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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन प्रमेय 7 - ज्ञानकल्याणक (पूर्वार्द्ध)

       (1 review)

    आज चौथा दिन है। कल ऋषभकुमार ने दीक्षा अंगीकार कर ली है। इसके उपरान्त तप में लीन हैं, आज उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि होने वाली है। इसके पूर्व उन्हें भूख लगी, यह सब कुछ इसलिए कह रहा हूँ कि तीर्थकर की कोई भी चर्या ‘आर्टीफिशयल' नहीं हुआ करती, दिखावट नहीं हुआ करती, प्रदर्शन के लिए भी नहीं हुआ करती, दुनिया को उपदेश देने के लिए भी नहीं हुआ करती, क्योंकि छद्मस्थ अवस्था में वे उपदेश नहीं दिया करते हैं, दिखावटी कोई नाटक नहीं किया करते हैं। ऋषभनाथ, जो मुनिराज बने हैं वे, छठवें-सातवें गुणस्थान में घूम रहे हैं, क्योंकि उनका उपयोग अभी भी श्रेणी के लायक नहीं है, अर्थ यह हुआ कि उनकी चंचलता अभी नहीं मिटी और जब चंचलता नहीं मिटी तो वह क्रिया, केवल दिखाने के लिए नहीं है।

     

    कल चर्चा रही थी कि, महाराज! तीर्थकरों को पिच्छी-कमण्डलु का विधान तो नहीं है और कल तो यहाँ दिया गया ? बात तो ठीक है, संसारी प्राणी को मुनिचर्या की सही-सही पहचान हो, ज्ञान हो इसलिए ये दिया गया है। जो तीर्थकर दीक्षित होते हैं, वे पिच्छी और कमण्डलु नहीं लेते, क्योंकि ज्यों ही वे दीक्षित होते हैं, त्यों ही उन्हें सारी ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, एक मात्र केवलज्ञान को छोड़कर, उनकी मन, वचन, काय की चेष्टा के द्वारा त्रसों का और स्थावरों का घात नहीं हुआ करता, इस प्रकार की विशुद्धि उनकी चर्या में आ जाती है और वे वर्द्धमान चारित्र वाले होते हैं, इसलिए इसके बारे में कुछ ज्यादा कहने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु जब वे आहार के लिए उठते हैं, त्यों ही उपकरण का विधान उपस्थित हो जाता है।

     

    प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने प्रस्तुत किया है कि, अरे! तूने तो सब कुछ छोड़ने का संकल्प लिया था, छोड़ने का संकल्प लेकर, अब ग्रहण करने के लिए जा रहा है, गृहस्थों के सामने हाथ यूँ करेगा (फैलायेगा), बड़ी अद्भुत बात है, चाहे तीर्थकर हो, चाहे चक्रवर्ती हो, चाहे कामदेव हो, कोई भी हो, कर्मों के सामने सबको घुटने टेकने पड़ेंगे, जब छोड़ने का संकल्प लेकर दीक्षा ग्रहण की थी, तो इस समय ग्रहण करने क्यों जा रहे हैं ? आचार्य कहते हैं-उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग की सूचना आगम में है। जो व्यक्ति अपवादमार्ग को भूल जाता है वह भी Fail (असफल) हो जाता है और जो व्यक्ति उत्सर्गमार्ग को भूल जाता है वह भी असफल हो जाता है,दोनों में ही साम्य हो, वेतन देना अनिवार्य है। लेकिन यहाँ पर वेतन के साथ ‘कण्डीशन' भी है कुछ, वेतन के साथ शर्त हुआ करती हैं, उनको जो स्वीकारता है, उसे कहते हैं साधु। साधु शर्तों के साथ ही अपनी आत्मा की साधना करता है, आगम के अनुकूल करता है, भगवान की चर्या भी आगम के अनुकूल होती है, विपरीत नहीं हुआ करती, २८ मूलगुणों के धारक होते हैं वे, इसलिए एक बार ही आहार के लिए निकलने का नियम होता है, यह बात अलग है कि उनकी क्षमता ६ माह तक की रही, किन्तु ६ माह के उपरान्त वह भी उठ गये।

     

    इस चर्या में जब चार हजार मुनि महाराज असफल हो गये तभी से प्रारम्भ हो गया है ३६३ मतों का प्रचलन, दिगम्बर होने के उपरान्त जो शोधन करके आहार नहीं करता वह सम्यक्र समिति वाला नहीं माना जाएगा। अन्य संस्था, समिति वाला हो सकता है, वे मुनिराज श्रावक के घर आकर आहार कब ग्रहण करते हैं जबकि श्रावक की सारी की सारी क्रिया देख लेते हैं, नवधाभक्ति देख लेते हैं, श्रावक यदि नवधाभक्ति करता है तो ही आहार लेते हैं, नहीं तो नहीं लेते। तो क्या हो गया था ? कल किसी ने कहा था कि उन्हें अन्तरायकर्म का उदय था, बिल्कुल ठीक है किन्तु लडू लाकर के दिखा रहे थे, क्यों नहीं लिए उन्होंने ? तब जवाब मिलता है, श्रावकों की गलती थी, मुनि महाराज की कोई गलती नहीं थी, श्रावकों की क्या गलती थी? तो उन्होंने कहा कि-नवधाभक्ति नहीं की थी। जब तक नवधाभक्ति नहीं होगी, तब तक लाये गए आहार को वे नहीं लेंगे, बहुत कठिन है, यह चर्या, एक माह, दो माह, तीन माह, चार माह, छह माह तो गये उपवास किये, उसके बाद ६ माह और अन्तराय चला, फिर भी उस क्रिया-चर्या की इति नहीं की, इस चर्या से डिगे नहीं थे, यह मात्र जड़ की क्रिया नहीं है, किन्तु यह भीतर में छठे-सातवें गुणस्थान में झूलता हुआ जो ज्ञानवान चेतन भगवान आत्मा है, उसी की क्रिया है-काम है।

     

    एषणा के कारण ही संसार में विप्लव मचा हुआ है, एक दिन के लिए भी भूख सताने लग जाए तो ‘मरता क्या न करता', 'भूखा क्या-क्या करता” ये सब कहावतें चरितार्थ होने लगती हैं लेकिन कितने ही कठोर उपसर्ग-परीषह क्यों न हों तो भी मुनि महाराज अपनी चर्या से तीनकाल में भी डिगते नहीं। टस से मस नहीं होते। वे कभी माँगते नहीं हैं, क्योंकि यही एक मुद्रा ऐसी रह गई है संसार में, जिसके पीछे रोटी है और बाकी जितने भी हैं वे सब रोटी के पीछे हैं। मात्र साहित्य से काम नहीं चलने वाला इस जगह। यदि हमारे पास क्रिया है, दिगम्बर मुद्रा है तो साक्षात् महावीर भगवान को दिखा सकते हैं। युग के आदि में जो वृषभनाथ हुए थे उनकी चर्या का पालन करने वाले आज भी हैं। यह हमारा सौभाग्य है।

     

