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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पावन प्रवचन 6 - धीवर की धी

       (2 reviews)

    जिसने रागद्वेष कामादिक, जीते सब जग जान लिया,

    सब जीवों को मोक्षमार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया।

    बुद्ध वीर जिन हरिहर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो,

    भक्ति भाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी में लीन रहो।

    मेरी भावना ||

    धर्म को हम देखना चाहे तो वह भावपरक है, न वचनों में है, न काय की चेष्टा में, न ही और किसी जमीन-जायजाद में। ये उसी भाव की पूर्ति के लिए माध्यम बनाए जा सकते हैं, जिसके माध्यम से संसार का कार्यक्रम चलता रहता है। भाव के माध्यम से हम एक-दूसरे को पास-पास देख सकते हैं। तन से, धन से और किसी वस्तुओं के माध्यम से भले ही दूसरे को हम, अपने पास देख सकते हैं लेकिन भावों की अपेक्षा से वह बहुत दूर हो सकता है। अत: धर्म के क्षेत्र में भावों की अपेक्षा से दूरी मिटना अनिवार्य है और धर्म वह है जो हमें सुखी बना दे, शान्ति दिला दे, हमारे भीतर वात्सल्यभाव उमड़ जाये।


    तन के कारण, धन के कारण और किसी अन्य वस्तु के कारण संसार में रहने वाले व्यक्तियों में भेद रेखा खींच सकते हैं। उनमें भेद देख सकते हैं लेकिन वह सब इन अपेक्षाओं की अपेक्षा से एक ही डोरी से बंध जाते हैं। कोई तन की अपेक्षा, कोई धन की अपेक्षा, कोई जमीन-जायदाद की अपेक्षा, कोई बल की अपेक्षा भिन्न माना जाता है किन्तु यह कोई व्यक्तित्व को भिन्न रखने के लिए कारण नहीं है। वह व्यक्ति जो प्रभु के रूप में स्वीकृत है, उसमें राग-द्वेष, अहंकार-ममकार आदि विकार नहीं पाये जाते। वही हमारे लिए ईश्वर है, वह ही हमारे लिए आराध्य है, वही हमारे लिए सुख का कारण है, उन्हीं की शरण में हमें जाना चाहिए।


    जैनधर्म कोई जातिपरक धर्म नहीं है। जैनधर्म उस बहती गंगा के समान है, जिसमें कोई भी व्यक्ति स्नान कर सकता है और अपने पापों को मिटा सकता है। उस बहती गंगा में अपने जो कुछ भी कषायभाव हैं, उनको फेक सकता है और अपने हृदय को, मन को और तन को भी स्वच्छ-साफ कर सकता है। जैनधर्म का आधार लेने के उपरान्त भी जो व्यक्ति केवल अहंकार-ममकार को पुष्ट बनाता चला जाता है वह अपने जीवन काल में कभी भी धर्म का स्वाद नहीं ले सकता। धर्म का समार्जन कोई भी व्यक्ति यहाँ तक कि तिर्यञ्च, पशु-पक्षी भी कर सकता है। उज्ज्वल-भावधारा का नाम धर्म है। जैनधर्म कषायों को जीतने के लिए कहता है। जैनधर्म शारीरिक स्वच्छता को नहीं मानता किन्तु वह भीतरी स्वच्छता पर अधिक बल देता है क्योंकि धर्म को अपनाने का मुख्य उद्देश्य है कि-मनोमालिन्य समाप्त होना चाहिए, इसी में धर्म का सार समाहित है। ऐसा करने वाला हरि भी हो सकता है, शंकर भी हो सकता है, शिव भी हो सकता है, बुद्ध भी हो सकता है, महावीर भी हो सकता है। जिसने रागद्वेष को जीत लिया है, उनके लिए हमारा बार-बार नमस्कार है। यह इसलिए कहा जा रहा है या कहना आवश्यक हो गया है कि हम बाहरी आडम्बरों को कुछ कम कर लें। हमारे भीतर वह बात है या नहीं ? यह देखने की पूरी कोशिश करो, कि हमारे भीतर कितना रस, धर्म का, आया है। जो कोई भगवान हुए और आगे होंगे उनका यह कहना है कि जीवन इसी का नाम है। दया का अभाव हो जाता है तो पाप का मूल अभिमान आ जाता है। अभिमान के कारण कौन नरक गया ? दया के कारण कौन स्वर्ग से आया ? अथवा प्रभु बना, यह आप लोगों को ज्ञात अवश्य होगा। राम और रावण। रावण के पास भी कोई कमी नहीं, राम के पास भी नहीं। किन्तु रावण के पास एक ही कमी, जिसका नाम धन नहीं, धर्म है और राम के पास भले ही धन कम हो फिर भी धर्म इतना अधिक था कि उनका नाम आज दुनिया लेना चाहती है, रावण का नाम लेना नहीं चाहती। कारण यह है कि वे आदर्श माने जाते हैं, उनका जीवन हमारे जीवन में उतर जाए। अत: धन की रक्षा नहीं, तन की रक्षा नहीं और किसी वस्तु की रक्षा नहीं, किन्तु मात्र धर्म की रक्षा करना है।


