Jump to content
सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • धर्म देशना 2 - मन की खुराक : मान

       (3 reviews)

    सबसे ज्यादा अनर्थ होते हैं, तो मान-प्रतिष्ठा के कारण होते हैं। इसी के कारण आज बड़े-बड़े राष्ट्रों के बीच में संघर्ष छिड़ा हुआ है। मानी व्यक्ति अपनी पत्नी को छोड़ सकता है। मानी व्यक्ति अपनी प्रजा को छोड़सकता है। मानी व्यक्ति अपने भ्राता को छोड़ सकता है। लेकिन अपने मान को नहीं छोड़ सकता ।


    आज यह पर्व का द्वितीय दिन है। जो व्यक्ति दूसरे को नहीं देखना चाहता है वह एक प्रकार से मानी कहलाता है। बिल्कुल ठीक। भगवान् को आप देखते हैं। भगवान् किसी को देखते हैं क्या? नहीं। आप लोग प्रतिदिन भगवान् को देखकर के आ जाते हैं। क्या भगवान् ने किसी को देखा? नहीं देखते। और जो किसी को नहीं देखना चाहे, उनको क्या कहा जाय ? मानी। बिल्कुल ठीक।


    दुनियाँ को देखते-देखते अनन्तकाल व्यतीत हो गया। और उसी का यह परिणाम है कि हमने अपने आप का महत्व खो दिया। भगवान् के दर्शन करने से हमें यही तो ज्ञात होता है। इस दुनियाँ को देखने से ही हमारे भीतर कषाय उत्पन्न होती चली जाती है। दुनियाँ को देखने से कभी भी अभिमान नहीं होता। किन्तु अपने स्वरूप से च्युत होकर के जब हम भिन्न पदार्थों के संयोग से अपने आपको बड़ा समझते हैं, उस समय यदि कोई हमारे इक्वल, बराबर मिल जाते हैं, तो कषाय के भाव जागृत हो जाते हैं।


    विधर्मी से इतनी लड़ाई, इतना संघर्ष नहीं होता, जितना कि साधर्मी भाई से होता है। कोई भी व्यक्ति विदेश से यहाँ आ जाय, तो उससे आप कभी भी अभिमान नहीं करेंगे। अन्य प्रान्त से आ जाता है, तो उससे भी नहीं करेंगे। अन्य संभाग से आ जाता है, तो उससे भी कोई लेनदेन नहीं। अन्य जिला से भी आता है तो बनती कोशिश उससे भी नहीं होगा। अब बात आ जाती है अपनी तहसील की। वह भी कभी कभार मिल जाते हैं तो बात अलग है। नहीं तो वह भी यूँ ही निकल जाते हैं। अब बात आती है अपने गाँव की। उसमें भी कोई दूर रहता है। अन्य किसी मुहल्ले में और उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, तो उससे भी कोई मान-अभिमान की बात नहीं होगी। अब बात आ जाती है अड़ोस-पड़ोस की। बस, एक दुकान भी बीच में हो, तो दूसरी दुकान से भी अभिमान ज्यादा नहीं होगा। कषाय नहीं होगी। साथ-साथ रहते हैं, तो वहाँ पर अभिमान उत्पन्न होने लग जाता है। जितना निकट हो, उतना परिचय प्राप्त हो, उन्हीं के साथ हम लोगों का इस प्रकार का संघर्ष चलता रहता है। इससे शान्ति पाने के लिये और अपने स्वभाव की कीमत देखकर विश्व को देखना ही बंद कर दिया, स्वभावनिष्ठ हो गये, ऐसे भगवान् की मूर्ति देखते हैं, तो हमको कभी भी अभिमान उत्पन्न नहीं होता है। अभिमान तो दूसरे के ऊपर से होता है। इसलिए वह महामानी सिद्ध होते हैं। और मान का अर्थ भी एक प्रकार से ज्ञान वाचक है। क्योंकि प्रमाण की उत्पत्ति होती है, तो मान को प्र उपसर्ग लगाने से ही होती है। जिसको स्व व पर का सही मूल्य ज्ञात नहीं है, वही व्यक्ति प्रत्येक द्रव्य के पास अपने उपयोग को भेजकर उसका आदर करना प्रारम्भ करता है। दुनियाँ की छोटी से छोटी वस्तु भी हमारे आकर्षण का केन्द्र बन जाती है। और तीन लोक की सम्पदा से भरा हुआ वह व्यक्तित्व भी जो छिपा हुआ है, उसके बारे में हम कभी भी सोचते तक नहीं।


    यह ध्यान रखो, दश खण्ड का प्रासाद, भवन भी अपने काम में नहीं आने वाला और अपनी कुटिया भी बहुत अच्छी छायादार नजर आयेगी। स्वाभिमान वाला जो व्यक्ति होता है, वह सोचता है कि महान प्रासाद में अपने को नहीं रहना है। अपने को अपनी कुटिया में ही रहना है, अर्थात् स्वतन्त्रता यहीं पर है। वहाँ पर स्वतन्त्रता नहीं। एक-एक पाई के लिये एक-एक मांग की पूर्ति के लिये दुनियाँ का यह प्राणी कहाँ-कहाँ पर नहीं गया ? जैसे कि कल उदाहरण दिया था, मान का। व्यक्ति जब दूसरे पदार्थ की इच्छा रखता है, तो वह क्या-क्या नहीं करता ? सब कुछ करने के लिये तैयार रहता है।


