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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • समागम 7 - दर्प का दर्पण

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    सामने विशाल दर्पण है, वह दर्पण साफ-सुथरा है और उसमें देखा जा रहा है। बार-बार देखा जा रहा है। अपने आपको सजाया जा रहा है। रूप निखर जाय इसकी कोशिश चल रही है। बार-बार कंघी की जा रही है। अपने उन धुंघराले, काले बालों को वह रूप दिया जा रहा है जो प्रत्येक व्यक्ति की आँख का आकर्षण केन्द्र बन जाय। वह अपने अलंकार, अपने आभूषण देखता जा रहा है। बारबार सजाया जा रहा है। एक आभूषण अच्छा नहीं लगता तो दूसरा आभूषण लगाया जाता है। आभूषण में परिवर्तन, अलंकार में परिवर्तन और आकार-प्रकार में निखार लाने का प्रयास चल रहा है। वह व्यक्ति ऐसा एकाग्र हो गया है। अच्छा लग रहा है। बहुत अच्छा लग रहा है। मन में भाव उठ रहा है और उसी में तृप्ति की अनुभूति हो रही है। इसी बीच उस रूप के साथ एक दूसरा रूप टकराता है और एक रूप है और एक कुरूप है। स्वरूप की ओर दृष्टिपात न होने से कुरूप से अपने को बचा रहा है। रूप को निखारा जा रहा है। रूप में से जो रस निकलता है उसको चूसना है। वह उस रूप रस का कूप बना हुआ है। कुरूप में रस नहीं है। उसको दूर करना चाहता है। लेकिन करे कैसे? नहीं चाहते हुए भी कुरूप देखने में आ गया। ज्यों ही कुरूप देखने में आ गया त्योंही रंग में भंग हो गया। वह सब किरकिरा हो गया। अब क्या करें कौन आया है? कैसे आया है? कहाँ से आया है? क्यों आया है? कैसा रूप था? कहाँ चला गया? यह सुन्दर शरीर ऐसा कैसे हो गया? एड़ी से लेकर चोटी तक कोढ़ की दुर्गन्ध बहने लगी। जिस शरीर से पहले सुगन्धी बहती थी। जिस रूप को देखने के लिये विश्व तरसता था और स्वयं भी तृप्ति का अनुभव करता था। प्रिय का परिवर्तन हो गया है और वहाँ पर कोढ़ वह रहा है जिसकी ओर कोई भी देखने की इच्छा नहीं करता। और इसी दशा में उसका अवसान हो जाता है। उस कुरूपकर्म का अवसान नहीं हुआ किन्तु जीवन का अवसान हो गया। अभी तो उस कर्म की प्रारम्भिक दशा है। रूप राशि की धनी कुरूपता की गठरी बाँध कर मर जाती है। सर्वप्रथम वह कुत्ती के रूप में जन्म लेती है। काम पुरुषार्थ के फलस्वरूप गर्भवती हो जाती है। सन्तानों की रक्षा के लिये कुत्ती एक स्थान में सुरक्षा ढूँढ़ लेती है और वहाँ पर रहती है और जब बच्चों को जन्म देती है उसी समय किसी के कारण वह स्थान आग की चपेट में आ जाता है। उसी आग में वह कुत्ती अपने बच्चों सहित समाप्त हो जाती है। मरकर वह सूकरी बन जाती है। यही दशा उसकी वहाँ भी हो जाती है। इस प्रकार जन्म-मरण करते-करते अन्त में उस घर में कन्या के रूप में जन्मती है जहाँ पर कोई जाना-आना नहीं चाहता है। जहाँ मछलियों की गन्ध आती है वहाँ पर उसका जन्म हो जाता है। जिस दुर्गन्ध में पूरा परिवार रहता है किन्तु ज्यों ही इस कन्या का जन्म होता है त्यों ही दुर्गन्ध असहनीय हो जाती है अत: परिवार कहता है कि हम इसके साथ नहीं रह सकते। इसका नाम रखा गया दुर्गन्धा या उसको पूती गन्धा कहो। उसको गाँव से बहुत दूर एक स्थान दिया जाता है। जिस स्थान से हवा भी जल्दी न आ सके। दुर्गन्धा नाम सुनते ही लोग नाक को बंद करना चाहते हैं। अकृतपुण्य का अर्थ यही है, कृत पाप जिन्होंने पाप ही पाप किया है और उस पाप के परिपाक मैं उसे यह पर्याय मिली। वह दुर्गन्धा अपना जीवनयापन कर रही थी, पापकर्म को भोग रही थी और वहीं पर एक व्यक्ति को देखा उसने। अरे इनका कैसा जीवन है? ये स्नान नहीं करते हैं। कपड़े भी नहीं पहनते, कोई रूप संवारते नहीं किसी रूप की ओर इनका आकर्षण नहीं। न गन्ध की ओर आकर्षण है, न रूप की ओर आकर्षण है। न खाने की बात, न दिखाने की बात है। भेष तो सामान्य है लेकिन ओज और तेज विशेष है लेकिन रूप नहीं सँवारते हुए भी इनका रूप देखो कैसा है। इस बात पर वह सोचने लगी। सर्दी का समय था। जब दिन अस्त हुआ, रात ज्यों ही चालू हुई तो देखती है कि ये रात में भी ऐसे ही रहते हैं। ऐसे व्यक्तित्व से वह प्रभावित हो गई और चरणों में वन्दना कर निवेदन किया कि आप महान् हैं। मुझे कुछ उपदेश दीजिये। इस प्रकार उस महान् व्यक्तित्व ने उसे समझाने का प्रयास किया जो एक दिगम्बर साधु था। उस दुर्गन्धा को समझाने का प्रयास किया। दुख की मारी थी अत: एक बार में ही समझती चली गई।