    तुलसी दया न छोड़िये, जब तक घट में प्राण।

    कब तक ? जब तक घट में प्राण। वही तो धर्म है। यदि धर्म निकल जाएगा तो वह प्राण नहीं माना जाएगा। वह तो केवल खोखला माना जाएगा। धर्म से रहित, दया से रहित, परोपकार से रहित, जो जीवन है वह जीवन, जीवन क्या? मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति: मनुष्य के रूप में पशु है। वह मनुष्य के रूप में एक प्रकार से गाय-भैंस जैसे हैं। उनके अनुसार पृथ्वी भी भार का अनुभव करती है। धिक्कार है उस भारमय जीवन को, जिस जीवन में न दया हो, न परोपकार हो, न धर्म हो। प्रभु के प्रति कुछ भाव समर्पण करने के लिए नहीं हैं वह जीवन, जीवन नहीं है, वह केवल भारमय जीवन हो जाता है और हमारा यह जीवन पृथ्वी के लिए भार बन जाए, अड़ोस-पड़ोस हमारे जीवन के कारण कंटक का रूप धारण कर लें। उसके लिए नीतिकार कहते हैं-मर जाना अच्छा है, पर धर्म बिना जीना अच्छा नहीं है क्योंकि धर्म के अभाव में जीवन नहीं होता, केवल जीवन का अभिनय होता है, नाटक होता है।


    धर्म को समझो बन्धुओ! कि दया ही हम लोगों के लिए सबसे महान् धर्म माना जाता है और यदि दया हमारे जीवन से निकल गई तो हमारा जीवन ही निकल गया, यह ध्यान रखना। केवल आयु की पूर्ति की जा रही है। न ही उसका स्वर्ग लोक में कोई स्वागत होने वाला है, न ही अन्यत्र विशेष उच्च स्थान मिलने वाला है, बल्कि उसके लिए तो एक बहिष्कृत जैसा स्थान मिलने वाला है, जिसको अधोगति बोलते हैं। वहाँ का दृश्य आपके सामने आगे आ रहा है।

