यह किसका है ? यह क्या है ? यह क्यों है ? किससे है ? कहाँ है ? इस प्रकार बाहरी पदार्थों के बारे में प्रश्न मत करो। इस प्रकार जो विचार श्रेणी बहिर्मुखी है, उसे अन्तर्मुखी करो।
भावना के माध्यम से अपना जो आत्मतत्व दूषित है, एक प्रकार से धूमिल है, हम उसे उज्ज्वलता/निर्मलता दे सकते हैं। कुछ दिन पहले एक शोधपरक लेख पढ़ रहा था। वहाँ पातंजलि भाष्य की प्रशंसा के रूप में एक श्लोक उपलब्ध हुआ। लगा इस श्लोक के तीन चरणों को, ज्यों का त्यों रखा जाए और अन्तिम चरण में पूज्यपाद स्वामी को याद कर लिया जाय। पातंजलि के नाम से वह श्लोक उपसंहार को प्राप्त हुआ है। वहाँ पर सुपूज्यपादं शिरसा नमोऽस्तु यह चरण जोड़कर के समस्या पूर्ति के भाव आ गये। क्योंकि पूज्यपाद स्वामी ने भी यही कार्य अपने जीवन में किया है। इस श्लोक में बहुत अच्छा भाव दिया गया है। आज प्रसंग शौच धर्म का है। मल कितने प्रकार के हैं ? किसकिस के माध्यम से वह मल दूर किया जा सकता है ? यह भाव ही तीन चरणों में है। उसमें प्रथम है-
शरीरस्य मल वैद्यकेन अपाकरोत्।
शरीर का मल रोग माना जाता है। वैसे आप नीर के माध्यम से स्नान कर लेते हैं। नीर के माध्यम से आप मुख शुद्धि कर लेते हैं। स्नान बाद में भी किया जा सकता है। किया क्या जा सकता है, आप करते ही हैं। मैंने आज तक कहीं देखा न पढ़ा, न ही सुना, संभव है आप पढ़े भी होंगे, सुने भी होंगे और देखे भी होंगे। पूछना चाहता हूँ आप लोगों से-सुबह उठते ही मुखशुद्धि के लिये पानी में मीठा मिला करके कुल्ला किया हो ? मीठा खाना चाहते हैं, तो मीठे के द्वारा ही मुखशुद्धि भी कर लें। लेकिन इसके विपरीत सुना, देखा, पढ़ा व आपने भी अनुभव किया होगा। और वह बहुत अच्छा लगा। नीम की जो दातौन होती है, उसे खूब चबा रहे हैं, खूब चबा रहे हैं। किन्तु एक बूंद भी भीतर नहीं जाती। फिर भी उसे खूब चबा रहे हैं। पूछा कि भैया मुखशुद्धि कर रहे हो या कड़वा कर रहे हो ? इसमें रहस्य छिपा हुआ है। भीतर की कड़वाहट को बाहर निकालने में वह सक्षम है। मीठे के पास तो वह गुण है जो मुख को कड़वा बना दे। और नीम के पास वह क्षमता है जो मुख को शुद्ध बना दे। आप लोगों के मुख मीठा खा-खाकर कड़वे हो गये हैं। इसलिए आप लोगों को मीठा नहीं खाना चाहिए।
शरीरस्य मलं वैद्यकेन
वैद्यक ग्रन्थों का निर्माण पूज्यपाद स्वामी ने किया। जिसके माध्यम से वे समस्त संसारी प्राणी जो आरोग्यमय बनाना चाहते हैं, जिसके अध्ययन करने से वैद्य लोगों का जीवन बना रहा और उनकी सेवा से यह निरोगता का अनुभव करता रहा। ऐसे पूज्यपाद को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। वाणी की भी अशुद्धि हुआ करती है। मुख की अशुद्धि अलग है एवं वाणी की अशुद्धि अलग है। वाणी की अशुद्धि दूर करने में भी सक्षम ऐसी पूज्यपाद की लेखनी व कृतियां हैं। व्याकरण की रचना करके उन्होंने बड़ा उपकार किया है। जैनेन्द्रव्याकरण इनकी मौलिक कृति मानी जाती है। इसकी विशेषतायें वैय्याकरण जानते हैं, शोध छात्र जानते हैं और उसको अवश्य ही कोड करने का प्रयास करते हैं। जैसे अभी पूर्व वत्ता, जो दक्षिण से पधारे हैं, ने कहा-कि यह दिगम्बर जैन समाज का दुर्भाग्य है कि दिगम्बर जैन समाज में ऐसे बड़े-बड़े आचार्य हुए हैं। किन्तु उनका प्रकाश आज के विज्ञान युग में नहीं आ पाया है। उन्होंने तो प्रकाशन करके रख दिया वर्षों पूर्व। जिन्होंने भवन का निर्माण कर दिया, महाप्रासाद खड़ा कर दिया है, यदि वर्षा के कारण ऊपर की कलई निकल जाती है, तब कर्तव्य होता है कि दीपावली या दशहरा या किसी अन्य त्यौहार के निमित्त से उसको पुनः ठीक किया जाये। यह हमारा दुर्भाग्य या प्रमाद समझो कि हम उसे इस रूप में लाकर समाज के सामने नहीं रख पाये।