    महाराज ने कहा-तीन-चार भव के पहले तू जिस रूप में थी उस रूप और इस रूप की तुलना कर ले। उसको एकदम जातिस्मरण हो जाता है। जो अतीत में थी स्मरण में वे पूर्वभव उभर के आ जाते हैं। एक सूकरी का जन्म, एक कुत्ती का जन्म और एक गधी का। एक जन्म में अप्सरास्वरूप नारी दर्पण में मुख देखती हुई दिखती है। दुर्गन्धा आश्चर्यचकित रह गई कि चार भव पूर्व मेरा यह सौन्दर्य था। बाद में ऐसी घृणित पर्यायें। महाराज से पूछती है भगवन् ऐसा परिवर्तन क्यों हुआ? तब महाराज कहते हैं चौथे भव को ध्यान से देख। तू अपने रूपमद में डूबी हुई दर्पण देख रही थी। उसी समय मेरे जैसा नग्न साधु वहाँ से चर्या के लिए निकल रहा था उनका प्रतिबिम्ब दर्पण में पड़ गया। उसे देख तू घृणा से भर गई। उनके प्रति तूने अपशब्द कहे, जिसके परिणामस्वरूप यह तेरी दुर्दशा हुई है।


    देखिये वही रूप आज भी उस नारी के सामने है लेकिन मन में घृणाभाव नहीं बल्कि आदर भाव है। आज का रूप स्वरूप की ओर ले जा रहा है। पहले वह रूप कुरूपता की ओर ले जा रहा था। उस समय वही मुद्रा थी जिस समय उसके दर्पण में (Reflected) हुए थे। लेकिन आकर्षण का केन्द्र दर्पण में अपनापन था। वही मुद्रा आज है। आज दर्पण में नहीं किन्तु आज उनके चरणों में/ अर्पण में है आकर्षण। यह दुर्गन्धा की पर्याय बहुत अच्छी है। क्योंकि इस पर्याय से सुगन्धी की ओर जाने का एक रास्ता मिल रहा है। दुनियाँ भिखारी इसलिए हो रही है कि भविष्य की चिन्ता है सबको। कई लोग आ करके कहते हैं महाराज हमारा भविष्य क्या होगा? कई लोग आ करके पूछते हैं, महाराज, भारत का भविष्य क्या होगा? महाराज विश्व का क्या होने वाला है? महाराज मेरा आगे क्या होने वाला है? होगा क्या? जैनाचायों ने भविष्य के माध्यम से सम्यग्दर्शन का स्त्रोत नहीं बताया। कल्पना का विषय भविष्य बनता है किन्तु अतीत भविष्य का नहीं। वह प्रकृति में आई हुई एक घटना है। सामने आ जाये तो चौंक जायेंगे। चिन्तन का विषय मिलता है कि ऐसा क्यों हुआ? कारण ढूँढ़ये, इसमें कौन क्या निमित है? क्यों पलट गया? इस प्रकार अतीत पर चिन्तन करने से अपने आप ही अपने उपादान के बारे में आपको जानकारी मिलेगी। बन्धुओ! अतीत हमारा क्या रहा? महावीर भगवान् अभी वर्तमान में हैं। उनका अतीत क्या था ऋषभ भगवान् वर्तमान में हैं उनके अतीत में क्या था? यह दुर्गन्धा। इसका अतीत क्या था? वह रूप लावण्य उसका अतीत था। अतीत गर्त नहीं है। वह एक सिलसिला है। परम्परा कहते ही हमारा उपयोग चला जाता है इतिहास की ओर।


