पाषाण होते हैं। जिस पाषाण में स्वर्ण निकलता है वह ऑख वाला पाषाण माना जाता है और जिसमें से स्वर्ण नहीं निकलता उसको अंध पाषाण कहते हैं। वर्षा तो होती है। सावन में होती है, भादों में होती है, पाषाण के ऊपर भी होती है और मिट्टी के ऊपर भी होती है। मिट्टी तो बह जाती है, फूल जाती है, उसमें बीज डालेंगे तो वह अंकुरित भी हो जाती है, लेकिन पाषाण ऊपर-ऊपर से भीग जाता है। हम तो यही समझेंगे कि यदि छह महीने के उपरान्त भी कोई त्याग की बात नहीं करता तो वह भीग तो गया लेकिन पाषाण के समान भीगा है। मिट्टी के समान भीगना चाहिए भैया, ताकि हम कुछ अंकुरित कर सकें, कुछ धान पैदा कर सकें और जिस प्रकार आप लोग बोलियाँ बढ़ाते चले जाते हैं उसी प्रकार हम भी तो यही चाहेंगे कि बढ़ती चली जाये संख्या। वीतरागता का प्रभाव ज्यादा होगा, संख्या ज्यादा होगी उतना ही रागियों के उद्धार का रास्ता प्रशस्त होगा।

     

    कुन्दकुन्द जैसे महान् अनुभव की लेखनी से लिखे हुए हजारों वर्ष प्राचीन ग्रन्थ मिलते हैं। एक-एक गाथा हम अपने सामने रख लेते हैं तो ऐसा लगता है कि एक-एक अक्षर, एक-एक पंक्ति, एक-एक पद वहाँ पर अनुभूति के द्वारा लिखे हुए हमें नजर आ जाते हैं। आत्मा का अनुभव वहाँ पर एक-एक अक्षर में प्रकट हो रहा है। धन्य हैं वे कि अपना कल्याण करते चले गए लेकिन साथ-साथ जो कोई भी उनके निकट आया उसके लिए भी ऐसा रास्ता बना दिया और जो आगे आने वाले हैं उनके लिए भी एक ऐसा साहित्य दे दिया जिसके द्वारा हम जैसे भी वीतरागता की बात कर पा रहे हैं। वीतरागता की पहचान कर रहे हैं और बढ़ने का पूरा-पूरा प्रयास किया जा रहा है, यह केवल एकमात्र संयोग की बात है।

     

    आप लोगों को भी संयोग मिला है और संयोग एक प्रकार से वियोग के लिए भी कारण होता है। अब होने जा रहा है, एक रविवार रह गया। वह रविवार भी बीच में नहीं आने वाला है। रविवार को प्रात: निर्वाण महावीर को होगा, मुक्ति होगी। उसी प्रकार हमारे चातुर्मास का भी निष्ठापन होगा। एक तो प्रतिष्ठापन की बात थी, अब निष्ठापन की बात हो रही है। लेकिन निष्ठा के साथ कहता हूँ कि आप लोग तन-मन-धन और जो कुछ भी है उसके साथ धर्म प्रभावना में लगे रहें और भावना यही करता हूँ भगवान् से कि आप लोगों की यह भावना प्रभावना में लगी रहे, लेकिन केवल ऊपर-ऊपर भीग करके नहीं, किन्तु भीतर भी कुछ भीगना आवश्यक है ताकि वह स्नत्रय का अंकुर ऊपर आ सके और उस अंकुर आने के उपरान्त ही सौभाग्य खड़ा होगा। फिर उसी में फूल-फलपते आदि हरे-भरे लगेंगे, सुगन्ध फैलेगी। पंचमकाल के अन्त तक जाना है, अभी तो बहुत शेष रहा है समय। अभी उतने काल तक इस वृक्ष को या उस परम्परा को ले जा रहे हैं। संसार की परम्परा की बात अब गौण कर दीजिये। अब तो श्रमण संस्कृति को हम जीवित रखना चाहते हैं, श्रमण बनकर के ही हम जीवित रख सकते हैं और श्रमण संस्कृति की सुरक्षा हेतु साहित्य का जो प्रकाशन करा रहे हैं वे भी श्रमण संस्कृति की कड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं। साहित्य का प्रकाशन होकर सुरक्षित होना बहुत बड़ा कार्य है। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने बहुत साहित्य लिखा लेकिन विधिवत् प्रकाशित होकर साहित्य जगत् के प्रकाश में नहीं आया। अब विधिवत् प्रकाशित होकर आया है। अब लोग उसका महत्व समझ रहे हैं। ज्ञानसागर वस्तुत: ज्ञान के सागर थे, लोगों को अब समझ में आ रहा है।

     

    इसके पूर्व भी अनेक-अनेक आचार्य हुए उनके साहित्य के माध्यम से ही हमें इस पथ का पाथेय मिला है। धन्य हैं वे आत्मायें। वे जय-जयकार के, धन्यवाद के पात्र हैं।

    महावीर भगवान् की जय


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now


×
×
  • Create New...