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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 10 - देश को कर्ज से मुक्त करना ही, स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता है

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    हम भारत में रहते हैं, भारत में कमाते हैं, भारत का अनाज खाते हैं भारत का पानी पीते हैं लेकिन हम अपना धन विदेश में रखते हैं, क्या भारत के ऊपर विश्वास नहीं? जिस माटी पर जीते हैं उसी को सन्देह से देखते हैं, बस यही भारत की कंगाली का कारण है। ‘तन भारत में और धन विदेश में इसीलिए गरीबी है वतन में” भारत कंगाल हो रहा है ऋण के भार से दब रहा है, कर्ज बढ़ रहा है और हमारे ही देशवासियों का धन विदेशों की बैंकों में रखा है, हम कैसे कहें कि हम अपने देश का विकास कर रहे हैं। यदि हम भारत को गरीबी से मुक्त करना चाहते हैं, कंगाली मिटाना चाहते हैं तो अपने देश का धन विदेशों में नहीं रखना चाहिए विदेश में धन-रखने वालों ने ही देश को गरीब बनाया है। आज हमको इस बात की महती आवश्यकता है कि हम अपने देश को कर्ज से मुक्त करने के लिए अपना धन विदेश में न जाने दें।

     

    देश को कर्ज से मुक्त करना ही स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता होगी। आज देश को आजाद हुए पचास वर्ष होने को आ रहे हैं लेकिन पचास वर्ष में हमारे देश का कर्जा ही बड़ा कौन सी तरक्की की है, पचास वर्ष के उपरांत भी देश को कर्ज से मुक्त न कर सके, गरीबी न भगा सके हिंसा आतंक न रोक सके फिर किया ही क्या? कर्ज ले-लेकर देश को कब तक चलायेंगे? देश प्रेमियों देश को कर्ज से मुक्त करो भारत की सम्पदा भारत में रहने दो वस्तुत: भारत को धन की आवश्यकता नहीं भारत तो धनी ही है उस धन को विदेश से वापस ले आओ। पचास वर्ष के उपरांत भी हमको यह ज्ञात नहीं की क्या करना है, क्या नहीं करना है फिर स्वर्ण जयन्ती मनाने से क्या लाभ? पचास वर्ष के उपरांत मात्र हमने इतना याद रखा है कि १५ अगस्त को हमारा देश स्वतंत्र हुआ था। पचास वर्ष के बाद भी हम ऋणी ही हुए जबकि हमको धनी होना था। ऋणी होना भी अच्छा है लेकिन धन से नहीं आदर्श से हम ऋणी हैं हमारे पूर्वजों के कि जिन्होंने हमारी संस्कृति को यहाँ तक लाया, देश को आजाद कराया, उन्होंने बहुत कष्ट उठाये, मुशीबतें सही, अनेक बाधाओं से जूझे, जीवन-मरण से लड़ते रहते, और निस्वार्थ भावना से देश और देश वासियों की सेवा की, ऐसे कर्तव्य शील, निष्ठावान, अहिंसक पूर्वजों के हम ऋणी हैं। हमारे पूर्वजों ने जीना सिखलाया लेकिन हम उनको कहाँ तक आदर्श मानते यह हमको ज्ञात है। अपने पूर्वजों के आदशों को याद करो, उनके ऋणी बनो और देश को ऋण से मुक्त करो। आजादी की स्वर्ण जयन्ती पर देश को कर्ज से मुक्त करने का संकल्प लो। यही सच्ची भारतीयता, राष्ट्रीयता है।

     

    यह कैसी विडम्बना है कि भारत का धन विदेशों में रखा है और भारत अपना ही धन अपने लिए कर्ज के रूप में ले रहा है। अपनी मुद्रा विदेश में रखकर और विदेशी मुद्रा के लिए मांस बेचकर विदेशी मुद्रा कमा रहा है? यह कौन सी कमाई है, कि अपने धन को नष्ट करना और विदेश के धन को इकट्ठा करना यह नीति नहीं यह तो अनर्थ नीति है। इस अनर्थ नीति को पहले समाप्त करो अन्यथा देश कभी भी आर्थिक सम्पन्न न होगा।

     

