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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन प्रमेय 5 - दीक्षाकल्याणक (पूर्वार्द्ध)

       (1 review)

    उस धर्म को बारम्बार नमस्कार हो जिस धर्म की शरण को पाकर के संसारी प्राणी पूज्य बन जाता है, आराध्य बन जाता है। अक्षय/अनन्तसुख का भंडार बन जाता है।


    अभी आपके सामने दीक्षा की क्रिया-विधि सम्पन्न हुई, यह मात्र आप लोगों को उस अतीत के दृश्य की ओर आकृष्ट करने की एक योजना है कि किस प्रकार वैभव और सम्पन्नता को प्राप्त करते हुए भी, भवन से वन की ओर विहार हुआ, संसार महावन में भटकने वाले भव्य जीवो! थोड़ा सोची, विचार करो कि आत्मा का स्वरूप क्या है ? अभी तक वैभव से अलंकृत वह श्रृंगारहार, जो कुछ भी था, उस सबको उतार दिया, कारण, आज तक जो लाद रखा था उसको जब तक उतारेंगे नहीं, तब तक तरने का कोई सवाल नहीं होता, आप लदने में ही सुख-शान्ति का अनुभव कर रहे हैं और मुमुक्षु उसको उतारने में, सुख का, शान्ति का अनुभव कर रहे हैं, यह भीतरी बात है, देखने के लिए क्रिया ऐसी लगती है कि जैसे आप लोग कमीज उतार देते हैं और पहन लेते हैं लेकिन वहाँ पहनने का कोई सवाल नहीं, अब दिगम्बर दशा आ गई, अभी तक एक प्रकार से वे श्वेताम्बर थे, अब वो दिगम्बर बन गये और आप दिगम्बर के उपासक हैं इसलिए आप दिगम्बर हैं, वस्तुत: आप दिगम्बर नहीं हैं, आप इसलिए सब वस्त्र पहनते हुए भी दिगम्बर माने जाते हैं, इस मत को जो नहीं मानते वो तो हमेशा वस्त्र में ही डूबे रहते हैं।

     

    आपके मन में एक धारणा बननी चाहिए कि मेरी भी यह दशा इस जीवन में कब हो! वह घड़ी, वह समय, वह अवसर कब प्राप्त हो मुझे, हे भगवन्! मेरे जैसे आप भी थे, लेकिन हमारे बीच में से आप निकल चुके, कल तक मैं कहता रहा-भैय्या! आदिकुमार-ऋषभकुमार आपके घर में हैं जो कुछ भी करना हो कर लो, सब कुछ आपके हाथ की बात है, लेकिन ज्यों ही वन की ओर आ जायेंगे, नियम से आप मेरे पास आ जाएंगे कि महाराज! अब आगे क्या करना है, ये मान नहीं रहे हैं, घर में रहना नहीं चाहते, अब कहा जाएंगे पता नहीं। बस अब तो उन्हें पता है और आपको? सुनो, आप लोग तो लापता हो जाएंगे, अब आपका कोई भी पता नहीं रहेगा, इसीलिए उस दिगम्बर की शरण में चले जाइये, वहाँ सबको शरण मिल जायेगी।

     

    अन्यथा शरणां नास्ति त्वमेव शरणां मम ।

    तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष-रक्ष मुनीश्वरः॥

    (समाधिभक्ति-१५)

    हे यते! हे यतियों में भी अग्रनायक! हमारे लिए शरण दो, भगवान को वैराग्य हुआ, उनके साथ चार हजार और दीक्षित हो जाते हैं, यहाँ पर तो उनके माता-पिताओं को भी वैराग्य हो रहा है। तीर्थकर अकेले लाडले पुत्र होते हैं, घर में यदि दो पुत्र हो जायें तो या तो छोटे के ऊपर ज्यादा प्रेम होगा या बड़े पर और लोग तो समझते हैं कि जो कमाता है उसके ऊपर ज्यादा प्रेम बरसता है, जो नहीं कमाता उसके ऊपर करेंगे ही नहीं, इनका इतना तेज पुण्य होता है कि लाड-प्यार जो कुछ भी मिलता है माता-पिता का वह एक के लिए ही मिलता है इसलिए वे विषयों में डूब जाते हैं और बाद में विषय से विरक्ति का संकल्प लेते हैं, यहाँ पर भी माता-पिता बनने का सौभाग्य भी बहुत मायने रखता है, तीर्थकर के माता-पिता, यह संसारी प्राणी आज तक नहीं बना, बन जाने पर नियम से एक-आध भव से मुक्ति मिलती है, इन लोगों (उपस्थित माता-पिताओं) की भावना हुई है कि इस पुनीत अवसर पर वे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करें और अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त करें। इस माध्यम से हम भी भगवान से प्रार्थना करते हैं, जिस प्रकार प्रभु का कल्याण हो गया/ हो रहा है, इनका भी हो।