    पाँचों इन्द्रियों के भिन-भिन्न विषय हैं। यह मान-प्रतिष्ठा कौन-सी इन्द्रिय का विषय है ? खुराक है ? थोड़ा सा देख लें, तो बहुत अच्छा है। किसका पेट भरता है, मान को खाने से ? स्पर्शन इन्द्रिय की भी खुराक यह नहीं है। इसकी खुराक क्या है ? आठ प्रकार के स्पर्श हैं। मान प्रतिष्ठा उसकी खुराक नहीं। रसना इन्द्रिय का विषय अनेक प्रकार के रस हैं। पाँच प्रकार के रस हैं। रसना इन्द्रिय की भूख भी मान प्रतिष्ठा के माध्यम से मिटती नहीं। तीसरे नम्बर की है नासिका। उसकी क्या आशा है ? वह भी कभी मान-प्रतिष्ठा नहीं चाहती। गन्ध चाहती है। सुगन्ध हो या दुर्गन्ध हो, कोई भी हो, वह पसन्द करती है। चक्षु इन्द्रिय अर्थात् आँख, यह भी मान-प्रतिष्ठा नहीं चाहती है। चाहती है क्या ? महाराज! जब अपमान हो जाता है तो आँखों में से पानी आ जाता है। है ना ? हाँ, इसीलिये आँख की खुराक मान है। यदि मान नहीं मिले तो पानी आ जाता है। अन्यथा आँखें फूल जाती हैं, खिल जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि आँख की खुराक मान है। नहीं, आँख की खुराक रूप है। अब रही कान की बात। अपनी प्रशंसा सुन लेते हैं, तो कान उठकर ही खड़े हो जाते हैं। पैर आ जाते हैं उनके पास। वह भी नहीं। क्यों इसलिए सुबह कहा था ना, संज्ञी वही होता है जो संकेत को समझकर के काम कर लेता है। इस तरह पाँचों इन्द्रियाँ गायब हो गई। किन्तु प्रतिष्ठा किसकी खुराक है ? एक मात्र मन रह जाता है, वही एक मात्र इसकी भूख रखता है। किन्तु वह हमेशा रखे, यह नियम नहीं। जब व्यक्ति दरिद्र रहता है, उस समय वह मान की ओर प्राय: नहीं देखता। तब सब तरह से दरिद्रता रहती है। जब एक-एक विषय की पूर्ति होती चली जाती है, तो धीरे-धीरे मन को एक प्रकार से जीवन मिल जाता है। जिसका पेट ही नहीं भरता, वह चक्रवर्ती बनना नहीं चाहेगा। स्वप्न तक नहीं देखेगा वह। क्योंकि यह संभव नहीं, थोड़े से ऊपर खड़े हो जाते हैं तो फिर भागने की बात आ जाती है। जो उठकर देख भी नहीं पा रहा है, पैर ही नहीं हैं, तो फिर भागने की बात ही नहीं होती। एक-एक विषयों की पूर्ति होती चली जाती है तो मान-प्रतिष्ठा की ओर भी चला जाता है। मन का विषय मान है, क्योंकि छोटा व्यक्ति बड़े के पास जाना नहीं चाहता। वह मुझे खरीद लेगा। बड़ा व्यक्ति छोटे के पास जाना चाहता है। क्यों? उसकी पूर्ति उन्हीं के माध्यम से होगी। अब देखो! मान की भूख किसको हो गई। बड़ों को हो गई। अब उसकी पूर्ति किससे करेंगे ? एक बड़े व्यक्ति की भूख को मिटाने वाला छोटा व्यक्ति बड़ा है या वह बड़ा है। नहीं समझे। कि एक बड़ा व्यक्ति चक्रवर्ती भी अपनी भूख को मिटाने के लिये दरिद्र के पास चला जाता है। उसकी भूख वह मिटा देता है, तो बड़ा कौन हो गया ? चक्रवर्ती सोचता है, बड़े साहूकार सोचते हैं-मेरी वजह से इसका कार्य हो रहा है। सही पूछा जाय तो ज्ञान के द्वारा सोच लेना चाहिए कि इसके द्वारा मेरा काम चल रहा है। यदि यह नहीं चलेगा तो ब्लडप्रेशर में कमी-वेशी होने लगेगी, यह निश्चित बात है। अब मुझे कौन पूछेगा ? पूछ लगा लो, तो पूछेगा ही। किससे आप पूंछ लगवा रहे हैं ? मनुष्य होकर पूंछ चाहते हो। वाह! तब वह जागृत हो जाता है।


    सबसे ज्यादा अनर्थ होते हैं, तो मान-प्रतिष्ठा के कारण होते हैं। इसी के कारण आज बड़े-बड़े राष्ट्रों के बीच में संघर्ष छिड़ा हुआ है। हमने खोज की, हम वहाँ पर गये, हमने यह किया, वह किया, यह सब बातें केवल प्रतिष्ठा की अपेक्षा से आ जाती हैं। एक व्यक्ति ने कहा था-आज सौरमंडल के बारे में जितनी भी छानबीन हो रही है, उसमें जितना पैसा खर्च हो गया, आगे की जो योजनायें हैं, उसका खर्च भी निकालकर रख जाय, तो उससे तीन वर्ष तक विश्व की आबादी के लिये अनाज की पूर्ति की जा सकती है। हमें समझ में नहीं आता-इन राष्ट्रों के उद्देश्य क्या हैं ? तीन वर्ष तो बहुत हो गया। इतना खर्च किया जा रहा है, वहाँ जाने के लिये। इससे क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? इससे कुछ सिद्ध नहीं होने वाला। इससे कोई ज्ञान का विकास होने वाला नहीं। फिर कहाँ गये, इस पर भी एकमत नहीं है। कोई दरिद्र हैं, कोई अकाल में पड़े हैं। कोई ईति से ग्रसित हैं, बहुत ही हीन दशा में पहुँच गये हैं। उनके लिये थोड़ा प्रबन्ध किया जाता है, तो बहुत बड़ा कार्य हो सकता था। लेकिन उसके बारे में नहीं सोचते।


