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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पावन प्रवचन 8 - कर विवेक से काम

       (2 reviews)

    दृश्य को पाने के पहले दृश्य को देखने से भी सुख प्राप्त होता है, इसी को आस्था कहते हैं। विवेक के साथ प्रत्येक घड़ी बिताने का नाम ही वास्तव में जीवन है। सत्य और अहिंसा का बहुत गहराई से सम्बन्ध है यदि हमारे एक हाथ में सत्य है तो दूसरे में अहिंसा होनी चाहिए। दोनों मिल जाते हैं तो बड़े से बड़े राष्ट्रों की भी रक्षा की जा सकती है, उनका विकास किया जा सकता है।


    एक मछली जो पानी में रहती है जलचर प्राणी कहलाती है। जैसे-जैसे पानी की मात्रा कम होती है उसकी परेशानी बढ़ती जाती है, और पानी के सूखते ही चन्द मिनटों में वह प्राण छोड़ देती है। इसका मतलब यह है कि मछली को प्राण रक्षा के लिये जल अनिवार्य होता है। सारी व्यवस्थाएँ होने के उपरान्त भी यदि आप लोगों को कुछ समय के लिये ऑक्सीजन न मिले तो दम घुटने लगता है सारा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ठीक इसी तरह की बात थी-जंगल का वातावरण था, गर्मी के दिन और उस पर भी काफी तेज धूप। प्यास की वजह से कण्ठ सूख रहा था, अपने प्राणों की रक्षा के लिये पानी की तलाश में वह बहुत दूर तक निकल गया, काफी खोज के बाद भी जब उसे पानी नहीं मिला तब निराश निरुपाय वह अपने साथी घोड़े को छोड़कर एक घने छायादार वृक्ष के नीचे पहुँच जाता है। थकाहारा तो था ही, अत: कुछ विश्राम करने के विचार से वह वहीं लेट जाता है, फिर क्या था लेटते ही नींद आ गई।


    निर्जन वन है, चारों ओर कोई भी नहीं, पक्षी ही कभी-कभी अपनी आवाज से जंगल की नीरवता भंग कर देते हैं, किन्तु वहाँ पर पूछताछ करने वाला कोई नहीं, एकाध घण्टे के लिए उसे निद्रा आ जाती है।


    तात्कालिक कुछ आराम मिल जाता है पर वह नहीं के बराबर। प्यास बहुत सता रही थी जागते ही पुन: मन में भाव आया कि पानी की गवेषणा करना जरूरी है नहीं तो आज कैसे इस पीड़ा से बच सकते हैं। इसी बीच उसने एक दृश्य देखा, दृश्य के देखते ही उसके प्राण हरे-भरे हो गये, क्योंकि दृश्य को पाने के पहले दृश्य को देखने से भी सुख प्राप्त होता है। सन्तों ने इसी का नाम सम्यकदर्शन कहा है इसी को आस्था भी कहते हैं और आस्था जहाँ प्राप्त हो जाती है तब वह स्वयं ही रास्ता बताने लगती है। उसका दुख उसकी पीड़ा नहीं के बराबर हो जाती है। पीड़ा का अभाव तो नहीं लेकिन जब सुख प्राप्त करने की आस्था पूरी बन जाती है, विश्वास हो जाता है तो उसका दुख प्राय समाप्त हो जाता है। जैसे अध्ययनशील विद्यार्थी महीनों तक दिन रात एक करता है यहाँ तक कि निद्रा न आये इसलिए भोजन पर भी कंट्रोल करता है, चाय पी कर ही काम चलाता है किन्तु उत्तम श्रेणी में पास होने के परिणाम को पाकर सारी थकावट दूर हो जाती है। ठीक यही बात आप लोगों के साथ भी लागू हो जाती है। सफलता मिलने के उपरान्त तो प्रत्येक को हर्ष होता है यहाँ तो सफलता के चिह्न मात्र दिखाई दे जाने पर आनन्द की लहर आये बिना नहीं रहती।


