ब्रह्मचर्य से अर्थ वस्तुत:, सही-सही मायने में है- चेतन का भोग। ब्रह्मचर्य का अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं है, भोग के साथ एकीकरण और रोग-निवृत्ति है। जड़ के पीछे पड़ा हुआ व्यक्ति, चेतन द्रव्य होते हुए भी जड़ माना जायेगा। जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य आत्मा नहीं है वह गुलाम है। बोध की चरम सीमा होने के उपरान्त ही शोध हुआ करता है। उस बोध को ही शोध समझ लें तो गलत है और आज यही गलती हो रही है। शोध का अर्थ है - अनुभूति होना।
मणिमय मन हर निज अनुभव से, झग-झग झग-झग करती है,
तमो - रजो अरु सतो गुणों के, गण को क्षण में हरती है।
समय – समय पर समयसार मय, चिन्मय निज ध्रुव मणिका को,
नमता मम निर्मम मस्तक तज, मृणमय जड़मय मणिका को ||
(निजामृतपान)
धर्म प्रेमी बन्धुओ! भगवान् महावीर ने जो सूत्र हमें दिये, उनमें पाँच सूत्र प्रमुख हैं, उनमें से चौथा सूत्र है ब्रह्मचर्य जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पतित से पावन बनने का यह एक अवसर है। यदि हम इस सूत्र का आलम्बन लेते हैं तो अपने आपको पवित्र बना सकते हैं। ब्रह्मचर्य की व्याख्या आप लोगों के लिए नई नहीं है, किन्तु पुरानी होते हुए भी उसमें नयेपन के दर्शन अवश्य मिलेंगे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है-अपनी परोन्मुखी उपयोग धारा को स्व की ओर मोड़ना, बहिर्दूष्टि-अन्तर्दूष्टि बन जाये, बाहरी पथ-अन्तर पथ बन जाये। बहिर्जगत् शून्य हो जाये, अन्तर्जगत् का उद्धाटन हो। यह ध्यान रहे कि ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्तुत: सही-सही मायने में है - 'चेतन का भोग।' ब्रह्मचर्य का अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं, भोग के साथ एकीकरण और रोग निवृत्ति है। जिसको आप लोगों ने भोग समझ रखा है वह है रोग का मूल और ब्रह्मचर्य है जीवन का एकमात्र स्त्रोत।
दस साल विगत प्राचीन बात है, एक विदेशी आया था, वह कह रहा था कि ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना कठिन है, आप इसे न अपनायें क्योंकि आज के जितने भी वैज्ञानिक हैं उन सबने यह सिद्ध किया है कि भोग के बिना जीवन नहीं है। मैंने भी उन्हें यही समझाया कि भोग जहाँ पर है वहीं पर तो मैं रोग समझता हूँ। आपके भोग का केन्द्र भौतिक सामग्री है और मेरे भोग की सामग्री बनेगी ‘चैतन्य शक्ति'।
विषय वासना मृत्यु का कारण है, मृत्यु दुख है, दुख का कूप है और ब्रह्मचर्य जीवन है, आनन्द है, सुख का कूप है। आप सुख चाहते हैं, दुख से निवृत्ति चाहते हैं तो चाहे आज अपनायें, चाहे कल अपनायें, कभी भी अपनायें किन्तु आपको अपनाना यही होगा। रोग की निवृत्ति के लिए औषधपान परमावश्यक होता है। बिना औषधपान के रोग ठीक नहीं हो सकेगा।
भगवान् महावीर ने जो चौथा सूत्र ब्रह्मचर्य का दिया है वह बहुत महत्वपूर्ण है, अपने में पूर्ण है। आज तक जितने भी अनन्त सुख के भोक्ता बने हैं उन सबने इसका समादर किया है और जीवन में अपनाया है, अपने जीवन में इसको स्थान दिया है, मुख्य सिंहासन पर विराजमान कराया है इसे, भोग-सामग्री को नहीं। ब्रह्मचर्य पूज्य बना किन्तु भोग सामग्री आज तक पूज्य नहीं बनी। हाँ ब्रह्मचर्य पूज्य तो आपकी दृष्टि में भी बना किन्तु पूजा तो भोग-सामग्री की हो रही है आप लोगों के द्वारा, यह एक दयनीय बात है, दुख की बात है। जैन साहित्य या अन्य कोई दार्शनिक-साहित्य देखने से विदित होता है कि आत्मा को सही-सही रास्ता तभी मिल सकता है जब कि हम उस साहित्य का अध्ययन, मनन, चिन्तन व मन्थन करें। हम मात्र उसे सुनते हैं। सुनने से पहले यह सोचना होगा कि हम क्यों सुन रहे हैं ? दवाई लेने से पूर्व हम यह निर्णय अवश्य करते हैं कि दवा क्यों ली जाये? एक घंटे यदि श्रवण करते हैं तो मैं समझता हूँ कि इसके लिए कम से कम आठ घन्टे चिन्तन-मननमन्थन आवश्यक है। मैं कैसे खिलाऊँ। आप लोगों को कैसे पिलाऊँ आप लोगों को, जबकि आप लोगों की पाचन की ओर दृष्टि ही नहीं है। वह पचेगा नहीं तो दुबारा खिलाना ही बेकार चला जायेगा। उस खाये हुए अन्न को मात्र विष्ठा नहीं बनाना है, उसमें से सारभूत तत्व को अपनी जठराग्नि के माध्यम से पकड़ना है। जठराग्नि ही नहीं तो फिर क्या होगा? संग्रहणी के रोगी को जैसे होता है कि ऊपर से डालते हैं वह वैसे ही निकल जाता है, उसी प्रकार आपकी स्थिति है। पर फिर भी कुछ गुंजाइश है, जठराग्नि कुछ उत्तेजित हो जाये और कुछ हजम हो जाये तो ठीक ही है।