    यह संसारी प्राणी चार संज्ञाओं से ग्रसा हुआ है, आहार की संज्ञा से कोई निवृत्त नहीं है छठे गुणस्थान तक अर्थात् यह संज्ञा छठे गुणस्थान तक होती है, आहार संज्ञा का मतलब है आहार की इच्छा होना। आप लोगों को भी आहार की इच्छा होती है और मुनि महाराज को भी आहार की इच्छा है। किन्तु आप लोगों को आहार की इच्छा के साथ-साथ रस की भी इच्छा होती है। रस की इच्छा जिह्वा की भूख मानी जाती है और मुनिराज को मात्र पेट की भूख होती है। वह भूख वस्तुत: भूख नहीं है। रस की भूख ऐसी भूख है कि भूत लगा देती है, संसारी प्राणी इसी भूत के पीछे ही सारा का सारा श्रृंगार करता है। खाते तो आप भी हैं, उतना ही पेट है और मुनि का पेट भी उतना है। फिर भी लगता है कि आपके पेट में कही गुंजाइश अधिक है, जिससे अनथऊ (सायंकाल का भोजन) की चिन्ता हुआ करती है आपको, मुनिराज को इसकी चिन्ता नहीं हुआ करती, उन्हें दिन में एक बार ही चेतन को वेतन देने का काम है, इसलिए ऋषभनाथ आपके घर आयेंगे।

     

    आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने पूछा था समयसार पढ़ाते समय, बताओ-तीर्थकर की प्रमत्त अवस्था कैसे पकड़ोगे ? समयसार की व्याख्या पढ़ाने के उपरान्त पूछा था, क्योंकि उन्हें ज्ञात करना था कि ये किस प्रकार अपनी बुद्धि से अर्थ निकाल पाता है। मैंने कहा-महाराजजी ! आपने इस प्रकार पढ़ाया तो है ही नहीं ? इसलिए तो पूछ रहा हूँ मैं, कि कैसे पकड़ोगे ? आधा-एक मिनिट सोचता रहा फिर बाद में मैंने कहा कि महाराज! जब तीर्थकर चर्या के लिये उठते हैं, उस समय बिना इच्छा के नहीं उठते, आहार लेते समय मांगेगे, वह भी बिना इच्छा के नहीं, तभी एक-एक ग्रास पर हम उनकी प्रमाद चर्या को पकड़ सकते हैं, जिस समय वे ग्रास लेते हैं, उस समय छठा गुणस्थान माना जायेगा, जो कि प्रमाद की अवस्था है, कारण कि लेने की इच्छा है, ध्यान रखना वे आहार को ऐसे ही नहीं ले लेते, हम लोगों जैसे किन्तु यूँ-यूँ (अंजुली बाँधकर शोधन का इशारा) शोधन करते हैं, शोधन करने का नाम है अप्रमत्त अवस्था। ये यूँ-यूँ क्या अंगुली से ? यह जड़ की क्रिया है क्या? नहीं। ऐसा कभी मत सोचना कि यह जड़ की क्रिया है किन्तु यह सप्तम गुणस्थान की क्रिया है, इसको आगम में एषणा समिति कहते हैं, यह अप्रमत्त दशा का द्योतक है। ग्रास को लेने के लिए हाथ को यूँनीचे फैलाना, यह तो आहार संज्ञा का प्रतीक है, उस समय छठा गुणस्थान है, प्रमत्त है, किन्तु शोधन के लिए यूँ-यूँ अंगुली का चलाना, यह सप्तम गुणस्थान है। पुन: हाथ फैलाना छठा और शोधन सातवाँ। इस प्रकार होती है उनकी क्रिया। इतना विशेष ध्यान रखना कि आहार लेते समय रस का स्वाद, रस में चटक-मटक नहीं करते। यह बहुत सुन्दर है, बढ़िया है। ऐसा कह देंगे या मन में ऐसा भाव आ जायेगा तो गुणस्थान से नीचे आ जायेंगे। लेकिन उन्हें बढ़िया-घटिया से कोई मतलब नहीं रहता। उनके अन्दर तो 'अरसमरूवमगध. ' वाली गाथा चलती रहती है।

     

    आहार देते समय श्रावक लोग कह देते हैं कि महाराज! जल्दी-जल्दी ले-लो। हम शोधन करके ही तो दे रहे हैं, लेकिन नहीं। मैं तो देखकर ही लूगा, क्योंकि आपकी एषणासमिति तो आपके लिए है, मेरी एषणासमिति मेरे लिए है। तुम्हारी जो क्रिया होगी वह तुम्हारे गुणस्थान की रक्षा करेगी और मेरी जो क्रिया होगी वह मेरी रक्षा करेगी, मेरे गुणस्थान की रक्षा करेगी। आगम की आज्ञा का उल्लंघन हम नहीं कर सकते। वह जड़ की क्रिया अपितु जड़हीन अर्थात् ज्ञानवान आत्मा की क्रिया है।

     

    क्षुधा होती है-भूख बहुत जोरों से लगी है, तो देख लो, एक पूड़ी भी थोड़ी-सी देर से आ जाती है तो कैसी गड़बड़ी हो जाती है भैया! या तो पहले भोजन पर नहीं बुलाते, बुलाना है तो पहले पूड़ी का प्रबन्ध तो कर लेते, दाल के बिना काम चल जाए लेकिन पूड़ी के बिना कैसे चले। कुछ तो मिल जाए थाली में, उसी के साथ खाकर, थाली खाली कर दें, होता यह है कि भूख की इतनी तीव्र वेदना होती है कि असह्य होती है, किन्तु मुनिमहाराज कितनी ही भूख होने पर अपनी एषणासमिति को पालते हुए ही आगे का ग्रास लेते हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने तो कहा है-मुनि की परीक्षा समिति के माध्यम से ही होती है, वो जिस समय सोयेंगे, उस समय समिति चल रही है। बोलेंगे उस समय भाषासमिति चल रही है, जिस समय उठेगे-बैठेगे उस समय आदान-निक्षेपण समिति चल रही है, जब चलेंगे, ईर्यासमिति से चलेंगे, पूरी की पूरी समितियाँ चल रही हैं, किसी भी क्रिया में कमी नहीं है, इसका मतलब है-अर्थ है कि प्रत्येक क्रिया के साथ सावधानी चल रही है, यानि चौबीसों घण्टे (हमेशा) स्वाध्याय चल रहा है।

     

    श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में भेद का मूल कारण यही है-एषणा समिति। अंजुली में डालते ही खा जाना, यह रागी का काम है, माँगना रागी का काम है, परन्तु महाराज का काम है, अंजुली में आते ही ठीक-ठीक शोधन करके खाना, रागी व्यक्तियों जैसे कभी भी नहीं खाना, शोधन करना बुद्धिमान की क्रिया है। हमें इस बात का गौरव है, गौरव ही नहीं स्वाभिमान भी है कि कम से कम महावीर भगवान के वीतराग-विज्ञान का जो मूर्तरूप है उसका पालन तो कर रहे हैं। इसमें गौरव होना भी सहज है। मात्र बातों के जमा खर्च से काम नहीं चल सकता किन्तु आगम की जो आज्ञा है उसका पालन करना सर्वप्रथम आवश्यक है, जिसका पेट खाली है, वह व्यक्ति कभी भी पेट पर हाथ रखकर आनन्द का अनुभव नहीं कर सकेगा, क्योंकि वह आत्माराम को भूखा रखता है। इसलिए मेरा कहना ये है! मेरा क्या कहना ? आचार्यों का कहना है, अब आचार्यों का भी क्या कहना, दिव्यध्वनि खिरने वाली है मध्याह्न में, उसी दिव्यध्वनि का कहना है कि यदि तुम सुख का अनुभव करना चाहते हो तो, अपनी चर्या को ऐसी (सदाचारपूर्ण)बनाओ। यद्वा-तद्वा चर्या बनाओगे तो नियम से मात खा जाओगे-भटक जाओगे, आज तक मार्ग से भटके रहे, कहीं रास्ता नहीं मिला, यही कारण है, कारण को सही-सही जानना आवश्यक है, क्योंकि कारण में ही विपर्यास हुआ करता है कार्य में नहीं। पहले भी कहा था-मंजिल में और सुख में कोई विसंवाद नहीं हुआ करता, मात्र सुख को प्राप्त कराने वाले कारणों में विसंवाद होता है। हमारी बुद्धि, जहाँ पर भी चर्या में कठिनाई होने लगती है तो उसे भूलती-भूलती चली जाती है, चलते समय ही कठिनाईयाँ होती हैं, बन्धुओ! बैठे-बैठे नहीं। इन सभी कठिनाईयों को पार करने का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं, उनकी चर्या के उपरान्त सभी समझ सके थे कि मुनिराज को इस प्रकार चर्या करना चाहिए तथा श्रावकों को भी इसका ज्ञान हुआ।

