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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 19 - छल कपट से जल्दी निपट

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    जो सीधे होते हैं वे ही सीझते हैं यानि वे अपनी आत्मा का कल्याण कर लेते हैं। जो व्यक्ति सीधे नहीं है वे कभी सुलझ नहीं सकते क्योंकि उल्टा व्यक्ति अपने स्वभाव की पहिचान नहीं कर सकता। हमारे लिए टेढ़ापन खतरनाक है, टेढ़ापन तेरापन नहीं है। जो व्यक्ति साध्य को प्राप्त कर लेता है वह पूज्य बन जाता है, पूज्य बनने के लिए पूजा करवाने की आवश्यकता नहीं पूज्य बनने के लिये उद्देश्य को बनाने की आवश्यकता है। आर्जव यानि सीधापन कथन का विषय नहीं यह तो यतन यानि चारित्र अपनाने का विषय होना चाहिए जब तक हम टेढ़ापन को नहीं छोड़ते हमारे जीवन में सीधापन आ ही नहीं सकता। जीवन में जानना, मानना, अनुभूति इन तीनों में अनुभूति ही महत्वपूर्ण है। जानना शब्दों के माध्यम से होता है, मानना आस्था के माध्यम से होता है जबकि अनुभव चेतना से होता है, शब्द सो आस्था नहीं, शब्द सो अनुभव नहीं।

     

    जीवन में भावों की महत्ता होती है। भावों के बिना सब व्यर्थ है, हम यदि भावपूर्वक अपना कार्य करते हैं तो उसकी सफलता होती है। हम धर्म करें, भावपूर्वक करें, माला-जाप करें भाव पूर्वक करें, पूजा करें भावपूर्वक करें, भावपूर्वक करना ही अच्छा है। जीवन को समझो परिग्रह को समझो, परिग्रह पीड़ादायी होता है जिस प्रकार भोजन करते समय श्वांस नली में अनाज का एक दाना भी चला जाता है तो हमको ठसका लग जाता है उसी प्रकार मोक्षमार्ग में परिग्रह का एक कण भी क्यों न हो उसका ठसका लगता है। परिग्रह से बचो। परिग्रह के कारण हम अपनी साधना को भूल जाते हैं परिग्रह हमारे लिए अभिशाप है। परिग्रह ही वस्तुत: सही शनिश्चर है। इस परिग्रह रूपी शनिश्चर से बचो।

     

    सीधापन को पाने के लिए भूत और भविष्य को भूलना पड़ता है। हम भविष्य में जीते हैं, अतीत में जीते हैं। वर्तमान को भूले रहते हैं। सबको भूलो, वर्तमान ही याद रखो, वर्तमान ही वर्द्धमान होता है। वर्तमान को सीधा रखो, भविष्य अपने आप उज्ज्वल बन जायेगा। हमारा जीवन आस्था, जिज्ञासा और भरोसा में ही गुजरता रहता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि आशा हमको निराशा ही देती है फिर भी हम आशा को पहिचान नहीं पाते। वस्तु को कालों में मत बांटिए क्योंकि वस्तु का परिणमन कालातीत होता है। हमको काल की ओर दृष्टि न डालकर वस्तु की ओर दृष्टिपात करना चाहिए अन्यथा हम आत्मा को नहीं समझ सकते।

     

    सीधेपन में ही आनन्द है। टेढ़ेपन में तो मात्र दुख और तकलीफ है। भगवान् और आप में इतना ही अन्तर है कि भगवान् नाशा पर दृष्टि रखते हैं और आप आशा पर। आप आशा करते हैं और प्रतीक्षा करते हैं, लगता तो ऐसा है कि हम वर्तमान में बैठे हैं लेकिन हम आशा और प्रतीक्षा के कारण अतीत और भविष्य में जीते रहते हैं। बाण की गति यदि टेढ़ी हो तो वह बाण अपने निशाने तक पहुँच नहीं सकता इसी प्रकार जब तक हमारी दृष्टि टेढ़ी रहेगी हम अपने लक्ष्य के निशाने तक पहुँच नहीं सकते। यदि हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचना है तो हमको सबसे पहले दृष्टि की वक्रता को छोड़ना होगा। अपने स्वभाव को जानी। गाय भले काली हो लेकिन उसका दूध काला नहीं होता। उसी प्रकार यह आत्मा विभाव भावों के कारण टेढ़ी हो रही है लेकिन उसका स्वभाव तो टेढ़ा नहीं है। हाथ टेढ़ा हो, पैर टेढ़ा हो लेकिन आत्मा तो टेढ़ी नहीं होती, उसका स्वभाव तो सीधा है, हमारे विचारों के कारण ही यह आत्मा टेढ़ी हो रही है।

     

    लोहे की रॉड को सीधा करने के लिए गरम करना पड़ता है यानि उसको मुलायम करना पड़ता है, लोहे को मुलायम बनाने के लिए उसको अग्नि में तपाना पड़ता है बिना तपे लोहा मुलायम नहीं बनता इसी प्रकार जीवन को मुलायम बनाने के लिए बहुत तपस्या करना पड़ेगी। साधना अपनाये बिना जीवन का विकास सम्भव नहीं है, जीवन का विकास आत्म साधना के माध्यम से ही हो सकता है और वह साधना क्या है? सीधापन ही जीवन की साधना है, हमारे पास जो वक्रता है, टेढ़ापन है उसका विमोचन ही जीवन की साधना है। तुम भी इस सीधेपन की साधना करो।

     

    छल-कपट मत करो, छल-कपट करना आत्मा का स्वभाव नहीं है अपितु छल कपट को भूल जाना ही आत्मा का स्वभाव है। छल-कपट से बचना बहुत बड़ा पुरुषार्थ है, बहुत बड़ी साधना है। हमारा जीवन नीचे गिर जाता है क्योंकि हमारी दृष्टि नीचे गिर जाती है। पहले हमारी दृष्टि गिरती है फिर बाद में हम गिरते है। कदमों का गिरना कोई गिरना नहीं है जो अपने चरित्र से गिर गया वस्तुत: वह पतित हो गया इसलिए अपने चारित्र की उज्ज्वलता के लिए अपनी दृष्टि को सीधा रखें यानि पवित्र रखें दृष्टि की पवित्रता ही जीवन की पवित्रता का मार्ग है और यही महानता का मार्ग है।

    Edited by admin


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