    कोई भी पार्टी हो वह सत्ता की ओर न देखे परन्तु देश की सत्ता देश की अस्मिता की ओर देखे, सत्ता की ओर देखने से अहंकार होता है, स्वार्थ होता है, लेकिन जब हम देश की सत्ताअस्मिता की ओर देखते हैं तो स्वाभिमान होता है, कर्तव्य का बोध होता है, दायित्व का बोध होता है। सत्ता (पार्टी) की ओर मत देखो देश की अस्मिता की ओर देखो, भले तुम किसी भी पक्ष के रहो, चाहे तुम पक्ष के हो या विपक्ष के लेकिन देश का पक्ष कभी भी मत भूलना यह देश की अस्मिता को देखने का अर्थ है जो व्यक्ति देश का पक्ष लेगा वह अपना धन विदेश में नहीं रख सकता। देश को कर्जदार नहीं बना सकता है इसलिए तुम भी याद रखो।

    मरना है तो मरजा

    लेकिन मरने से पहले

    कुछ कर जा

    पर न कर कर्जा 

     

    देश के लिए कुछ कर जाओ लेकिन कर्जा मत कर, हमने आज भारत की क्या दशा कर दी। अंग्रेजों के जमाने में मांस का नियति नहीं होता था लेकिन आज स्वतंत्र भारत में मांस का निर्यात हो रहा है, अंग्रेज विदेशी थे, लेकिन हम तो देशी हैं। फिर भी अपने देश की स्थिति खराब कर डाली। मांस निर्यात भारत के लिए बहुत बड़ा कलंक है। स्वर्ण जयंती के अवसर पर इस कलंक को धोने का संकल्प ले लेना चाहिए यही भारत को सुधारने का सही संकल्प है। भारत इतना क्रूर बन गया है भारत के पास आज दया का अभाव हो चुका है, दया के अभाव में ही यहाँ प्रलय का वातावरण तैयार हो रहा है। हम अपने देश की तरक्की दया के रहते ही कर सकते हैं दया के अभाव में क्रूरता से किसी का भला नहीं है, दया जीवन है क्रूरता मौत है, क्रूरता को छोड़ो दया को अपनाओ। देश में सुभिक्ष ही ऐसी कामना करो, भावना करो।

     

    दुनियाँ में सुभिक्ष हो, मंगल हो लेकिन उसके पहले यह बात ध्यान रखो कि सुभिक्ष के लिए किसी की हत्या न हरना पड़े, किसी का वध न करना पड़े, किसी को कष्ट दुख देना न पड़े। आज हम अपने देश में सुभिक्ष लाना चाहते हैं आदमी का जीवन सुरक्षित रखना चाहते हैं लेकिन यह होगा कैसे क्योंकि हमारे पास मानवता नहीं है। दूसरों की हत्या करके, दूसरों का खून करके हम अपने देश की उन्नति कैसे कर सकते हैं। क्या यही मानवता है?, यही अहिंसा है? यही सत्य है? मांस निर्यात करने वाला देश अहिंसा का सन्देश कैसे दे सकता? यदि हम अहिंसा, सत्य, करुणा का सन्देश देना चाहते हैं एवं मानवीय चेतना जागृत करना चाहते हैं, राष्ट्र को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो इसके लिए हमको एक मानवीय क्रान्ति लाना होगा। वह मानवीय क्रान्ति सभा समारोहों में नहीं उसके लिए जीवन परिवर्तित करना होगा। देश में हिंसा के सारे कार्य रोकना होगा। जो देश अहिंसा के सहारे आजाद हुआ वही देश आज हिंसा प्रधान हो रहा है। हिंसा से हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रह सकती। देश को सुरक्षित रखने के लिए भारत को हिंसा से मुक्त करना होगा और मांस निर्यात वर्तमान की सबसे बड़ी हिंसा है इसको रोकना होगा।

     