    धर्म के बारे में एक सन्त जी ने अपने प्रवचनों में कहा कि धर्म के प्रति समाज का, युग का कैसा, क्या लगाव है ? कुछ व्यक्ति गौधर्म से विमुख होकर जीवन जी रहे हैं। उनके लिए सहज रूप से कुछ धर्म का व्याख्यान किया, प्रवचन दिया। बहुत सारे लोगों ने सन्तजी के प्रवचन को समझा कि वस्तुत: ऐसा नहीं होना चाहिए और अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार परोपकार के लिए, दया के लिए, दान के लिए, सेवा के लिए आदि-आदि जो एक जीव को दूसरे जीव से मिलाते हैं, उस दयामय धर्म को पालना चाहिए। ऐसे दयामय धर्म के माध्यम से उस अलगाव को दूर करने के लिए.उस दूरी को मिटाने के लिए, उस भेद रेखा को समाप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए। ऐसी बातें करने लगे अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार उस धर्म का पालन करने का संकल्प लेकर सब चले जाते हैं। एक व्यक्ति दूर खड़ा होकर सुन रहा था। उसका भी भाव धर्म के प्रति बहुत पास आने को हुआ, लेकिन वह कहता है कि मैं पास कैसे आ सकता हूँ ? मेरे जीवन में तो दया का अंकुर भी नहीं फूटा है और दयामय जीवन अपना लेता हूँ तो मेरा जीवन समाप्त हो जाएगा। यह धर्म-कर्म हमारे भाग्य में नहीं लिखा, इस तरह वह पश्चाताप कर रहा है। लेकिन उस पश्चाताप का भी परिणाम ऐसा निकलता है कि सन्त जी इस दृश्य को देखकर जान लेते हैं कि इसके मन में क्या भाव उमड़ रहे हैं ? आरोहण-अवरोहण क्या हो रहा है ? उन्होंने उसको बुलाया-आ जाओ इधर, वह घबड़ा गया। सन्त जी मुझे बुलाते हैं, नहीं जाता हूँ तो गड़बड़, जाता हूँ तो गड़बड़, क्या करें ? सन्त जी के जाल में तो आ ही गये। मैं तुम्हारी घबराहट को जान रहा हूँ, घबराओ नहीं आप। वह पास आ गया। अब अपनी बात कह सकते हो। देखो सन्तजी, हम आए हैं। आपके प्रवचन बहुत सुन्दर हैं, हम लोगों का भाग्य था। जिन्होंने सुना उन्होंने अपने ढंग से धर्म पालन करने के लिए संकल्प लिए लेकिन मैं गुरु से कह रहा हूँ और दिल से कह रहा हूँकि मैं किसी भी बात को अंगीकार नहीं कर सकता, क्योंकि आपका धर्म बहुत मुँहगा है। हमें चाहिए सस्ता। देखो बाजार में सभी प्रकार के ग्राहक आते हैं। सारे के सारे श्रीमान् आते हैं, ऐसी तो बात नहीं है, ऐसे भी होते हैं जिनके पास नोट भी नहीं और खाकर चले जाते हैं। उनके लिए भी बाजार होना चाहिए। सन्त जी कहते हैं भइया! हम क्या कहें, तुम्हारे पास कुछ ना कुछ तो होगा? पर हमारे पास तो कुछ भी नहीं है। कुछ ऐसी चीज मैं देता हूँ उसको ग्रहण कर लेना। बहुत अच्छी बात है। मैं अपनी तरफ से कह देता हूँ, मैं मांस का त्याग नहीं कर सकता, झूठ बोलना छोड़ नहीं सकता, चोरी किए बिना मेरा जीवन चल नहीं सकता और जो कुछ भी संकल्प की बातें हैं वह सारी की सारी मैं कर नहीं सकता। फिर भी इसके उपरान्त आपके पास ऐसी औषधि हो तो दीजिए मैं स्वीकार कर लूँगा। आज तक इस दुकान पर आया ग्राहक लौटा नहीं, यह ध्यान रखना, यह विश्वास है दुकान का। सन्त जी कहते हैं कि तुम मांस का त्याग नहीं कर सकते? नहीं, हमारी आजीविका इसी से चालू होती है। अच्छी बात है, आप यह नहीं कर सकते ? कोई बात नहीं, आपका काम क्या है ? मैं तो मछली मार, धीवर हूँ। मांस का त्याग तो नहीं कर सकते, क्यों नहीं कर सकते? वह मेरा सब कुछ है लेकिन तुम्हें त्याग करना है। कैसे त्याग करना? आप ही करा दो, जीवन को समाप्त करना है तो आप करा दो, दूसरे दिन उपवास हो जायेगा। तुम प्रतिदिन जाकर के जाल फेकते हो तालाब-नदी में तो उसमें जो पहली मछली आती है उसको छोड़कर फिर इसके उपरान्त जो कोई आ जाए उसको पकड़ लेना, यह तो बन जाएगा? यह तो बहुत आसानी की बात है, देखो आपने संकल्प लिया है, अच्छे से निभाना। यह संकल्प तो ब्रह्मा भी आ जाए तो नहीं छूट सकता क्योंकि इसमें कुछ है नहीं हमारा। एक दो मछली आ जाये तो उसको छोड़ देना यह बहुत अच्छी बात है, सस्ता भी है, देखो संकल्प है। हाँ! जब तक घट में प्राण तब तक आपको मैं याद करता रहूँगा कि हमने भी कुछ संकल्प लिया था, दूसरे दिन वह जाल लेकर कुछ निशान कर छोड़ने के उपरान्त दुबारा जाल फेंक दिया, थोड़ी देर बाद वह देखता है मछली तो आई है लेकिन जिसकी पूँछ में चिह्न था वही आई है, उसको पुन: छोड़ दिया क्योंकि पहली मछली को नहीं पकड़ना है, अगली बार जाल फिर फेंका, तीसरी बार भी फेका लेकिन वही मछली आई, फिर उस स्थान को छोड़ दिया, आधा किलोमीटर दूर जाकर के फिर फेंक दिया लेकिन वहीं मछली उस दिन आई। चौथी बार भी वही आई, इस ओर छोड़ कर उस ओर गया, फिर भी वही मछली आई, महाराज जी ने कोई जादूतो नहीं किया, जादू नहीं संकल्प तो संकल्प है, पूरा दिन चला गया, अब दिन ही समाप्त हो गया तो कैसे करें ? वह शाम को खाली हाथ लौटकर आया, क्योंकि गृहमन्त्री को हाजिरी देनी आवश्यक थी। गृहमन्त्री, आप समझते ही हैं कौन है ? कमा करके ले आयेंगे तो कुछ करेंगे लेकिन ऐसी स्थिति हो गई कि आने से पूर्व ही दरवाजा बंद कर दिया। अन्दर से आवाज आयी जहाँ से आए, उधर ही चले जाओ, दरवाजा बंद ही रहा।


    एक दिन भी नहीं हुआ धर्म को धारण किये और दूसरे दिन ही घर से बाहर निकलना पड़ा। फिर भी संकल्प तो संकल्प, वह बाहर रह जाता है, सर्दी का समय, सांय-सांय करती हवा, किन्तु उसको ओढ़ने को कुछ भी नहीं, रात्रि के समय कहीं जाना अच्छा न समझ वहीं विश्राम करने की कोशिश करता है, जैसे-तैसे कुछ समय के लिए नींद आती है, कि तभी एक सर्प अपने बिल को छोड़कर बाहर आता है और उसे काट देता है, विष के आधिक्य से वह मरण को प्राप्त हो जाता है। किन्तु उसकी गति कहाँ हुई, मालूम है आपको? वह एक महान् धार्मिक खानदान में जाकर जन्म लेता है, कितना क्या त्याग किया था और उसका फल क्या मिला?


    दया धर्म का पालन करने के लिए अपनी रोजी रोटी में से पहले की एक मछली त्याग का यह परिणाम। मात्र पहली मछली को छोड़ देना, जिसको आप बोलते हैं बोनी। वह उसकी दुकान थी। पहली मछली का उसने त्याग किया। आप लोगों के पास भी दुकान है, आप लोग क्या करते हैं, पहले ग्राहक को छोड़ देते हैं ? नहीं, पहले ग्राहक से तो नोट आते ही रख देते हैं। उसने कितना बड़ा काम किया कि पहले ग्राहक को छोड़ दिया, जिसके ऊपर आप तिलक लगा करके रख देते हैं। यहाँ पहले ग्राहक का ही क्या हुआ भगवान ?