    यह व्यक्ति मान-प्रतिष्ठा का ऐसा शिकार बन चुका है कि उसका सोच ही नहीं रहा। यह क्यों नहीं सोचता ? आचार्य कहते हैं-कि अफसोस की बात यही है। दुनियाँ के बारे में सोच रहा है। इसलिए ऐसा हो रहा है। जहाँ मान कषाय आ रही है, तो उसका कारण बस एक ही है कि वह दुनियाँ के बारे में छानबीन करता चला आ रहा है। यदि अपने बारे में सोच ले या स्वभाव के बारे में सोच ले, तो यह नहीं हो सकता। दूसरी बात यदि दूसरे के बारे में सोचता भी है तो, दीन व्यक्तियों की बात अलग है। मानी से मानी व्यक्ति भी किसी दीन-दुखी व्यक्ति को देख लेगा तो उसको नीचे से ऊपर उठाने का प्रयास भी करेगा। कुछ बातें पूछने के लिए बात करेगा। यद्यपि और किसी से वह बातचीत नहीं करता। लेकिन रोते हुए व्यक्ति को देखकर, भयभीत व्यक्ति को देखकर, वह बड़ा है, यह अपने आप ही भूलकर उसका सुख-दुख सुनने को तैयार हो सकता है। ये दो बातें हैं। पर को देखने से, दीन दरिद्र को देखने से अपना मान कम हो सकता है, और स्वभाव की ओर देख लें, तो मान समाप्त ही हो सकता है, हो जाता है।


    महाभारत कब हुआ, और क्यों हुआ ? इसकी जड़ क्या है ? क्या खाने के लिये नहीं था या रहने के लिये जगह नहीं थी ? जंगल में मंगल हो सकता है। दस-दस खण्ड के मकान में रहने वाले यहाँ पर, क्षेत्र पर एक भी मकान नहीं मिल रहा। महाराज! इतनी जगह मिल गई, बहुत पर्याप्त है। पर्याप्त है, मान कहाँ चला गया ? वहाँ न पंखा है, न कूलर है, न फ्रिज है, न कुकर। क्या है ? कुछ भी तो नहीं है। बस इतना ही पर्याप्त है, महाराज! कैसे दिन निकल रहे हैं ? महाराज! पता नहीं चलता। ऐसा लगता है दिन आता है तो रात सामने है। रात आती है तो दिन सामने है। यानि सुबहशाम निकल रहे हैं। और आनन्द मंगल है।


    हमें पहले यह देखना है कि हमारी ऐसी दशा कैसे हुई ? मान-प्रतिष्ठा के कारण हमने बहुत सारे गुणों का अनादर किया। महाभारत इसीलिये हुआ। मान-प्रतिष्ठा के कारण हुआ। इतनी यातनायें, ये सभी मान-प्रतिष्ठा के कारण और अन्त में मान की चरम सीमा है। अपमान करने की एक चरम सीमा है। दूसरे को अपमान करके अपना पेट भरने की चरम सीमा है। दुर्योधन और दु:शासन ने यह निश्चित कर लिया कि द्रौपदी के वस्त्र का हरण कर लेना। उसमें कौन-सी बात छिपी हुई थी, मुझे बताओ ? उसमें एक मात्र यही बात बनेगी कि हमारे देखते ही देखते मानप्रतिष्ठा समाप्त हो गई। इस प्रकार उनको नीचा दिखने का एकमात्र उद्देश्य था। यह कौन-सी भूख है ? यह किसकी भूख है ? यह राक्षसी भूख है। शीलवती स्त्री के ऊपर भी इस प्रकार का कार्य हो सकता है। जब मान खड़ा हो जाता है, तब यह महान अनर्थ का कार्य भी कर सकता है।


    योद्धा कहना तो फिर भी ठीक है, लेकिन इन दोनों के साथ दुर् ही लगा है। हमारी समझ में नहीं आता। योद्धा अच्छा हो तो सद्योद्धा, सुयोद्धा और योद्धा कह सकते हैं। अयोद्धा कह सकते हैं। लेकिन इन दोनों भाईयों के पीछे एक ही नाम दुर्योधन, दु:शासन और एक नाम दुष्यन्त में दु क्यों लगा? यह समझ में नहीं आता। जिनकी बुद्धि ही दुष्ट है, जिनका शासन ही दुष्ट है। क्या सोचता है मन? पाँच इन्द्रियाँ सोचतीं नहीं और यह मन सोचता है। इनको दुखित बनाने का मात्र एक ही उपाय है-इनकी पत्नि को नग्न कर देना। बहुत बड़ा अनर्थकारी निर्णय। और वह कौन ? भीष्म पितामह। कैसे देखते रह गये, जो महाभारत की सभा में सिरमौर जैसे, और देखते रह गये वह कौन-सी भीतर की इच्छा है ? लोभ, ललक है। यह कौन सी खुराक है ? क्या नीति ही डूब गई ? मानी व्यक्ति के सामने सब कुछ डूब जाता है।


    रावण आखिर नरक क्यों गया ? इसका भी उत्तर यही है। मैंने पुरुषार्थ किया है, तो तुमको भी पुरुषार्थ करना है। सामने दिख रहा है, स्पष्ट दिख रहा है, इसमें मेरी मृत्यु निश्चित है। मृत्यु तो हमेशा होती है, किन्तु क्षत्रिय का कर्तव्य होता है कि मान-प्रतिष्ठा बढ़ाकर चलना चाहिए। अब प्राण प्यारी मन्दोदरी से रावण कहता है- मेरी बात मंजूर है, तो ठीक है, नहीं तो यहाँ पर आने की जरूरत नहीं है। रावण स्वयं नीतिज्ञ है। उसके सामने नीति सिखाने का यह प्रयास ठीक नहीं। मानी व्यक्ति अपनी पत्नि को छोड़ सकता है। मानी व्यक्ति अपनी प्रजा को छोड़ सकता है। मानी व्यक्ति अपने भ्राता को छोड़ सकता है। लेकिन अपने मान को नहीं छोड़ सकता। सबको छोड़ सकता है वह मानी व्यक्ति, प्राण प्यारे जीवन को भी छोड़ सकता है। लेकिन मान को नहीं छोड़ सकता। नरक जाना मंजूर है, लेकिन मान को कभी भी, किसी के सामने बेचेंगा नहीं। यही क्षत्रियता के लिये कलंक है। मैं अपने परिवार में व राज्य में राजा होकर कभी अपने जीवन को कलंकित नहीं करूंगा। ध्यान रखो, मैं क्षत्रिय मर जाऊँ, मैं कभी मर नहीं सकता। यह शरीर आज नहीं तो कल मरना ही है। मुझे अपने जीवन की अमरगाथा बनाकर के ही जाना है। रावण का नाम युगों-युगों तक यह जग याद करता रहेगा। मैं राम बनना नहीं चाहता, रावण बनना चाहता हूँ। ऐसा सबको बता देता है। समझे। इस चीज की प्राप्ति के लिये कितने अनर्थ किये जा सकते हैं। पुराण ग्रन्थ उनके लिये साक्षी हैं। एक भी पुराण ऐसा नहीं है, जिसमें मान के कारण कोई नरक नहीं गया हो। एक भी युग ऐसा नहीं है, जहाँ पर इस प्रकार मान-प्रतिष्ठा को धक्का लगने से व्यक्ति भीतर ही भीतर घुटकर नहीं मरा हो। बहुत दयनीय स्थिति है। इतिहास को देखिये। उनमें हमारा भी नम्बर अवश्य होगा, शायद।