उपयोग की धारा को बाहर से अन्दर की ओर लाना है, तभी ब्रह्मचर्य व्रत पालन हो सकता है अथवा यूँ कहिये कि उपयोग की धारा जिस पदार्थ में अटक रही है उस पदार्थ से वह स्थानान्तरित (Transfer) हो जाये और गहराई तक उतरने लग जाये। चाहे अपनी आत्मा में भी जाये, चाहे दूसरे की आत्मा में भी जाये पर उपयोग को खुराक मिलनी चाहिए ‘आत्मतत्व' की, जड़ नहीं अपितु चैतन्य की! जहाँ पर बहुत सारी निधियाँ हैं, बहुत सारी संख्या बिछी हुई है। वह सम्पदा उस उपयोग की खुराक बन सकती है, सही-सही मायने में वही खुराक है और इसके लिए हमारे आचार्यों ने ब्रह्मचर्य व्रत पर जोर दिया है, क्योंकि उस आत्मा को एक बार तृप्त करना है जो अनादिकाल से तप्त है।
ब्रह्मचर्य का विरोधी धर्म है ‘काम’, इस काम के ऊपर विजय प्राप्त करनी है। यह काम और कोई चीज नहीं है, ध्यान रखिये वही उपयोग है जो कि बहिवृत्ति को अपनाता जा रहा है उसी का नाम है काम। वही उपयोग, जो कि भौतिक सामग्री में अटका हुआ है, वही काम है महाकाम है, यह अग्नि अनादिकाल से जला रही है उस आत्मा को। कामाग्नि बुझे और आत्मा शांत हो। उस कामाग्नि को बुझाने में दुनियाँ का कोई पदार्थ समर्थ नहीं है, बल्कि यह ध्यान रहे कि उस कामाग्नि को प्रदीप्त करने के लिए भौतिक सामग्री घासलेट-तेल का काम करती है। आपको यह आग बुझानी है, या उदीप्त करनी है ? नहीं, नहीं! बुझानी है, ये चारों ओर जो लपटें धधक रही हैं उसमें से अपने को निकालना है और वहाँ पर पहुँचना है जहाँ चारों ओर लपटें आ रही हैं शान्ति की, आनन्द की, सुख की। हम यहाँ एक समय के लिए भी आनन्द की श्वास नहीं ले रहे हैं। ऐसे दीर्घ श्वास तो निकल रहे हैं जो कि दुख के, परिश्रम के प्रतीक हैं श्वाँस की गति अवरूद्ध नहीं है, चल रही है, अनाहत चल रही है किन्तु आनन्द के साथ नहीं क्योंकि मृत्यु की स्मृति या मृत्यु का वार्तालाप भी सुनते ही हृदय की गति में परिवर्तन आ जाता है और विषय की, वासनाओं की जो लहर चल रही है उसमें आप रात दिन आपाद कण्ठलीन हैं, उसी का परिणाम दुख के साथ श्वास है, सुख के साथ नहीं।
इस काम के ऊपर विजय प्राप्त करना है अर्थात् अपने बाहर की ओर जा रहे उपयोग को जो कि भौतिक सामग्री में अटक रहा है उसे आत्मा में लगाना है। आत्मा में नहीं लगा पाते इसीलिए कामाग्नि धधक रही है।
काम पुरुषार्थ का उल्लेख मिलता है भारतीय साहित्य में। कई लोगों की इस काम-पुरुषार्थ के बारे में यह दृष्टि रह सकती है कि काम-पुरुषार्थ का अर्थ भोग है, पर लौकिक नहीं चैतन्य का। सही-सही मायने में वह काम-पुरुषार्थ से ही मोक्ष-पुरुषार्थ की ओर जाना है। वह काम-पुरुषार्थ की ओर देखते हुए, उसका अध्ययन करते हुए क्या मोक्ष-पुरुषार्थ में जा सकता है क्योंकि वहाँ से जाने का कोई रास्ता नहीं है? लेकिन काम-पुरुषार्थ का अर्थ बाह्य वातावरण में घूमते रहना ही नहीं लेना चाहिए, काम-पुरुषार्थ का अर्थ ही है गहरे उतरना। काम+पुरुष+अर्थ, इन तीन शब्दों के योग से ‘काम-पुरुषार्थ' यह पद निष्पन्न हुआ है। काम-पुरुष-अर्थ, काम अर्थात् भोग, पुरुष अर्थात् प्रयोजन। पुरुष के लिए काम आवश्यक है, पुरुष के दर्शन के लिए नितान्त आवश्यक है, इसके बिना वहाँ पहुँच नहीं सकते हम। अर्थात् चैतन्य भोग के बिना हम आत्मा तक पहुँच ही नहीं सकते। पहुँचना वहीं पर हैं-पुरुष तक पहुँचने के लिए यह काम (चैतन्य भोग) सहायक तत्व है। आप लोग अटकने वाला गुलाम होता है। आप तो गुलाम हैं आप मानो या न मानो, क्योंकि जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य पुरुष (आत्मा) नहीं है वह गुलाम तो है ही। जड़ के पीछे पड़ा हुआ व्यक्ति चेतन द्रव्य होते हुए भी जड़ माना जायेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है और जो लक्ष्य से पतित हैं वे भटके हुए माने जायेंगे इसमें कोई सन्देह नहीं है।