    सोचो, विचार करो, आर्थिक विकास के लिए अर्थ का अवलम्बन लेना ठीक है, लेकिन जीवन ही बन गया अर्थ के लिए। जीवन चलाने के लिए भोजन तो ठीक है, लेकिन भोजन के लिए ही जीवन बन गया। यह तो गड़बड़ है। अपनी रक्षा तो ठीक है, लेकिन अपनी रक्षा के लिए दुनियाँ भी मिट जाए इससे कोई मतलब नहीं। यह कहाँ का धर्म है ? आज विश्व का प्रत्येक सदस्य, प्रत्येक राष्ट्र का नागरिक अपना देश, अपना नगर, अपना मोहल्ला, अपना घर कहता है, लेकिन होता क्या है भाई-भाई भी छूट जाते हैं और बहिन भी छूट जाती हैं। पति भी छूट जाते हैं। धर्म के अभाव में व्यक्ति केवल स्वार्थ परायण हो जाता है।


    अपने जीवन के बारे में, अपनी सुख-सुविधाओं के बारे में कोई भी कमी आ जाती है तो वह रोष खा जाता है। रोष खाना उसका जीवन बन गया है। ऐसा रोष कि उसे यह होश नहीं रहता कि मेरा जीवन किसके ऊपर और कैसे चलता आया है। माँ-बाप-दादाओं ने मेरे लिए क्या-क्या किया? अड़ोस-पड़ोस का कितना उपकार मेरे ऊपर है ? छोटे-छोटे पेड़-पौधों का भी मेरे ऊपर कितना प्रभाव है, आप जानते हैं ?


    ऊपर कपड़ा तन गया, नीचे दरी बिछ गई धरती पर फिर बाद में आकर आप बैठ गए, लेकिन क्या-क्या हुआ मालूम है आपको? इसी प्रकार आपके जीवन को, पार्थिव शरीर को चलाने के लिए कितने-कितने जीव सहयोग देते हैं। वायु आपको कुछ समय के लिए नहीं मिले तो क्या होता है ? प्रदूषण फैल जाएगा। सूर्य प्रकाश आपको नहीं मिलेगा तो आपके शरीर में अपने आप ही खून का पानी होने लग जाएगा। सूर्य प्रकाश के माध्यम से आपके खून की गति होती रहती है। वह रिफाइन होता रहता है। आप भोजन लेते हैं। कई प्रकार के साग-सब्जी खा लेते हैं। वह नहीं हो तो आपको यह जीवन नीरस लगता है। आखिर आप लोगों के जीवन में सहयोग की कितनी गिनती है, ज्ञात है? और उन सब लोगों के जीवन के लिए आप लोगों का जीवन कहाँ तक उपयोगी सिद्ध होता है ? यह कभी देखा, कभी जाना, कभी पहचाना, कभी सोचा, कोशिश तो कम से कम करते। लेकिन इतना स्वार्थ, इतना अपनत्व केवल अपने से भी बढ़ नहीं सका, इसी का नाम कलयुग है। और उसका नाम है सतयुग, जहाँ पर के लिए सब कुछ समर्पण करके आगे चला जाता है। वहाँ पहले जीवन दान की बात थी, पहले दान, फिर बाद में खान। फिर वह भीतर-भीतर कहता है कि यह जीवन कब समाप्त होगा मेरा? मैं हिंसा के माध्यम से चल रहा हूँ, ऐसा कोई जीवन मुझे मिले ताकि मैं हिंसा से बच सकूं, मैं चोरी से बच सकूं, मैं झूठ से बच सकूं। यह जीवन अहिंसामय कब बन सकेगा? यदि इस प्रकार के भाव प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आते हैं तो इसी काल का नाम सतयुग है। सतयुग में सत्य का, अहिंसा का वरदान होता है और इतनी वृद्धि होती है, विकास हो जाता है अहिंसा का कि बाद में हिंसा तो अपने आप ही शान्त हो जाती है।


    आज हिंसा का तूफान-ताण्डव नृत्य चल रहा है। रावण जैसी घटनायें मामूली बात हो गई हैं। आज घर-घर में रावण हो गए हैं। राम की प्रतिमा मिल सकती है, मन्दिर मिल सकते हैं लेकिन घर जितने हैं सब रावण के ही हैं। मन्दिरों की स्थापना कर दी, उसके ऊपर ध्वजा चढ़ा दी और शिखर के ऊपर कलश चढ़ा दिया। राधेश्याम मन्दिर, राम मन्दिर, कृष्ण जी का मन्दिर, महावीर का मन्दिर बन गया। आप लिखते चले जाइये, प्रतिमा की पूजा करते चले जाइये, जबकि प्रत्येक आत्मा में जो आत्मराम बैठा है वही राम का साक्षात् रूप है, उसको देखकर यदि घृणा करते हो, उसकी रक्षा के बारे में, उसके ऊपर दया करने के बारे में सोच भी नहीं, विचार भी नहीं तो वह राम की प्रतिमा कभी आपसे प्रसन्न नहीं हो सकेगी। वह जीवन (धीवर का) प्रतीक है।