     

    ऋषभनाथ को १००० वर्ष तक केवलज्ञान नहीं हुआ, तब ६-६ महिने के उपरान्त वे उठे, हजारों बार उठे। अर्थात् हजारों बार उन्हें भूख लगी, आहार की इच्छा हुई। यह छठवें गुणस्थान की बात है, आहार की क्रिया, जबकि सातवे गुणस्थान तक चलती है यह श्रीधवल, श्रीजयधवल और महाबन्ध के द्वारा ज्ञात होता है। अत: ज्ञानी को कोई रस सम्बन्धी, अन्न सम्बन्धी और कोई सामग्री सम्बन्धी परिग्रह नहीं रहता। फिर रहता भी है और नहीं भी रहता, यह क्या कह रहे आप ? जैसा कहा है वैसा ही तो कहूँगा, मैं अपनी तरफ से थोड़े ही कह रहा हूँ, विषय सम्बन्धी राग को तो अनन्तकाल तक के लिए छोड़ दिया है उन्होंने, सामान्य जीवो जैसा ग्रहण करना उनका कम नहीं है, श्वेताम्बर कहते हैं-भगवान बनने के उपरान्त भी वे कवलाहार लिया करते हैं तो आचार्यों को परिश्रम और करना पड़ा। उन्होंने कहा हमें बताओ, आहारसंज्ञा छठवें गुणस्थान तक ही रहती है तब तेरहवें गुणस्थान में कैसे आहार लेंगे? इसलिए आज भी इस क्रिया का अवलोकन आप लोगों को करते रहना चाहिए, मात्र चाहिए ही क्या, किन्तु बहुत आवश्यक है, जिससे समझ में आयेगा कि दिगम्बर परम्परा में किस प्रकार इस क्रिया को निर्दोष रखा कुन्दकुन्द भगवान ने, तूफान चला था तूफान उस समय, जिसमें बड़े बड़े पहाड़ भी उड़ रहे थे। लेकिन -

     

    'बुद्धिसिरेणुद्धरियो समष्पियो भव्वलोयस्स'

    समयसार (सर्वविशुद्धि अधिकार)

    इन महान् आध्यात्मिक ग्रन्थ एवं मुनिचर्या को जीवित रखने का श्रेय, इस तूफान से बचाने का श्रेय, यदि किसी को है तो वह है आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी को, यह ध्यान रखना वे कुन्दकुन्द स्वामी केवल साहित्य लिखकर के इस मुनिमार्ग को जीवित नहीं रख पाये, किन्तु उन्होंने स्वयं इस चर्या को निभाया और इसे उसी शुद्ध रूप में आज तक सुरक्षित पालन करने वाले अनेकानेक मुनिराज हुए, यह गौरव की बात है।

     

    ऐसे मुनि महाराज ही चौबीसों घण्टे स्वाध्याय करने वाले माने जाते हैं क्योंकि षट् आवश्यकादि क्रियाओं से उनका हमेशा ही स्वाध्याय चलता रहता है, इसलिए मात्र किताबों से ही स्वाध्याय होता है, ऐसा नहीं है। जैसे कल हमने बताया था-किसी को लगा होगा कि महाराजजी ने तो स्वाध्याय का निषेध कर दिया, किन्तु यहाँ स्वाध्याय का निषेध नहीं किया गया, बल्कि इन क्रियाओं से स्वाध्याय हमारा ठीक-ठीक हो रहा है या नहीं, इसका परीक्षण होता रहता है, जो इन क्रियाओं का पालन नहीं करता, उस व्यक्ति का स्वाध्याय, स्वाध्याय नहीं माना जाएगा। समयसार में भगवान कुन्दकुन्द ने कहा है- 'पाठोण करेदि गुण।' तोता रटन्त पाठ करना गुणकारी नहीं है-कार्यकारी नहीं है।

     

    'आलस्याभाव: स्वाध्याय:' कहा गया है, इसलिए नियमसारजी में कुन्दकुन्दस्वामी ने यहाँ तक कह दिया कि स्वाध्याय तो प्रतिक्रमण एवं स्तुति आवश्यकों में गर्भित हो जाता है, यह नियमसार की गाथा है। कुन्दकुन्दस्वामी की आम्नाय के अनुसार एवं मूलाचार आदि ग्रन्थों को लेकर, आचार्य प्रणीत जितने भी आचार-संहितापरक ग्रन्थ हैं उनमें कहीं भी २८ मूलगुणों में मुनियों के लिए स्वाध्याय आवश्यक नहीं बताया गया, यदि स्वाध्याय को आवश्यकों में गिनना शुरु कर देंगे तो २९ मूलगुण हो जायेंगे या फिर एक को अलग करके उसे रखना होगा, यह सब ठीक नहीं, अवर्णवाद कहलायेगा, व्युत्क्रम भी नहीं कर सकते, अतिक्रम भी नहीं कर सकते, अनाक्रम भी नहीं कर सकते हैं हम जिनवाणी में।

     

    अन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं बिना च विपरीतात्।

    नि:सन्देह वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः॥

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-४२)

    इस प्रकार ज्ञान की परिभाषा समन्तभद्रस्वामी ने की है, न्यूनता से रहित होना चाहिए, विपरीतता से रहित होना चाहिए, ज्यादा नहीं होना चाहिए, अन्यथा भी नहीं होना चाहिए, ‘याथातथ्यं' जैसा कहा गया है वैसा ही होना चाहिए अन्य नहीं।

     

    आचार्य कुन्दकुन्ददेव भी कहते हैं कि हमारे वे मुनिराज तीन काल में अपनी आत्मा को नहीं भूलते, क्योंकि यदि भूल करेंगे तो क्रियाओं में सावधानी नहीं आ सकेगी, ध्यान रखना दिव्य-उपदेश होगा मध्याह्न में, क्या कहेंगे भगवान, किसको कहेंगे और किस रूप में कहेंगे ? सर्वप्रथम देशनालब्धि का अधिकारी कौन है? इसका उत्तर पुरुषार्थसिद्धयुपाय में, जिसका कि अभी मंगलाचरण किया गया है, दिया है, जिसके पास योग्यता नहीं है उसे देशना मत दो, उसको यदि देशना देंगे तो यह अनादर-अपमान करेगा, जिनवाणी का अनादर हो जाएगा, उन्होंने कहा है-जो आठ अनिष्टकारक हैं, दुर्द्धर है, जिनका छोड़ना बहुत कठिन है। 'दुरितायतनानि', पाप की खान हैं, पाप की मूल खान कौन है ? मद्य, मांस, मधु और सात प्रकार के व्यसन जो इसमें आते हैं। "जिनधर्मदेशनाया: भवन्ति पात्राणि शुद्धधिय:" इन पापों का, इन व्यसनों का त्यागी जो नहीं है, उसको यदि तुम पवित्र जिनवाणी को दोगे तो सम्भव नहीं, उसका वह सही-सही उपयोग करेगा। इसे आप सामान्य चीजें साग-सब्जी जैसा नहीं समझे कि ठीक नहीं लगा तो बदल लिया, दो और रख दो या कम कर दो, ऊपर से और डाल दो, ऐसा नहीं हो सकता, यह जिनवाणी है जिनवाणी इसको जो सिर पर लेकर के उठायेगा वही इसका महत्व समझ सकेगा।