काम-पुरुषार्थ से धीरे-धीरे उन्नत करने के लिये यह भारतीय आचार संहिता है जो कि विवाह के ऊपर जोर देता है। कई लोगों की दृष्टि हो सकती है कि विवाह अर्थात् ब्रह्मचर्य से स्खलित करना, किन्तु नहीं! ब्रह्मचर्य के और निकट जाना है यह शार्टकट है, घुमावदार रास्ता है वहाँ पर जाने के लिये, क्योंकि विवाह की डोरी में बंधने के बाद वह आत्मा फिर चारों ओर से अपने आप को छुड़ा लेता है और उस डोरी के माध्यम से वह आत्मा तक पहुँचने का प्रयास करता है। कोई किसी बहाव को देश से देशान्तर ले जाना चाहते हैं तो उसे रास्ता देना होगा तभी वह बहाव वहाँ तक पहुँच पायेगा अन्यथा बह मरुभूमि में समाप्त हो जायेगा। आप लोगों का उपयोग भी आज तक पुरुष के पास इसलिये नहीं पहुँच रहा है कि इस तक बहने के लिये कोई रास्ता आपके पास नहीं है और अनन्तों में जब बह बहने लग जाता है तो वह उपयोग सूख जाता है क्योंकि छद्मस्थों का ही तो उपयोग है। उस उपयोग के लिये, उस झरने के लिये कुछ रास्ता आवश्यक है, अनन्तों से वह रास्ता बन्द हो जाता है। इसके लिये सही-सही रास्ता आवश्यक है और वही है काम, वही है असली विवाह, जिसके माध्यम से वह वहाँ तक जा सके। आपने विवाह के बारे में सोचा है कुछ आज तक? जहाँ तक मैं समझता हूँ इस सभा में ऐसा कोई भी नहीं होगा जो विवाह से परिचित न होगा, लेकिन विवाह के उपरान्त भी वह पुरुष (आत्मा) के पास गया नहीं, इसलिए विवाह केवल एक रुढ़िवाद रह गया है।
विवाह से अर्थ काम-पुरुषार्थ है और यह आवश्यक है, किन्तु इस विवाह के दो रास्ते हैं एक गृहस्थ आश्रम सम्बन्धी व दूसरा मुनि आश्रम सम्बन्धी। आप लोगों ने उचित यही समझा कि गृहस्थाश्रम का विवाह ही अच्छा है। अनन्त भोग सामग्रियों से आपको मुक्ति मिलनी चाहिए थी किन्तु नहीं मिल पाई। जिस समय विवाह-संस्कार होता है उस समय उस उपयोगवान आत्मा में संकल्प दिया जाता है पंडितजी के माध्यम से कि अब तुम्हारे लिये संसार में जो स्त्रियाँ हैं वे सब माँ बहिन और पुत्री के समान हैं। आपके लिए एकमात्र रास्ता है, इसके माध्यम से चैतन्य तक पहुँचने का। प्रयोगशाला में एक विज्ञान का विद्यार्थी जाता है, प्रयोग करना प्रारम्भ करता है जिस पर प्रयोग किया जाता है उसकी दृष्टि उसी में रुक जाती है और वह अपने आपको भूल जाता है पासपड़ोस को तो भूल ही जाता है, स्वयं को भी भूल जाता है। एकमात्र उपयोग काम करता है तब वह विज्ञान का विद्यार्थी सफलता प्राप्त करता है, प्रयोग सिद्ध कर लेता है प्रेक्टीकल के माध्यम से वह विश्वास को दृढ़ बना लेता है ऐसी ही प्रयोगशाला है विवाह। विवाह का अर्थ है दो विज्ञान के विद्यार्थी पति और पत्नि। पत्नी के लिये प्रयोगशाला है पति और पति के लिये प्रयोगशाला है पत्नी, पत्नी का शरीर नहीं आत्मा! यह ध्यान रहे कि वे ऊपर से स्त्री व पुरुष हैं पर अन्दर से दोनों पुरुष हैं (अर्थात् आत्मा हैं)। स्त्रियाँ भी पुरुष के पास जा रही हैं और पुरुष भी पुरुष के पास जा रहे हैं। दोनों पुरुष हैं पर ऊपर स्त्री पुरुष के वेद के भेद हैं। किन्तु वेद के भेद ही वहाँ पर अभेद के रूप में परिणत हो रहे हैं और अभेद की यात्रा प्रारम्भ हो रही है, यह है विवाह की पृष्ठ-भूमि! अभी तक आप लोगों ने विवाह तो किया होगा पर पति सोचता है पत्नी मेरे लिये भोग-सामग्री है और पत्नी सोचती है कि पुरुष-पति मेरे लिये भोग-सामग्री है, बस इतना ही समझकर ग्रन्थि बन जाती है, विवाह हो जाता है बंधन में बंध जाते हैं, इसलिये आनन्द नहीं आता। इसीलिये जैसे-जैसे भौतिक कायायें सूखने लगती हैं, बेल सूखने लगती है, समाप्त प्राय: होने लग जाती है तो दोनों एक दूसरे के लिये घृणा के पात्र बन जाते हैं। पति से पत्नी की नहीं बनती और पत्नी से पति की नहीं बनती और बस बीच में दीवार खिंच जाती है। वह तो लोक नाता है जिसे निभाते चले जाते हैं निभता नहीं निभाना पड़ता है क्योंकि अग्नि के समक्ष संकल्प किया था।
दो बैल थे, वे एक गाड़ी में जोत दिये गये। एक किसान गाड़ी को हांकने लगा। एक बैल पूर्व की ओर जाता है तो एक बैल पश्चिम की ओर, बस परेशानी हो जाती है। बैलों को तो पसीना आता ही है, किसान को भी पसीना आना प्रारम्भ हो जाता, वह सोचता है कि अब गाड़ी आगे नहीं चल पायेगी। यही स्थिति गृहस्थाश्रम की है। आप लोगों का रथ प्राय: ऐसा ही हो जाता है। पत्नी एक तरफ खींच रही है तो पति दूसरी ओर, अन्दर का आत्मा सोच रहा है कि यह क्या मामला हो रहा हैं ?