    इस प्रतीक के माध्यम से जो राम का जीवन था उसको कुछ महसूस करना चाहिए। लेकिन वह घटना तभी हमारे जीवन में घट सकती है, जब प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को पहचानने का प्रयास करेंगे। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को समाप्त करने में अपने विशेष ज्ञान का योगदान दे रहा है, खोजछानबीन कर रहा है। एक-एक राष्ट्र कवल बन जायेगा तो यहाँ पर रहेगा कौन? यह दिव्यध्वनि बार-बार सुनने में आ जाती हैं-तीसरा विश्वयुद्ध यदि होगा तो चौथे विश्वयुद्ध के लिए कोई यन्त्र नहीं बचेंगे, वह केवल पाषाण के माध्यम से होगा अर्थात् पाषाण को आयुध बना करके होगा। इसे पाषाण युग बोलते हैं, आदि युग बोलते हैं, तीर-कमान वाली बात नहीं, ऐसी स्थिति क्यों आयेगी? इसलिए आयेगी कि इतना नरसंहार हो जायेगा कि धर्म का नामोनिशान तक नहीं रहेगा, लेकिन धर्म का अवतार यदि हो जाता है तो सब कुछ बच सकता है, लेकिन बचना असंभव-सा हो रहा है, क्योंकि धर्म का स्थान, धन ने पा लिया है और ऐसा अस्तित्व जमा लिया, कि जैसे धर्म का कोई अस्तित्व बचा ही नहीं। आज धन सिर पर है अर्थात् धन सब कुछ है लेकिन धर्म के लिए जमीन तक खाली नहीं, स्थिति यह हो गई कि जो मूल्यवान है उसका अवमूल्यन हो गया और जिसका कोई मूल्य नहीं था उसको हमने सिर पर रख लिया, धन के लिए आज सब कुछ किया जा सकता है, तन की रक्षा के लिए आज सब कुछ किया जा सकता है, नरसंहार हो जाए कोई बात नहीं, लेकिन ध्यान रखो तब भी हमारा जीवन सुरक्षित नहीं है।


    धीवर देवलोक में गया, दया की यही तो विशेषता है, ऐसी दया आपको भी अपनानी चाहिए। महावीर ने और कोई सन्देश नहीं भेजा, राम का जीवन और कुछ नहीं था, हम लोगों के लिए उपदेश दिया है राम ने महावीर ने और युग के आदि में वृषभनाथ ने, दया को ही एक मुख्य स्थान माना उन्होंने। दया की पूर्ति के लिए अहिंसा और सत्य को आवश्यक माना। चोरी का त्याग भी आवश्यक कहा, परिग्रह/लोभवृत्ति भी उसी के समाप्त हो सकती है जिसके घट में दया विद्यमान रहती है।


    रागद्वेष जीतना महावीर भगवान् की अहिंसा धर्म का पालन करना है। जो राग नहीं करेगा, द्वेष भी नहीं करेगा, वह निश्चित रूप से अहिंसा धर्म का पालन कर रहा होगा। कैसे होगा? कुछ पदार्थों की अपेक्षा से राग होता है, कुछ से द्वेष। यदि किसी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी तो वह रागद्वेष कैसे कर सकता है ? रागद्वेष नहीं करेगा तो दूसरे के पदार्थों को उठा भी नहीं सकेगा, उसी का परिणाम वह हमेशा आपको आदर्श के रूप से देखता चला जाएगा। इस प्रकार जीवन हम लोगों का स्वयं अपने से बनता है निश्चत रूप से युग कोई भी हो स्वर्ग उतर कर धरती पर आ जाता है अगर हमारा जीवन दया से भरपूर हो तो।


    यह ध्यान रखना कि हमेशा-हमेशा धरती से स्वर्ग का निर्माण होता है, स्वर्ग कोई लोक नहीं है जहाँ कि लोग रहते हों। यहाँ के ही लोग स्वर्ग चले जाते हैं, आप बोलते हैं स्वर्गवास हो गया। वह कहाँ चला गया? स्वर्गलोक चला गया। क्या हो गया? दिवंगत हो गए, कोई ऐसा नहीं कहता नरकगत हो गए। यहाँ से ही स्वर्ग का निर्माण होता है, यदि यहाँ कोई धर्म नहीं करेगा तो स्वर्ग ऊपर से सब खाली हो जाएगा लेकिन ऐसा कभी नहीं होता। यहाँ पर रह कर अहिंसा का पालन करने वाला व्यक्ति स्वर्गों में जाकर के मान-सम्मान पा जाता है और ऐश्वर्य को प्राप्त करता है फिर उस ऐश्वर्य की इच्छा कभी भी दिल में नहीं रहती। क्योंकि उसका सम्यक चिन्तन प्रारंभ होता है कि जब मैं स्वयं ही ईश्वर हूँ तो फिर कौन-सा स्वर्गीय ऐश्वर्य मेरे सामने आने वाला है ? ईश्वर जो होता हैं, उसी के पास ऐश्वर्य रहता है। स्वर्गों में ऐश्वर्य रहता है, यह केवल कहने में आता है। वास्तविक ऐश्वर्य तो ईश्वर के पास है। ईश्वर का अर्थ रागद्वेष जो नहीं करता और अहिंसा व्रत का पालन करता है। दयामय में हमेशा-हमेशा लीन रहता है, उसी का नाम ईश्वर है।


    "जिसने राग द्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया।"

