राग की भूमिका में भी दृष्टि वीतरागता से ऊपर रखी जा सकती है। रागी को जिस पदार्थ पर राग झलकता है। वीतरागी वहीं वीतरागता का दर्शन करता है। राग और वीतराग पदार्थ पर नहीं हमारी दृष्टि पर जन्म लेते हैं। यदि हमारी दृष्टि में वीतरागता है तो हम राग में वीतरागता देखेंगे, अन्यथा वीतरागता में भी राग ही नजर आयेगा। अत: हमको प्रतिपल राग से हटकर वीतराग बनने की साधना करना चाहिए और यही जीवन का सार होना चाहिए।
वीतरागता के प्रति गौरव होना भी राग को छोड़ने की भूमिका है। हमने अभी तक राग को वीतरागता से भी अधिक मूल्यवान समझा है। इसलिए हम राग को उपेक्षित नहीं कर पा रहे हैं। जिस राग को हम छोड़ना नहीं चाहते वह राग हमको पसंद तक नहीं करता। हमने राग को पसंद किया है राग ने हमको नहीं। इसलिए अब हमको समझना है कि महत्वपूर्ण चीज वीतरागता है, राग नहीं और उस वीतरागता की उपासना प्रारंभ करना है। वीतरागता की उपासना करना ही वीतरागता के प्रति गौरव होना है।
दृष्टि का महत्व देखिए कि जिस चीज से हम अपनी भोजन सामग्री बनाते है वही चीज हमारे लिए प्रभु भजन का विषय बन जाती है। जिस जल को हम पीते हैं तो वह भोग्य सामग्री कहलाती है लेकिन जब हम उसी जल से भगवान् की पूजा करते हैं तो वही जल हमारे लिए भजन की, भक्ति की चीज बन जाती है। जिस चंदन को हम गर्मी मिटाने के लिए शरीर पर लेप करते हैं या सूंघते हैं तो वह शारीरिक सुख का कारण बनता है लेकिन उसी चंदन से जब हम भगवान् की पूजा करते हैं तो शरीर नहीं संसार ताप मिटाने की भावना करते हैं। इसी प्रकार अष्ट मंगल द्रव्य की तमाम सामग्री को समझना चाहिए। वही वस्तु घर में कलह का, झगड़े का कारण बनती है और वही मंदिर में पूजा भक्ति, भजन वंदना का कारण बनती है।
हमारी पूजा का उद्देश्य वीतरागता को प्राप्त करना होना चाहिए क्योंकि हमारे उपास्य वीतरागी हैं। यदि हमारी जिन्दगी का लक्ष्य राग को घटाना बन जाये तो हम कम समय में भी अधिक काम कर सकते हैं। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम वीतरागी बनने की साधना करें और यदि हम वीतरागी नहीं बन सकते तो वीतरागी के पास जाना चाहिए। यदि हम इतना भी करते हैं तो एक दिन अवश्य वीतरागी बन जायेंगे, फिर हमारे लिए कुछ करना नहीं पड़ेगा। क्योंकि राग समाप्त करने के बाद अत्याधिक पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।