आप लोग आदर्श विवाह तो करना चाहते हैं दहेज से परहेज करने के लिए किन्तु आदर्श विवाह के माध्यम से अपने जीवन को आदर्श नहीं बना पाये। इसलिए आपका वह आदर्श विवाह एकमात्र आर्थिक विकास के लिए कारण बन सकता है किन्तु पारमार्थिक विकास के लिए कारण नहीं बनता।
आदर्श विवाह था राम और सीता का। दोनों ने किस प्रकार उस विवाह के माध्यम से, डोरी के माध्यम से, सम्बन्ध के माध्यम से अपने जीवन को सफलीभूत बनाया। आपको याद रहे कि वह सीता भोग सामग्री थी राम के लिए, राम भोग सामग्री थे सीता के लिए। पर उनकी दृष्टि में अनन्त जो सामग्री बिछी थी चारों ओर वह भोग सामग्री नहीं थी, उस प्रयोगशाला में जो कोई भी पदार्थ इधर-उधर बिखरा हुआ है, विद्यार्थी को उनका कोई ध्यान नहीं रहता उसी प्रकार उन्हें बाहर की वस्तुओं से कोई मतलब नहीं था। उनकी यात्रा अनाहत चल रही थी। इसी बीच हजारों स्त्रियों के साथ जीने वाला रावण, एक भूमिगोचरी सीता के ऊपर दृष्टिपात करता है किन्तु सीता की आत्मा के ऊपर दृष्टिपात नहीं करता, सीता की आत्मा तक उसकी दृष्टि नहीं पहुँचती अपितु गोरी-गोरी उस काया की माया में डूब जाता है और अपने जीवन को भी वह धो देता है। यह ध्यान रहे कि उसकी दृष्टि सीता की आत्मा तक पहुँच जाती तो उसे अवश्य मार्ग मिल जाता, उसका जीवन सुधर जाता। सीता की चर्या के माध्यम से राम का जीवन सुधरा और राम के जीवन के माध्यम से सीता का जीवन सुधरा। वे एक दूसरे के पूरक थे। जैसे कि राह में दो विद्यार्थी परस्पर एक दूसरे के सहयोग से चलते जाते हैं, गिरते नहीं हैं। इस प्रकार वे दोनों भी चले जा रहे थे। इधर-उधर उपयोग न भटके इसलिए दृढ़ निश्चय करके एक ही विषय में दो विद्यार्थी जुटे हुए थे, वे राम और सीता। ज्यों ही रावण बीच में आया, तो राम सोचते हैं कि इसके लिए यहाँ पर स्थान नहीं है, हमारे जीवन के बीच में कोई नहीं आ सकता। कोई आता है तो वह व्यवधान सिद्ध होगा और उस व्यवधान को हम सर्वप्रथम दूर करेंगे। जब तक यह रहेगा तब तक हम दोनों का जीवन एक साथ चल नहीं सकता। फिर भी रावण आता है तो राम को कुछ प्रबन्ध करना ही पड़ता है। रावण को मारने का इरादा नहीं किया राम ने, मात्र अपने प्रशस्त मार्ग में आने वाले व्यवधान को हटाने का प्रयास किया और सीता के पास जाने का प्रयास किया उन्होंने।
सीता ने जिस संकल्प के साथ इस ओर कदम बढ़ाया था, उसकी रक्षा करना, समर्थन करना राम का परम धर्म था और राम का समर्थन करना सीता का परम धर्म था। उन दोनों ने धर्म का अनुपालन किया। भोग का (सांसारिकता का) अनुपालन नहीं, योग (चैतन्य) का सहारा लिया, उसके बिना चल नहीं सकते थे, चलना अनिवार्य था, मंजिल तक पहुँचना था, इसलिए साथी को अपनाया यह ध्यान रहे कि विवाह पद्धति का अर्थ मोक्ष-मार्ग में साथी बनाना है। विवाह का अर्थ संसार-मार्ग की सामग्री नहीं है।
विवाह तो पाश्चात्य शहरों में भी होते हैं पर वहाँ के विवाह, विवाह नहीं कहलाते । वहाँ पर पहले राग होता है और तब बन्धन होता है, यहाँ पहले बन्धन होता है, पीछे राग होता है, और वह राग, राग नहीं आत्मानुराग प्रारम्भ होता है। पहले संकल्प दिये जाते हैं फिर बाद में उनके साथ सम्बन्ध होता है, अन्यथा नहीं। इसका अर्थ क्या? इसका अर्थ बहुत गूढ़ है। जब तक उनका (राम व सीता का) सांसारिक गृहस्थ धर्म चलता रहा तब तक उन्होंने एक दूसरे के पूरक होने के नाते अपने आप के जीवन को चलाया। अन्त में सीता कहती है कि हमने एम. ए. तो कर लिया अब पीएच. डी. करना है स्वयं का शोध करना है। शोध के लिए पर्याप्त बोध मिल चुका है, बोध की चरम सीमा हो चुकी है। बोध की चरम सीमा होने के उपरान्त ही शोध हुआ करता है। एम. ए. का विद्याध्ययन शोध के लिए आवश्यक है, उसके बिना शोध नहीं हो सकता उस बोध को ही शोध समझ लें तो गलत हो जायेगा, आज यही हो रहा है। शोध करना तो दूर रह जाता है मात्र इतना ही पर्याप्त समझ लेते हैं कि सोलहवीं कक्षा पास कर ली तो हमने बहुत कुछ कर लिया, पर वस्तुत: किया कुछ नहीं। शोध अब प्रारम्भ होगा अपनी तरफ से अनुभूति अब प्रारम्भ होगी। अभी तक अनुभूति नहीं, मात्र Guideline (दिशानिर्देश) मिली है। एम. ए. का अर्थ है दूसरे के Guidance (मार्गदर्शन) के माध्यम से अपने आप के बोध को समीचीन बनाना और फिर इसके उपरान्त अनुभूति का अर्थ-अब किसी प्रकार की Taxt BOOK नहीं है, कोई बन्धन नहीं है, अब शोध करना है।