    आज तक मान कषाय पनप रही है। उसका क्या कारण है ? मान का परिवेश क्रोध से कम नहीं है। ये दोनों द्वेष के प्रतीक हैं। सभा में यदि विप्लव हो सकता है तो दो व्यक्तियों के माध्यम से हो सकता है। एक क्रोधी या एक मानी के माध्यम से। किसी को क्रोध आ जाय, तो वह सभा में विप्लव कर दे। एक मानी व्यक्ति आकर के सबसे सामने बैठ जाय। आपकी आँखों के सामने बैठ जाये। पीछे वालों को देखो, आगे वालों को भी देखो। क्या बात है ? जो सामने है उसी को देखो। आपको सामने देखना है। मैं उनको ही सामने देख रहा हूँ। मान-प्रतिष्ठा के लिए यह संसारी प्राणी बहुत अनर्थ करता है। पेट भरता नहीं। पेट कहता है- भैया! मैं तो भूखा हूँ, और मेरे लिये आधा पाव आटा आवश्यक है। भैया! आटो ढूंढ़ रहे हो आप लोग। समझ में नहीं आता, आप आटो में घुमा दोगे तो मेरा कुछ होगा नहीं और किसको क्या भर रहा है ? हमें समझ में नहीं आ रहा है। मन पूरा भी नहीं समझता। क्योंकि हम तो घूम आये और ऐसी कार में बैठकर घूम आये जो किसी के पास नहीं थी। ऐसी कार। सब बेकार बैठे हैं। ऐसी कार में घूमकर सबके सामने से आ गया हूँ। पेट कहता- मेरे लिये क्या मिला ? कुछ तो खिलाते। कुछ तो पिलाते। उसकी ओर कोई नहीं देखता। प्रयोजनभूत तत्व के बारे में जब हम सोचते हैं, तब मान-प्रतिष्ठा अप्रयोजनीय सिद्ध हो जाती है। और जिस व्यक्ति की दृष्टि में तत्वचर्चा करने के उपरान्त भी मान-प्रतिष्ठा की भूख रहती है, तो इस तत्वज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि यह प्रयोजनभूत ही नहीं है। इसीलिये कथचित् आचार्यों ने कहा है, कि तुम्हारे लिये प्राणों की रक्षा करना है। सुन रहे या नहीं। सुनाने की सामग्री तो अब सुन ही लो, कानों से सुन लो, तो अच्छा है। उसमें क्या इनडायरेक्ट दिखता है ?


    यहाँ जो हमारे लिये मोक्षमार्ग में कार्यकारी है, ऐसी पाँचों इन्द्रियों को प्राण के रूप में स्वीकार किया है। आयु को भी प्राण के रूप में स्वीकार किया है। लेकिन मान को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया। मोक्षमार्ग में मान का क्या महत्व है ? पूछा जाये, तो कोई महत्व नहीं है। एक सेकेंड के लिये भी वह कार्यकारी नहीं है। बल्कि मान के कारण मोक्षमार्ग में दूषण लगते हैं। मान को मिटाने के लिये पुरुषार्थ बताया है। इसलिए प्राण के स्थान पर होने वालीं इन्द्रियाँ, जिसके माध्यम से ज्ञान प्राप्त कर हम मोक्षमार्ग पर चल सकते हैं, वे तो हमारे लिये कार्यकारी हैं। किन्तु मान-प्रतिष्ठा नहीं। यदि आप मान की प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहते हो, तो मान कषाय की प्रतिष्ठा मत बढ़ाओ। प्रमाण की प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहिए। सही ज्ञान की प्रतिष्ठा वह है जिसके माध्यम से तत्वज्ञान से हीन व्यक्ति भी तत्वज्ञान की ओर आकृष्ट हो जाये। तत्वज्ञान की संभाल करो यानि सम्यग्ज्ञानी का सम्मान करो और सम्मान करो अर्थात् उसको मान नहीं दी। मान और सम्मान में बहुत अन्तर है। क्योंकि ज्ञानी का सम्मान करने से अनेक अज्ञानी भी ज्ञान की ओर आ जायेंगे और मान देने से वही विपरीत चलने लग जाता है। उसको मान कभी न दें, क्योंकि वह सोचेगा, मैं जो कार्य कर रहा हूँ, मैं जो सोच रहा हूँ, वह समीचीन है और बहुत अच्छा है। इसलिए एक प्रकार से आपके माध्यम से उसका पतन हो जायेगा।