    जो प्राण कण्ठगत थे उन्हें विश्वास हो गया कि मैं अब बच जाऊँगा। पानी दिख गया किन्तु वहाँ पर पानी कहाँ से दिख गया ? यह विचारणीय बात है। वहाँ पर पानी कहाँ से आया ? क्योंकि सारे जंगल को छान डाला था, फिर भी पानी कहीं नहीं मिलता था, यह ज्ञान उसे नहीं रहा और रह भी कैसे सकता है ? और एक धार उसे सामने से बहती हुई दिखाई दी, वह कहाँ से आ रही है ? इस ओर उसने दृष्टिपात नहीं किया। धार कहाँ पर गिर रही है बस इतना देखकर उसने सोचा कि यहाँ से हमारा काम पूर्ण हो जायेगा। वह धार उसी पेड़ के ऊपर से आ रही थी। इसे कैसे पिया जाय ? वह विकल्प मन में उत्पन्न हुआ। पेड़ बड़ का था। अत: उसने सोचा कि इसके पत्तों का यदि दोना बना लिया जाय तो उसमें धार का पानी इकट्ठा किया जा सकता है और तीन चार दोना भर कर पी लेंगे तो अपना काम हो जायेगा। धार के नीचे दोने को रखा और वहीं बैठकर भरने की प्रतीक्षा करने लगा। दो चार दोने और बना कर रख लिये अपने पास में। पहला दोना जैसे ही भरने को हुआ तो धीरे से उठा लिया और अब पीना है, बहुत प्रतीक्षा के उपरान्त पानी मिला है, अब ज्यों ही दोने को हलके हाथों से पकड़कर पीने को है, उसी समय अचानक एक पक्षी आया और इधर से (हाथ करके दिखाना) यूँ चला गया और उसके माध्यम से दोना धक्का खाकर नीचे गिर गया, कोई बात नहीं दोने को दुबारा रख लिया, उसके भरते ही पूर्व की भाँति उठा लिया और पीने ही वाला था कि वही पक्षी जो इधर गया था लौटकर आया और दोने को पुन: गिरा दिया। इस प्रकार का कार्य जब दो बार और तीसरी बार भी हो जाता है तब उस व्यक्ति को थोड़ा सा गुस्सा आ जाता है यह पक्षी कहीं प्रशिक्षित सा लगता है, मैं पानी पीना चाह रहा हूँ और यह बार-बार गिरा देता है, लगता है यह मेरे कार्य में व्यवधान करने के लिए ही आया है। जैसे किसी प्रश्न को यदि दो तीन बार दुहरा दिया जाय तो लगभग उत्तर का अनुमान लग सा जाता है, इसी प्रकार उसने भी अनुमान लगाया यह मेरे कार्य में व्यवधान उपस्थित कर रहा है। इस बार हाथ में चाबुक लेकर बैठा है, देखेंगे उसको, आने दो फिर से। इस बार भी दोना भर जाने के बाद ज्यों ही पीने को होता है पुन: वही पक्षी तेजी से आकर पंखों से गिरा देता है, दोना गिरते ही गुस्से में आकर उसने जोर से चाबुक मार दी। देखते ही देखते पक्षी...। छोटा सा तो था पक्षी, अब जरा विचार करो। उसके प्राण क्यों गये ? क्या पानी के अभाव में ? पानी के अभाव में तो नहीं गये क्योंकि पानी तो उसने पी रखा था। फिर उसके प्राण क्यों गये ? यह एक प्रश्न है हमारा। प्रश्न मंच चल रहा था न अभी। एक हमारा भी प्रश्न है ? आखिरकार उसके प्राण क्यों गये ?


    जान बूझकर चले गये ? मरना था इसलिए चले गये ? दूसरा बच जाय, उसके पानी को गिरा दूँ इस उद्देश्य से चले गये ? क्यों चले गये ? एक रहस्यमय प्रश्न है। धीरे-धीरे मैं कथा को आगे बढ़ाकर आप को सोचने के लिए सुविधा कर रहा हूँ ताकि उसका उतर आप सभी के Mind (दिमाग) में आ जाये लेकिन मेरे विचारों से छोटों की अपेक्षा बड़ों के Mind (दिमाग) में इसका उत्तर बाद में आयेगा ऐसा मेरा सोचना है इन्हीं सब बातों को सोचते हुए यद्यपि इस उदाहरण को कई बार सुनाया है, पर अब की बार कुछ अलग ही ढंग से रखा जा रहा है। चार बार भरा हुआ दोना हाथ से गिर गया, उसे भरने में समय भी लगता है। अत: उसके मन में भाव आ गया कि जहाँ से यह धारा आ रही है वहाँ देखना चाहिए और शीघ्र ही पेड़ के ऊपर चढ़कर देखता है जहाँ से धारा आ रही थी। उस को देखते ही हक्का-बक्का सा रह गया उसे ज्ञात हो गया कि स्रोत के मूल में क्या है ? और यह घटना इतनी बार क्यों घटी इसके पीछे तोते का क्या अभिप्राय था ? पूरा का पूरा भाव सामने आ जाता है। हम देखते हैं यह गाय, भैंस, यह घोड़े यह कुत्ते, यह जानवर, हमारी अपेक्षा निम्न कोटि के हैं, पर ऐसा नहीं है वे भी काफी समझदार होते हैं। हम अपने लिये तो समझते हैं कि हम ज्ञानी हैं, हम वैज्ञानिक हैं, हमारे पास बहुत शक्ति है, बहुत विवेक है, जीने की भी कला है, हम जीने वाले हैं। जीना ! आप जानते हैं जीना का अर्थ क्या है ? जीना का एक अर्थ छत पर जाने के लिये सीढ़ी होता है इसके उपरान्त ‘जी’ ना। जी आपके लिए सम्बोधन में बहुत अच्छा लगता है। और कभी कभी कहते हैं आपका जी मचल रहा है, यानि जीना में से जी का एक अर्थ यह भी है।


    जीना तो सबको आता है पर कैसे जीना यह सभी को ज्ञात नहीं है, पानी पीना तो सभी को आता है पर कैसे ? पीना छानकर या यूँ ही, यह विशेष बात है। आप सोचते हैं छना हुआ मिल जाये तो ठीक अन्यथा बिना छना ही पी लेंगे क्योंकि भीतर तो छने हैं ही, छन जायेगा। जब रस रुधिर आदि भी छानकर ही शरीर में काम आते हैं तब बिना छना पानी इसमें डाल भी दें तो कौन सी बड़ी बात ?