     

    उधर भगवान् के साथ चार हजार राजा भी दीक्षित हुए, लेकिन उन्होंने दीक्षा नहीं दी किसी को, दीक्षा किसलिए नहीं दी ? इसलिए नहीं दी कि, वे किसी को आदेश नहीं देंगे। दीक्षा लेने के उपरान्त वे गहरे उतरेंगे, किसी से कुछ नहीं कहेंगे, भीतर-भीतर आत्मतत्व में डुबकी लगाते-लगाते जब एक हजार वर्ष व्यतीत हो जायेंगे, तब कैवल्य की उपलब्धि होगी, इन एक हजार वर्षों तक मौन रहेंगे, आहार के लिए आयेंगे, सब कुछ क्रियायें होगी लेकिन कुछ उपदेश नहीं देंगे। न आशीर्वाद देंगे, न कोई आदेश, मौन रहना ही इन्हें पसन्द होगा, इसके बाद बनेंगे। ऋषभनाथ भगवान, दिखाने के लिए कल ही कैवल्य हो जाएगा, कारण एक हजार साल तक तो आप वैसे भी प्रतीक्षा नहीं कर सकोंगे, अत: मतलब ये है कि इस प्रकार की साधना में उतरेंगे कि वह आत्मा का रूप बन जाएंगे, यही सत्य मार्ग है।

     

    इस समय ज्यादा कहना आपको अच्छा नहीं लग रहा होगा क्योकि आप आकुलित है,भगवान आपके घर से चले गये हैं, भगवान नहीं थे वे, कुमार थे और आपके अण्डर में नहीं रह पाये, ये ध्यान रखना माता-पिता का कर्तव्य होता है अपनी संतान की रक्षा करें, यदि वह घर में रहना चाहे, तो उसके लिए सब कुछ व्यवस्था करें, घर में नहीं रहता तो यह देख लेना चाहिए कि कहाँ जाना चाहता है, कहीं विदेश तो नहीं जाता, यदि विदेश आदि जाने लगे तो, नहीं, यह हमारी परम्परा नहीं है, यहीं पर रहो, यह काम करो, ऐसा समझाना चाहिए और यदि आत्मा के कल्याण के लिए वन की ओर जाना चाहता है तो आपके वश की कोई बात नहीं है, यही हुआ आपके वश की बात नहीं रही और ऋषभकुमार निकल चुके घर से।

     

    धन्य है यह घड़ी, यह अवसर, युग के आदि में यह कार्य हुआ था और आज हमने उस दृश्य को देखा, जाना, किसके माध्यम से जाना यह सब कुछ ? अपने आप जान लिया क्या ? अपने आप आ गई क्या यह क्रिया? नहीं! इसके पीछे कितना रहस्य छुपा हुआ है, बड़े-बड़े महान् सन्तों ने इस क्रिया को अपने जीवन में उतारा और किसी ने इस क्रिया को अपनी लेखनी के माध्यम से लिख दिया, यही एक मार्ग है जो मोक्ष तक जाता है और कोई नहीं।

     

    विश्व में, सारे के सारे मार्ग को बताने वाले साहित्य हैं, लेकिन यहाँ पर साहित्य के साथसाथ साहित्य के अनुरूप आदित्य भी है, आज तक हमारी यह परम्परा अक्षुण्य है, यह हम लोगों के महान् पुण्य और सौभाग्य का विषय है, आज भी ऐसा साहित्य मिलता है, जिससे हम अध्यात्म - दशा को प्राप्त कर सकते हैं, हमें भी बता दो ? तो यहाँ पर वही क्रियायें हो रही हैं जिन्हें देखकर मालूम होता है कि ऐसे प्राप्त की जाती है वह अवस्था, इतना ही नहीं, आज  कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा के अनुरूप चलने वाले, लिंग को धारण करने वाले भी मिलते हैं, तीन लिंग बताये गये हैं-एक मुनि का, एक श्रावक का और एक आर्यिका का या श्राविका का। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने दर्शनपाहुड में कहा है जैनियों के चौथा लिंग नहीं है -