    मान सम्मान अनिवार्य है लोक में। पर प्रयोजनभूत तत्व की ओर लाने के लिये उसको क्षय कर देना चाहिए। प्रयोजनभूत तत्व क्या है? मान प्रयोजनभूत तत्व नहीं है, यह पहले समझें। महाभारत, रामायण और भी पुराणों को देखने से ऐसा लगता है, कि बड़े-बड़े क्षत्रियों में भी मान की बातें थी। मान का आधार क्या है ? किन-किन चीजों को लेकर मन में मान जागृत हो जाता है? मान का अधिकृत स्थान मन है। और मन क्या चाहता है ? किन-किन चीजों के लेकर मान करता है ? आचार्य समन्तभद्र जी महाराज ने कहा, उनकी यह कारिका बहुत अच्छी लगती है। इस कारिका को पढ़ने, सुनने और अध्ययन करने से लगता है कि यह एक मात्र कारिका ही पर्याप्त है, दुनियाँ में सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए, अध्यात्म के प्रचार-प्रसार के लिये। पहले क्या रखा? पहले ज्ञान रखा


    ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिद्रं तपो वपुः।
    अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयः॥

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-२५)

    गतस्मय: यह विस्मय की बात है। किसके ऊपर यह मद करता है। मय यानि मद होता है। ज्ञान को लेकर व्यक्ति मद करता है, किन्तु यह विपरीत हो गया। ज्ञान तो दीपक का काम करता है। विज्ञान अपने को भी बचाता है और उसकी छाया में जो आता है वह भी बच जाता है। लेकिन ज्ञान के माध्यम से सम्यग्दर्शन समाप्त हो जाता है। यह तो समझ में नहीं आता। ज्ञान के माध्यम से नहीं, ज्ञान का मद करने से। ज्ञान के माध्यम से तो स्व-पर प्रकाशन हो जाता है। ज्ञान का मद करने से स्व का भी ज्ञान और पर का भी ज्ञान, दोनों ही पतित हो जाते हैं और मान करते-करते कहाँ पर चले जाते हैं ? पता नहीं लगता और अनर्थ हो जाता है। दो व्यक्ति आये और कहा- महाराज! हम दोनों मिलकर काम कर रहे हैं, हमारे लिए आशीर्वाद दे दो, ताकि हम दोनों के बीच कोई मतभेद न हो। घबराते क्यों हो ? दोनों व्यक्तियों में से एक व्यक्ति ने कहा - हमारा सामंजस्य बना रहे, महाराज! हमें विश्वास है, कि सामंजस्य बना रहेगा, क्योंकि तुम देने में से एक ही विद्वान् है। दो विद्वानों के बीच में ही मतभेद होते हैं। और मतभेद होते-होते मनभेद भी हो जाते हैं। घबराओ नहीं। दो विद्वानों के मिलने से ही झगड़े शुरू होते हैं। ऐसा बड़ा तूफान भी हो जायेगा। किन्तु एक विद्वान् के पीछे नहीं। हमारी बात क्यों नहीं मानी जा रही ? इसीलिये झगड़ा होता है। मेरी बात नहीं मानी जा रही है। हमें क्या कम समझते हो ? तो ज्यादा कौन है ? कम तो कोई नहीं है। मैं भी नहीं। तू ही है मैं कहने से तो दोनों व्यक्ति आ सकते हैं। मैं कहने की अपेक्षा से ही तब वह कहेगा आपको तुम कहो। और तुम उनको कह दो। दोनों ही आ जायेंगे। वह होना चाहिए। पर ऐसा होता नहीं। इसलिए पहले ज्ञान को रखा।


    ज्ञान चूँकि राग-द्वेष का अभाव करने के लिये था, किन्तु उसके कारण मद कर लिया, तो ज्ञान का ही दम निकल गया। मद का विलोम परिणामन हो जाता है। दम निकल गया। जिसके द्वारा जीवन बनना था, उसी से जीवन बिगड़ गया। जिसके माध्यम से विकास होना था, विकास समाप्त हो गया। मद आने के उपरान्त आचार्यो ने कहा है-अन्धकार फैल जाता है। मद वाले अन्धे होते हैं। मदान्ध जिसको कहते हैं। मद हो जाता है तो अन्धा हो जाता है। और यदि मद नहीं है तो अन्धा भी ज्ञानी हो जाता है। यही एकमात्र कारण है, जिसके करने से सम्यग्दर्शन समाप्त हो जाता है।


    कुल का मद, जाति का मद, ऐश्वर्य का मद, शारीरिक बल का मद आदि ये सारे के सारे मद के स्रोत हैं। जिस ज्ञान के माध्यम से मद आता है, तो वह दूसरों को समाप्त करना चाहता है। जो व्यक्ति मद के कारण दूसरों को समाप्त कर देता है, वह अपने आत्मधर्म को ही मिटा देता है और कुछ नहीं कर रहा है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को इसी मद के कारण मिटाने पर तुले हुए हैं। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को गिराने के लिये बल का प्रयोग करता है। यदि उस बल का प्रयोग विकास के लिये करता है तो क्या कहना ? यह नहीं हो रहा है। 'न धमों धार्मिकैबिना' धर्म कभी भी हम देख नहीं सकते, इस दुनियाँ में धर्मात्माओं के अभाव में। और धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति यदि अपने मद के कारण धर्मात्माओं को अपमानित करता है, उनको नीचा गिराने का प्रयास करता है, तो यथार्थतया वह व्यक्ति क्या कर रहा है ? धर्म को ही निर्मूल समाप्त कर रहा है। मान की एक ऐसी गर्मी है, जिसके द्वारा ठण्ड के दिनों में भी पसीना आ जाता है। नहीं आता क्या ? हाँ। मान के कारण बाहर ही बैठ जाता है, उनको वहाँ भी कुछ नहीं होगा। मान के कारण भीतर भी नहीं आते, क्योंकि हमें बुलाया नहीं गया। उन्हें ठण्ड नहीं लगेगी, इतनी गर्मी है, सर्दी कहाँ से लगेगी ? उनको तो लग ही नहीं सकती। जब तक वह उतरेगा नहीं मान के शिखर से, तब तक उन पर ठण्ड की कोई अनुभूति नहीं। न चादर की आवश्यकता, न कमरे की आवश्यकता, न पाटे की आवश्यकता, न चटाई की आवश्यकता, किसी की आवश्यकता नहीं। जब तक यह गर्मी रहेगी, तब तक तो वहाँ बिल्कुल हीटर जल रहा है।