    नहीं बन्धुओ ऐसा नहीं है, 'वस्त्र पूत जल पिबेत्' वस्त्र के द्वारा छानकर ही पानी पीने के लिये कहा गया है। मछली का उदाहरण पहले इसलिये दिया था कि पानी के अभाव में मछली मर जाती है, हवा के अभाव में आप भी मर जाते हैं, उसी प्रकार प्राणों के रहते हुए भी हमारा जीना तब समाप्त सा हो जाता है जब हमारा विवेक काम नहीं करता।


    यदि कोई व्यक्ति विवेक से ही हाथ धो बैठता है तो उसका जीना-जीना नहीं बल्कि संतों ने कहा है कि चलते-फिरते शव के समान है। उसका जीवन तो निकल चुका, उस व्यक्ति के सामने यही दृश्य उभर कर आया। वह विचारों में खो गया। ओ हो! मेरा अभी तक का जीना वास्तव में जीना नहीं रहा अब और क्या जीना ? वह एक पक्षी तोता था, जो शाकाहारी था, जिसको फल रुचते थे, वह बड़े चाव से फलों को खाता था, जहाँ कहीं भी पानी मिल जाता पीकर अपना जीवन बिता लेता। पिंजड़े के बन्धन को स्वीकार कर आपके द्वारा दी गई सुख-सुविधायें भी उसे पसन्द नहीं थी। आकाश में मुक्त स्वतंत्रता का जीवन जीने वाला पक्षी सभी को प्यारा हो जाता है, वह बहुत छोटा सा था पक्षी, मुट्ठी भर प्राण थे उसके, गिर गया जमीन पर और.मर गया।


    मरते दम तक अपने प्रण को निभाया। क्या प्रण निभाया था उसने यह विषय अब आपके सामने आ रहा है। वह एक राजा था। उसने एक व्यक्ति, दो व्यक्तियों को नहीं बचाया एक गाँव, नगर एक प्रांत को नहीं बचाया पूरे एक राष्ट्र को बचाया था। राष्ट्र को कैसे बचाया ? कैसे बच सकता है ? इतना बड़ा राष्ट्र एक पक्षी के द्वारा बच सकता है बन्धुओ! क्योंकि वह व्यक्ति राष्ट्र का मालिक था। सोचा आपने तोते ने ऐसा प्रयास क्यों किया ? इसलिये कि यह राजा इस जल को पी न ले, क्योंकि यह जल नहीं है किन्तु प्राण को लेने वाला जहर है।


    राजा ने ऊपर पेड़ पर जाकर जब देखा तो पाया एक महान् भयंकर अजगर सर्प जिसके मुख में से विष की धारा निकल रही थी और वह पत्तों के ऊपर से होते हुए एक धारा का रूप धारण किये थी। देखने से वह जल धारा जैसी ही लगती थी, तभी तो हर बार राजा उसे जल ही समझता रहा और तोता उसे बचाने का प्रयास करता रहा। पक्षी का पुरुषार्थ किसलिये था यह प्रश्न यदि किया जाये तो उत्तर अपने आप मिल जायेगा। उसके प्राण क्यों चले गये ? किसी के प्राण बचाने के लिये यदि प्राण चले जाते हैं तो कोई बात नहीं। और छोटे प्राणों की अपेक्षा यदि बड़े प्राणों को बचा लिया जाता है तो अपने आपमें बहुत बड़ी बात है। और धर्म की रक्षा के लिये यदि यह पार्थिव प्राण चले भी जाते हैं तो कोई बात नहीं क्योंकि आत्मा के प्राण तो वस्तुत: ज्ञानदर्शन ही हैं। विचार विवेक ही आत्मा के महान् प्राण माने गये हैं, वे उज्ज्वल और अखण्ड रूप में सदा विद्यमान रहते हैं, इन्हीं के माध्यम से इनका आगे का विकास होता है और ये प्राण कभी भी भौतिक प्रभाव में नहीं आने वाले । लेकिन यदि हमारा ध्यान उन प्राणों की ओर नहीं जाता या उन प्राणियों की ओर हम दृष्टिपात नहीं करते उनका महत्व नहीं समझते तो हमारे ये पार्थिव प्राण और उनकी रक्षा करना, सब व्यर्थ जैसा ही है।

     