उन्होंने हजारों वर्ष पहले जगत् में जैनेन्द्र व्याकरण की रचना कर आदर्श प्रस्तुत किया। उनकी जितनी भी कृतियां हैं, सभी मौलिक हैं। उनकी सर्वार्थसिद्धि नामक तत्वार्थसूत्र की टीका वर्तमान में आर्ष कृति मानी जाती है। उसको पढ़ने-सुनने से यह मन कभी भी संतोष को प्राप्त नहीं होता। अर्थात् कभी तृप्त नहीं होता। बार-बार उसको पढ़ने और उसके बारे में चिन्तन करने का, सोचने का मन करता है। और ऐसा लगता है कि उसकी गहराई बहुत है। वहाँ तक शायद ही हम जा पायेंगे। लेकिन जाने की भावना तो अवश्य रखना चाहिए। वह वाणी के मल को दूर करने में सक्षम है, ऐसे व्याकरणकार पूज्यपाद को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ।
इतने ही मल नहीं हुआ करते। तन के मल को दूर किया जा सकता है। वाणी के मल को दूर किया जा सकता है। लेकिन मानसिक मल भी है, जो बहुत कठिन हुआ करता है। उसके लिए साबुन सोड़ा कहाँ से लायें ? यह भी एक समस्या है, पर इस समस्या का हल आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने किया है।
योग के माध्यम से चित्त के मल को दूर करने में सक्षम ऐसे पूज्यपाद आचार्य को मैं बारबार नमस्कार करता हूँ। सुपूज्यपादं शिरसा नमोऽस्तु मैं उनके प्रति शिर झुकाकर यानि नतमस्तक हूँ। जिनकी कृतियों के अवलोकन करने से मालूम होता है कि इन कृतियों पर आचार्य कुन्दकुन्द का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। पूज्यपाद स्वामी की परिभाषाओं की पूरी की पूरी छवियाँ सब आचार्यों ने अनुकरण के रूप में रख रखी हैं। चाहे अवग्रह हो या अवाय। चाहे ईहा हो या धारणा। चाहे पर्याप्ति की परिभाषा हो। न्याय के भी कुछ ऐसे ही प्रसंग हैं। धवला जैसा महान् ग्रन्थ यद्यपि टीका ग्रन्थ माना जाता है, किन्तु उसमें राजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि को एक मूल सूत्र का ही रूप धारण करके अपनी टीका में इस ढंग से समाविष्ट कर दिया है, जैसे ताने-बाने के द्वारा वस्त्र का निर्माण होता है। ढूंढने से भी नहीं मिल पाते। ऐसे पूज्यपाद स्वामी ने मात्र इतना ही नहीं लिखा, उन्होंने और क्या लिखा है
योगेन चित्तस्य मलं अपाकरोत्
ऐसे अध्यात्म की रचना उन्होंने की है जो प्राकृत में तो नहीं, लेकिन संस्कृत में यूँ मानना चाहिए कि कुन्दकुन्द के बाद ऐसी अध्यात्म की रचना विरल उपलब्ध होती है। ऐसा कहते हैं-चित्त का मल क्या है ? उसको समझने का प्रयास करो। एक मात्र अध्यात्म ऐसा साधन है जिसके द्वारा चित्तगत सारा का सारा मल दूर हो जाता है। आप सागर के जल से भी शुचि करना चाहो तो शुद्ध न हो। सागर के जल को सारा का सारा हम अपने शरीर पर ले लें तो शरीर भले ही शुद्ध हो जाय, किन्तु हमारा चित्त कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता। अध्यात्मनिष्ठ पूज्यपाद स्वामी अपनी कृतियों में ऐसे (चुटकी बजाते हुए) योग के प्रत्यय, ध्यान के प्रत्यय, समाधि-साधना की पद्धति बताते चले जाते हैं। अनुष्टुप् श्लोक के रूप में बहुत सरलता के साथ गंभीर अर्थ को स्थापित करने का एक महान् प्रयास उनके द्वारा सम्पन्न हुआ है।
चित्त मल क्या है ? यह पहचानना ही कठिन है। और वह कहते हैं कि उसमें क्या बाधा है? वर्तमान में हम यह जो देख रहे हैं वह सारी की सारी चित्तगत मलिनतायें, अशुचितायें ही हैं।
स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार -१३