    कोई इच्छा भी नहीं, आज कोई भी माँ बेटे के लिए कुछ उपदेश इसलिए देती है अथवा पालन-पोषण भी इसलिए करती है कि कम से कम अन्त में बेटा मुझे पानी तो पिला देगा। बेटी होगी तो वह चली जाएगी, लेकिन बेटा निश्चित रूप से पानी पिलाएगा। इसलिए वह माँ अपनी पूर्ति के लिए अन्तिम घड़ी को सामने रखकर के अच्छे ढंग से पालन-पोषण करती है अर्थात् वह स्वार्थ रखती है। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या वह नहीं कर पाती। इसी प्रकार पिता भी सोचता है, कि कम से कम अन्त में अग्नि संस्कार तो कर देगा, यह बड़ा काम है। अपने घर का लड़का आ जाता है तो ठीक है, नहीं तो भैया, दूर-दूर सम्बन्ध जोड़कर वंश की परम्परा को जोड़कर उसका अन्तिम संस्कार होता है। नहीं आता तो किसी भी प्रकार से गोद लेना पड़ता है, दत्तक पुत्र जिसको बोलते हैं, वह अपनी सोचता है, अपने धर्म की रक्षा के लिए भी सोचता है। अब मास्टर लोग भी सोचते हैं, मुझसे पढ़ा-लिखा कोई भी लड़का होगा तो मेरा नाम हमेशा-हमेशा होगा लेकिन प्रभु कितने बड़े काम करते हैं किन्तु स्पृहा कुछ भी नहीं रहती, इच्छा कुछ भी नहीं रहती, बदले में कुछ नहीं चाहते। अरे जो प्रभु हो वह दुनिया से क्या चाहेगा? और प्रभु के लिए ऐसी कौन सी पूर्ति करेगी दुनिया? राग के माध्यम से वीतरागी को क्या लाभ मिलेगा? सोचो, विचार करो।


    जिसको धन नहीं चाहिए, धनिकों से उस व्यक्ति के लिए क्या फायदा? बोलो आप लोगों से हमें क्या फायदा? कोई फायदा नहीं, क्योंकि आप रागी हैं, हम राग चाहते नहीं, फिर यहाँ क्यों आये? एक बात है, हम बता देते हैं आपने बुलाया इसलिए हम आए। रुक जाओ, ऐसी कोई राग की बात मत करो, हम तो इसलिए आए कि इस मार्ग का परिचय इन लोगों को भी हो जाए।


    यहाँ पर गाड़ियाँ पेट्रोल के लिए तो रुक ही जाती हैं, लेकिन निश्चित है कहाँ पर जाती हैं ? Signboard को कभी नहीं निकाल सकते, अर्थात् यह गाड़ी कहाँ पर जा रही है ? कैसे जा रही है साइनबोर्ड को देखकर आगे जाती है पर बोर्ड को कोई स्पृहा नहीं? वह गाड़ी से कुछ चाहता नहीं। उसी प्रकार हम आप लोगों से कुछ चाहेंगे नहीं, किन्तु ये जरूर चाहेंगे कि इन लोगों का जीवन राग से रहित, विषयों से रहित हो, प्रेम-वात्सल्य का सागर बन जाए। जीव-जीव को पहचाने, अभी अजीव की ओर ही इन लोगों की ज्यादा गति हो रही है और अजीव की रक्षा के लिए जीव के ऊपर प्रहार किया जाता है। स्वयं रहना चाहता है मकान में और वह भी दूसरे के मकान को गिरा करके। कभी दूसरे के मकान में बैठ कर सोचता है कि यह मेरा मकान है। इस प्रकार लड़ाई हो जाती है और तीसरे व्यक्ति को लाभ मिलता है, इस प्रकार फूट भी पड़ जाती है। चोरी भी हो जाती है और एक दूसरे के लड़ने से हिंसा भी हो जाती है। इस प्रकार जो संघर्ष विश्व में है वह केवल रागद्वेष के कारण ही है, और जीव तत्व को नहीं पहचानने का यह परिणाम है। आप जीव की ओर दृष्टिपात करिये। अपने आप ही बीच की बात समाप्त हो जायेगी। जब तक यह परिग्रह-लोभ का पर्दा एक दूसरे के बीच में रहेगा तब तक आप पर्दे की उस ओर जो है, उस चैतन्यतत्व की पहचान नहीं कर पायेंगे।

     

    राम, रावण की आत्मा को जान रहे थे लेकिन रावण, राम को नहीं पहचान पा रहा था। रावण के सामने केवल सीता ही सीता थी। सीता बीच में आ रही थी। यह सीता किसकी है ? राम की। उसको समाप्त करना है। देखो सीता के कारण रावण की बुद्धि में यह आया। राम का इतना व्यक्तित्व निखरा हुआ था, लेकिन देखने में नहीं आया। भारत का ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जिसको राम न रुचते हों, राम के लिए रावण काँटा नहीं था, लेकिन रावण के लिए राम हमेशा काँटा थे। रावण को ये सोचना आवश्यक था कि यह धर्म का काँटा है जो मेरे ऊपर प्रहार नहीं कर रहा। मैं राम को, मार कर रहूँगा, यह केवल सीता के कारण। इस प्रकार का काँटा पड़ गया रावण के जीवन में। वस्तु को आप वस्तु के रूप में समझ लीजिये। रावण सीता को सीता के रूप में समझता तो बहुत भला हो जाता, राम ने कभी भी मन्दोदरी की ओर नहीं देखा, राम ने और किसी की ओर नहीं देखा, केवल सीता-सीता कहता गया, यह धर्म है, यह कर्म है, यह एकमात्र जीवन का रहस्यमर्म है। इस डोर में हम बंध करके चलेंगे तो निश्चित रूप से शिवलक्ष्मी हमारे स्वागत के लिए खड़ी होगी। सुख संपदा हमारा स्वभाव है किन्तु हम आपदाओं को मोल ले रहे हैं, उसी के कारण इस प्रकार नीरस जीवन बना हुआ है।