     

    मैं स्वाध्याय का उस रूप में निषेध नहीं करता, किन्तु जिस व्यक्ति की भूमिका नहीं है स्वाध्याय करने की उस व्यक्ति को, यदि समयसार पढ़ने के लिए दे देते हो तो, आप नियम से प्रायश्चित के भागी होंगे, ऐसा मूलाचार में कहा है। मुनिराज को कहा गया है कि जो व्यक्ति जिनवाणी का आदर नहीं करता, उसको आप अपने प्रलोभन की वजह से यदि जिनवाणी सुना देते हैं तो आप जिनवाणी का अनादर करा रहे हैं। हाँ, जिस किसी को भगवान के दर्शन नहीं कराना, किन्तु पूछताछ करके कराना। समझने के लिए यहाँ पर कोई जौहरी भी हो सकता है, जो जवाहरात का काम करता हो, उससे मैं पूछना चाहता हूँ, वह अपनी तस्तरी में मोती-मणिकाओं को रखकर दिखाता-फिरता है क्या ? बहुत सारी दुकानें हैं जयपुर के जौहरी बाजार में, अन्य दुकानों पर जैसा सामान लटकाएँ रहते हैं वैसा जौहरी बाजार में जाने के उपरान्त किसी भी दुकान में नहीं देखा, मैं पूछना यह चाहता हूँ, क्या उन्होंने बेचने का प्रारम्भ नहीं किया ? किया तो है, दुकान तो खोली है, फिर ग्राहक आकर पूछता है कि क्यों भैय्या! आपके पास में ये सामान है? हाँ! है तो सही, लेकिन हमारे बड़े बाबाजी अभी बाहर गये हैं, आप यहाँ शान्त बैठिये। गए-बए कहीं नहीं थे। उस ग्राहक की तीव्र इच्छा की परीक्षा की जा रही थी, मात्र वह पूछने तो नहीं आया है, खरीदने के लिए भी आया है या नहीं, आप लोग उस समय तकिए के ऊपर आरामतलबी के साथ बैठे रहते हैं, ३-४ बार के निरीक्षण कर लेने के बाद, जब यह निश्चित हो जाता है कि, ये असली ग्राहक है तब आप डिबिया में से डिबिया, डिबिया में से डिबिया और भी डिबिया में डिबिया.फिर पुड़िया में से पुड़िया, पुड़िया में से पुड़िया.ऐसे निकालते चले जाने पर.फिर लाल रंग का कवर, फिर नीले रंग का कवर, और.आते-आते अन्त में एक पुड़िया खुल ही जाती है, तो क्या कहते हैं उससे, हाथ नहीं लगाना उसको, यूँ दूर से ही दिखा देते हैं, किसी को नहीं कहना।

     

    यहाँ पर भी इसी प्रकार की मूल्यवान वस्तु है जिनवाणी, जो व्यक्ति आत्मा आदि को कुछ नहीं समझता, जानने की इच्छा भी नहीं कर रहा, उसको कभी भी नहीं देना। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों ने कहा है-आत्मा की बात तो सामने रखना, लेकिन इतना ख्याल रखना कि उसका मूल्य किसी प्रकार से कम न हो जाए, इस ढंग से रखना, जबरदस्ती नहीं करना किसी को, क्योंकि वह व्यक्ति उसका पालन नहीं कर सकता। किसी ने कहा है कि- 'भूखे भजन न होई गोपाला, ले लो अपनी कण्ठीमाला।” ऐसा कहेंगे वे आत्मा के बारे में जो उससे अपरिचित व्यक्ति हैं, उसे अपनी माला की आवश्यकता है, अन्य की नहीं।

     

    स्वाध्याय का निषेध नहीं कर रहा हूँ, बल्कि भूमिका का विधान है यह, स्वाध्याय की क्रिया को करना जिसने प्रारम्भ कर दिया है, वह तो नियम से स्वाध्याय कर ही रहा है, मैं बार-बार कहा करता हूँ-जिस समय आप खिचड़ी बनाना चाहते हैं, उस समय भी आप स्वाध्याय कर रहे होते हैं। कैसे स्वाध्याय कर रहे हैं महाराज? मैं कहता हूँ कि आप बिल्कुल सही-सही ढंग से स्वाध्याय कर रहे हैं, क्योंकि उस समय आप अभक्ष्य से बचने के लिए एक-एक कणों का निरीक्षण कर रहे हैं। किसी ने कहा महाराज जी! समता रखना चाहिए? किन्तु कब रखना चाहिए? प्रतिकूल वातावरण में या अनुकूल वातावरण में? बन्धुओ! भक्ष्य-अभक्ष्य के बारे में कभी समता नहीं रखना चाहिए, ध्यान रखो। भक्ष्य-अभक्ष्य के बारे में यदि समता रखोगे तो नियम से पिट जाओगे और गुणस्थान से भी धड़ाम से नीचे गिरोगे, उस समय बुद्धि का पूरा-पूरा प्रयोग करना चाहिए। हाँ, तो एक-एक का ज्ञान होना आवश्यक है वहाँ पर, हेय चीजें, अभक्ष्य चीजें, अनुपसेव्य चीजें जो कुछ भी मिली हुई हैं, उनको अलग-अलग निकालना ही तो क्रिया-कलाप का स्वाध्याय है, ऐसा करना भगवान की आज्ञा अनुपालन भी है, यही सही स्वाध्याय है, जो प्रकाश रहते हुए तो इधर-उधर घूमता है जबकि अनथऊ का समय है और जब प्रकाश नहीं रहता, उस समय जल्दी-जल्दी भोजन कर लेना चाहता है और सोचता है एक बार स्वाध्याय कर लेंगे तो सारा का सारा दोष ठीक हो जाएगा, लेकिन ध्यान रखो बन्धुओ! ऐसा नहीं होगा, वह क्रियाहीन स्वाध्याय फालतू माना जायेगा। उससे किसी प्रकार का लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी आस्था उसके प्रति नहीं है।

     

