इस संसारी प्राणी को सुख अभीष्ट है जब मिलता है तब सब कुछ भूल जाता है और काल की गति का अनुमान ही नहीं लगता कि कब निकल गया। यदि सांसारिक सुख न होता तो अभी तक संसार खाली हो गया होता। इसी सुख के कारण जिसको जहाँ सुख मिलता है वह वहीं मस्त रहता है, वह स्थानांतरण भी नहीं चाहता स्थानांतरण में दुख महसूस करता है।
यह सांसारिक सुख मोह से युक्त होता है। मोह अंधकार का कार्य करता है, जब तक वह उस सुख में लीन रहता है तब तक अतीन्द्रिय सुख को भूला रहता है और एक बार मोह का पर्दा हटते ही जब अतीन्द्रिय सुख मिलता है तब इस सांसारिक सुख को भूल जाता है।
कैमरे के माध्यम से फोटो लेते हैं उससे मात्र ऊपर का फोटो आता है और जब एक्सरे के माध्यम से फोटो लेते हैं तो भीतर का चित्र आता है जबकि दोनों में कुछ विशेष प्रकार की किरणें हैं, दोनों में फोटो ही लिया जा रहा है किन्तु एक भीतर की लेता है दूसरा बाहर की।
संगीत की भी कुछ ऐसी तरंगें होती हैं जिनके प्रभाव से बंद कमल खुल जाता है, बुझा हुआ दीप जल जाता है। सूर्य किरणों में ऐसी शक्ति होती है जिनके प्रभाव से बंद कमल खिल जाता है, क्योंकि जब किरणें किसी एक पर केन्द्रित हो जाती हैं तब ऐसा होता है, इसी प्रकार जब आत्मा एक वस्तु में लीन हो जाती है और अन्य को भूल जाती है तब एक शक्ति उत्पन्न होती है। जिससे ऐसी अद्भुत घटनाएँ घट जाती हैं। आप जो फोटो लेते हैं उससे भीतर का नहीं बाहर का फोटो आता है, गाते आप हैं पर कमल खिलता नहीं और बुझा हुआ दीप जलता नहीं।
आत्मा अजर अमर, रूप-रस से रहित, स्वतंत्र, अनंत गुणों से युक्त और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है यह बात हमें झकझोर देती है क्योंकि यह आत्मा इस प्रकार होते हुए बंधन में क्यों है और इसका अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ? ये तीर्थ क्षेत्र बंधन से मुक्ति और आत्मानुभव के लिए होते हैं यहाँ आकर यदि बंधन काटना है तो प्रबंध की बात छोड़ दो। यदि अनुभव करना है तो इन प्रवचनों को सुनकर गुनने (विचारने) की बात करो, यदि प्रबंध में ही लग जाओगे तो गुनने की बात कौन करेगा ?
बाहरी प्रबंध और सम्बन्ध टूटने पर भीतरी जगत से सम्बन्ध जुड़ता है भीतर ए-सी- में रहने वाले ऐसे ही रह जाते हैं क्योंकि ए-सी की लाइन का बटन आफ (बंद) होते ही क्रोध आ जाता है और बाहरी आनंद सब साफ हो जाता है। यहाँ क्षेत्र पर ऐसी ही ए-सी- है, वैसी ए-सी- की व्यवस्था नहीं, बाहर जाओ या भीतर आओ कोई परिवर्तन नहीं। क्षेत्रों का ऐसा प्रभाव होता है कि जैसे क्षेत्र में जाओ वैसे भाव जागृत हो जाते हैं। यदि मोह के क्षेत्र में पहुँच जाओगे तो सोया हुआ मोह भी जागृत हो जाता है।
जब सम्बन्ध मोह से सहित होते हैं तब संयोग वियोग के समय ऑखों में पानी आने लगता है। यदि सम्बन्ध मोह सहित नहीं तो पानी नहीं आता। मेरा गुणधर्म और मैं कौन हूँ, बस इतना परिचय काफी है, दुनिया के परिचय से कोई मतलब नहीं। एक आत्म तत्व का ज्ञान हो जाना पर्याप्त है उस का ज्ञान हो जाने पर तत्व का ज्ञान अपने आप हो जाता है। अपने स्वभाव के परिचय बिना हमने अनंत काल व्यतीत कर दिया, यह काम मोह ने किया है। मोह एक ऐसा पदार्थ है जो भिन्न वस्तुओं में ऐक्य स्थापित कर देता है। जो मोह को छोड़ देता है वह तीन लोक का पूज्य बन जाता है। जब मोह का बंधन टूट जाता है तब बाहरी बंधन कोई बाधा नहीं दे पाते।
आप प्रकाश के माध्यम से प्रकाशित वस्तुओं को देखकर तिजोरी में बंद करते हैं और प्रकाश आज तक नौकरी करता रहा है पर प्रकाश को नहीं देखा, प्रकाश को नहीं पकड़ा और प्रकाश की कीमत नहीं समझी। प्रकाश आत्मा है, प्रकाशित वस्तुएं ये शरीरादि हैं जब ये ज्ञात हो गया कि ये पर हैं, मेरा नहीं, फिर उसका संग्रह क्यों ? मैं ज्ञाता दृष्टा एक अखंड दिव्य तेजोमय चेतन स्वभाव वाला हूँ, यह कहना और तदनुरूप संवेदन करना दोनों में बहुत अंतर है।