    (English) में भविष्य के लिए क्रिया पद का प्रयोग किया जाता है तो (Will) लगाया जाता है (Shall) लगाया जाता है। किन्तु बहुत का प्रयोग जब कर लेते हैं, तो (Perfect) पूर्णता का द्योतक हो जाता है। और पूर्णता की ओर हमारा उपयोग जाता है तो निश्चत रूप से रहस्य खुलता चला जाता है। हमें आनन्द चाहिए लेकिन सुख मिलेगा (Perfect) में। सुख का स्रोत क्या है हमें मालूम होगा। किसका स्रोत क्या है, भविष्य नहीं बता सकता। वर्तमान बता सकता है, जब हम होश-हवास में हों। जिस समय बहुत अच्छा रूप था, जो चमड़ी का था, उस रूप की मदहोशी में स्वरूप की ओर जिनकी गति है ऐसे स्वरूपनिष्ठ को देखकर उसे घृणा का भाव जागृत हुआ। निन्दा के भाव आ गये। ऐसा मन में आया कि ये मेरा रूप लावण्य, इसके सामने ये क्या नंग-धडंग रूप आ गया। इस प्रकार का परिणाम होते ही कर्म बिगड़ गया। रहस्य खुलता चला गया। मुनि महाराज ने कहा तुम अपने स्वरूप को देखो, यह रूप तो कई बार मिला और कई बार चला गया, ये रूप तुम्हारा नहीं, ये एकमात्र पर्याय है। यह स्थाई नहीं, पुण्य पाप फल माहिं हरख विलखी मत भाई। यह पुद्गल परजाय उपजि विनसै थिर थाई। आगे क्या पर्याय मिलेगी इसकी कोई चिन्ता मत करो। आशा मत करो। पहले क्या थी, यह देख लो और यह ध्यान रखो, पहले की अपेक्षा हम विकास की ओर हैं या नहीं। अतीत को देखेंगे, वर्तमान नजर आयेगा। देखते चले जाइये आप, अतीत के माध्यम से तुलना कीजिये। परम्परा अनन्त है। इस परम्परा का अन्त हो सकता है या नहीं? हो सकता है। कैसे होगा? स्वरूपनिष्ठ बनो रूपनिष्ठ नहीं। मुनि महाराज की ये बातें अमृत तुल्य प्रतीत हुई तो उस दुर्गन्धा ने व्रत ले लिये। उसका अब भविष्य देख लीजिये जब उसने श्राविका के व्रत लिये। सम्भवत: आर्यिका के व्रत लिये थे। वहाँ से उस पर्याय को पूर्ण करके उस दुर्गन्धा ने मरण कर रुक्मिणी के रूप में जन्म लिया जो कृष्ण की पटरानी बनी। व्रतों का प्रभाव देख लीजिये। क्या रूप था, बीच में क्या हुआ, अब क्या होगा, जिसके पेट से प्रद्युम्न को जन्म होता है। जो मोक्षगामी था। पतन हुआ तो क्यों हुआ था? उसकी पर्याय दृष्टि हो गयी थी अत: वह पर्यायों में उलझती चली गयी। फिसलती चली गयी। उसका परिणाम यह निकला।