    आप शंका कर सकते हैं महाराजजी, छहढाला में आवश्यकों में स्वाध्याय को शामिल किया है ? उसका उत्तर भी सुन लीजिए-छहढाला में जहाँ छठवीं ढाल में ‘नित करें श्रुतिरति', ये पाठ है वहाँ उसके स्थान पर संशोधन कर ‘प्रत्याख्यान,' का प्रयोग कर लेना चाहिए। उन्हें, जिन्हें की हमेशा श्रुत की सुरक्षा की भावना रहती है, क्योंकि स्वयं छहढालाकार ने कहा है कि -‘सुधी सुधार पढ़ो सदा' इसलिए सुधारना लेखक के अनुकूल है, इसमें दूसरा हेतु यह भी है कि २८ मूलगुणों में प्रत्याख्यान नाम का एक मूलगुण ही समाप्त हो जायेगा, आप लोग तो मुनि नहीं है, अत: इस ओर दृष्टि नहीं गई शायद, पर मैं तो मुनि हूँ, २८ मूलगुणों का पालना है-जानना है, अत: मेरी दृष्टि इस ओर रही, मैंने इसे देखने के लिए कुन्दकुन्ददेव का साहित्य टटोला और जितने भी आचार्य हुए हैं, उनके द्वारा प्रणीत ग्रन्थों को देखा। सब जगह प्रत्याख्यान ही मिला। किसी ने भी स्वाध्याय को ६ आवश्यकों में नहीं गिना, इसलिए स्वाध्याय स्वयं प्रतिक्रमण, स्तुति और वंदना में हो जाता है, जिसका समर्थन कुन्दकुन्ददेव ने अपने नियमसार में किया है, अत: दौलतरामजी के विनीत भावों का आदर करते हुए जैसा कि उन्होंने कहा ‘सुधी सुधार पढ़ो सदा' प्रत्याख्यान पाठ कर लेना चाहिए।

     

    एक बात का और ध्यान रखना होगा कि हम स्वाध्याय किस समय करें, हम स्वाध्याय करते हैं, किन्तु सामायिक के काल में नहीं करना चाहिए तथा इसी प्रकार कुछ और समय आगम में कहे गये हैं, उनमें नहीं करना चाहिए, जो कि स्वाध्याय के विधान करते हैं, उस समय में यदि करना ही चाहें तो 'आलस्याभाव:स्वाध्याय:।' स्वाध्याय का अर्थ लिखना पढ़ना नहीं है। स्वाध्याय का अर्थ वस्तुतः आलस्य के भावों का त्याग है अर्थात् जिस व्यक्ति का उपयोग, चर्या हमेशा जागरूक रहती है उसका सही स्वाध्याय माना जाता है।

     

    प्रवचनसार के अन्दर उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग के प्रकरण में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने लिखा है कि मुनिराज के पास किसी प्रकार का ग्रन्थ भी नहीं रहता, क्योंकि शुद्धोपयोगी ही मुनिराज की चर्या मानी जाती है, इससे उनके पास पिच्छिका-कमण्डलु भी मात्र समिति के समय उपकरणभूत माने जाते हैं, यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि स्वाध्याय करते-करते आज तक किसी को शुद्धोपयोग नहीं हुआ और न ही केवलज्ञान हुआ है, न हो रहा है और न होगा। अत: शुद्धोपयोगी मुनियों का कोई भी उपकरण नहीं होता।

     

    दूसरी बात मैं यह कहना चाहूँगा कि कुन्दकुन्ददेव के ग्रन्थों में रचयिता का नामोल्लेख करने का श्रेय किसको है ? स्वाध्याय करने वालों से पूछते हैं हम ? कुन्दकुन्दस्वामी के साहित्य का आलोड़न करने वालों से पूछते हैं हम? कुन्दकुन्दस्वामी का यह समयसार है, प्रवचनसार है, पञ्चास्तिकाय है, इस प्रकार कहने वालों में किसका नम्बर है। आचार्य कुन्दकुन्द ने तो द्वादशानुप्रेक्षा के अलावा कहीं लिखा ही नहीं कि यह मेरी कृति है, इसलिए समयसार किसका है ? यह कहने का प्रथम श्रेय किसको ? भरी सभा में इसलिए पूछ रहा हूँ कि स्वाध्याय करो-स्वाध्याय करो, ऐसा। कहने से कुछ नहीं होने वाला, बन्धुओं! बहुत ही चिन्तन और मनन करने की बात है यह, जिसने कुन्दकुन्द स्वामी से पहचान करायी, उसका नाम लेओ, कौन हैं वह ? बार-बार कहा जाता है कि अमृतचन्दजी ने टीका लिखकर बहुत महान् कार्य किया, बिल्कुल ठीक है, परन्तु उनकी टीका में कुन्दकुन्ददेव का नाम तक नहीं है, क्यों नहीं है? भगवान जाने या कुन्दकुन्द जाने या जानें स्वयं अमृतचन्दजी। कुन्दकुन्दस्वामी के नामोल्लेख का पूरा-पूरा श्रेय मिलता है जयसेनाचार्यजी को। कुन्दकुन्दस्वामी का नाम अपने मुख से लेने वालों को, बार-बार कहना चाहिए कि धन्य हैं वे जयसेनाचार्य, यदि आज वे नहीं होते तो समयसार के कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द हैं, इसे भी नहीं पहचान पाते, धन्य हैं वे टीकायें। ऐसी टीकायें लिखी हैं कि सामान्य व्यक्ति भी पढ़कर अर्थ निकाल सकता है। बन्धुओ! स्वाध्याय करना अलग वस्तु है और भीतरी रहस्य-गहराई को समझना अलग वस्तु है, ये सभी बातें सभा में रखना आवश्यक नहीं समझ रहा हूँ, अत: यदि विद्वान् आयें तो हम उनसे विचार-विमर्श कर लें इसके बारे में, खुलकर विचार होना चाहिए, जो गुत्थियाँ हैं उन्हें सुलझाना होगा, तभी समझेंगा कि वस्तुत: स्वाध्याय क्या वस्तु है।

     

    प्रवचनसार में, समयसार में, पञ्चास्तिकाय में पाँच-पाँच, छह-छह बार कहा है 'कुन्दकुन्दाचार्यदेवैभणितं।' उन्होंने लिखा है, हम आचार्य कुन्दकुन्द के कृपापात्र हुए हैं, ऐसे आचार्य महाराज के हम ऋणी हैं, जिन्होंने हमें दिशाबोध दिया है, जिन्होंने भी दिशाबोध दिया, उनका नाम लेना अनिवार्य है, जैसा कल पण्डितजी ने कहा था-सर्वप्रथम और कोई आचार्य का नाम नहीं आता, मात्र कुन्दकुन्ददेव के अलावा, कुन्दकुन्दाम्नाय-कुन्दकुन्दाम्नाय ऐसा कहना चाहिए, लेकिन यहाँ ध्यान रखो कि कुन्दकुन्ददेव का नाम सर्वप्रथम कौन लेता है उसे भी १० बार याद करना चाहिए, अन्यथा हम अन्धकार में रह जायेंगे, हमें जयसेनाचार्य को योग्य श्रेय देना होगा, अमृतचन्दजी का उपकार भी हम मानेंगे, लेकिन लोगों को जहाँ संदेह होता है, हो रहा है, उसका निवारण करना भी आवश्यक है, अमृतचन्द्रजी ने अपने नाम का उल्लेख प्रत्येक ग्रन्थ में टीकाओं के साथ-साथ किया है, अनेक विधियों से किया है, पर आचार्य कुन्दकुन्ददेव का नाम एक बार भी नहीं लिया, क्यों नहीं लेते हैं ? भगवान जाने और अमृतचन्द्रजी स्वयं जाने कि उनसे क्यों नहीं लिया गया कुन्दकुन्ददेव का नाम, आप लोग तो मात्र कुन्दकुन्द का नाम लेते हैं किन्तु मैं कुन्दकुन्द का नाम लेता हूँ और उनके बिना चलता तक नहीं, साथ ही, बीच-बीच में जयसेनाचार्य को भी, याद किये बिना चल नहीं सकता, कारण कि, मुझे बिना टार्च (जयसेनाचार्य) के चला ही नहीं जाता। वह टार्च दिखाने वाले हैं, वस्तु को स्पष्ट करने वाले हैं तो आचार्य जयसेन स्वामी हैं।

     

    मैं उनको, उनकी कृपा को, उनके उपकार को कैसे भूल सकता हूँ, आज न जयसेन हैं न अमृतचन्द्रजी, न कुन्दकुन्द भगवान, हम तो जिससे दिशा मिली उनका नाम लेंगे, कई लोग नाम नहीं लेना चाहते, क्यों नहीं लेना चाहते ? इसके बारे में हमारे मन में शंका उठी है, अतः इस गूढ़ विषय की ओर स्वाध्याय करने वालों को देखना-सोचना चाहिए, यह बात हिन्दी में नहीं मिलेगी, आप प्रशस्ति पढिये, एक-एक पंक्ति पढिये, दिन-रात समयसार का स्वाध्याय करते हैं, फिर भी आज तक आप इस विषय से अनभिज्ञ रहे, कि भगवान कुन्दकुन्ददेव को प्रकाश में लाने वाले कौन हैं ?