    निश्चित बात है, यदि हम लोग प्रयोजनभूत तत्व को देख लें तो बहुत बड़े-बड़े लाभ कर सकते हैं। और हम उस प्रयोजन को गौण कर लें तो बहुत बड़े-बड़े अनर्थ भी हो सकते हैं। तुम्हारा यह मौलिक जीवन धूल में मिल सकता है। मिलता आया है। गुस्सा से हम बहुत कुछ काम कर सकते हैं। मान से हम बहुत कुछ कर सकते हैं। लेकिन धार्मिक भाव से, आज तो धर्म युग नहीं है, महाराज! क्यों? पंचमकाल है। और पंचमकाल में धर्म-कर्म नहीं होता है। स्ववश धर्म होना आज दुर्लभ है। परवश बहुत कुछ हो सकता है। इससे तो बढ़िया यहीं-कहीं उपवास करके रह जायें। बस वह ४-५ दिन तक खायेगा नहीं। एक व्रत करना भी मुश्किल था, उसके लिये और इस तरह डॉट दिया, तो वह पाँच दिनों तक उपवास कर सकता है। हम आयेंगे नहीं, बुलायेंगे। छह दिन तक आप बुलाते रहोगे, फिर हम आयेंगे। यह अत्यधिक तीव्र होता है। अब कहें क्या ? दिखता तो है नहीं, महाराज। मान इतने बड़े व्यक्तित्व को भी क्यों हिला देता है ? समझ में नहीं आता। कल ही कहा था


    परं परं सूक्ष्मम्॥

    प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात्॥

    अनन्तगुणे परे॥

    (तत्त्वार्थसूत्र - २/३७, ३८, ३९ )

    हाँ, अनन्तगुण भरे हैं। अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओं के माध्यम से मान का निष्पादन होता है। वह गोली का काम करता है उसके पास ऐसी शक्ति है। बल्कि वह शब्द तो निकल जाता है। लेकिन जब कभी याद आ जाय तब भी वह जैसे अभी गोली लगी हो, ऐसा अनुभव होता है। इसी को बोलते हैं प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ स्थान यानि फल देने की शक्तियाँ। चौदहवें गुणस्थानवर्ती के लिये भी यह संभव है। क्यों होता है ऐसा ? इसके पास उसकी शक्ति रहती है। मनोभाव के साथ अच्छे भाव के बारे में हम सोच लेते हैं तो उसी प्रकार अचेतन को लेकर भी कार्य हो सकता है। बुराई को लेकर कर सकते हैं तो बुरे कार्य भी हो सकते हैं। तो अच्छे भावों के साथ प्रथम स्थान, द्वितीय स्थान, तृतीय स्थानगत बन्ध होता था, परन्तु ज्यों ही सम्यग्दर्शन की भूमिका आ जाती है, आचार्यों का उल्लेख है - प्रशस्त प्रकृतियों में चतुर्थ स्थानीय बंध होना प्रारम्भ हो जाता है। हम कषायों के द्वारा चतुर्थ स्थानीय को द्वितीय स्थान तक ले जाते हैं। और यदि धार्मिक कार्यों की ओर झुकाव हो जाता है, सात्विक जीवन की ओर चला जाता है उपयोग, तो निश्चित रूप से वह चतुर्थ स्थानीय बंध करना प्रारम्भ कर देता है। वह ऐसी पोटेंसी होती है, जिसका बिना बोले ही मात्र भावों के माध्यम से उस व्यक्ति के ऊपर प्रभाव पड़ जाता है। सम्मान के ऐसे कार्य भी आप कर सकते हैं, जिसके माध्यम से बड़े-बड़े कार्य जो रुके हुए हैं, वह भी यूँ ही खेल-खेल में हो जाते हैं।


    ज्ञान का सदुपयोग आप करना चाहें तो अवसर है। इस समय उस ज्ञान को वितरित करो, फैला दो, जिसके द्वारा मानी व्यक्ति भी इस ओर घूमना चाहे तो घूम सके। आज मान-प्रतिष्ठा के लिये ही कुछ जीवों का वध किया जा रहा है। और आपके मान को और बढ़ाने का संकल्प लिया गया है। आज पचास वर्ष हो गए आपकी उन्नति के लिये। राष्ट्र ने संकल्प लिया है, भारतवासियों को विश्व के सामने लाकर के खड़ा कर देना है। अरे! हम तो संकल्प लेते हैं। रात-दिन एक करके, आपके जीवन की उन्नति के लिये, आपकी शान को बढ़ाने के लिए, कितने ही जीवों का वध हो जाय, कोई बाधा नहीं, यह वध जो हो रहा है, भुखमरी है, इसलिए नहीं हो रहा है। ध्यान रखो, आप लोगों के पेट भरने के उपरान्त अब आपका मान और भर जाय। विश्व के सामने स्टेण्डर्ड कायम हो जाय, इसके लिये यह काम किया जा रहा है। आपकी मंजूरी है। हाँ, आप मान बढ़ाना चाह रहे हैं।