    हर एक का इतिहास ऐसा ही कुछ है। इससे हम अपने आपको अलग नहीं कर सकते। ऐसा मानकर अपने जीवन को धर्ममय बनाओ, सुख-दुख में समता रखो। ज्ञानी न सुख से आकृष्ट होता है न कभी दुख से दूर भागना चाहता है। उन्हें केवल जानता रहता है। वह दुर्गन्धा सोचती है घर वालों ने मुझे निकाला, बहुत बड़ा उपकार किया। यदि घर में रखते तो घर में घुल मिल जाती। तब इस स्वरूप का कभी बोध ही नहीं होता। जब जागे तब सबेरा। लहर उठती है। हवा का निमित्त पाकर सरोवर में उठती और उसी सरोवर में समाप्ती भी चली जाती है। लगता है रहस्य है। लेकिन यथार्थ का पता चलने पर ज्ञात होता है कि यह इसका स्वभाव है। इसी प्रकार अपने द्रव्य में भी ऐसी पर्यायें निकलती हैं। आखिर ये क्या हैं? सोचना प्रारम्भ कर दीजिये। पर्यायें उत्पन्न होती हैं और समा जाती हैं तथा उस पर्याय को उत्पन्न करने वाले की ओर भी दृष्टिपात करिये तो अपने आप ही पता चल जायेगा कि वस्तुत: क्या रहस्य है। बार-बार समझायें तो भी समझने वाली बात नहीं है। समझाने की बात भी नहीं है। जब भी आप चाहेंगे तब ही यह रहस्य खुल सकता है। नहीं तो हमेशा यह रहस्य, रहस्य ही बना रहेगा। क्योंकि प्रश्न आपका है तो आनन्द भी आपको आने वाला है। पक्ष बनाकर में उसका उत्तर देने का प्रयास भी कर लें तो भी आनन्द आने वाला नहीं है। दुर्गन्धा का रहस्य खुल गया। जिस निमित्त को देखकर घृणा का भाव आया था आज उसी निमित्त के प्रति आदर भाव आ रहा है। दुर्गन्धा ने मुनिराज के उपदेश को हृदय में धारण किया तथा अणुव्रतों को धारण किया और समतापूर्वक जीवनयापन करने लगी। मिथ्या परम्परा को छोड़कर सम्यक् परम्परा में प्रवेश पा लिया। परम्परा एक महत्वपूर्ण शब्द है। परम्परा में दो शब्द हैं। शब्द की व्याख्या करके मैं समाप्त कर रहा हूँ। यह भी एक रविवार की परम्परा है। ‘परम्' का अर्थ होता है संस्कृत में उत्कृष्ट 'परा' यानि एक पराकोटि। अंतिम स्टेज। उसका नाम भी उत्कृष्ट है। जहाँ पर डबल उत्कृष्ट है उसका नाम परम्परा है। तो इस परम्परा में आप नहाते चले जाओ। रविवारीय परम्परा यहाँ पर चालू हुई है। यहाँ पर कितने रविवार निकल गये यह तो परम्परा की बात है। क्योंकि महाराज की यह परम्परा है। रविवार के दिन प्रवचन होता है और रविवार को आना आपकी परम्परा है। आपको जाना है। मुझे भी यहाँ से विहार करना है। आना और जाना यह परम्परा है। परम्परा में दुनियाँ डूबी हुई है। यह भी ध्यान रखना, कोई भी व्यक्ति इस परम्परा को तोड़ना नहीं चाहता और इस परम्परा से हटकर हम काम करेंगे यह भी एक परम्परा है। हे परम्परा, तुम्हारी शरण मैं चाहता हूँकिन्तु कौन-सी परम्परा? जो उत्कृष्ट परम्परा है। उस परम्परा में हमें जाना चाहिए लेकिन परम्परा को छोड़ना नहीं चाहिए। दो परम्परायें हैं-एक नई परम्परा और एक पुरानी परम्परा। एक नई पीढ़ी और एक पुरानी पीढ़ी, कौन-सी पीढ़ी को आप चाहते हो? हम तो (Science) की पीढ़ी को चाहते हैं। इसके-लिए (Silence) होना अनिवार्य है। लेकिन (Science) को जानना भी एक परम्परा है। विज्ञान की परम्परा भी अपनी परम्परा है। और अज्ञान की भी परम्परा है। दोनों परम्पराओं में कहाँ तक मेल है। इसको जानकर हमको किसी एक परम्परा में चलना है। उत्कर्षता की ओर जाना ही सही-सही परम्परा मानी जाती है। और जिस परम्परा की शरण में हमारा इतिहास हमेशा-हमेशा दुखपूर्ण रहा उस परम्परा से हमको हटना है। अब हटना और नहीं हटना, ये हमारे ऊपर निर्भर है। इसके लिये कोई भी परम्परा दोषी नहीं है। क्योंकि ज्ञान का जब तक हमने प्रयोग नहीं किया तब तक हम परम्परा के ऊपर दोषारोपण करते रहे, किन्तु वस्तुत: परम्परा कोई भी दोषारोपण के योग्य नहीं, क्योंकि एक अज्ञान की धारा और दूसरी ज्ञान की धारा है। दोनों के लिये परम्परा शब्द लगे हुए हैं। बन्धुओ! मैं कहना चाहता हूँ-परम्परा का कोई अन्त नहीं होता है। लेकिन परम्परा का परिवर्तन अवश्य हो जाता है। यह परिवर्तन ही आज के वक्तव्य का आशय है। उस दुर्गन्धीपने से और सुगन्धीपने से जो कुछ भी परम्परा चल रही थी उससे हटकर ज्ञान जागृत हुआ। दुर्गन्धा की परम्परा बदलकर सम्यक्र हो गई और आगे उसका अपने आप में भविष्य उज्ज्वल होता चला गया। जो व्यक्ति अपने भविष्य को उन्नत करना चाहता है उसे भी अपनी मिथ्या परम्परा को छोड़कर सम्यक्र परम्परा की शरण में आना चाहिए।


    ॥ अहिंसा परमोधर्मः॥
     

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    रतन लाल

      

    जो व्यक्ति अपने भविष्य को उन्नत करना चाहता है उसे भी अपनी मिथ्या परम्परा को छोड़कर सम्यक्र परम्परा की शरण में आना चाहिए।

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