    एक मछली का त्याग भी देवत्व को प्रदान कर सकता है लेकिन ध्यान रखना उसके पीछे उसके प्राण भी चले गये। घर से बाहर भी निकाला गया, लेकिन उसने भीतर कभी भी ऐसा नहीं सोचा कि हमने संकल्प छोटा सा लिया था। संकल्प छोटा नहीं होता, संकल्प हमेशा बहुत बड़ा हुआ करता है वह खसखस के दाने के बराबर बीज है लेकिन बोने के उपरान्त बड़ का पेड़ बन जाता है। धर्म की बात तो बोलने की हो, करने की हो, विश्वास की हो, वह बात तो बात है, वह ऐसी है कि उसके सामने आकाश भी छोटा पड़ जाता है। वह तीन लोक का नाथ बनाने वाला होता है। अहिंसा पालन के बारे में ऐसा मत सोचिए कि मेरे में शक्ति नहीं है।


    यह सत्य है कि अहिंसा एक संकल्प है। और वह निश्चित रूप से विकास करेगा, किन्तु कब, कैसे और कहाँ से पता नहीं पड़ेगा। बीज बोते हैं तब पता नहीं लगता किन्तु जब पेड़ होकर आता है सामने तब मालूम होता है कि बड़ का बीज कितना छोटा था और उसका परिणाम कितना बड़ा निकला।


    धर्म के क्षेत्र में भी आप हृदय से, मन से, वचन से, काय से, कृत से, कारित से और अनुमोदन से सच्चाई के साथ, आस्था के साथ यदि बीज बो लेते हैं तो कुछ ही समय के उपरान्त वहाँ पर बड़ का निर्माण हो जाता है। धीवर धीमानों में भी श्रेष्ठ था। वर माने श्रेष्ठ और धी माने बुद्धि वाला सो धीवर । उसका नाम भी अच्छा रखा। धीवर है उसका नाम, जो कि सार्थक है। उसके पास भी बुद्धि थी। चैतन्य आत्मा का स्वभाव है, उस स्वभाव के माध्यम से सोचो, विचार करो। अनुकम्पा, दया, करुणा फूटना चाहिए। अपने गुरुदेव ज्ञानसागर जी ने “दयोदय चम्पू' काव्य लिखा है उसमें इसी कथा का विस्तार है। धीवर की कथा का नाम रखा दयोदय, दया का जिसके जीवन में उदय होता है उसका नाम दयोदय और वह चम्पू काव्य है। संस्कृत काव्य है, उसका एक श्लोक मुझे याद आ गया। आप लोग भाग्यशाली हैं इसलिये वह श्लोक याद आ गया, उन्होंने बताया है जीवन कैसा होना चाहिए ?


    परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकाराय वहन्ति नद्यः।

    परोपकाराय तरोः प्रसूतिः, परोपकाराय सतां विभूतिः॥

    महाराज जी ने चार चरणों में हमारे जीवन की पूरी की पूरी योग्य बातें कह दीं। तीन चरण तो प्रकृति के लिए हैं और चौथा विद्वान् कौन है या सज्जन कौन है? साधु कौन है ? इसकी व्याख्या एक चरण में की गई है। तीन चरणों की बात आपके सामने पहले मैं कह रहा हूँ-


    "परोपकाराय दुहन्ति गावः"

    गाय क्या खाती है ? घास-फूस खाती है, खली खाती है। तेल आप निकाल लेते हैं और कूड़ा-कचरा जो कुछ रह गया वह उसको मिलता है वही खली वह खाती है लेकिन फिर भी वह आपको क्या देती है? मीठा-मीठा दूध देती है। भले आप लोग पानी डाल दो लेकिन वह पानी मिला दूध नहीं देती। आज तक ऐसी कोई गाय नहीं देखी जिसने कि पानी मिला दूध दिया हो। पानी पेट में जाता होगा लेकिन कभी पानी मिला कर दूध का संग्रह नहीं किया। वह अपने दूध को रखने का भाव भी नहीं करती आप लोग उसके दूध को पूरा का पूरा निकाल लेते हैं। संभव है उस दूध को वह स्वयं पी ले, प्यास लग जाए, भूख लग जाय, लेकिन ऐसी गाय को देखा तो कभी नहीं, जो अपने दूध को स्वयं पी ले, देखा? आप लोगों का प्रभाव पड़ गया होगा, पंचमकाल का। ऐसी कोई गाय नहीं है जो स्वयं दूध पी ले। देखो आप लोगों के सौभाग्य की बात है कि छोटी-सी घटना और याद आ गई।


    महावीर जी, राजस्थान में एक गाँव है जो कि गम्भीर नदी के तीर है। वहाँ पर क्षेत्र बसा है। वहाँ की यही तो घटना है कि वह गाय दिन भर चर लेती लेकिन एकाध माह से दूध से रिक्त होकर आ जाती। उस ग्वाले ने सोचा क्या बात हो गई, गाय का दूध कौन पीता है ? बछड़ा पीता है या कोई निकाल लेता है। एक बार, दो बार देखा, कुछ मिला नहीं। तीसरी बार देखा तो गाय ने वहाँ पर दूध छोड़ दिया जहाँ चट्टान जैसी शिला है।