    पशुओं का वध कर यहाँ से मांस और खून का निर्यात करके, वहाँ से विदेशी मुद्रा लाकर राष्ट्र को उन्नत बनाने का संकल्प ठीक नहीं है। यदि ठीक नहीं है, तो फिर पचास साल से आपने सोचा क्यों नहीं ? राष्ट्र को इस प्रकार उन्नत बनाने का संकल्प ठीक नहीं है। जिस समय राष्ट्र को स्वाधीनता मिली, उस समय एक-एक व्यक्ति के पास कुछ न कुछ धन था। किन्तु आज प्रत्येक नागरिक पर हजार रुपये का कर्ज है। कर्ज के साथ ही भारतीय व्यक्ति का जन्म हो रहा है। पेट में आया नहीं कि वह कर्जदार हो गया। अब पहले कर्ज को मिटाओ। क्या कर्जदार व्यक्ति बाजार में सूटेड-बूटेड जा सकता है ? शाम को जल्दी-जल्दी जाकर काम निकाल दो, भैया। मेन रोड से मत चलो, वायपास से चलो। बाजार में मुख दिखाने लायक नहीं, भारत के ऊपर कर्ज होकर भी भारत कहता है - कि हम उन्नति की ओर अग्रसर हैं। विकासशील राष्ट्रों में भारत का भी नम्बर है। मतलब कर्ज लेने में वह विकासशील है। खूबी की बात तो यह है कि किसी को करुणा नहीं आ रही है। इस कर्ज को यदि समाप्त करना चाहें, तो कर सकते हैं। यदि कोई भारतीय सोच ले कि भारत के धन को जो बाहर रखा गया है, वह आ जाय, तो पूरा कर्ज समाप्त हो सकता है। पशुओं को काटने की क्या आवश्यकता है ? लेकिन मान-प्रतिष्ठा की बात आ जाती है।


    समन्तभद्र महाराज कहते हैं - मान-प्रतिष्ठा की पूर्ति के लिये हम कौन-कौन से अनर्थ नहीं करते ? सब कुछ कर सकते हैं।


    सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैर्बिना॥

    हम दूसरों को समाप्त करने के लिये तुले हैं। स्वामी समन्तभद्र कहते हैं- धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं हो सकता। यदि धर्मात्मा यहाँ पर हैं तो धर्म की रक्षा करना चाहिए। यह परम कर्तव्य है, संस्कृति को सुरक्षित रखना, अहिंसा को सुरक्षित रखना।


    भारत की संस्कृति अहिंसा है। इस अहिंसा में सारी संस्कृतियां अपने आप समाहित हो जाती हैं। सभी कलायें, सभी ज्ञान की विधायें सारा का सारा साहित्य सुरक्षित रह जाता है। इस साहित्य को तो सुरक्षित आप रखो और जो जीवित प्राणी हैं, उनको मौत के घात उतारकर संस्कृति की रक्षा करना चाहो, तो यह कभी भी नहीं हो सकता। प्राणियों के प्रति जिस व्यक्ति के हृदय में वात्सल्य/प्रेम/करुणा/दया नहीं है, वह व्यक्ति भी नहीं है। उसके कदम किस ओर हैं ? हम कह नहीं सकते। अच्छाई की ओर तो वह नहीं ही है। इसलिए कि पचास वर्ष के उपरान्त भी आप लोगों ने यह नहीं सोचा कि सही उन्नति किसमें निहित है। हमारा हित किसमें निहित है ? ज्यादा शास्त्रों को रखने से, ज्यादा वस्तुओं के संकलन करने से, अच्छे-अच्छे बिल्डिंग बनाने से हमारी संस्कृति का संरक्षण नहीं है। अपितु हमारे विचार, हमारे आचार जितने सात्विक बनेंगे, उतना ही आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ आत्मोन्मुखी होने का सौभाग्य प्राप्त हो सकता है।

    विषय सामग्री जितनी फैलती चली जायेगी इस धरती पर, उतना ही व्यक्ति परोन्मुखी ही होता चला जायेगा, आत्मोन्मुखी तो हो ही नहीं सकता। बहिर्मुखी होना इस युग का सबसे बड़ा अभिशाप माना जायेगा। पहले अन्तर्मुखी और ऊध्र्वमुखी हुआ करते थे। हमारा लक्ष्य ऊध्र्वमुखी होना था, किन्तु आज दूरमुखी बहिर्मुखी हो रहा है। और दूरदृष्टि की आवश्यकता है, दूरदर्शन की नहीं। क्योंकि दूरदर्शन को देखने से आँखों की ज्योति खराब होती है, और दूरदृष्टि रखने से हमारा मानसिक स्तर बढ़ता चला जाता है। जितनी दूरदृष्टि रखोगे, चिन्तन की धारा उतनी ही डीप तक पहुँच जायेगी और जितनी गहराई में आप पहुँचोगे उतने ही माणिक-मोतियों का खजाना आपको मिलेगा। उसी के बारे में आप क्या सोच रहे हैं। छोटी-छोटी बातों के ऊपर शोध चल रहे हैं। आत्मा की खोज के बारे में, वस्तुत: जीवन के विकास के बारे में क्या सोचा जा रहा है ? कुछ नहीं। यही अकर्मण्यता है। सही उद्योग करने से जीवन उन्नत हो सकता है, लेकिन आज बिना उद्यम का व्यवसाय माना जाता है। पहले के व्यक्ति इस प्रकार के कार्य की सोचते तक नहीं थे।