यह सूत्र तो रत्नकरण्डश्रावकाचार में दिया गया है। आज का युग शरीर को शुद्ध बनाने में क्या काम नहीं करता ? सारे के सारे काम कर रहा है। इस शरीर की निरोगता के लिये इतने सारे के सारे काम कर डाले। लेकिन इसका मूल स्रोत क्या है ? चित्त है। उसकी ओर देखने का प्रयास नहीं किया। वैज्ञानिकों ने इस बात को स्वीकार कर लिया है, कि मन की चिकित्सा पहले अनिवार्य है, तन की चिकित्सा करें, न भी करें तो चल सकता है। मन की चिकित्सा करने में आचार्यों का जो योगदान मिला, उसका वर्णन शायद ही हम कर सकें। हमें वह कार्य नहीं करना चिकित्सा का। लेकिन उस चिकित्सा को मन में उतारने का काम करना है। हम वैद्यक कार्य करने में सक्षम तो नहीं, लेकिन हम उसका अनुसरण तो कर सकते हैं। यानि उनका प्रयोग हम अपने जीवन में कर सकते हैं। पूज्यपाद स्वामी अनेक स्थानों पर आत्मा की बात सहज रूप में लिख जाते हैं कि हम जिसको समझ भी नहीं पाते।
किमिदं कीदृशं कस्य कस्मात्क्वे त्यविशेषयन्।
स्वदेहमपि नावैति योगी योगपरायण:॥
(इष्टोपदेश-४२)
जैसे वक्ता ने कहा- जैनदर्शन में मैं को भूलने के लिए कहा गया है। और जैनदर्शन में मैं को पहचानने के लिए भी कहा गया है। दोनों बातें हैं। ख्याति, पूजा का जहाँ पर प्रसंग आ जाता है, वहाँ तो मैं को भूलने के लिए कहा है। और एक बार जब मैं को भुला दिया तब बाद में यह पूछना आवश्यक हो जाता है कि- मैं कौन हूँ ? दूसरे के सामने जब मैं को भूलेंगे, तभी सेवा हो सकती है। तभी दूसरों के गुणों को हम पहचान सकते हैं। तभी दोष-गुण के बारे में छानबीन कर सकते हैं। यदि मैं रहेगा तो सारा का सारा कार्यक्रम ठप हो सकता है। उनकी यह दृष्टि बहुत अच्छी लगी। लेकिन अब उनको यह चाहिए कि मैं कौन हूँ ? यह पहचाना जाए। मैं को भुलाने से बहुत बड़ा काम हो सकता है।
मैं कौन हूँ ? यह जानकर, जैनदर्शन क्या है ? इसको प्रस्तुत करना है। और पूर्वाचार्यों के द्वारा जो बड़े-बड़े उपकार हुए हैं, उनको हम इसी ढंग से, उस भार को थोड़ा-सा कम कर सकते हैं। यह हमारा दायित्व है। संसार में सबसे बड़ा कार्य है दायित्व को अपने हाथ में लेना। कोई व्यक्ति उपदेश देता है, उस उपदेश के अनुसार चलना, यह विशेष दायित्व नहीं माना जाता। यह कर्तव्य है। लेकिन दायित्व रूप कर्तव्य यह सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। जिसके पास तन की, मन की, वचन की, क्षमता होती है, स्व व पर का जिसे अर्थबोध हुआ है, उनका यह कर्तव्य व दायित्व होता है कि आगे बढ़कर/आकर जिनको इसका परिचय नहीं है, उनको परिचय करायें।
गुफा में रहकर हमारे आचार्यों ने आत्मानुभूति करली। ध्यान लगाया और ध्यान के प्रत्ययों को कम्पोज्ड कर दिया। वह जीवन कैसा है ? क्या है ? किस प्रकार का है ? किसका है ? कहाँ से है ? क्यों है ? कहाँ पर है ? सांसारिक विषयों से यदि ऊपर उठना चाहते हो, तो इस प्रकार की जिज्ञासायें होनी चाहिए। एक तरफ वैज्ञानिक युग है जो जिज्ञासा को प्रमुख बनाकर चलता है। आज व्यक्ति जिस किसी भी पदार्थ के बारे में, जितने प्रश्न खड़ा कर देगा वह पदार्थ उतनी लाइट में आ जायेगा। इसलिए ध्यान रहे युगों-युगों बीत गये इसके द्वारा आज तक कुछ हासिल नहीं हुआ। और हो भी नहीं सकता। समुद्र मंथन हुआ, सागर मंथन के बाद भी नवनीत का वह लाभ नहीं हुआ। और हो भी नहीं सकता। जिसका मंथन करना आवश्यक है वह नहीं करते।
क्या नीर के मंथन से नवनीत पाते।
नवनीत के लाभ के लिये दही का मंथन आवश्यक है। दूध के मंथन से नवनीत की प्राप्ति नहीं होती। यह ध्यान रखिये, आज का युग नवनीत का लाभ नहीं लेता। लोनी रूप घी का लाभ लेता है। लेकिन लोनी आज प्राप्त नहीं होती। लोनी के लिये कुछ चक्कर है, और चक्कर के लिये फुरसत है ही नहीं, इस युग को। वह सीधा निकालना चाहता है। घी कच्चा होता है। इसलिए माइण्ड के ऊपर उसका प्रभाव नहीं पड़ रहा है। कच्चा घी पाचक नहीं हुआ करता। कच्चे घी से दीपक नहीं जलाये जा सकते। कच्चा घी नासिका को सुगन्ध नहीं पहुँचाता है। कच्चा घी माइण्ड को कच्चा ही रखता है। वह पक्का नहीं बना सकता।