    उस ग्वाले ने सोचा कि इस शिला के नीचे कोई ने कोई चमत्कार होना चाहिए। देखो गाय इतनी होशियार होती है, इतनी सयानी होती है कि भीतर के भगवान् को बाहर ला सकती है। दृष्टि की बात है, ग्वाले ने सोचा-मेरी गाय पालतू है, किसी को दूध नहीं देती, यहाँ पर दूध छोड़ती है। इसका अर्थ है "परोपकाराय दुहन्ति गाव:"। आज तक हजारों, लाखों, करोड़ों व्यक्ति गए होंगे वहीं पर और उन महावीर भगवान् के चमत्कारों से प्रभावित भी हुए होंगे। महावीर भगवान से - विनती भी की होगी किन्तु गाय ने अपनी कोई बात भगवान् के समक्ष नहीं रखी।


    इसके उपरान्त "परोपकाराय वहन्ति नद्यः", नदियाँ बहती जा रहीं हैं। उनमें किसी का कोई असर नहीं किन्तु आपने अपनी छाप उन पर भी लगा दी कि नागपुर की नदी, जबलपुर की नदी आदि। वह अपनी यात्रा नहीं छोड़ती, प्यासे की प्यास बुझाती है, कोई जो थक गए हों उनको प्रशस्तता लाने के लिए नदी यहाँ से वहाँ दौड़ती चली जा रही है। जहाँ से वह जाती है वहाँ की भूमि बहुत ही उपजाऊँ हो जाती है, वह परोपकार के लिए है।


    "परोपकाराय तरो: प्रसूति:" यह पृथ्वी पूत मानी जाती है। पूत माने पुत्र होता है, पृथ्वी का पुत्र कौन आप? नहीं, आप पृथ्वीपाल हो सकते हैं लेकिन पृथ्वीपूत नहीं, पृथ्वीपूत का अर्थ पेड़ होता है, पूत वह होता है जो अपने लिए कुछ नहीं रखता है और वह हमेशा दूसरे के लिए छाया प्रदान कर देता है, फल प्रदान कर देता है, सब कुछ कर देता है, किन्तु वह स्वयं कुछ भी खाता-पीता नहीं, पृथ्वी के लिए हमेशा-हमेशा स्थान बनाए रखता है।


    पूत सपूत हो तो का धन संचय।

    पूत कपूत हो तो का धन संचय।

    बुन्देलखण्ड में यह एक कहावत है-पुत्र कपूत नहीं होना चाहिए बल्कि सपूत होना चाहिए। पृथ्वी का नाम हो सकता है, पृथ्वी का काम हो सकता है नहीं तो पृथ्वी उन व्यक्तियों से बदनाम हो जाएगी, जो व्यक्ति कपूत का काम कर जाता है। धनसंचय करने से कुछ नहीं होता। जिसके पास नहीं। किन्तु जिसके पास एक टका भी नहीं किन्तु ज्ञान है, परोपकारिता है, धर्म है उसके पीछे लक्ष्मी पड़ जाती है, तो यह है 'परोपकाराय तरो: प्रसूति।"


    अब "परोपकाराय सतां विभूति:।" आपका मन, आपका तन, आपका धन, आपके वचन आदि परोपकार के लिए लग जायें। आप ऐसा बोलिए जिसके द्वारा दूसरा खिल उठे, प्रसन्नता का अनुभव करे। आप अपने मन में दूसरों की भलाई के बारे में सोचिये, आपका तन दूसरों के संकट को, दूर करने के लिए कारण बन जाए, अगर इस प्रकार आपका जीवन बन जाता है तो आप में सज्जनता निश्चित रूप से है लेकिन यह बहुत कम हो पाता है।


    आपका समय हो गया। महाराजजी ने कहा था-यह कारिका हमेशा-हमेशा के लिए याद रखना चाहिए और इसका अनुकरण कर लेना चाहिए, ताकि हम राम बनें, महावीर बनें और आदिनाथ प्रभु के समान बनें किन्तु रावण को स्वप्न में भी याद न करें। क्योंकि रावण का जीवन हम लोगों को अभिशाप है, वह स्वयं के लिए भी अभिशाप हुआ और पर के लिए भी। इसलिए जो वरदान सिद्ध हो उसी जीवन की उपासना करनी चाहिए।
     


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    जैन धर्म  तो जीने की कला है । जैसे  कमल के  पत्ते  पानी मे  रहकर भी  उससे  अलग  रहती है । जैसे  हमारे  गुरुदेव  आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी  जी रहे हैं। संसार  मे  रहते हुए भी  अलग  रहते हैं।

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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    जैनधर्म कोई जातिपरक धर्म नहीं है। जैनधर्म उस बहती गंगा के समान है, जिसमें कोई भी व्यक्ति स्नान कर सकता है और अपने पापों को मिटा सकता है। उस बहती गंगा में अपने जो कुछ भी कषायभाव हैं, उनको फेक सकता है और अपने हृदय को, मन को और तन को भी स्वच्छ-साफ कर सकता है। 

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