जैसे हवा को सदा गति कहा है वैसे ही संसार में रहते हुए मुनि को भी सदा गति कहा है। वह किसी से बंधता नहीं उसका स्वतंत्र विचरण चलता है। इसी युग में कुंद-कुंद जैसे महान् आचार्य हुए हैं। उन्होंने गिरि गुफाओं में रह कर आत्म साधना करते हुए जिन ग्रन्थों को लिखा उनका प्रभाव आज के मोही पर पड़ रहा है और उन बातों को पढ़कर आज हम साक्षात् कर रहे हैं। उनके वे ग्रन्थ भी आज हमें निग्रन्थ हो कर पूज्य बने हुए हैं क्योंकि उन्होंने अनुभूति के माध्यम से ऐसे ग्रन्थों की रचना की जिनका अर्थ आज हमें समझ में आ रहा है वह भी बड़े सौभाग्य की बात है पर जो इस स्वर्णमय जीवन को विषयों में लगा रहा है वह बर्तन साफ करने रत्नों की भस्म बना रहा है, पैर धोने अमृत खर्च कर रहा है, प्याज की खेती के लिए कपूर की बाड़ लगा रहा है।
शरीर को इतना मोटा ताजा मत बनाओ कि आत्मा की ओर उपयोग ही न लग पाये। ऐसा बनाकर आप शरीर को निरुपयोगी बना रहे हैं या कि धन कि उपयोगिता सिद्ध करना चाहते हैं कुछ समझ नहीं आता। संतों ने कहा है शरीर को मात्र साधन मानकर चलिये।
(आचार्य श्री जी ने सुकुमाल मुनि की कथा को लक्ष्य बनाकर प्रवचन प्रारंभ करते हुए कहा) जहाँ बाहरी कोलाहल समाप्त हो गया है, सूर्य की किरणों को प्रवेश पाने के लिए स्थान नहीं है, जहाँ बाहर का भीतर और भीतर का बाहर नहीं आ सकता है, बाहर का परिचय भीतर वालों को और भीतर वालों को बाहर का परिचय नहीं है सुनते हैं ऐसी स्थिति जेल में रहती है। ऐसी परिस्थितियों में रहने वाला एक व्यक्ति रात्रि में गीतमय भक्ति पाठ को सुन कर उठ जाता है, किन्तु आसपास कोई दिखाई नहीं दे रहा है। उस गीत को सुनकर उसे ‘घर काराघर वनिता बेड़ी परिजन हैं रख वाले' लग रहे हैं मोह का बंधन टूटता जा रहा है।
वह व्यक्ति उस आवाज को सुनकर वहाँ जाना चाह रहा है पर बाहर जायें भी कैसे ? कोई साधन नहीं हैं ? वहाँ पड़ी हुई साड़ी पर अचानक दृष्टि पड़ती है। उसकी रस्सी बना कर खिड़की से नीचे सरकने लगता है। नीचे आकर उस ओर बढ़ने लगता है, जिस ओर से आवाज आ रही है। उसका शरीर बहुत सुकुमाल है सरसों के दाने भी जिसे चुभते हैं पर अब नंगे पैर जा रहा है, पैर लहूलुहान हो गये हैं, साड़ी के घर्षण से हाथ लाल लाल हो गये हैं फिर भी परवाह किये बिना बढ़ता जा रहा है। आगे देखता है कि एक वीतरागी संत बैठे हैं, उनके दर्शन होते ही दीक्षा के भाव हो गये, और दीक्षा के बाद वीतरागी संत ने कहा अब मात्र तीन दिन शेष रह गये हैं।
आजकल कुछ लोग दीक्षा को हेय कह कर काल के भरोसे बैठे हैं। उन्हें काल की पहचान सही नहीं हो पा रही है। होगी भी कैसे ? क्योंकि काल को वहीं पहचान सकता है जो शरीर को गौण कर देता है नहीं तो काल के गाल में कवलित हो जाता है। काल से कार्य नहीं होते, किन्तु काल में कार्य होते हैं, अत: कार्य करते चले जाओ काल की ओर मत देखो। काल में डायरेक्ट विध्न उपस्थित करने की क्षमता नहीं है जबकि उस काल रूपी विध्न में ही विध्न पैदा करने की शक्ति आत्मा में है। काल ही काल की चर्चा में आत्मा को लपेटो नहीं, कुछ काल निकालकर आत्मा की भी अर्चा करो।
वे सुकुमाल मुनि एक गुफा में जाकर ध्यानस्थ हो गये। गुफा में जाते समय पगतलियों से खून रास्ते में गिरता गया जिसकी गंध से वहाँ स्यालिनी अपने बच्चों सहित पहुँच जाती है और खाना प्रारंभ कर देती है। वह खा रही है मुनि का उपयोग केवल आत्मा में है, तीन दिन तक खाती रही पर शरीर की ओर कोई दृष्टि नहीं है। अंत में वे सुकुमाल मुनि नश्वर देह को छोड़ कर सर्वार्थ सिद्धि पधारे।
मुक्त हुए वा हो रहे, रत्नत्रय ले जीव।
जिन आगम, गुरु देव ही श्रद्धा जिसकी नींव।
देव शास्त्र गुरु वैद्य हैं, दूर करें भव पीर।
औषधि ले रत्नत्रयी, बन जा अमर अमीर।
सोच समझ रख राह पर, जमा जमा कर पैर।
जोश होश हो धैर्य हो, तभी सफल हो सैर।
दोष स्वयं का स्वयं को, गुण पर का दिख जाय।
अहित त्याग जो हित गहे, शाश्वत निधि वो पाय।
जो ना डर कर भागता, देख मार्ग के शूल।
उसे मार्ग के शूल भी, बन जाते है फूल।
(विद्या स्तुति शतक से )
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