नवनीत की मालिश कर दें तो वह भीतर नहीं जाता। अग्निपरीक्षा के बिना घी भीतर प्रविष्ट नहीं होता। और सात चमड़ियों को पार करने की क्षमता, जैसे बड़े-बड़े बनियों के पास सात समुद्रों को पार करने की क्षमता रहती है, उसी प्रकार उस घी के पास रहती है। और किसी भी तेल के पास यह हिम्मत नहीं कि वह भीतर पहुँच जाये। घी पतला माना जाता है। वह अग्नि से साक्षात्कार करके आया है। अत: भीतर हड़ी तक पहुँच जाता है। वह मल का संशोधन कर लेता है। आचार्यों ने तपस्या के माध्यम से हमें ऐसे सूत्र दिये हैं जो घृतवान हैं। वे हमारे जीवन को पूरा का पूरा संशोधित कर देते हैं। भीतरी विकार को बाहर निकालकर फेंक देते हैं। और उसकी एक चम्मच भी दस रोटी के साथ तुल सकती हैं। दस रोटी के माध्यम से जो शक्ति आ सकती है वह एक छटाक भर से आ सकती है। वह कहता है बड़ी काया को लेकर क्यों बैठे हो, हमारे सामने ? छोटी काया वाला व्यक्ति भी बहुत बड़े-बड़े काम कर सकता है, यह ध्यान रखना चाहिए। यह एक ही पर्याप्त है। इतना ही आप लोगों को सोचना चाहिए कि ज्यादा मेहनत न करके ही बड़ा कार्य हो जाय, सफलता जल्दी मिले, इस ओर दृष्टि करना चाहिए। उसके लिये आचार्यों ने ऐसे-ऐसे सूत्र दिये हैं, जिन सूत्रों के माध्यम से एक घंटा चिन्तन करके ही वर्षों की पढ़ाई, अध्ययन, विशेष साहित्य के अवलोकन या सपरिग्रही होकर साहित्य का अम्बार पढ़ने से अधिक है। एक सूत्र को उठा लीजिये, पूरा का पूरा जीवन ही आह्वादित हो जाएगा। ध्यान अपने आप ही लग जाता है। ध्यान के सूत्र को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं। सूत्र बहुत ही अधिक अर्थ को लिए हुए रहते हैं।
यह किसका है ? यह क्या है ? यह क्यों है ? किससे है ? कहाँ है ? इस प्रकार बाहरी पदार्थों के बारे में प्रश्न मत करो। इस प्रकार जो विचार श्रेणी बहिर्मुखी है, उसे अन्तर्मुखी करो। एकाग्र मन हो आप सुन रहे हैं। बाहर क्या हो रहा है ? आजू-बाजू में क्या हो रहा है ? पीछे क्या हो रहा है ? ज्ञान होते हुए भी उस ओर का सम्बन्ध टूट गया है। एक दायित्व ऐसा भी जरूरी है। पूर्वाचार्यों ने हम लोगों के लिये क्या दिया है ? व्यक्ति यह समझना नहीं चाहता। और दीर्घकाल का जीवन यों ही खो देता है। तो पूज्यपाद का नाम लेने से कोई भी प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं। उन्होंने यूँ कहा कि इसका प्रयोग करो अपने आप ही स्वदेहमपि न जानाति अपने शरीर को भी नहीं देखना, नहीं जानना और शरीर को जानने से, देखने से छानबीन करने से आत्मा भुलावे में आ गई।
आज का विज्ञान पर को विषय बनाता है। उसमें ही शोध करता है और सम्यग्ज्ञान पर को विषय बनाना छुड़ा देता है। उसका शोध तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि उसका शोध किसी भी प्रकार से हमारे जीवन की उन्नति का कारण नहीं है। और यदि स्व का शोध होता है तो वहाँ पर संस्कृत में मैं नहीं कहा जाता। अपितु अहम् कहा जाता है। संस्कृत में अहम् तो कहा जाता है, लेकिन पूज्यपाद कहते हैं- अहंकार से दूर रहना। विज्ञान इस अहम् का, जिसको शरीर भी बोलते हैं, तो ज्ञान करा देता है। लेकिन रोग की जड़ शरीर नहीं अहंकार है, को भुलावे में नहीं ला सकता ।
बड़े-बड़े चोटी के विद्वान्, विदेश में तो चोटी के विद्वान् नहीं होते, लेकिन फिर भी कहने में आता है, वह कभी स्व को विषय नहीं बनाते। अपने ऊपर प्रयोग करने की एकमात्र पद्धति है तो वह दिगम्बर आचार्यों की है। जब तक अपने ऊपर प्रयोग नहीं किया जा सकता, तब तक तनगत, मनगत और वचनगत मल को दूर नहीं किया जा सकता। जिसके मन, वचन, काय शुद्ध नहीं है, वह युग को कभी भी शुद्धि का बोध या उपदेश नहीं दे सकता। स्वयं तो मलीन है और दूसरे के लिये वह निर्मलता का बोध करा दे, यह बात कैसे हो सकती है ?