सीता के पास अब इतनी शक्ति आ चुकी थी कि वह राम से कहती है अब मुझमें इतनी शक्ति आ चुकी है कि आपकी आवश्यकता नहीं है। अब तीन लोक में जो कोई भी पदार्थ बिखरे हुए हैं, उनमें से किसी भी पदार्थ को निकाल कर उनमें से आत्मा को चुन सकती हूँ और बोध का विषय बना सकती हूँ। (जैसे कि सामान्य शोध छात्र पुस्तकालय में से अपने विषय की पुस्तक चुन लेता है) उसके माध्यम से मैं अपनी यात्रा बढ़ा सकती हूँ। अब राम, तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है। अब स्वावलम्बी जीवन आ गया। अब विवाह की डोरी को तोड़ना चाहती हूँ ध्यान रखना पहले नहीं तोड़ी। वह कहती है अब मैं इस पाठशाला में नहीं रहूँगी। ऊपर उढूँगी और पंचमुष्टि केशलुचन कर लेती है। राम अभी शोध छात्र नहीं थे, अत: वे प्रणिपात हो गये उसके चरणों में। जिन्होंने विषय चुन लिया, शोध छात्र बन गया, ऊपर उठ गया वह अब विद्यार्थी नहीं, छात्र तो इसलिए मान लिया जाता है कि अभी भी कुछ कर रहा है। अब वह स्नातक से भी ऊपर उठ चुका है, अब वह विद्यार्थी नहीं है, भले ही उसे विद्यार्थी कहो पर वह अब मास्टर बन गया है। राम ने अभी इतना साहस नहीं किया था इसलिए उन्होंने सीता के चरणों में प्रणिपात किया और अपने आप को कमजोर महसूस करने लगे कि देखो यह एक अबला होकर भी शोध छात्रा बन गई। अब यह विश्व में बिखरी चैतन्य सत्ताओं के बारे में विचार करेगी, अध्ययन करेगी और उनके पास पहुँचने का प्रयास करेगी । अब सीता को राम की आवश्यकता नहीं है।
राम-राम, श्याम... श्याम, रटन्त से विश्राम।
रहे न काम से काम, तब मिले आतम राम॥
अब राम, राम न रहे सीता की दृष्टि में, अब दृष्टि में था आतमराम। प्रत्येक काया में छिपे हुए आतमराम को वह टटोलेगी, उन सब के साथ सम्बन्ध रखेगी, विश्व के साथ एक प्रकार से भोग यात्रा प्रारम्भ हो गई लेकिन ध्यान रहे अब आतमराम के साथ भोग है, राम के साथ नहीं। राम उस काया का नाम था, आतमराम काया का नाम नहीं है। उस अन्तर्यामी चैतन्य सत्ता में न पुरुष है, न स्त्री है, न नपुंसक है, न वृद्ध है, न बालक है, न जवान है, वह देव नहीं, नारकी नहीं, तिर्यञ्च नहीं, पशु नहीं, वह केवल आतमराम । चारों ओर आतमराम । वह सीता चल पड़ी, अकेली चल पड़ी। सीता की आत्मा कितने जबरदस्त बल को प्राप्त कर चुकी । अब वह किसी की परवाह नहीं करती। अब वह अबला नहीं है, सबला है। उसके चरणों में अब राम प्रणिपात कर रहे हैं, इस समय वे अबला थे और सीता सबला थी।
वह ऊपर उठ चुकी थी। राम उससे कहते हैं कि ठहरो, मैं भी आ जाऊँ। सीता पूछती है, कहाँ आ जाऊँ? तुम्हारे साथ! किसलिए ? दोनों घर में रहें बाद में मार्ग चुन लेंगे। सीता कहती है - अरे! अब घर में रहने की कोई आवश्यकता ही नहीं है, मैं जब विद्यार्थी थी तब तक ठीक था, अब मैं विद्यार्थी से ऊपर उठ चुकी हूँ, अब आपकी कोई आवश्यकता नहीं, आपको धन्यवाद देती हूँ कि आप ने एम. ए. तक मेरा साथ नहीं छोड़ा, धन्यवाद बहुत धन्यवाद, पर अब पैरों में बहुत बल आ चुका है, आँखों को दृष्टि मिल चुकी है, अब मैं अनाहत जा सकती हूँ अब कोई परवाह नहीं, राह मिल चुकी है।
राम ने अग्नि परीक्षा के बाद कहा था कि चलो प्रिये, घर चलो। वह अग्नि परीक्षा ही सीता के लिए मैं समझता हूँ स्नातक परीक्षा थी, वह उसमें सफल हो जाती है। वह राम से आगे निकल गई। राम ने बहुत कहा अभी मत जाओ। सीता कहती है-तुम पीछे आ जाओ, पर मैं अब नहीं रुक सकती, साथ नहीं रह सकती। साथ रहने पर बिखरे हुए विषय का संग्रह नहीं कर सकूंगी। इसलिए आप अपना विषय अपनायें और मैं अपना विषय अपनाती हूँ। अब आप मेरी दृष्टि में राम नहीं हैं आतमराम हैं।