     

    "चउत्थ पुण लिंगदंसण णत्थि"

    आज हमारा कितना सौभाग्य है कि कुन्दकुन्ददेव ने, समन्तभद्रस्वामी ने, पूज्यपादस्वामी आदि अनेक आचार्यों ने इस वेष को धारण किया, कितने बड़े साहस का काम किया, सांसारिक वेश को उतार देना भी बहुत सौभाग्य की बात है, अनेक सन्त हुए और बीच में ऐसा भी काल आया, जिसमें सन्तों के दर्शन दुर्लभ हो गये थे। जैसे मैंने कल कहा था दौलतरामजी, टोडरमलजी, बनारसीदासजी, ये सब तरसते रहे, जिनलिंग को देखना चाहते थे लेकिन केवल शास्त्रों को देख करके रह जाना पड़ा उन्हें, यहाँ तक भी कहने में आता है कि टोडरमलजी के जमाने में श्रीधवल, श्रीजयधवल, महाबन्ध का दर्शन तक नहीं हो सका, पढ़ना चाहते थे वे। उन्होंने लिखा है कि मैंने गोम्मटसार को पढ़ा उसकी टीका के माध्यम से, उसमें भी उन्होंने लिखा केशववणों की टीका नहीं होती तो हम गोम्मटसार का रहस्य नहीं समझ सकते थे, ऐसे-ऐसे साधकों ने इस जिनवाणी की सेवा करते हुए केवल सेवा ही नहीं किन्तु इस वेश को भी धारण कर अपने को धन्य किया, कल पण्डितजी भी कह रहे थे कि हमने भी अपने जीवन में जिनवाणी की सेवा करने का इतना अवसर प्राप्त किया, किन्तु मैं समझता हूँ कि आज दीक्षा-कल्याणक का दिन है, पण्डितजी ! जिनवाणी की सेवा तो जिनलिंग धारण करके ही करना सर्वोत्तम है। यदि आप जैसे विद्वान् जिनलिंग धारण कर इस तरह सेवा करें तो सही सेवा होगी जिनवाणी की, धर्म की प्रभावना भी होगी।

     