आज का युग शोध का युग माना जाता है। सब व्यक्ति शोध-शोध करके रख रहे हैं। समझ में नहीं आता वस्तु क्या है ? वस्तु का धर्म क्या है ? मैं कौन हूँ? मेरा कर्तव्य क्या है ? इतना ही बोध नहीं हुआ और हमने वर्षों जीवन यापन किया। यह तैल, नोन, लकड़ी की बात युगों-युगों से आयी है। इसकी कोई आवश्यकता नहीं। अर्थ विकास के लिये कोई विशेष मेहनत, पुरुषार्थ और पसीना बहाने की कोई आवश्यकता नहीं। किन्तु निरोग बनने के लिए तन से, मन से और वचन से कुछ बातें सोचना अभी और आवश्यक है। जिस व्यक्ति का मन शुद्ध नहीं है, वह व्यक्ति वचन कितने भी शुद्ध बोले, वस्त्र कितने भी साफ रखे और वस्त्रों को और साफ भी कर ले, तो भी उसका मन साफ नहीं हो सकता। तृप्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। तृप्ति का शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता।
जो स्नान नहीं भी करते, वे मन शुद्ध होने के कारण हमेशा-हमेशा शुद्ध तत्व का अनुभव होने के कारण, अपने आप में शुचिता का अनुभव करते हैं। तन को शुद्ध कर ही नहीं सकते। यहे भी एक सूत्र दिया गया है |
यह रत्नकरण्डकश्रावकाचार की यह कारिका है। कैसा अंग है ? कई लोगों की यह धारणा है, वह स्त्रियों से बचने के लिए कहा गया है। नहीं, जिस-जिसने अनंग को धारण कर लिया है, उस उससे बचने के लिए कहा गया है। महिलाओं के लिए यह बात है तो पुरुषों के लिए भी है। मल योनि, मलबीजं यह अंग मल की योनि है। यह मल का बीज है। बीज बोने से मल ही पैदा होगा। क्योंकि यह शरीर मल का बीज है। मल को बहाता है। गल्न्मलं पूति यह घिनावना है। बीभत्सं यह देखने लायक नहीं है। अरे! उस व्यक्ति को देखने से ऐसा लगता है कि बहुत बीभत्स रूप देखकर आया हूँ। अरे! व्यक्ति को देखकर नहीं। यह पंचेन्द्रिय के विषय देखकर सोची। विरमति अंग से विराम लेता है। ऐसा कहा जा रहा है। कोई भी मानव है, ऐसा कहा जा रहा है। अंग को आप भोग बना रहे हैं, यह गलत है।
हमने मूकमाटी में कुछ ऐसे शब्दों को लेकर के चिन्तन करने का प्रयास किया है। उसमें सामने एक अंगना को रखा है। अंगना अर्थात् स्त्री या महिला। अंगना यह शब्द स्वयं बता रहा है-अंग ना। मुझे तुम अंग के रूप में देख रहे हो। सोची, विचार करो। मैं अंग नहीं। अंग से हटकर अन्तरंग में भी जाने का प्रयास करो। मेरी आत्मा और तुम्हारी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। जो अनादि से आत्म तत्व चला आ रहा है, हमारा भी वही है और तुम्हारा भी वही। चाहे एकेन्द्रिय हो या पंचेन्द्रिय। चाहे नारकी हो चाहे देव। चाहे मनुष्य हो या तिर्यच। महिला हो या पुरुष। पुरुष कहने से आत्म तत्व का बोध होता है। जीव और पुद्गल यह जैनदर्शन के अन्तर्गत कहा जाता है। और सांख्यदर्शन में प्रकृति और पुरुष कहा जाता है।
आज के युग में कुछ ऐसे-ऐसे शोध होते चले गये, जिसके परिणाम स्वरूप किसी ने व्यवहार को पकड़ा, किसी ने निश्चय को पकड़ा, किसी ने नीति को पकड़ा, किसी ने पुरुषार्थ को पकड़ा। महाराज, आपका इसके बारे में क्या आशय है, अभिप्राय है ? मैं सुनना चाहता हूँ। किसके बारे में? नीति के बारे में। अच्छी बात है, हम नीति को बता देते हैं आपके सामने। पसंद आ जाय तो रख लो, नहीं तो नहीं। नि अर्थात् निश्चय इति अर्थात् विश्राम या प्रयत्न इसी का नाम नीति है। महाराज! आपने सारा का सारा घुमा दिया हम लोगों को। आप घूमते क्यों हो ? सुनो, यही निश्चय बात है, अपने में ही पुरुषार्थ हो सकता है। पर द्रव्य के ऊपर पुरुषार्थ करना हमारे वश की बात नहीं। विज्ञान स्व को विषय बनाना नहीं चाहता, और पर के ऊपर ही प्रयोग करता है। प्रत्येक रोग का निदान पर के ऊपर प्रयोग करके होता है। कहा जाता है-अनुभूत दवाई है टी.वी. की। डायबिटीज की दवाई भी अनुभूत है। क्षय की दवाई भी अनुभूत है। और कोई भी रोग है उन सबकी दवाई भी अनुभूत है। अनुभूत कैसे ? कौन सा भूत आ गया ? अनुभूत का अर्थ क्या होता है ? रिलाइज। कैसे रिलाइज हो सकता है ? कुछ समझ में नहीं आता। दूसरे का अनुभव आप कैसे कर सकते हैं ? इसका का नाम युग है। कब तक चलता है ? जब तक पेट्रोल है, जब तक चल रहा है। स्वयं के ऊपर प्रयोग करेंगे तभी ज्ञान होगा।