     

    बहुत से कुन्दकुन्दाचार्य नाम के मुनिराज हुए हैं, लेकिन प्रकृत कुन्दकुन्दाचार्यजी ने जो चर्या निभायी तथा उस चर्या को सुरक्षित रखकर, हम सभी को देने का श्रेय प्राप्त किया, उनके लिए बड़ेबड़े आचार्यों ने कहा था कि वे महान्-तीर्थकर होंगे। उनका गुणानुवाद करके हम धन्य हो गये।

     

    अमृतचन्दजी समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय की वृत्तियों द्वारा रहस्यों को तो खोलना चाहते हैं पर कुन्दकुन्दचार्य का नाम लिखना क्यों नहीं चाहते, यह बात समझ में नहीं आती, बड़े-बड़े व्याख्याकार यदि उनका नाम नहीं लेंगे तो हमारे लेने का क्या महत्व होगा ? अमृतचन्द्रजी उन ग्रन्थों पर टीका करने वालों में आदि टीकाकार हैं, फिर नाम क्यों नहीं लेना चाहते, कुन्दकुन्ददेव के साहित्य का स्वाध्याय करने-प्रचारित करने वालों को तो कम से कम सोचना अवश्य चाहिए कि टीकाकार मूलकर्ता का नाम क्यों नहीं ले रहे हैं, विषय बहुत गंभीर एवं चिन्तनीय है।

     

    आगे मैं यह कहना चाहता हूँ कि वही पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कह रहे हैं कि जब तक सप्तव्यसनों का त्याग नहीं होता, तब तक स्वाध्याय करने की योग्यता किसी भी व्यक्ति के पास नहीं आती, वैसे सप्त व्यसन राष्ट्र की उन्नति के लिए भी हानिकारक हैं और आत्मोन्नति के लिए भी, इस तरह जब देशनालब्धि की पात्रता के लिए सप्तव्यसनों के त्याग का विधान किया गया है, तब स्वाध्याय करने के पहले इतना तो नियम दिला देना/ले लेना चाहिए, बाद में स्वाध्याय आरम्भ करें। इसे मैं क्रमबद्ध स्वाध्याय कहता हूँ, अन्यथा आप क्रमबद्ध पर्याय की चर्चा तो करते रहेंगे, जिससे कि कुछ भी लाभ होगा नहीं तब तक, जब तक कि स्वाध्याय को कम से कम क्रमबद्ध नहीं करते।

     

    एक आन्दोलन चला था, ब्रिटिश गवर्नमेंट को भारत से निकालने के लिए, कैसे निकाला जाए ? तो उनकी जितनी भी चीजें हैं, परम्परायें हैं, उन सबको समाप्त कर देना आवश्यक होगा। इसी क्रम में शिक्षाप्रणाली को लेकर विरोध चला, गाँधीजी ने शिक्षाप्रणाली को लेकर आन्दोलन चलाया, उस समय कई विद्याथों उनके पास आकर कहने लगे-भविष्य के साथ अहित कर रहे हैं आप। बेटा! क्या बात हो गई, बताओ तो ? छात्र ने कहा-आप सब कुछ का विरोध करें-कर सकते हैं पर शिक्षण का तो विरोध मत करो, बापू जी ने कहा-बिल्कुल ठीक है। लेकिन हम शिक्षण का विरोध तो नहीं करते।

     

    वह लड़का कहता है-मेरी समझ में नहीं आ रहा, आप हमें घुमाना चाह रहे हैं? घुमाना नहीं चाह रहा हूँ बेटा! मैं यह कहना चाहता हूँ कि शिक्षण होना चाहिए और सभी को उससे लाभान्वित होना चाहिए, शिक्षित होना चाहिए, परन्तु शिक्षण की पद्धति भी तो सही-सही होनी चाहिए, जैसे हम दूध पी रहे हैं, लेकिन दूध पीते हुए शीशी में पी रहे हैं, भारतीय सभ्यता शीशी से दूध पीने की नहीं है, शीशी भी ऊपर से बिल्कुल काली है, जिसमें पता भी नहीं चले कि दूध है या और कुछ भी, एक तो शीशी में तथा दूसरे काले रंग वाली शीशी में और ऊपर से शराब की दुकान पर बैठकर पी रहे हैं, मुझे ऐसा लगा, गाँधीजी ने बहुत चतुराई से काम लिया। उन्होंने शिक्षण का विरोध नहीं किया किन्तु शिक्षा प्रणाली का विरोध किया है, इसमें रहस्य यही है कि हम जिस शिक्षण प्रणाली से शिक्षा लेंगे तो आपके विचार भी तदनुसार ही होंगे, उसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता है, इसी प्रकार यदि आपके हाथ में शीशी है वह भी काली और उसमें रखा दूध आप शराब की दुकान पर से पी रहे हैं तो एक भी व्यक्ति ऐसा न होगा जो कि देखकर आपको शराबी न समझे, इसलिए दूध को दूध के रूप में पिओ, भले ही दिखाकर पिओ कि देखो दूध पी रहा हूँ। इसी तरह वस्तु-विज्ञान को दिखाओ पर दूसरों को विचलित न होने दो, जो वस्तु दिखा रहे हैं वह सत्ता के माध्यम से नहीं किन्तु आगम की पद्धति के अनुसार दिखाना चाहिए, इस प्रकार दिखाने से सामने वाले व्यक्ति का जो उपयोग है वह केन्द्रित होगा और उसका विश्वास हमारे ऊपर शीघ्र तथा ज्यादा होगा, वात्सल्य-प्रेम बढ़ेगा। यदि हठात् कहने लग जाएंगे तो एक भी बात मानने वाला नहीं होगा, अत: हमें जो शंका है उसे आगम के अनुरूप ही समाधान करके धारणा बनानी चाहिए।

     