    ......और राजा की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी, इधर तोते की आँखों में आंसू नहीं है, ऐसा लग रहा है जैसे वह जिन्दा हो और देख रहा हो कि कहीं घटना घट न जाये, हो सके तो पुन: जीवन धारण करके उसको बचाऊँ, यह ज्ञान तोते को कैसे हुआ था ? कहाँ से हुआ था ? ध्यान रहे उसने भी एक संत के माध्यम से प्रवचन सुने थे, प्रवचन सुनने के लिये आप लोगों को तो व्यवस्था होती है, पर उस पक्षी ने कैसे सुना ? यह कैसी बात है, वाह! आपके लिये नीचे बैठकर सुनने की व्यवस्था है तो वह पेड़ के ऊपर बैठकर सुन सकते हैं, आवाज तो जा सकती है वहाँ तक, आप लोग फिर भी इस कान से सुनकर उस कान से छोड़ सकते हैं पर पक्षी ऐसे नहीं होते, वे बहुत ध्यान से सुनते हैं उन्हें भी भावभासन होता है। गाय, कुत्ते, कबूतर आदि बोलते नहीं और बोलने से किसी प्रकार का अभिव्यक्तिकरण भी नहीं हो सकता, संकेत मात्र होता है उनके भावों का। धन्य है! बिना बोले भी श्रद्धान किया जा सकता है, बिना बोले भी व्रत पाले जा सकते हैं, बिना दिखावट-प्रदर्शन किये भी बहुत कुछ हो सकता है। राजा का मन पश्चाताप की अग्नि में झुलस रहा है, अब क्या करे वह ? 'अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत', चुग गई क्या, चुग कर उड़ भी गई। यही चूक गये आप लोग, अब चिड़िया वापिस कहाँ से आये ? अब कैसे आयेगी ? हमने आज तक बहुत कुछ कहा, बहुत कुछ सुना फिर भी हम अपना जीवन नहीं बना पाये। अपने लिये और दूसरे के लिये आज तक हमारा जीवन अभिशाप ही सिद्ध हुआ है। राजा का दिमाग बहुत तेज होता है क्योंकि उसके हाथ में सारी प्रजा का संरक्षण रहता है किन्तु जब वही राजा विवेक खो देता है तो सभी का अहित भी कर देता है।


    मुझे आज ज्ञान की बात नहीं करना है, आज तो मुझे विवेक की बात करना है। और वह विवेक कभी भी छोटा बड़ा नहीं होता, विवेक तो विवेक होता है। असली क्या ? नकली क्या ? धर्म क्या ? अधर्म क्या ? यह जब मिश्रण हो जाता है तब विवेक उसे विभाजित कर देता है। Mixing (मिश्रण) सहन नहीं है विवेक को। विवेक को हंस की उपमा भी दी जाती है। सभी पक्षियों में हस की विशेषता अलग होती है, उसकी चोंच में कुछ विशिष्ट शक्ति रहती है, जिसके कारण वह मिले हुए दूध पानी को पृथक्-पृथक् कर दूध-दूध पी लेता है। विवेकी ज्ञानी पुरुष की प्रकृति भी इसी तरह की होती है और ‘हंसा तो मोती चुगे' ऐसा भी कहा जाता है। जल में जलचर जीव-जन्तु, मछलियाँ आदिक रहती हैं किन्तु उन्हें न खाकर मानसरोवर के तट पर रहने वाला वह हंस सिर्फ मोतियों को ही चुगता है। पक्षी भी अपने ज्ञान के माध्यम से सब काम करते हैं। ज्ञान के माध्यम से विवेक के माध्यम से कार्य करना ही उनका बहुत बड़ा पुरुषार्थ है। जिनका विवेक एक बार जाग्रत हो जाता है वे अधर्म से स्वयमेव बच जाते हैं। उनके लिये फिर किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती। आपने देखा होगा यहाँ पर पचासों बन्दर घूमते रहते हैं, एक बन्दर को भी कुछ हो जाये तो एक ही आवाज में वे सब के सब इकट्ठे हो जाते हैं। उनके लिये आते समय, जाते समय, कूदते समय चोटें भी लग सकती है, तकलीफ भी हो सकती हैं, पर वे कहाँ आते हैं आपके चिकित्सालय में ? हमने एक हाथ का भी बन्दर देखा है, एक ही हाथ था उसका (एक टूटा हुआ था) उसके लिये कोई कठिनाई न आ जाये इसलिये उसके इर्दगिर्द उसके साथी अन्य बन्दर भी रक्षा के लिये रहते थे। अब सोचना यह है कि उनकी चिकित्सा कैसे हो ? दवाई की व्यवस्था क्या ? कैसे ? है, कोई व्यवस्था नहीं है पर पूरा निर्वाह और बहुत बढ़िया।


    शाकाहारी प्राणी वह शाखामृग माना जाता है, पेड़ की शाखाओं पर ही अपना जीवन गुजार लेता है। आप लोगों को चाहिए चार दीवार वाले मकान, मकान पर मकान और सारी व्यवस्थाएँ। एक टहनी के ऊपर एक शाखा के ऊपर पचासों बन्दर रहकर के रात गुजार लेते हैं, सुरक्षित रह जाते हैं, स्वतंत्रता के साथ रहते हैं। बन्दरों की कहानियों से, पक्षियों की कहानियों से, गाय, भैंस, सर्प इत्यादि की कहानियों से हमारे पुराण साहित्य संवृद्ध हैं और इन कहानियों के माध्यम से हमें आदर्श मिलता है, हमारा ज्ञान विवेक जाग्रत हो जाता है। उस तोते ने संकल्प लिया था कि अपने प्राण भले ही चले जायें किन्तु प्रण नहीं छोड़ेंगा। यदि मेरे से महान् व्यक्ति कोई, संकट में फैंसा है तो अपने प्राणों की भी बाजी लगाकर उसकी रक्षा करूंगा और जब तक कण्ठ में प्राण रहे तब तक उस व्यक्ति की रक्षा की। वह व्यक्ति कौन था ?