जैनाचार्यों ने पर के ऊपर प्रयोग करने को नहीं कहा। स्वयं के ऊपर प्रयोग करने को कहा है। प्रकृति के इस बोध को ले लो। गर्मी को भी ले लो। सर्दी को भी ले लो। और वर्षा को भी ले लो। सूर्य प्रकाश को भी ले लो। सबको ले लो। सारे के सारे तत्व प्रकृति में है। प्रकृतिकृत हैं। यह भी प्रकृति है कि हमारे आत्मा में ये कभी भी प्रविष्ट नहीं होंगे। और प्रकृति से जैसे-जैसे हम परिचित होते चले जायेंगे, वैसे वैसे रोगों का आना बंद हो जायेगा।
पूज्यपाद स्वामी कहते हैं-मन में जो राग आया है, मन में जो मल पैदा हुआ है, बाहर से पैदा नहीं हुआ, यह ध्यान रखना। वह अपना ही परिणमन है। यदि बाहर से आया हेाता तो खाली हो सकता है। यदि कहीं से आया हो तो वह पदार्थ भी खाली हो गया होगा।
द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः॥
तत्त्वार्थसूत्र – ५/४१
कल सामने आने वाला है। शायद राग, द्वेष, मद व मत्सर बाहर को निमित्त बनाने से आते हैं। यह हमारे दिमाग की फितूरी है। भ्रमणा है। यह हमारी उल्टी चाल है। उस राग-द्वेष-मोह को उस पदार्थ के निमित्त से यदि पैदा कर दिया तो ध्यान रखना, कर्ता का महत्व हुआ करता है, कर्म का नहीं। कर्ता हमेशा स्वतन्त्र हुआ करता है। कर्म हमेशा कर्ता के अधीन हुआ करता है। यदि कर्ता चाहे तो कर्म का निर्माण कर सकता है, नहीं तो नहीं। कर्म यह नहीं कह सकता कि मुझे पैदा कर दो। स्वतन्त्र सत्ता का अनुभव निमित-उपादान का चिन्तन-मनन वहाँ बैठकर करते थे, जहाँ कोई कालेज नहीं, यूनिवर्सिटी नहीं, अध्यापक नहीं, स्पीकर नहीं, यह नहीं, वह नहीं। आज एक-एक वाक्य के ऊपर बड़े-बड़े चोटी के विद्वान् शोध करते बैठे हैं। फिर भी पूरा नहीं हो रहा है। ऐसा जैन साहित्य आप लोगों के लिए उपलब्ध है। जैनाचार्यों की यह कृपा है।
जिनवाणी का अध्ययन करने से मैं कौन हूँ ? पर क्या है ? मेरा क्या है ? मुक्ति क्या है ? पाप क्या है ? पुण्य क्या है ? भला क्या है ? बुरा क्या है ? मैं क्या कर सकता हूँ ? इन सब बातों का विश्लेषण अर्थात् अकार से हकार पर्यन्त वर्णन मिलता है। अर्थात् सब कुछ अच्छी तरह मिलता है। अ से लेकर ह तक कोई नहीं कहता, जबकि बात एक ही है। अ से लेकर ह तक कहने में एक विशेष बात आ जाती है। पूज्यपाद स्वामी कहते हैं अहम् का ज्ञान हो जाता है। और ए टू जेड कहने से अहंकार आ सकता है। कितना अन्तर है ? कितना समझा आपने ? स्व का ज्ञान हुआ, तो पर का ज्ञान निश्चित हो जाता है। य एक जानाति स: सर्व जानाति जो एक को जान लेता है वह सबको जानता है। क्योंकि एक के बिना सब का अस्तित्व ज्ञात नहीं हो सकता। जैसे-जैसे एक के सामने शून्य रखते चले जाओ, संख्या बढ़ती चली जाती है। एक को हटा दो तो शून्य का कोई महत्व नहीं। उसका मूल्य एक मात्र जीरो में आ जाता है। स्व के ज्ञान के अभाव में पर को आप कितना भी जानते चले जाओ, संख्या के अभाव में संख्या न कहके अंक कह दो तो बहुत अच्छा होगा, अंक के अभाव में शून्य का कोई महत्व नहीं। इसी प्रकार स्व के अभाव में पर का कोई महत्व नहीं।
प्रत्येक पदार्थ पर आज मूल्य लिखा जाता हे। लेकिन मूल्यांकन करने वालों का मूल्य सुनने व देखने में नहीं आता। स्वर्णकार का महत्व नहीं, स्वर्ण का महत्व है। यही एकमात्र हम लोगों का अज्ञान माना जाता है। अपने पदार्थ का ज्ञान तब तक नहीं होता, जब तक कि बाहरी पदार्थों को विषय बनाता है।