इस प्रकार लिंग का विच्छेद करके, वेद का विच्छेद करके, वह अभेद यात्रा में चली गई, यह घड़ी उसकी आत्मा की अपनी घड़ी थी। उसी दिन उसके लिए मोक्ष-पुरुषार्थ की भूमिका बन गई। यह काम पुरुषार्थ का ही सुफल था कि वह मोक्ष-पुरुषार्थ में लीन थी, अब वह मोक्ष पुरुषार्थी थी, काम पुरुषार्थी नहीं।
राम ने सोचा कि - क्या मैं कमजोर हूँ ? उन्हें अबला से शिक्षण मिल गया। वे भी शोधछात्र बन गये। सीता को मालूम न था कि ये मुझसे भी आगे बढ़ जायेंगे। स्पर्धा ऐसी बातों में करनी चाहिए। आप लोग कमाने में, भौतिक सामग्री जुटाने में स्पर्धा करते हैं, ये आविष्कार हुआ, ये परिष्कार हुआ, लेकिन अन्दर क्या आविष्कार हुआ, यह तो देखो, अपने आपके ऊपर डॉक्टरेट की उपाधि तो प्राप्त कर लो। स्वयं पर नियन्त्रण नहीं है स्वयं के बारे में गहरा ज्ञान नहीं है तो मैं समझता हूँकि भौतिक ज्ञान भी आपका सीमित है। मात्र दूसरे ने जो कुछ कहा उसी को नोट कर लिया, पढ़ लिया। अन्दर ज्ञान के स्रोत हैं- वहाँ पर देखो, चिन्तन के माध्यम से देखो कितने-कितने खजाने भरे हुए हैं वहाँ पर, घुसते चले जाओ, अनन्त सम्पदा भरी पड़ी है, वह अनन्तकालीन सम्पदा लुप्त है, गुप्त है, आप सोये हुए हैं, अत: वह सम्पदा नजर नहीं आ रही।
जब राम को सीता से प्रेरणा मिल जाती है, तब राम ने निश्चय कर लिया कि मुझे भी अब कॉलेज की कोई आवश्यकता नहीं, अब तो मैं भी ऊपर उठ जाऊँ। आप लोगों का जीवन कॉलेज में ही व्यतीत हो जाता है। शिक्षण जब लेते हो जब भी कॉलेज की आवश्यकता है और उसके उपरान्त अर्थ-प्रलोभन आपके ऊपर ऐसा हावी हो जाता है कि पुन: उस कॉलेज में आप को नौकरी कर लेनी पड़ती है। पहले विद्यार्थी के रूप में, अब विद्यार्थियों को पढ़ाने के रूप में, स्वयं के लिए कुछ नहीं है। उसी कॉलेज में जन्म और उसी कॉलेज में अन्त, यही मुश्किल है। डॉक्टरेट कर ही नहीं पाते एक बार स्वयं पर, अब दूसरे पर नहीं, अपने आप पर अध्ययन करो।
राम ने संकल्प ले लिया और दिगम्बर दीक्षा ले ली। अब राम की दृष्टि में कोई सीता नहीं रही न कोई लक्ष्मण रहा। वे भी आतमराम में लीन हो गये। यह काम (आत्मा के लिए चैतन्य का भोग, काम पुरुषार्थ) की ही देन थी। मोक्ष-पुरुषार्थ में भर्ती कराने का साहस काम पुरुषार्थ की ही देन है। वह काम-पुरुषार्थ भारतीय परम्परा के अनुरूप हो तो मोक्ष-पुरुषार्थ की ओर दृष्टि जा सकती है, आपके कदम उस ओर उठ सकते हैं। जब दृष्टि नहीं जायेगी तो कदम उठ नहीं पायेंगे। विवाह तो आप कर लेते हैं किन्तु आपको अभी वह राह नहीं मिल पाई। भारत में पहले बन्धन है फिर राग है, वह राग वीतराग बनने के लिए है। इसमें एक के ही साथ सम्बन्ध रहा है। अनन्त के साथ नहीं, अनन्त के साथ तो बाद में, सर्वज्ञ होने पर। पहले सीमित विषय, फिर अनन्त। जो प्रारम्भ से ही अनन्त में अधिक उलझता है उसका किसी विषय पर अधिकार नहीं हो पाता।
आज पाश्चात्य समाज की स्थिति है कि एक व्यक्ति दूसरे पर विश्वास नहीं करता, प्रेम नहीं करता, वात्सल्य नहीं करता। एक दूसरे की सुरक्षा के भाव वहाँ पर नहीं हैं। भौतिक सम्पदा में सुरक्षा नहीं हुआ करती, आत्मिक सम्पदा में ही सुरक्षा हुआ करती है।
विवाह के पश्चात् यहाँ आपका (भारतीय परम्परानुसार) विकास प्रारम्भ होता है और वहाँ (पाश्चात्य देशों में) विनाश। वह धारा इधर भी बहकर आ रही है।
राम और सीता ने विवाह को, काम-पुरुषार्थ को अपनाया, उसे निभाया, उसी का फल मानता हूँ कि राम तो मुक्ति का वरण कर चुके और स्व आनन्द का अनुभव कर रहे हैं और सीता सोलहवें स्वर्ग में विराजमान हैं वह भी गणधर परमेष्ठी बनेगी और मुक्तिगामी होगी। हम इस कथा को सुनते मात्र हैं इसकी गहराई तक नहीं पहुँचते।