    श्रीधवल, श्री जयधवल, महाबन्ध में आचार्यों ने कहा है कि श्रावकों का क्या कर्तव्य होना चाहिए- "दाणां पूया सीलमुववासो" श्रीजयधवल को सिद्धान्त ग्रन्थ माना जाता है, जिसे भगवद् गुणधरस्वामी ने लिखा है जिसकी टीका वीरसेनस्वामी ने की है, उसमें उन्होंने श्रावक के चार आवश्यक धर्म बतलाये हैं, आवश्यकों को उन्होंने धर्म संज्ञा दी है, जो व्यक्ति दान को, पूजा को, शील को, उपवास को जड़ की क्रिया कहेगा तो उसके उस उपदेश से सारी की सारी जनता विमुख हो जायेगी, क्योंकि यह उपदेश प्रणाली ही आगम से उल्टी है, यह जड़ की क्रिया नहीं, धर्म की क्रिया है, वस्तुभूत जो धर्म है, 'वत्थुसहावो धम्मो' उस धर्म को प्राप्त करने के लिए श्रावकों के लिए चार आवश्यकों का मार्ग ही सही प्रणाली-पद्धति है। यही भगवान का संदेश और आज्ञा भी है। जो व्यक्ति आज्ञा का उल्टा प्रयोग करके केवल बन्ध के कारणों में इन धर्मों को गिनाता है, इसके द्वारा संवर, निर्जरा नहीं मानता, वह अपने व्याख्यान से जिनवाणी का-धर्म का अवर्णवाद कर रहा है।

     

    यह वाक्य मेरे नहीं हैं, मैं तो केवल एक प्रकार का एजेन्ट हूँ, एजेन्ट का काम होता है कि सही-सही वस्तु का प्रसार करना, एक दुकान से दूसरी दुकान में पूरी-पूरी ईमानदारी के साथ दिखाओ, फिर भले ही कोई उस वस्तु को अच्छा कहे या बुरा, अच्छा कहे तो भी वस्तु वही है तथा बुरा कहने पर भी वही है, उसको तो दिखाने का वेतन कम्पनी से मिल ही रहा है, उसमें कोई बाधा नहीं, इसी प्रकार मुझे भी अरहन्त भगवान की तरफ से वेतन मिल रहा है, इसलिए इस प्रकार के व्याख्यान जब तक हम समाज के सामने नहीं रखेंगे तब तक सही-सही स्वाध्याय की प्रणाली आने वाली नहीं है, यह करना हमारा कर्तव्य है इसलिए इसे करना भी आवश्यक समझता हूँ समय-समय

    पर |

     

    आज हम देख रहे हैं कि स्वाध्याय करते हुए भी जिस व्यक्ति के कदम आगे नहीं बढ़ रहे हैं, उसका अर्थ यही है कि उसे स्वाध्याय करना तो सिखा दिया है, किन्तु भीतरी अर्थ, जो वस्तुतत्व था, उससे उसे अपरिचित रखा है। उसको अंधेरे में रखा है, जो व्यक्ति वस्तुतत्व को अंधेरे में रखता है, वह व्यक्ति स्वयं भी खाली हाथ रह जाता है और दूसरे को भी खाली हाथ भेजता है-घुमाता रहता है, लेकिन हमारी (जिनवाणी की) दुकान ऐसी नहीं है, हम भी नीची दुकान-मकान रखते हैं परन्तु ऊँचे पकवान रखते हैं, ऊँची दुकान फीके पकवान यहाँ नहीं मिलेंगे।

     

    'वत्कृष्प्रामाण्याद्वचन प्रामाण्यम्'

    (धवला पुस्तक-१/१९७/४)

    वक्ता की प्रमाणता से वचन प्रामाणिक होते हैं, कारण कि वक्ता यद्वा-तद्वा नहीं कह सकेगा, उसके पास किसी प्रकार का पक्षपात नहीं हुआ करता, एजेन्ट जो होता है वह किसी प्रकार से कमवेशी दाम नहीं बताता, जिसको लेना हो लो, नहीं लेना हो न लो, इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग पूछते हैं हम नहीं लेंगे तो तुम्हारा काम कैसे चलेगा ? वह कहता है कि हमारी दुकान/ कम्पनी बहुत बड़ी है, जिसमें बिना काम के भी काम चलता है, कभी कम्पनी असफल होने की संभावना भी नहीं, ध्यान रखना, लौकिक कम्पनियाँ असफल हो सकती हैं पर वीतराग भगवान की कम्पनी तीन काल में असफल नहीं हो सकती, इसलिए मैंने तो भैय्या! ऐसी कम्पनी में नौकरी कर ली है कि, जितना हम काम करेंगे उतना दाम मुझे आयु के अन्त तक मिलता रहेगा।

     

    अब हमें अपने जीवन की आजीविका की कोई चिन्ता नहीं। आचार्यों ने कहा है, जिस चतुर वत्ता की आजीविका श्रोताओं के ऊपर निर्धारित है वह वक्ता वस्तुतत्व का प्रतिपादन ठीक-ठीक नहीं कर सकता। उन्होंने कहा है

     

    'क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषण च पञ्च।'

     

    वत्ता से पहले श्रोता को जान लेना चाहिए कि वता कैसा-कौन है। जैसा पण्डितजी ने अभी कहा था-किसका लेख है, यह किसका प्रवचन है ? यह ठीक-ठीक जान लेना आवश्यक है, यदि पाठक कुछ भी नहीं जानता और लेखक ठीक है तो वह सब कुछ मानने तो तैयार है, नहीं तो वह मानने के लिए तैयार नहीं होगा। सिद्धान्त कभी भी वक्ता के घर का नहीं चलता, जैसे घर की दुकान हो सकती है, लेकिन नाप-तौल के मापक घर के नहीं हो सकते। क्यों भैय्या दुकानदारो! दुकानदार का मतलब है, दो कान वाले, दो कान वाले दुकानदारो! हम पूछना चाहते हैं कि माल आपका, दुकान आपकी, सब कुछ आपका, किन्तु नाप-तौल भी आपका हो तो ? पकड़े जायेंगे। सब कुछ आपका हो सकता है पर नाप तौल तो शासकीय ही होगा।

     

    इसी प्रकार प्रवचन आप कर सकते हैं, ग्रन्थ भी प्रकाशित कर सकते हैं परन्तु घर का लिखा ग्रन्थ प्रकाशित नहीं कर सकते। आचार्यों के ग्रन्थों का सम्पादन/प्रकाशन करने वालों से हम यह कहना चाहते हैं कि वे ऐसा प्रकाशन करें, ऐसे सम्पादकों को रखें, अनुवादकों को रखें, जो जनसेवी हों और निभांक भी हों। विद्वानों के बिना यह काम सही-सही नहीं हो सकता, पर वे भी वेतन पर तुलने वाले नहीं होना चाहिए, कितने ही कष्ट आ जायें फिर भी वह इधर का डंडा (मात्रा) उधर लगाने को मंजूर न करता हो, इतना संयत हो।

     