बात समझ में नहीं आई। क्या उपयोगी है ? मान लो किसी पुस्तक के ऊपर लिखा हुआ है-पाँच सौ रुपये। अर्थात् पुस्तक का मूल्य पाँच सौ रुपये है। यहाँ तुम्हारे समय की कोई कीमत नहीं। पाँच सौ रुपये की कीमत वाली किताब तुम पढ़ोगे। मान लो उसे पढ़ने में एक माह लग गया, तो एक माह को ही आपने पाँच सौ रुपये के पीछे समाप्त कर दिया। यहीं सबसे ज्यादा सावधान होना चाहिए। आप लोगों को मुफ्त में जो साहित्य मिलता है, उसे वैसे ही रख देना चाहिए। वह थोड़ी सी कीमत खर्च करके आपके पास जो मौलिक समय है उसको खरीद रहा है। आपके विचारों को दूषित बनाने के लिए ऐसा कोई भी साहित्य दिया जा सकता है। प्रवचन और स्वाध्याय तो कुछ प्रतिशत में प्रभावी होते हैं। जबकि सस्ते साहित्य का मन के ऊपर प्रभाव अधिक व शीघ्र होता है। इसीलिये आचार्यों ने कहा-क्या पढ़ना चाहिए ? कब पढ्ना चाहिए ? कितना पढ़ना चाहिए ? जिसको पढ़ने से आनन्द का अनुभव हो उसे ही पढ़ना चाहिए। आनन्द का अभाव हो, तो चाहे समयसार पढो, प्रवचनसार या पंचास्तिकाय, कोई अर्थ नहीं। आनन्द का अनुभव दिमाग से, अपनी चेतना से हुआ करता है।
प्रयास करना चाहिए खाते जायें, खाते जायें तो क्या पुष्टि हो जायेगी। ऐसा नहीं, फिर दवाई भी खानी पड़ेगी। एक बार या दो बार भोजन किया जाता है। इसका तात्पर्य यह कि, शब्द से अर्थ व अर्थ से भाव की ओर यात्रा का प्रयास हम कर सकते हैं। सत्साहित्य का अवलोकन करने से ही हमें यह उपलब्ध हो सकता है। हमारी जो दूषित मानसिकता है, उसको सत्साहित्य के माध्यम से परिमार्जित किया जा सकता है। हम राग को, द्वेष को, कषाय को, मद को व मात्सर्य को अज्ञान के कारण करते आ रहे हैं। उसका परिमार्जन सत्साहित्य के द्वारा ही हो सकता है। आचार्यों के माध्यम से ही हमें जिनवाणी उपलब्ध हो पा रही है।
समय आपका हो गया है। आज शौच धर्म है। शुचिता प्राप्त करना है। पाँच बज गये हैं। पाँच मिनट और ले सकता हूँ। पाँच-पाँच घंटे भी ले लें तो भी मन की शुचिता होने वाली नहीं है। उसका प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। हमें उस मन को साफ-सुथरा बनाने के लिए क्या करना चाहिए ? स्वयं का स्वभाव ज्ञात करना आवश्यक है। राग करना मेरा स्वभाव नहीं है। और राग के द्वारा लाभ क्या है ? हानि क्या है ? यह देखने का प्रयास करना चाहिए। राग करने से हमें कोई लाभ नहीं। हमें कोई उपलब्धि होने वाली नहीं। उससे हानि क्या है ? लाभ क्या है ? यह देखना चाहिए। वैश्य-वृत्ति जब तक हम नहीं अपनायेंगे तब तक हमारी दुकान चलने वाली नहीं। हानि-लाभ पहले सोचना चाहिए। बच्चों को यदि सिखाओ कौन सा ज्यादा है, कौन सा कम है, तो अपने आप कहने लगते हैं-ये मत लो, ये ले लो।
दो मिनट का उदाहरण दे देता हूँ। जीवन के अन्त तक अनुभव करता रहता है वह बालक। छोटा बालक रेंगता रहता है, अपनी कलाई के माध्यम से, पेट से, पीठ से सरकता-सरकता आगे जाता है। दीपक रखा है, मना करने के उपरान्त भी हाथ से छू लेता है। माँ ने कई बार मना किया था। बेटा, दूर से देख लेना, छूना नहीं। छूना नहीं, छूना नहीं। संकेतों के माध्यम से समझा दिया जाता है। इसका अर्थ पकड़ना नहीं। अग्नि का ज्ञान कराया जा रहा है, और अग्नि सामने दिख रही है। बहुत अच्छा लग रहा है, ऊपर तक जल रही है, बहुत ही अच्छी लग रही है। लेकिन कोई भी बूढ़ा व्यक्ति उसे कभी नहीं छुयेगा। वह वृद्ध है और वह बालक है। बालक को देखने में तो आ रहा है लेकिन बालक को अनुभव नहीं। वृद्ध ने अनुभव कर लिया। जिस समय वह बालक था अंगुली जल गई थी। पहले की जली हुई है और दाग है। उसी अंगुली द्वारा माँ कह रही है, संकेत कर रही है, पर वह मानता नहीं। और उसको पकड़ लेता है। और तब उं उं उं करने लग जाता है। माँ कहती है-पकड़ ले, और पकड़ ले। दीपक उठाकर के पकड़ ले, पकड़ ले। लेकिन अब वह दूर भागता है। दूर करो। अर्थात् प्रकाश के द्वारा काम लेना चाहिए। दीपक का उपयोग यही है। अन्यथा उसके बारे में रिसर्च करने का कोई भी प्रयोजन नहीं। दीपक से प्रयोजन हम भी यही जान सकते हैं, जो वह तीन साल का लड़का जानता है।