    वह एक राजा था। राजा को समझ में कब आया ? बच्चों से पहले आया कि बाद में आया। एक बार संकेत....समझ में नहीं आया, दो बार संकेत......नहीं आया, तीसरी बार और चौथी बार में भी संकेत समझ में नहीं आया प्राणान्त होने को है तब भी नहीं, जब प्राणों का विसर्जन उत्सर्ग हो गया, जब प्राण ही छूट गये, तब उसके दिमाग में Indirect (परोक्ष) बात आ गई कि प्राणों की रक्षा के लिये पानी की आवश्यकता तो होती है पर वह कैसा है ? कहाँ से आ रहा है ? इस पर, भी ध्यान देना जरूरी है। प्राण निकलते हुए भी तोते की आँखों में पानी नहीं आया है और राजा के प्राण नहीं निकले फिर भी ऑखों से पानी क्यों आता रहा, इस प्रश्न का हल हमने नहीं किया, इस समस्या का समाधान हमने नहीं किया बल्कि उस विवेकी तोते ने किया। राजा सोचता है, तोते ने मेरे प्राणों की रक्षा की और मुझे विवेक की शिक्षा दी। क्या-क्या नहीं दे दिया? ऐसी शिक्षा आज तक नहीं मिली हमें। ऐसा प्रसंग न कहीं देखा न कहीं सुनने को मिला कि एक छोटे से पक्षी के द्वारा महान् राष्ट्र के पालक राजा की रक्षा हो सकती है, निश्चित ही वह पक्षी राष्ट्र के लिये समर्पित धर्मात्मा था।


    बंधुओ! जो दिखाई देते हैं वह सब भेद बाहर के ही हैं, भीतर से सभी की आत्मा एक है, चेतन का स्वरूप प्रत्येक शरीर में एक जैसा है। मैं सुखी, मैं दुखी, मैं रंक-राव आदि अनेक विकल्पों के साथ हम जीते रहते हैं। मैं सेठ हूँ, मैं साहूकार हूँ, मैं दीन दरिद्री हूँ यह सब प्रत्यय These are External सब बाहरी प्रत्यय है, भीतरी आत्मा के साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। धन जड़ है और आप चेतन अब यदि आप धन की वजह से अपने को बड़ा मानते हो आत्मा का विकास मानते हो तो अच्छे ढंग से धन को खूब भर लो ताकि अच्छा विकास हो जाये लेकिन ऐसा नहीं होता आत्मा के प्रदेश उतने ही रहते हैं जितने थे, ज्ञान भी उतना ही रहता है फिर विकास किस बात का ?


    यह मान्यता हमारे मन की है और ये मान के कारण हुआ करती है। कितना अज्ञान, कितना अविवेक हमारे जीवन में आता जा रहा है जिसकी वजह से इस आत्म तत्व का भी मूल्य कम होता जा रहा है। स्वार्थ सिद्धि और क्षणभंगुर जीवन की रक्षा के लिये अनाप-शनाप सामग्री का संग्रह पता नहीं इन्सान को कहाँ ले जायेगा। हमारी मान्यतावश लगता जरूर है प्रारम्भ में कि हमें कुछ सुख मिल रहा है, हमारी रक्षा हो रही है, पर यह सब भ्रम मात्र है सिर्फ मान कषाय की अपेक्षा है। जिन्होंने विवेक की धरती पर इन सब बातों को जाना है, सोचा है, विचारा है, उन्हीं का जीवन धन्य है और व्यक्तियों के जीवन तो प्रवाह मात्र हैं, हवा के झोंके की तरह आये और गये, हरी-भरी डालों पर पक्षी आये, बैठे और उड़ गये। अनन्त काल से यूँ ही जीवन व्यतीत हो रहा है, ज्ञान स्वभावी होकर भी हम भटकते चले जा रहे हैं।