काम पुरुषार्थ–काम-सम्बन्ध भले किन्तु पुरुष के लिए आत्मा के लिए, भोग चैतन्य का। आप पुरुष तक नहीं पहुँचते, शरीर में ही अटक जाते हैं, रंग में ही दंग रह जाते हैं, बहिरंग में ही रह जाते, हैं, अन्तरंग में नहीं उतरते। आत्मा के साथ भोग करो, आत्मा के साथ मिलन करो, आत्मा के साथ सम्बन्ध करो।
अभी कुछ देर पूर्व यहाँ मेरा परिचय दिया पर वह मेरा परिचय कहाँ था, आत्मा का कहाँ था ? मेरा परिचय देने वाला वही हो सकता है जो मेरे अन्दर आ जाये जहाँ मैं बैठा हूँ. सिंहासन पर नहीं, सिंहासन पर शरीर बैठा है। आप की दृष्टि वहीं तक जा सकती है, आपकी पहुँच भौतिक काया तक ही जा पाती है। मेरा सही परिचय है-मैं चैतन्य पुञ्ज हूँ जो इस भौतिक शरीर में बैठा हुआ है। यह ऊपर जो अज्ञान दशा में अर्जित मल चिपक गया है उसको हटाने में मैं रत हूँ, उद्यत हूँ मैं चाहता हूँ कि मेरे ऊपर का कवच निकल जाये और साक्षात्कार हो जाये इस आत्मा का, परमात्मा का, अन्तरात्मा का। आपके पास कैमरे हैं फोटो उतारने के, मेरे पास एक्सरे हैं, कैमरे के माध्यम से ऊपर की शक्ल ही आयेगी और एक्सरे के माध्यम से अन्तरंग आयेगा क्योंकि अन्तरंग को पकड़ने की शक्ति एक्सरे में है और बाह्य रूप को पकड़ने की शक्ति कैमरे में है। आप कैमरे के शौकीन हैं, मैं एक्सरे का शौकीन हूँ। अपनी-अपनी अभिरुचि है। एक बार एक्सरे के शौकीन बनकर देखो, एक बार बन जाओगे तो लक्ष्य तक पहुँच जाओगे। मैं चाहता हूँकि हम उस यन्त्र को पहचानें, ग्रहण करें, उसके माध्यम से अन्दर जो तेजोमय आत्मा अनादिकाल से बैठी है, विद्यमान है, वह पकड़ में आ जाये। लेकिन ध्यान रखना एक्सरे की कीमत बहुत होती है। प्रत्येक व्यक्ति गले में कैमरा लटका सकता है पर एक्सरे यन्त्र नहीं। एक बार एक्सरे से आत्मा को पकड़ लें बस, कैमरे से उतारा गया ढांचा बदल सकता है, शरीर बदल सकते हैं पर एक्सरे से उतारी गई आत्मा नहीं बदल सकती। अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है व्यर्थ में, हम लक्ष्य पर नहीं पहुँचे।
दिपे चाम चादर मढ़ी हाड़ पिंजरा देह |
भीतर या सम जगत में और नहीं घिनगेह ||
(बारह भावना)
आपके पास तो घिनावने पदार्थ पकड़ने की मशीन है किन्तु सुगन्धित, जहाँ किसी प्रकार के घिनावने पदार्थ नहीं हैं, वह एक आत्मा है वह हमें मिल सकती है जब हमारी दृष्टि अन्तर्दूष्टि हो जाये। जब राम ने मुनि दीक्षा धारण कर ली, घोर तपस्या में लीन हो गये तो इतनी अन्तर्दूष्टि बन चुकी थी कि बाहर क्या हो रहा है उन्हें पता ही नहीं। प्रतीन्द्र के रूप में सीता का जीव सोचता है किअरे इन्होंने तो सीधा मोक्ष का रास्ता अपना लिया मुझे तो स्टेशन पर रुकना पड़ा ये लक्ष्य तक पहुँचने वाले हैं। सीता ने सोचा कि राम डिगते हैं कि नहीं, उसने डिगाने का प्रयास किया पर राम डिगे नहीं। उन्हें फिर बाहरी पदार्थों ने प्रभावित नहीं किया, इसी को कहते हैं ब्रह्मचर्य। अपनी आत्मा में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है।
इस ब्रह्मचर्य के सामने विश्व का मस्तक नत-मस्तक हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। उस दिव्य तत्व के सामने सांसारिक कोई भी चीज मौलिकता नहीं रखती, उनका कोई मूल्य नहीं है। इसलिये मैं उस दिव्य ब्रह्मचर्य धर्म की वन्दना करते हुए आप लोगों को यही कहूँगा कि आप लोग कैमरे को छोड़ दें और एक्सरे के पीछे लग जायें, अन्दर घुस जायें, कोई परवाह नहीं कि बाहर क्या हो रहा है ? बाहर कुछ भी नहीं होगा। अन्दर जो होगा उसे देखोगे तो बाहर कुछ घट भी जाये तो उसका प्रभाव आपके ऊपर नहीं पड़ेगा क्योंकि वह सुरक्षित आत्मद्रव्य है। बाहर कुछ भी कर लो, आत्मा इस प्रकार का Tank है कि जिसके ऊपर किसी भी प्रकार का गोला-बारूद असर नहीं करता वह अन्दर का व्यक्ति सुरक्षित रहता है किंतु वह बाहर आ जाये तो स्थिति बिगड़ जाती है। बाहर लू चलती है पर अन्दर शान्ति की लहरें चल रही हैं। उस अन्तरात्मा में लीन होने वाले व्यक्ति के चरणों में कौन नत-मस्तक नहीं होगा ? अवश्य नमस्कार करेंगे। लेकिन हम नमस्कार करके भी अपना उद्देश्य वह नहीं बना पाते कि हमें भी उस शान्त लहर का अनुभव करना है, उस शान्ति की अनुभूति अनन्तकाल में नहीं हुई है। आगे भी हो नहीं सकती, ऐसा नहीं है, हो सकती है लेकिन दृष्टि अन्दर जाये तो।