    बात ऐसी है जिनलिंग की महिमा कहा तक गायी जाये, जहाँ तक गाये, जितनी गावे उतनी ही आनन्द की लहर भीतर-भीतर आती जाती है, एक उदाहरण देता हूँ-एक सन्त के पास परिवार सहित एक सेठजी आते हैं, दर्शन करते हैं, पूजन करते हैं, जो कुछ भी करना कर लिया, इसके उपरान्त प्रार्थना करते हैं कि भगवन्! संसार का स्वरूप बताने की कोई आवश्यकता नहीं है, कारण, हमें समझ में आ गया है, लेकिन अब मुझे मुक्ति का स्वरूप बताओ ? लोग मुझसे भी पूछते हैं कि महाराज! आपको वैराग्य कैसे हुआ, मेरी समझ में नहीं आता है, चारों ओर चकाचौंध है विषयों की और आपको वैराग्य कैसे? हम जानना चाहते हैं, आपने न घर देखा, न बार, न कोई विवाह हुआ, कुछ समझ में नहीं आता, क्या जान करके आपने घर छोड़ दिया ? छोड़ने को क्या, क्या छोड़ा ? कुछ था ही नहीं मेरे पास-हमने कहा, समझदारी की बात तो मैं यह मानता हूँ-कहना चाहता हूँकि जो फैंसे हुए हैं, उनके चेहरे को देख करके मैं भाग आया, कोई भी दिखता है, हँसता हुआ नहीं दिखता, रोता ही रहता है, अपना रोना ही रोता है, मैं समझता हूँ कि बहुत अच्छी बात है जो हम फैंसे नहीं, यहाँ से दूर चलिये इसकी क्या आवश्यकता है। पढ़ने की, लिखने की कोई आवश्यकता नहीं, अनुभव की कभी कोई आवश्यकता नहीं, जो अनुभव कर रहे हैं वही टेलीविजन (मुखमुद्रा) हम देख रहे हैं, इनको देख लो, इनकी समस्या समझ लो, बस अपने लिए वहीं रास्ता बन गया, तो वह कहता है कि मुक्ति का स्वरूप बताओ, किस प्रकार इनसे छुटकारा पाऊँ, सन्त कहते हैं-कुछ नहीं, सो जाओ, सो......जाओ, कल आना जैसी आज्ञा-कहकर चला गया सेठ, घर पर सेठजी ने एक तोता बहुत ही लाड-प्यार से पाल रखा था, उसने पूछा-आज कहाँ गये थे सेठजी! महाराजजी आये थे उनके पास उपदेश सुनने गया था-सेठ ने कहा, क्या कहा महाराज ने-तोते ने पूछा, सेठ ने कहा-उन्होंने कुछ नहीं कहा सिवा इसके कि कल आना, लेकिन आज क्या करना-तोते ने पूछा। सो जा-सेठ ने कहा, अच्छी बात है। दूसरे दिन सेठ पुन: महाराज के पास पहुँच गया, क्यों, क्या बात है? महाराज ने पूछा। महाराज आपने तो कहा था-आज सो जा, कल आ जाना, इसलिए आ गया, अरे! मालूम नहीं पड़ा, यही तो प्रवचन था-महाराज ने समझाया, सोने का प्रवचन था ? हाँ.... हाँ..! "जो व्यवहार में सोता है वह निश्चय में जागता है और जो निश्चय में सोता है वह व्यवहार में जागता है।" अब बात उसे समझ में आ गयी थी, उपदेश के बाद घर गया तो देखा तोता तो बिल्कुल अचेत पड़ा है, पिजरे में। अरे! यह क्या हो गया ? महाराजजी ने उपदेश बहुत अच्छा दिया-अच्छा समझाया, मैं इसको भी बता देता, लेकिन यह क्या हो गया ? मर गया, यह तो मर गया, हे भगवान्! क्या हो गया ? इस प्रकार करते हुए पिंजरे का दरवाजा खोल करके उसको देखता है, बिल्कुल अचेत है, ओऽहो! यूँ ही नीचे रख देता है तो वह उड़ जाता है और एक खिड़की के ऊपर जाकर बैठ जाता है और कहता है महाराज ने बहुत अच्छा उपदेश सुनाया-बहुत अच्छा सुनाया, कैसे सुनाया? सेठ ने कहा, आपने तो कहा था आज सो जा-तोते ने कहा, सो जा, सो...... जा।

     

    रहस्य को सेठ ने अब समझ लिया। "एक बार सो जाओ मुक्ति मिल जायेगी,” लेकिन ‘सोना' कैसे ? मखमल के गढ़े बिछाकर के नहीं, एयरकंडीशन में नहीं बल्कि शरीर तो सो जाए और आत्मा अप्रमत रह जाए, आज का विज्ञान क्या कहता है ? आत्मा को सुलाओ ताकि रेस्ट मिल जाए, इस शरीर को, मतलब क्या ? यही कि चिन्ताओं से, विचारों से, विकल्पों से छुट्टी दे दो

     

    मा मुज्झह मा रजह मा दुस्सह इट्ठणिट्टअत्थेसु।

    थिरमिच्छह जड़ चित्तं विचितझाणपसिद्धीए॥

    (द्रव्यसंग्रह-४८)

    आत्मा के ध्यान की प्रसिद्धि के लिए मन की एकाग्रता अनिवार्य है, मन को एकाग्र करना चाहते हो तो इष्ट तथा अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष मत करो। इतना ही पर्याप्त है।

     

    मोक्षमार्ग यह है और संसार मार्ग यह है, कौन-सा आपको इष्ट है? आप चुन सकते हैं। जबरदस्ती किसी को नहीं किया जा सकता, जबरदस्ती से मार्ग ही संभव नहीं, खुद स्वयं जो अंगीकार करे, उसी का ये मार्ग और जो अंगीकार करता है उसको हजारों व्यवधान आ जाते हैं, व्यवधान आने पर आचार्य कहते हैं कि वह सारे के सारे व्यवधान शरीर रूपी पहाड़ के ऊपर टूट सकते हैं, लेकिन आत्माराम के ऊपर उसका कोई भी स्पर्श तक नहीं हो सकता है, यही एक मोक्षमार्ग है, इस मोक्षमार्ग की कहाँ तक प्रशंसा करूं, अपरम्पार है।


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    रतन लाल

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    आत्मा के ध्यान की प्रसिद्धि के लिए मन की एकाग्रता अनिवार्य है, मन को एकाग्र करना चाहते हो तो इष्ट तथा अनिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष मत करो। इतना ही पर्याप्त है।

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