कुछ लोगों का यह विचार हो सकता है कि हम प्रभु को नमस्कार करें तो इससे क्या लाभ हो सकता है, क्योंकि जैनियों के यहाँ ईश्वर का स्थान नहीं है, क्योंकि सभी जैनी ईश्वर बन सकते हैं। प्रभु आनन्द, सुख, शांति दिलाने वाले नहीं हैं। अगर प्रभु ये गुण दिला दें तो उनके पास कुछ नहीं बचेगा। ये गुण तो आत्मा के गुण हैं। बालक चलना चाहता है, पिताजी के हाथ का सहारा लेकर। क्या पिताजी उसे चलाते हैं ? नहीं ! बच्चा चलता है अपने पैरों से। पर जब तक वह दूसरों का सहारा नहीं लेगा, नहीं चल सकता। अभी वह कमजोर है। अत: दूसरों का सहारा लेना, नमस्कार करना हालांकि अपनी कमजोरी है, परन्तु हमें इसे एकांतरूप नहीं लगाना है। आत्मा में अनन्त शक्ति है, परन्तु छिपी है।
नमस्कार बन्ध का कारण है, परन्तु अनादि से जो भूख लगी है, वह खाने के द्वारा ही मिटेगी। जिस प्रकार तंदरुस्त के लिए हस्तावलम्बन, चलने (दौड़ने) के लिए गतिरोध का कारण है, पर बच्चे के लिए सहायक है, इसी प्रकार नमस्कार सबके लिए ही बन्ध का कारण नहीं है। यह गति भ्रमण को रोकने में भी कारण है।
जिसने वर्षों अभ्यास किया है, तार पर चलने का, फिर भी वह नट लट्ट को लेकर चलता है, लट्ट उसके लिए सहायक है, हालांकि उसकी दृष्टि लक्ष्य की ओर है। ध्यान में आलंबन नितांत आवश्यक है। पूजा, प्रक्षाल, दान, विनय, इंगित पर चलना बन्ध के लिए कारण नहीं है। बन्ध करना और बन्ध होना, दोनों अलग हैं। बन्ध करने में संकल्प व इरादा है। बन्ध होने में नहीं। दुकान में नौकर रखना, व्यय करना है, पर वह नौकर धन वृद्धि में कारण है। खर्च करने के साथ ही आमदनी हो रही है, वह घाटा नहीं है। नौकर को वेतन देने में खुशी हो रही है, क्योंकि यहाँ देना आदान का कारण है, उससे डबल कमाई हो रही है। आस्रव का द्वार यदि छोटा हो और संवर का द्वार बड़ा हो तो कोई बात नहीं है। नमस्कार करने में यह चतुराई होनी चाहिए कि मुझे बन्ध ज्यादा हो रहा है या इससे भी ज्यादा संवर हो रहा है। हमें आस्त्रव व बन्ध से डर होना चाहिए। इस जीव को अनादिकाल से आस्रव ही सता रहा है। हमको बहुत विचारशील होकर आस्रव को रोकना है। हम उपाय को ढूँढ़ते हैं। अपाय को नहीं। हमारे बाधक कारण का आलंबन, उत्पत्ति दुख है। दुख की सामग्री को फेंक कर हमें सुख की सामग्री को जुटानी है। दुख की सामग्री आस्त्रव और बन्ध है। और सुख की सामग्री संवर और निर्जरा है। इसको प्रयोग में लाने पर ही मोक्ष सुख की प्राप्ति होगी। हमें अर्थ को चाहते हुए अनर्थ से बचते हुए अर्थ का त्याग करना है, इसमें घाटा नहीं है नाश नहीं है, दुख नहीं है, सुख का कारण है। हमें चलना है तो रुक कर पैर से काँटे को निकालना है। Absent और Late में बहुत अन्तर है। देरी से पहुँचने में ज्यादा नुकसान नहीं है। पर नहीं पहुँचने में जुर्म है।
जिसके पास जो गुण ज्यादा है, कम गुण वाले पदार्थ वैसे ही गुण में परिणत हो जाते हैं। जो बहुमत है, उसी के अनुसार कार्य किया जाता है। उसके पास पुण्य की सामग्री ज्यादा है तो बन्ध भी पुण्य हेतु बन जाता है। इसलिए आचार्यों को मन, वचन, काय से, संगीत से, किसी भी प्रकार नमस्कार करना चाहिए। लेकिन इस नमस्कार करने में संक्लेश परिणाम नहीं होने चाहिए। वैद्य भी कभी-कभी एक रोग को मिटाने के लिए ऐसी दवा भी देता है जो दूसरा रोग भी पैदा कर देती है और फिर इलाज कर दोनों रोगों को मिटाता है।
विशुद्धि लब्धि कषाय को उपशमित कर देती है। मंद कषाय सम्यग्दर्शन की भूमिका का कारण होती है। जब कषायों में मंदता आती है, तब वह प्रभु के चरणों की ओर लक्ष्य रखता है, अपने आप से हटता है। संवर निर्जरा को प्राप्त करने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम अपने आपको भूल कर प्रभु-चरणों में अपने आपको बिठायेगा। जब नदी अपने आपको खोती है और समुद्र में समर्पण कर देती है, कठिनाइयों को झेलती है, पहाड़ों से गिरती है, पत्थरों से चोट खाती है, सारा मैल आदि ले जाती है और अपने आप को भूल कर समुद्र की अनन्त शाँति में पहुँच जाती है। आज हम अपने नाम को मिटाना नहीं चाहते हैं पर प्रभु का नाम भी लेना चाहते हैं। आलम्बन तो लेना चाहें और अपना नाम रखना चाहें, यह सम्भव नहीं है। जिसको प्राप्त करना चाहते हैं, उसकी स्तुति, कीर्ति, उपासना करते समय अपने आपको भूलना पड़ेगा, अपने आपको मिटाना पड़ेगा। जिसको मोह है इस अवस्था से वह तीन काल तक सुख को प्राप्त नहीं हो सकेगा, क्योंकि वर्तमान पर्याय हमेशा रहने वाली नहीं है। सत्ता ज्यों की त्यों रहती है, पर पर्याय तो नष्ट होती है। प्रभु को नमस्कार करते समय अपने आपको भूलने व मिटाने से हम मिटेंगे नहीं, उससे सत्ता में सुन्दरता आती है पर्याय भले ही बदल जाये। कुरूप से सुरूप बनने की चेष्टा करो, दुरूप बनने की नहीं। घर में भी आस्रव होता है और मन्दिर में भी आस्त्रव होता है, पर दोनों में भिन्नता है। मन्दिर का आस्त्रव सम्यग्दर्शन के सम्मुख है और घर का आस्रव मिथ्यादर्शन के सम्मुख। मन्दिर में बन्ध हो रहा है, पर घर में बन्ध करते हैं। इसमें भिन्नता है। देव, शास्त्र, गुरु को नमस्कार करके हम कर्मों की निर्जरा भी करते हैं। मंदिर आदि आलम्बन हैं। लक्ष्य उसी प्रकार का चाहिए जो चलने में सहायक हो। यहाँ १ घंटे बैठकर आप इतने समय के लिए कषाय को भूल गये, देशना लब्धि को प्राप्त किया, इससे असंख्यात गुणी निर्जरा हो गई। वस्तु तत्व का चिंतन करने पर सुख अपने आप आने लगता है। प्रभु ने सुख दिया नहीं पर सुख का रास्ता बता दिया। प्रभु देते व लेते नहीं हैं। दर्पण मुख दिखाता नहीं, पर मुख को दिखा सकता है।