    तोते के प्राण निकल गये, अब पानी कैसे पी सकता है वह राजा ? अभी तक कितना प्यासा था, कहाँ चली गई उसकी वह प्यास ? पानी की खोज करेगा क्या अब ? ऐसी स्थिति में कैसे कर सकता है वह खोज, सामने तोते का मृत शरीर पड़ा हुआ है, बस गहन गंभीर ऊहापोह, विचारों का मन्थन और प्यास गायब। अभी तक तो प्यास के द्वारा तड़फ रहा था, बैचेन था पर अब वह बैचेनी कहाँ चली गई ? बताइये आप, कोई बतायेगा क्या ? इस प्रश्न का कोई है उतर आपके पास ? पानी पिये वह, कौन रोक रहा है उसे ? प्राणों की रक्षा करना है न, प्राणियों की रक्षा करना है न, प्रजापालक प्रजारक्षक कहलाता है न। तब ये निरीह भोले-भाले पशु पक्षी भी तो प्राणी हैं, इनके भी प्राण हैं, इन्हें भी तो सुख - दुख का अनुभव होता है। दो न इन्हें शरण, करो न इनकी रक्षा, क्यों कर्तव्य को भूल रहे हो, निभाओ न अपना दायित्व और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी ही रक्षा कर ले, पीले न पानी। पर वह पानी नहीं है, वह है जहर जो कि सोते हुए सर्प के मुख से निकलकर धार जैसा बह रहा है। विषैले प्राणियों के अन्दर स्वभावत: ही जहर होता है, वह कुछ भी खा ले, पी ले पर वह अन्दर जाकर जहर ही बनेगा। और वह जहर उन्हें स्वयं घातक नहीं होता दूसरे प्राणियों को ही होता है। राजा के पास अब विवेक आ गया है, अब वह उसे पी नहीं सकता है, क्योंकि वह तो जल पीना चाह रहा था।


    इस विवेक को कहाँ से पाया राजा ने ? एक पक्षी से पाया। प्राय: करके जितने भी शाकाहारी पशुपक्षी होते हैं वे सब जहरीले प्राणियों को पहचानते हैं। हमारे से कहीं ज्यादा उन्हें प्रकृति का ज्ञान होता है। मौसम बिगड़ने वाला है या कोई आपत्ति आने वाली है इसकी सूचना उन्हें पूर्व में ही मिल जाती है और वे सावधान हो जाते हैं। कई पक्षी संकेतों को पाकर तालाब-सरोवर को छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं क्योंकि अब पानी का स्तर बढ़ जायेगा और हमारी रक्षा यहाँ पर नहीं हो सकेगी। यह सब ज्ञान के माध्यम से होता है, इसलिये अब दूरदर्शन रखने की आवश्यकता नहीं बल्कि दूरदृष्टि रखने की आवश्यकता है। यह दूरदृष्टि कैसे प्राप्त होती है तो दूर देखने से नहीं बल्कि पास देखने से, कर्तव्य की ओर अग्रसर होने से प्राप्त होती है। निकट दृष्टि और दूरदृष्टि दोनों ही अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण हैं जो केवल विवेक के आधार पर ही प्राप्त हो सकती हैं। इनके द्वारा जीवन का निर्वाह नहीं निर्माण होता है। अनन्त काल के लिये वह वैभव प्राप्त हो सकता है जो आज तक कभी प्राप्त नहीं हुआ है।


    आँखों को मलता हुआ राजा अपने हाथ में जो चाबुक लिये था, उसे देखता है। आह! जो चाबुक घोड़े को वश में करने के लिये था उस चाबुक का प्रयोग इस छोटे से प्राणी पर कर दिया। कहाँ चली गई थी उस समय दया ? ‘दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान' और 'धम्मी दया विशुद्धो' यह बोधवाक्य क्यों याद नहीं आये ? बंधुओ दया और अभय का धर्म से गहरा सम्बन्ध है। वीतरागी जीवन में हमें ये सहज ही दिखाई दे सकते हैं।


    शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा को देखिये....देखते ही रहिये, कितनी शान्ति मिलती है आत्मा को। एक-एक अंग से वीतरागता टपक रही है, अभय और करुणा मानो रग-रग से फूट रही हो। कुछ भी प्रतिकार नहीं है, चाहे आप कैसे ही भाव करो यहाँ तक कि प्रहार भी करो पर आपका प्रभाव उनके ऊपर कुछ भी नहीं पड़ने वाला। धन्य हैं वे भगवान् और उनकी प्रतीक ये मूर्तियाँ। इन मूर्तियों के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि हमें अपने जीवन की रक्षा करने का मतलब अपने आप की ही रक्षा करना है। यदि हम दूसरे के जीवन को समाप्त करेंगे तो क्रोध, मान, माया, लोभ के माध्यम से ही करेंगे तब निश्चित है कि उन कषायों के माध्यम से हमारा जीवन भी नष्ट हो जायेगा।


    हमारा यह जीना वास्तव में जीना नहीं वह तो एक प्रकार से मरने के समान है। यह मान रखा है हमने कि हम जीव हैं, जी रहे हैं। किन्तु यथार्थ जीवन तो वह जीवन है जिसमें शरीर भी छूट जाये तो परवाह नहीं क्योंकि शरीर सो मैं नहीं हूँ यह विवेक जब जागृत होता है तब सब पृथक्-पृथक् दिखने लगता है। शरीर में आत्मा विद्यमान है यह ज्ञान है लेकिन विवेक के आते ही वह शरीर से पृथक् प्रतिभासित होने लगती है। आज के वैज्ञानिक, शरीर के बारे में सब कुछ जानते हैं, यह सारी की सारी जानकारी डॉक्टरों, वैज्ञानिकों के पास रहते हुए भी वह उस Material (पदार्थ) से बनी काया पर मुग्ध हो जाते हैं परन्तु विवेक कभी मुग्ध नहीं होता और जल्दबाजी में कभी क्षुब्ध भी नहीं होता। जबकि यह राग सहित विज्ञान मुग्ध भी हो जाता है और क्षुब्ध भी हो जाता है, सब कुछ हो सकता है क्योंकि अभी कषायें हैं।