    एक वकील होता है और एक न्यायाधीश हुआ करता है, दोनों एल.एल.बी. हुआ करते हैं, किन्तु न्यायाधीश वकील नहीं दे सकता, जजमेन्ट जज का ही माना जाता है, एक बार ही दिया जाता है उसमें फिर हेर-फेर नहीं होता, चाहे अपील करें दूसरी अदालत में, यह दूसरी बात है। अदालत में एक बार लिख दिया न्यायाधीश ने सो लिख दिया, लेकिन वकीलों की स्थिति वह नहीं हुआ करती, उसके तो एक रात में हजारों प्वाइन्ट, बदल जाते हैं, आज न्यायाधीश की बड़ी आवश्यकता है, वकीलों की नहीं, वकील को पेशी पर जाना पड़ता है, अत: पेशी कहलाती है, परन्तु न्यायाधीश की पेशी नहीं हुआ करती, कोर्ट में न्यायाधीश के सामने राष्ट्रपति को भी यूँ (झुकना) करना पड़ता है। इसी तरह सिद्धान्त के सामने सबको झुकना पड़ता है, तीर्थकर भी नमोऽस्तु करते हैं, जो वस्तुतत्व जैसा है, जिस रूप में है, वही सिद्धान्त है उसी को नमस्कार करना पड़ता है। अरहन्त परमेष्ठी को भी नमस्कार नहीं करना होता है, आचार्य को भी नहीं, साधु को भी नहीं, लेकिन वस्तुस्वरूप में अवस्थित सिद्धपरमेष्ठी को उन्हें भी (तीर्थकरों को भी) नमस्कार करना पड़ता है अर्थात् तीर्थकर उस न्यायालय को नमोऽस्तु करते हैं, जिससे ऊपर कोई नहीं, जिसके उच्चतम न्यायालय में कालिमा नहीं है, न्यायाधीश कैसे कपड़े पहनते हैं ? फक-सफेद। और वकील ? काला कोट पहनते हैं। भैय्या ! इसलिए उनकी आज्ञा नहीं मानी जाती, न्यायाधीश की बात मानना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। इसी तरह सिद्धरूप शुद्धतत्व की बात मानने में हमारा कल्याण होगा, वीतरागी की बात मानने में कल्याण होगा, अन्य की में नहीं, बिना माने हमारा कल्याण संभव नहीं, यह सब हमारे आचार्यों ने कहा है, उसी तत्व तक ले जाने की बात उन्होंने की है।

     

    बन्धुओ! हमें शब्दों की ओर से भीतरी अर्थ की ओर झुकना है, कहाँ तक कहूँ कहा नहीं जाता। इन महान् आचार्यों के हमारे ऊपर बहुत उपकार हैं, हम उनका ऋण तभी चुका सकते हैं, जब हम उनके कहे अनुसार (जैसा कहा वैसा) बनने का प्रयास करेंगे। कुन्दकुन्ददेव के समान तो नहीं चल सकते और उस प्रकार चलने का विचार भी शायद नहीं कर सकते, यह माना जा सकता है परन्तु उनका कहना है कि बेटा! जितनी तुम्हारी शक्ति है उतनी शक्ति भर तो २८ मूलगुणों को धारण कर, उसमें यदि कमी नहीं करेगा तो मैं तुमसे बहुत प्रसन्न होऊँगा, तेरा उद्धार हो जाएगा, ऐसा समझो। तत्वार्थसूत्र में एक सूत्र आता है-"परस्परोपग्रहो जीवानाम्" इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है कि गुरु-शिष्य के ऊपर उपकार करता है और शिष्य गुरु के ऊपर, मालिक मुनीम के ऊपर उपकार करता है और मुनीम मालिक के ऊपर, शिष्य-गुरु से पूछता है कि हमारा उपकार आपके ऊपर कैसे हो सकता है? यह तो आपका ही उपकार मेरे ऊपर है जो कृपा की, तब आचार्य जवाब देते हैं कि गुरुका उपकार शिष्य को दीक्षा-शिक्षा देने में है और शिष्य का उपकार गुरु द्वारा जो बताया है उस पर चलने में होता है, जब तक उनके अनुसार नहीं चलेंगे तब तक हम अपने बापदादाओं के, अपने गुरुओं के द्वारा किये गये उपकार को नहीं समझ सकते तथा उनके उपकार को प्रत्युपकार के रूप में सामने लाना है नहीं तो हम सपूत नहीं कहलायेंगे।

     

    "पूत के लक्षण पालने में" सब लोग इस कहावत को जानते हैं, शब्दों की गहराई में आप चले जाइये और वस्तुत: शब्दों की गहराई में चले जाएँ तब कहीं जाकर अर्थ को पा सकेंगे, पूत का लक्षण है, माता-पिता गुरु की आज्ञा को पालने का। जो लड़का/पूत माता-पिता-गुरुकी आज्ञा का पालन नहीं करता, वह तीनकाल में भी सपूत नहीं कहलायेगा। कहावत है- "पूत कपूत तो का धन संचय और पूत सपूत तो का धन संचय।" अर्थ यही हुआ सपूत को कुल का दीपक माना गया है, देश की, वंश की, कुल की, परम्परा में जो चार चाँद लगा देता है वही सपूत है, हम अपने आपसे पूछ लें कि हम अरहन्त भगवान के पूत हैं, सपूत हैं या.? कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि हम उनकी आज्ञा का यथासंभव पालन कर रहे हैं, जो हमारा कर्तव्य है, हम जिस तरह भी कदम बढ़ाये, यदि माता-पिता-गुरुओं का वरदहस्त हमारे ऊपर रहेगा तो हम उस ओर अबाधित बढ़ते जायेंगे।

     

    आज १२-१३ साल हो गये, मालूम नहीं चला, कोई बाधा नहीं, पूज्य गुरुवर आचार्य श्रीज्ञानसागरजी महाराज का वरदहस्त सदा साथ रहा और उनके ऊपर रहने वाले अनेक महान् आचार्यों के वरदहस्त भी साथ हैं, ऊपर हैं।

     

    घबड़ाना नहीं, जिस समय चक्रवात चलता है तो नाव आगे नहीं बढ़ती और पीछे भी नहीं जाती। तब ताकत के साथ स्थिर रखना होती है, हमें नाम नहीं करना जोरदार, काम जोरदार करना है। हमें अपनी नाव मजबूत रखना है, उसे चक्रवात से हटा के अलग नहीं करना है क्योंकि नाव की शोभा पानी में ही है तथा उसको निश्छिद्र रखना है, जिस समय किसी छिद्र द्वारा नाव में पानी आ जायेगा तो नाव डूब जायेगी, हमें कागज की नावों में नहीं चलना है। कागजी नावों से आज सारा का सारा समाज, सारे प्राणी परेशान है, आज नावें भी सही नहीं है बल्कि आज नाव के स्थान पर चुनाव हावी होता जा रहा है, हमें अपनी जीवन की नाव को भव-समुद्र में आये चक्रवात से रक्षा करके उस पार तक ले जाना है जहाँ तक अन्तिम मंजिल है।

     

    आज ऋषभनाथ महाराज आहार के लिए उठेगे, आप सभी नवधा भक्ति से खडे होइये, १० भक्ति या ८ भक्ति नहीं करना है, नवधाभक्ति ही जब पूरी-पूरी होंगी तभी वे आहार ग्रहण करेंगे, आज हमें उनके माध्यम से दान की क्रिया, ज्ञान की क्रिया समझनी है, जो वस्तुत: भीतरी आत्मा के प्राप्त करने की एक प्रणाली है, दिगम्बर चर्या खेल नहीं है बन्धुओ! आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने इस चर्या के लिए महान् से महानतम उपमाएँ दी हैं-यही प्रव्रज्या है, यही श्रमणत्व है, यही जिनत्व है, यही चैत्य है, यही चैत्यालय है, यही जिनागम है, यही सर्वस्व है, यही चलते-फिरते सिद्धों का रूप है। केवल ऊपर शरीर रह गया है, भीतर आत्मा वही है, जैसी कुन्दकुन्ददेव की है, जैसी सिद्ध भगवान की है। कहाँ तक कहा जाए, यह पथ, यह चयाँ ऐसी है, जिसका स्थान कभी भी अांका नहीं जा सकता, अनमोल है यह चर्या, यह व्रत तो आज भी दिगम्बर संत पाल रहे हैं। अन्त में आचार्य ज्ञानसागरजी को स्मरणपथ पर लाकर यह व्याख्यान समाप्त करता हूँ।

     

    तरणि ज्ञानसागर गुरो! तारो मुझे ऋषीश।

    करुणाकर करुणा करो, कर से दो आशीष।


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