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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 3 - जो करे देश का सुधार वह है सच्ची सरकार

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    ऐसी सरकार को लेकर क्या करना जो बूचड़खाने खोले, पशुओं का वध करे मांस का निर्यात करे, हमको वह सरकार चाहिए जो हिंसा, कत्लखाने, पशु-वध और मांस निर्यात पर प्रतिबंध लगाये, इनको रोके। इन कत्लखानों में मात्र पशुओं का ही वध नहीं हो रहा है अपितु जनता की धार्मिक एवं मानवीय भावनाओं को मारा जा रहा है। ऐसा करके क्या हम अपने देश में सुख, शांति, अहिंसा, मैत्री, का वातावरण तैयार कर सकते है? क्या इन कत्लखानों से सत्य, अहिंसा जीवित रहेगी? क्या इन कत्लखानों से मानवता जिन्दा रहेगी? हिंसा का उद्योग देश में हिंसा ही फैलायेगा, अहिंसा नहीं। सरकार अहिंसा की बात करती है लेकिन हिंसा के कार्य छोड़ती नहीं। अहिंसा की स्थापना हिंसा से नहीं हो सकती। आज हमको हिंसा नहीं अहिंसा चाहिए, अहिंसा को समाप्त करके क्या हिंसा से देश बचा पायेंगे?

     

    सरकार को चाहिए कि वह हिंसा को रोके, जो हिंसा को न रोक सके वह देश को बर्बादी से नहीं बचा सकता। यह हमारी दृष्टि का भ्रम है कि हम पशुओं के मांस निर्यात से अपने देश की आर्थिक सम्पदा का विकास करना चाहते हैं आर्थिक विकास के लिए हमको मौलिक व्यवसायों को अपनाना होगा व्यक्तिगत परिश्रम को मजबूत करना होगा, अपव्यय और अनावश्यक उत्पादनों को रोकना होगा। यदि हम व्यक्तिगत परिश्रम को मजबूत कर लें, तो हम स्वयं अपने ऊपर डिपेण्ड (आश्रित) हो सकते हैं। परिश्रम का अभाव देश में गरीबी पैदा कर रहा है, हर व्यक्ति परिश्रम करने लगे तो देश का आर्थिक विकास बहुत जल्दी हो सकता है। लेकिन देश की मौलिक चेतन सम्पदा को चौपट करके उसके बदले में कुछ विदेशी मुद्रा का लालच हमारे देश को चौपट कर रहा है।

     

    भारतीय इतिहास में ऐसा युग कभी भी नहीं आया जिस वक्त भारत ने मांस का निर्यात किया हो, अपितु हर युग में भारत ने पशुओं का संरक्षण किया है उनको बचाया है लेकिन आज के शासकों को यह कौन-सी धुन सवार हो गई है पशु वध करना, यह एकदम विपरीत कदम है इसको रोकना चाहिए। देश को जानवरों से विहीन मत होने दें सरकार का कर्तव्य है कि वे इस ओर अपने कदम उठाये। जनता कत्लखानों के विरोध में अपनी आवाज उठा रही है उसको सुने, सरकार को जनता की आवाज सुनना चाहिए। जनता का फर्ज होता है कि वह ऐसी सरकार का चुनाव करे जो अहिंसक कार्य करे, जनता अपने प्रतिनिधियों का चयन करती है लेकिन उसको यह सोचना चाहिए कि हमारा प्रतिनिधि कैसा हो, चरित्रवान, आस्थावान, निःस्वार्थी, न्यायी, सेवक, अहिंसक प्रतिनिधि को चुनना चाहिए। अगर आप अपनी धार्मिक भावनाओं की रक्षा करना चाहते हो तो ऐसी सरकार बनाओ जो हिंसा से देश को मुक्त कर कत्लखाने रहित भारत का निर्माण करे।

     

    जब तक बुरी चीज का त्याग नहीं होता तब तक अच्छी चीज का ग्रहण नहीं हो सकता और बुरी चीज का त्याग भी तभी होता है जबकि बुरी चीज का ज्ञान हो जाये। बुरा क्या है? अच्छा क्या है? इसका सबसे पहले ज्ञान करो, समझो। तुम्हारी अच्छाई से कई लोगों की बुराइयाँ छूट सकती हैं, दूसरों की बुराइयाँ तुम्हारी अच्छाई से छूट सकती हैं। लेकिन बुराईयों को छोड़ने के लिए हमको आस्था की सबसे बडी आवश्यकता है क्योंकि त्याग का क्रम आस्था के बाद ही आता है। हम आस्थावान बन जायें हमको हमारी बुराइयाँ समझ में आने लगेंगी। बुराईयों को समझना ही अच्छाईयों का मार्ग है। बुराई को समझो और भलाई पर लग जाओ।

     

    धन जीवन का ध्रुव बिन्दु नहीं है, वह तो एक सहारा है एक पगडंडी है उसको जीवन का लक्ष्य नहीं बनाना चाहिए। जीवन धन के लिए नहीं जीवन तो धर्म के लिए है, धन एक साधन है अपनी जरूरतों को पूर्ण करने का। धन साधन है जबकि धर्म साधना है, धन पेट के लिए है धर्म शांति के लिए है, धन से तो हमारा पेट भरता है लेकिन शांति पेट भरने से नहीं मिलती क्योंकि पेट शांति का स्थान नहीं शांति का स्थान तो आत्मा है और धर्म आत्मा की खुराक है। इसलिए जीवन में धन के साथ-साथ धर्म भी होना अनिवार्य है। धर्म और धर्म के स्वरूप को समझे बिना हम अपने इष्ट की प्राप्ति नहीं कर सकते।

     

    धर्म आत्म शांति का विज्ञान है, आत्म खोज का विज्ञान है। धर्म की परिभाषा मानव ने नहीं अपितु धर्म ने मानव को धर्म की परिभाषा सिखाई। वस्तुत: धर्म परिभाषाओं की वस्तु नहीं क्योंकि धर्म भाषा नहीं भाव है। हम धर्म को भाषाओं से समझ रहे हैं इसलिए धर्म को नहीं समझ पा रहे हैं, धर्म भावों से समझा जाता है लेकिन वे भाव भी आपके पास होना चाहिए जो आपको समझा सकें। धर्म समझ में आने पर जीवन अधर्म से बच जाता है। धर्म हमको गुनाहों से बचने का संकल्प देता है, एवं आत्मिक उत्थान की ओर ले जाता है। धर्म हिंसा और अशांति का विरोधी है, वह हिंसा को कभी पसंद नहीं करता क्योंकि हिंसा अशांति है। दुनियाँ का कोई भी प्राणी हो उसकी पहली माँग आत्म शांति ही होती है। वह आतरिक क्लेशों से बचना चाहता है, यह बात अलग है कि वह शांति के यथार्थ मार्ग को न समझ अशांति की पगडंडी में भटकता रहता है। धर्म जीवन विज्ञान है। मानव जाति आज संकट में गुजर रही है क्योंकि उसने धर्म को ठुकराया है इसीलिए वह ठोकर खा रही है। यदि हम अपना सर्वागीण चहुँमुखी विकास चाहते हैं तो हमको अहिंसा धर्म की वेदी पर अपना माथा टेक जीवन में उसको ट्रान्सलेट (परिवर्तित) करना होगा।

    Edited by admin


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