    प्राणों की रक्षा के लिये तोते ने संकल्प किया था, और अकेले अपने प्राणों की ही नहीं किन्तु दूसरों की भी रक्षा का प्रसंग आता है तो हम दूसरों की रक्षा पहले करेंगे और उस तोते ने एक बहुत बड़ा काम किया, एक बहुत बड़ा आदर्श प्रस्तुत किया। अपने घोड़े पर बैठकर राजा उस तोते को दरबार में ले गया और सभी के सामने राजा ने घटित घटना को दुहरा दिया, इस तोते ने एक व्यक्ति की रक्षा की, जहर पीते हुए व्यक्ति को बचाया मगर उस व्यक्ति ने जिसे इसने बचाया, इस तोते को मार डाला, ऐसी स्थिति में बताओ (सभा के लिये कहा).अब उस व्यक्ति के लिये क्या दण्ड दिया जाना चाहिए ? और अपनी बात को रहस्य में रख दी राजा ने। दरबार में सभी ने यही कहा कि उस ओर तो देखना भी नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसे उपकारक जीव के प्रति इस प्रकार का व्यवहार, वह यहाँ पर किसी भी प्रकार से रहने का अधिकारी नहीं, उसका जीना और मरना ' This are Equal दोनों समान हैं कोई अन्तर नहीं है, इस प्रकार के व्यक्ति धरती पर भार ही हैं। राजा पुन: कहता है, यदि वह व्यक्ति यही आ जाता है तो ?


    तो उसे इसी समय बाहर निकाल देंगे, राज्य में रहने नहीं देंगे, सभी ने एक स्वर में कहा। "वह व्यक्ति मैं हूँ", राजा ने कहा। आप! सब डर गये, एकदम सन्नाटा छा गया दरबार में। हाँ! वह व्यक्ति "मैं ही हूँ।" जब राजा यह कह देता है तब मंत्री सोच में पड़ जाता है, कुछ क्षण विचार कर कहता है, नहीं राजन्! आपके लिये दण्ड नहीं दिया जायेगा। यदि आपके लिये भी दण्ड दिया जाये तो हम सबका क्या होगा ? देखो! दुनियाँ अपने स्वार्थ के पीछे न्याय और सत्य का पक्ष भी नहीं लेती। पहले सभी ने कहा था कि ऐसा विवेकहीन व्यक्ति हमारे राज्य में रहने के लायक नहीं, उसे दण्ड मिलना चाहिए पर कहाँ गया वह न्याय ?


    राजा ने पुन: कहा कि नहीं, मुझसे अपराध हुआ है मुझे दण्ड मिलना ही चाहिए किन्तु इतना जरूर है प्रसंग कुछ अलग था, प्यास जोरों से सता रही थी, पानी पीने को गया, तोते ने उसे बारबार गिरा दिया, क्रोध आ गया और उतावली में यह घटना घट गयी, अपराधी तो हूँ ही, दण्ड मुझे अवश्य मिलना चाहिए। क्या दण्ड दिया जाय आपको राजन्! .राजन्! अभी मैं राजा नहीं हूँ दुनियाँ की दृष्टि में.। हाँ! मंत्री ने धीरे से कहा और फिर कहना प्रारंभ कर दिया कि महाराज गल्ती तो हुई है जो क्षम्य नहीं है, कुछ तो दण्ड मिलना ही चाहिए ? कुछ दण्ड क्यों अभी-अभी तो आप लोग बहुत कुछ कह रहे थे। हाँ राजन्! पर आपको विवेक आ गया, अपराध बोध हो गया यही सबसे बड़ा दण्ड है। यह थी पुरानी दण्ड संहिता, मर्यादा, दूरगामी दृष्टि, न्याय नीतियाँ। राजा ने अब कुछ हल्कापन सा महसूस किया, उन्हें लगा कि कुछ भार सा उतर गया है और उन्होंने कहा कि हम और आप सब मिलकर प्रजा की रक्षा करें और सुख-दुख में एक दूसरे के पूरक बनें।


    जीवन क्या है ? मरण क्या है ? इसके रहस्य को समझे। वस्तुत: यह तन-मन-धन और यह प्राण सब व्यवहारिक हैं, यह भीतरी नहीं हैं, सब क्षणिक वस्तु हैं, एक संयोग है जिसके साथ वियोग जुड़ा हुआ है। उषा बेला आती है तो निशा भी उसके साथ-साथ आ जाती है। रात के बाद दिन और दिन के बाद रात यह आज की देन नहीं बल्कि अनादि से चला आ रहा क्रम है। ज्यादा क्या कहूँ ? आपका जीवन और कुछ नहीं मात्र एक सप्ताह में बंधा हुआ है। जब कभी भी अतीत में झाँकेंगे हम तो सात दिनों में ही बंधे मिलेंगे। क्योंकि एक सप्ताह में सात ही वार तो होते हैं।