तीन साल में जो कोई भी संस्कार डाले जाते हैं माता-पिता, भाई-बहिन गुरुओं के माध्यम से, वह जब तक वृद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त नहीं होता, तब तक के लिये जीवित रहते हैं। ऐसे संस्कारों के दिनों में पढ़ा, पला हुआ आपका जीवन है। किन्तु अर्थ का चक्कर ऐसा चक्कर हो गया जो विदेश के साथ भी सम्बन्ध रखने लगा। विदेश से भी अन्यत्र जाने का प्रयास कर रहा है। भारत में जो है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं। ऐसा होते हुए भी देश का बहुमान बहुत कम हो गया है। विदेश जायें, लेकिन देश की चीजें/संस्कार देकर के आयें। देशी चीज अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। अपने देश का कोई ज्ञान नहीं है। क्या देश की कोई संस्कृति नहीं है ? क्या देश का कोई मूल्य नहीं है ? इसमें क्या कमी है ? किस बात की कमी है? वह देश क्या ? स्वदेश तो आत्मतत्व है। किसकी कमी है। किसकी कमी है आत्मतत्व में ? पूरी की पूरी भरी हुई है। दुनियाँ में क्या है ? इसे दिखाने की क्षमता आत्मतत्व में है। उस कर्ता के पास है। उस उपभोक्ता के पास है। उस स्वामी के पास है। किन्तु वह बहुत पास होने के कारण दूर की ओर बालकवत् जाता है। बालक को आज, कल या मरते वक्त अनुभव आता है। यदि मनुष्य जीवन में प्रयोजनभूत तत्व के मंथन के लिये कुछ क्षण उपलब्ध नहीं होते हैं, तो यही हुआ जैसे सागर से निकलकर आये गंगोत्री में और गंगोत्री से बंगाल सागर में। इस यात्रा का क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? कुछ नहीं। इस प्रकार दीर्घकाल को भी आप गवां देते हैं, अर्थ के पीछे।
मेरा तो यह कहना है कि स्वाध्याय करना बड़ा कठिन है। लोग स्वाध्याय कर रहे हैं। लेकिन फिर भी स्वाध्याय करते हुए भी २०-२२ घंटे अर्थ उपार्जन को दे रहे हैं। उनसे हमारा निवेदन है कि वे पूरा का पूरा समय इस ओर देने का प्रयास करें। उनके द्वारा बहुत बड़ा काम हो सकता है। एक तो तैयार हो गये हैं। वह क्यों हो गये हैं ? यह तो वही जाने। पर तैयार हो तो गये हैं। लेकिन उनके साथ-साथ अभी जो आद्य वक्तव्य दे रहे थे। बड़े-बड़े विशेषणों के साथ विशेष्य का वर्णन किया जा रहा था। उनसे भी हमारा कहना है-वह किसी के कहने को मानते तो हैं नहीं, और मैं भी जानता हूँ। वे माने या न माने लेकिन कहने से सभा में थोड़ा-सा प्रभाव तो पड़ ही जायेगा। आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज जब थे, तब से वह हैं। बहुत पुराने आसामी हैं। तब से शास्त्र स्वाध्याय करते हैं। इस स्वाध्याय के अलावा जो दैनंदिनी कार्य कर रहे हैं, उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं आ रही है। यदि आ रही है तो बहुत अच्छी बात है। महाराज ही कहते-कहते चले गये। मैं ब्रह्मचर्य अवस्था में था, उस समय वे कहते थे। अब मैं कह रहा हूँ। आज उनको अपना समय उस कार्य को छोड़कर इसमें लगाना चाहिए। हम स्व का कल्याण तो करते ही हैं। लेकिन उसके साथ और भी दस-बीस व्यक्तियों का जीवन सुधर जाता है, मुड़ जाता है, तो यह श्रेय आपको ही मिलेगा। हमें देना भी नहीं। कम से कम इस लाभ से तो आपको वंचित नहीं रहना चाहिए। वैसे तो सेठ वही माना जाता है जो अपनी दुकान को बहुत बढ़िया चलाना जानता है। जितनी पर की दुकान अच्छी चलेगी, उतनी ही हमारी दुकान भी अच्छी चलेगी। इस नीति को नहीं भूलना चाहिए। एक से, एक सौ एक तक बनाना चाहिए। ग्यारह से एक नहीं। जैन धर्म की प्रभावना तो होगी ही।
भावना के माध्यम से अपना जो आत्मतत्व दूषित है, इस प्रकार से धूमिल है, हम उसे उज्ज्वलता/निर्मलता दे सकते हैं। इन्हीं भावों के साथ शौचधर्म की जय हो.