काम-पुरुषार्थ को आप मात्र भोग मत मानो, वह भोग पुरुष के लिए है, आत्मा के लिए है। वास्तविक भोग वही है जो चैतन्य के साथ हुआ करता है। जब सर्वज्ञ बन जाते हैं, उस समय अनन्त चैतन्य के साथ मेल हो जाता है। उस मेल में कितनी अनुभूति, कितनी शान्ति मिलती होगी, यह वे ही कह सकते हैं, हम नहीं कह सकते। मात्र कुछ बिन्दु हमें उसके मिल जाते हैं ध्यान के समय तो हम आनन्द विभोर हो जाते हैं उस अनन्त सिंधु में गोता मारने वाले के सुख की कोई सीमा नहीं है। असीम है उसका सुख, असीम है वह शान्ति, असीम है वह आनन्द। वह आनन्द अपने को मिले इसलिए पुरुषार्थ करना है।
मुनिराज भी निभोंगी नहीं होते, वे भी भोगी होते हैं किन्तु वे चैतन्य के भोक्ता बनते हैं, पाँच इन्द्रियों के लिये यथोचित विषय देते हैं किन्तु रागपूर्वक नहीं, भोग की दृष्टि से नहीं, अपितु योग की साधना की दृष्टि से- ले तप बढ़ावन हेतु नहीं, तन पोसतें तजि रसन को। (छहढाला-६वीं ढाल) विषय और भोग (काम) मात्र संपोषण की दृष्टि से माने गये हैं, किन्तु जब वह दृष्टि हट जाती है वे ही पदार्थ हमें मोक्ष-पुरुषार्थ की साधना करने में कार्यकारी हो जाते हैं। मुनिराज के द्वारा इन्द्रिय विषय (निद्रा भोजन आदि) ग्रहण किये जाते हैं पर वे विषय-पोषण की दृष्टि से नहीं होते, योग दृष्टि उनके पास रहती है, जिसमें शरीर के साथ सम्बन्ध छूटता भी नहीं है, हटता भी नहीं है और मात्र शरीर के साथ भी सम्बन्ध नहीं रहता। किन्तु चैतन्य के साथ सम्बन्ध रहता है। मुनिराज का शरीर के साथ सम्बन्ध चैतन्य खुराक के साथ रहता है।
सवारी तभी आगे बढ़ेगी जब उसमें पेट्रोल डालेंगे। आप लोग भी इस काम पुरुषार्थ के माध्यम से मोक्ष-पुरुषार्थ की ओर बढ़ें और अनन्त सुख की उपलब्धि करें यही कामना है ।
मुझे जो यह इस प्रकार ज्ञान की, साधना की थोड़ी सी ज्योति मिली है वह पूर्वाचार्यों से (पूज्य गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज से) मिली है। हम पूर्वाचार्यों के उपकार को भुला नहीं सकते। वैषयिक दृष्टि को भूलकर विवेक दृष्टि से इनके उपकारों को देखो, इनके द्वारा बताये कर्तव्यों की ओर दृष्टिपात करो और देखो, कि इनके सन्देश किसलिए हैं ? स्व-आत्म पुरुषार्थ के साथ उनके उपदेश आप लोगों के उत्थान के लिए हैं किन्तु उनका अपनी आत्मा में रमण स्वयं के कल्याण के लिए था। कोई भी व्यक्ति जब स्वहित चाहता है और उसका हित हो जाता है तो उसकी दृष्टि अवश्य दूसरे की ओर जाती है, इसमें कोई सन्देह नहीं। उन्होंने सोचा कि ये भी मेरे जैसे दुखी हैं, इनको भी रास्ता मिल जाये। आचार्यों को जब ऐसा विकल्प हुआ तो उन्होंने उसके वशीभूत होकर प्राणियों के कल्याण के लिए मार्ग सुझाया। महान् अध्यात्म साहित्य का सृजन किया और आज हमारे जैसे भौतिक चकाचौंध के युग में रहते हुए भी कुछ कदम उस ओर उठ रहे हैं तो मैं समझता हूँ कि बाह्य निमित से वे आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज आदि जो पूर्वाचार्य हुए उनका ऋण हम पर है और उनके प्रति हमारा यही परम कर्तव्य है कि उस दिशा के माध्यम से अपनी दिशा बदलें और दशा बदलें, अपने जीवन में उन्नति का मार्ग प्राप्त करें, सुख का भाजन बनें और इस परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखें ताकि आगे आने वाले प्राणियों के लिए भी यह उपलब्ध हो सके। आचार्य कुन्दकुन्द की स्मृति के साथ मैं आज का वक्तव्य समाप्त करता हूँ
कुन्दकुन्द को नित नमूं , हृदय कुन्द खिल जाय |
परम सुगन्धित महक में, जीवन मम घुल जाय ||
(दोहा दोहन)