    तिथियाँ पन्द्रह बनाई गई हैं, वार (दिन) सात ही हैं, और दिन देखो तो १२ घंटे का ही होता है क्योंकि ८ घंटे की रात सोने में निकल जाती है। एक बार जीवन का लेखा-जोखा करके देखो, कितने दिन आये, कितनी रातें आई। यदि ५० साल की उम्र है, तो २५ साल तो रात में निकल गये, रहे आपके २५ साल सो उसमें खाने-पीने धन्धा-व्यापार रोग इत्यादि में बहुत सा समय निकल गया। बालपन, अज्ञान दशा में, विवेक के अभाव में कितना समय चला गया पता ही नहीं, यूँ समझिये वह मिला ही नहीं, वह मिलना कोई मिलना नहीं है वह तो मिट्टी में मिलना है। यह सब पार्थिव शरीर की लीला है, आत्मा की लीला तो अपरम्पार है, मगर कौन देखता है उसकी ओर ? सारी प्रजा ने समर्थन किया इस बात का कि अब अपने को उतावलेपन में कोई अविवेक पूर्ण कार्य नहीं करना है। कोई भी बात हो, पहले सोचो-विचारो फिर विवेकपूर्ण निर्णय लो तभी परिणाम कुछ अच्छा निकल सकता है। इसलिये ये तीन बातें जो किसी ने कही हैं हमें हमेशा ध्यान रखनी चाहिए। नो करी (NO CURRY) का अर्थ है, ताम सता न हो, नो वरी (NO WORRY) का अर्थ है, चिन्ता न हो और नो हरी (NO HURRY) का अर्थ है, उतावली न हो। तो वह उतावली कब होती है ? आगे-पीछे बिना सोचे विचारे उतावली कर जाते हैं और फिर बाद में पश्चाताप करते हैं। एक तोते ने विवेक से काम किया और एक राजा ने उतावली से काम किया, उतावली से काम करने का परिणाम एक निष्ठावान देशभक्त प्राणी को खो दिया और जीवन भर के लिये पश्चाताप हाथ लगा। वह महान् पक्षी जिसका जीवन ही आदर्शमय था, ज्ञानमय था क्योंकि उसने अपने जीवन को परोपकारमय बनाया, पर की रक्षा में लगाया उसका त्याग....त्याग है, क्योंकि दूसरों की रक्षा में उसने अपने आपको भी बिना किसी स्वार्थ के खो दिया। वह खोया कहाँ ? उसकी कथा, उसका आदर्श जीवन आज भी मौजूद है।


    इस प्रकार के भाव विचार ही जीवन में उच्च आचार को लाते हैं तथा उच्चतम स्थान दिलाने में कारण होते हैं। अच्छे कार्य करने से ही अच्छे पद मिला करते हैं। बुरा कार्य करने से कभी भी अच्छे पद नहीं मिला करते।


    अच्छे पद के लिये अच्छे कार्यों को भी कमर कस कर, कर लेना चाहिए। किन्तु यह भी ध्यान रहे कि सत्य के साथ ही अच्छे कार्य हुआ करते हैं। सत्य की भूमिका यदि नहीं है तो कोई भी कार्य अच्छा नहीं माना जायेगा। सत्य और अहिंसा का बहुत गहराई से सम्बन्ध है। यदि एक हाथ में हमारे सत्य है तो दूसरे में अहिंसा होनी चाहिए। दोनों मिल जाते हैं तो बड़े से बड़े राष्ट्रों की भी रक्षा की जा सकती है, उन्नति-विकास किया जा सकता है। समय आपका हो गया है, आज की इस तोते की कथा को यदि आप याद रखेंगे, उसकी दृढ़ धारणा, भावना और पुरुषार्थ को जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे तो निश्चित ही मानिये कि आपका जीवन भगवान् महावीर से जुड़ जायेगा। अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रहादिक के जो उदाहरण हैं वह मात्र उदाहरण ही नहीं बल्कि जीवन है और जीवन ही नहीं एक प्रकार से उसे चलाने वाले प्राण हैं। यह धर्म का जीवन है, धर्म के प्राण हैं जो किसी प्रकार से नष्ट होने वाले नहीं; छूटने वाले नहीं हैं क्योंकि मिटने वाला आत्मा का स्वभाव नहीं होता। ज्यों का त्यों बना रहता है वही वास्तव में जीवन है। उसी प्रकार के जीवन के लिये, उसी आदर्श के लिये अब हम नये सिरे से सोचें, विचारें और विवेक से काम करें। तभी हमारा जीवन सुरक्षित, उन्नत और आदर्शमय हो सकता है।
     


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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    कैसी भी परिस्थिति हों विवेक मत खोओ , सदैव विवेक से काम करों।

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