    सही व्यवसाय के माध्यम से यदि धन का अर्जन होता है, तो कोई बाधा नहीं। सुनते हैं कि जैन समाज में पहले चूने का काम नहीं करते थे। जैन समाज में ईटों का काम नहीं करते थे। जैन समाज में और भी कुछ ऐसे कार्य हैं, जिनको नहीं करते थे। कुछ ऐसे व्यापार, धन-धान्य भी जिनमें वर्षा के दिनों में ज्यादा कीड़े/लटें पड़ जाती हैं, स्वीकृत नहीं करते थे। उनको दो महीने तक लाना बिल्कुल बंद कर दिया जाता था। किन्तु आज किसी भी प्रकार से आये, जैसा-तैसा आवे, पैसा आवे। बस ये तुकबंदी अच्छी लग रही है आप लोगों को, किन्तु यह अच्छा नहीं है। ज्यादा पैसा लाने से पैसा वाले थोड़े ही होते हैं। लेकिन पैसे का भी अपना महत्व रहता है। सात्विक पैसा अलग काम करता है। राजसता पूर्ण पैसा अलग काम करता है। खानदानी और नया पैसा इनमें क्या अन्तर है ? ओल्ड को गोल्ड माना जाता है। और नया बोल्ड माना जाता है। आप कितना भी करो उसके द्वारा कभी भी शक्ति नहीं मिलती, क्योंकि प्राणों में शान्ति जब आती है, जब अन्न अच्छा मिलता है। अन्न अच्छा तभी माना जाता है, जब धन अच्छा होता है। इसलिए नया पैसा अच्छा नहीं है। पैसा तो पुराना ही अच्छा है, क्योंकि पुरानी की ही कीमत का आज पैसा है, यह भी ध्यान रखना। एक व्यक्ति ने आकर कहा-महाराज! पहले में और आज में कुछ अन्तर नहीं। हाँ, बिल्कुल अन्तर नहीं। आपको कितना वेतन मिलता है ? मैंने पूछा। महाराज! पाँच हजार मिलता है। पहले कितना मिलता था? पहले तीस वर्ष पूर्व सौ रुपये मिलते थे। बहुत उन्नति हो गई, पचास गुना हो गया। नहीं! महाराज, उस में भी उतने में एक तोला सोना आता था और भी वही है। कहाँ है वह उन्नति बताओ ? तेली के बैल की भांति आप पचास वर्ष की उन्नति के बाद भी वहीं के वहीं हैं। इस समय एक जीरो और आ गया। पाँच हजार में हम कैसे काम चलायें ? सूघ-सूघ कर रखना पड़ता है। पहले शक्कर के लिये मुंह में पानी आता था, आज शक्कर का नाम सुनकर आँखों में पानी आ जाता है।


    सोचिये, विचार करिये। क्या जमाना आ गया ? वह ठीक था, कि यह ठीक है ? महाराज, क्या दोनों एक ही हैं सूखापना आ गया है। सौ रुपया कहीं भी बांध बूध कर रख जाते थे। पाँच हजार रखने के लिये स्थान ही नहीं। अब नोट के बंडल बहुत हो गये हैं, कहाँ रखें। आज जमाना आ गया टोकरे में तो नोट ले जाओ और दुकान से सामान खरीदकर पाकेट में ले आओ। अब पैकिट में कोई भी देखता नहीं, भैया। यह क्या है जेब में ? यह देखलो, बहुत मंहगाई है। वस्तुस्थिति देखते हैं तो कुछ हुआ ही नहीं है। हुआ है, ऐसा कहा जा रहा है या धारण बनाई जा रही है। आपका जीवन वहीं पर और ज्यों का त्यों है। विकास कहाँ है बता दीजिये ? अपितु हमारे देश का ह्रास हुआ है।


    आज सात्विकता समाप्त होने के कारण से ऐसी दशा हो रही है। मान-प्रतिष्ठा के कारण से हम चमक-दमक में फैंसते जा रहे हैं। मान-प्रतिष्ठा को बढ़ाने में प्रत्येक व्यक्ति लगा हुआ है। सब अपनी चिन्ता में है, देश की चिन्ता किसी को नहीं। भगवान् के स्वरूप को उनके दर्शन से लाखों व्यक्तियों में परिवर्तन आ जाता है। आज भारत की इस धरती पर ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जो चारों तरफ शान्ति का वातावरण ला सके। आज हमें ऐसे दीपक की आवश्यकता है, जो इस अन्धकार को दूर कर सके, ऐसे रत्नदीपक की बहुत आवश्यकता है।


    कषाय छोड़ने से शान्ति मिलती है। अपनी प्रतिष्ठा के लिये दूसरे को क्यों अपमानित किया जाता है ? वह मूक पशु जो स्वयं पीड़ित रहता है, तुम क्यों अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये उसे पीड़ित कर रहे हो ? वह पशु तो रूखा-सूखा घास ही तो खाता है, लेकिन आपको क्या देता है ? इसके बारे में विचार करो।


    पशु सीमा में रहकर कभी भी प्रकृति विरुद्ध नहीं होता। नारकी और देव भी विरुद्ध नहीं होते। अगर होते हैं तो मानव। मनु यानि मानी नहीं। वही मान करना सिखाते हैं। मनु चले गये पर ये महामना बन गये, जो मान रखते हैं। मान का भूखा है यह मानव। पेट भरते हैं जीवन चलाने के लिये और पेटी भरते हैं जीवन को चढ़ाने के लिये। पेट आधा घंटे में भर जाता है और पेटी जीवन भर में नहीं भरेगी। संकल्प करें - कषाय कम करने का। मूल्य को बढ़ाने के लिये सद्धर्म का आश्रय लेना आवश्यक होता है।


    अब भारत को मान-प्रतिष्ठा की दौड़ को छोड़कर आत्मनिष्ठा की ओर आना चाहिए। भारत की धरती पर जो दुष्कृत्य बढ़ रहे हैं, उन्हें मिटाने की बात करना चाहिए। मांस का निर्यात करना भारत जैसे राष्ट्र को शोभा नहीं देता। इस कार्य को अविलम्ब रुकवाने के लिये आवाज उठाना चाहिए, और भारत में मांस निर्यात बन्द होना चाहिए। इसी में राष्ट्र का हित है। इसी भावना के साथ...


    उत्तम मार्दवधर्म की जय.......


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    आज सात्विकता समाप्त होने के कारण से ऐसी दशा हो रही है। मान-प्रतिष्ठा के कारण से हम चमक-दमक में फैंसते जा रहे हैं। मान-प्रतिष्ठा को बढ़ाने में प्रत्येक व्यक्ति लगा हुआ है। सब अपनी चिन्ता में है, देश की चिन्ता किसी को नहीं। भगवान् के स्वरूप को उनके दर्शन से लाखों व्यक्तियों में परिवर्तन आ जाता है। आज भारत की इस धरती पर ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जो चारों तरफ शान्ति का वातावरण ला सके। आज हमें ऐसे दीपक की आवश्यकता है, जो इस अन्धकार को दूर कर सके, ऐसे रत्नदीपक की बहुत आवश्यकता है।

    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...