    आज कितनी तेजी से जानवर कट रहे हैं यदि यही रफ्तार रही तो एक दिन सारे जानवर समाप्त हो जायेंगे और फिर नम्बर आयेगा किसका? आदमी का, प्रकृति का नहीं क्योंकि प्रकृति में मांस नहीं। प्रकृति जीव तो पैदा करती है लेकिन मांस पैदा नहीं करती प्रकृति तो शुद्ध है। आज हम अपनी प्रकृति का विनाश कर रहे हैं लोग पर्यावरण की चर्चा करते हैं प्रदूषण हटाने की बात करते हैं लेकिन प्रदूषण-लाने का काम बंद नहीं करते। ये कत्लखानों से सारी धरती में प्रदूषण फैल रहा है, नदियों का पानी प्रदूषित हो रहा है, वातावरण गन्दा हो रहा है, प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ रहा है, लेकिन हमको इसकी चिन्ता नहीं है। हम तो मात्र चिल्लाना जानते हैं पर्यावरण बचाने का काम मात्र वृक्ष लगाने से नहीं हो सकता हम वृक्षों को लगाने की बात करते हैं, लगाते हैं, लेकिन पशुओं को काट रहे हैं, यह प्रक्रिया हमारे लिए घातक है इसको हमें रोकना चाहिए।

     

    भारतीय संस्कृति में दृश्य का नहीं दृष्टा का मूल्य है, जड़ का नहीं चेतन का मूल्य है, 'पर' का नहीं ‘स्व' का महत्व है। आज हम अपनी संस्कृति को लुटा रहे हैं, मिटा रहे हैं मात्र चंद चाँदी के टुकड़ों में। ये गाय, बैल भैंस, इत्यादि जो जानवर हैं ये जीवित हैं, चेतन हैं, चेतन धन को नष्ट करके जड़ धन की कमाई करना राष्ट्र को समाप्त करना चाहिए। जीने का अधिकार सबको है। यह हमारा स्वार्थ है कि हमने जानवरों को यूजलैस(अनुपयोगी) कह दिया जीवन किसी का हो चाहे वह जानवर का हो या आदमी का वह कभी यूजलैस (अनुपयोगी) नहीं होता, यूजलैस (अनुपयोगी) तो हमारा स्वार्थ होता है, हमारा अज्ञान होता, अन्याय होता है। हमारे यूजलैस(अनुपयोगी) स्वार्थ ने जानवरों को यूजलैस (अनुपयोगी) कह दिया जिसका परिणाम है कि भारत आज मांस का व्यापार करने लगा।

     

    स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है, आज हम स्वतंत्र होकर भी समझ नहीं पाये हैं और न जाने कब समझेंगे? आज हमको पचास वर्ष हो रहे है स्वतंत्रता प्राप्त किये, लेकिन हम कहाँ देख रहे हैं और क्या समझ रहे हैं? पचास वर्ष के उपरांत भी हम यह समझ नहीं पाये कि अहिंसा क्या है यदि अहिंसा को समझ लेते तो मांस का निर्यात क्यों करते? कत्लखाने क्यों खोलते? यदि आपको अपने देश की रक्षा करना है, देश को बचाना है तो अपने अन्दर स्वाभिमान जागृत करो, अपने कर्तव्यों को समझो, अपने दायित्वों का पालन करो, अपने आप का बोध प्राप्त करो, निश्चित ही हमारे देश में एक ऐसा वातावरण तैयार होगा जो हिंसा के तूफान को रोक देगा। हिंसा को रोकने के लिए हमें किसी धन की आवश्यकता नहीं, हिंसा धन से रुकने वाली भी नहीं है क्योंकि हिंसा का स्रोत तो हमारा स्वार्थी मन है, झूठी प्रतिष्ठा है, सत्ता की लोलुपता है। हम अपने मन से स्वार्थ को निकाल दें, सत्ता की लम्पटता को छोड़ दें, हमारे विचारों को पवित्र बना लें हिंसा रुक जायेगी। विचारों में पवित्रता अहिंसा से ही आ सकती है, हिंसा से नहीं क्योंकि अहिंसा पवित्र है और हिंसा अपवित्र है।

     

    यदि भारत की पवित्र संस्कृति और सभ्यता को पवित्र रखना चाहते हो तो भारत से मांस का निर्यात बंद कर दो मांस बेचना भारतीय संस्कृति नहीं, बस। यही स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता है।

    Edited by admin


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    रतन लाल

      

    विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करो, स्वदेश से प्रेम करो

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