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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • धर्म देशना 7 - भेदविज्ञान का प्रयोग : त्याग

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    सिद्धान्त ग्रन्थों में यही कहा है, तब तक उसकी बुद्धि की समीचीनता सिद्ध नहीं होती, जब तक पर को अपना मानकर उस पर अपना अधिकार रखने का प्रयास कर रहा है।


    आप लोगों को ज्ञात होगा। ज्ञात तो अवश्य है ही, कि जब आप दुकान से श्रीफल खरीदना चाहते हैं, उस समय आप श्रीफल एक हाथ में उठा लेते हैं और क्या करते हैं ? और पसन्द नहीं आया तो ढेर में से दूसरा उठाते हैं। इस प्रकार बाहर नहीं, भीतर के भाग को भी अनुमान का विषय बना लेते हैं। यह निर्णय लिया जाता है, कि जब तक नारियल गीला रहता है, तब तक पानी की पहिचान की जाती है। और जब सूख जाता है, तो स्वयं नारियल बोलने लग जाता है। जब तक वह नहीं बोलता, तब तक आप उसको हाथ में लेना पसन्द नहीं करते। उसने त्याग किया, तब ही बोला। क्या त्याग किया ? उसके ऊपर बहुत-सा मटेरियल है। सबको उसने कह दिया-मेरा और आपका अब से कोई सम्बन्ध नहीं। उसने बुद्धि का प्रयोग किया, क्योंकि जब तक मैं इस ऊपर के कवच के साथ सम्बन्ध रखूगा, तब तक मुझे कोई भी पूछेगा नहीं और बुद्धि के विकास के लिए भी मेरा कोई योगदान नहीं होगा।


    आयुर्वेद ग्रन्थों में श्रीफल के गुण बताये हैं। गोले के पास क्या गुण है ? मस्तिष्क का आकार उसका भी होता है और उसका तेल मस्तिष्क के लिए बुद्धिवर्धक होता है। लेकिन वह तेल कब आयेगा? जब उससे सम्बन्ध छोड़ देगा। सम्बन्ध कब छोड़ेगा ? जब पानी का अंश पूर्णत: सूख जायेगा। उसी प्रकार भीतर रहते हुए जिसने बाहरी और भीतरी परिग्रह का त्याग किया है, उसकी बोली को सुनने के लिए बहुत लोग लालायित हो जाते हैं। भगवान् की वाणी, गुरुओं की वाणी हम लोगों के कल्याण के लिए इसीलिए कारणभूत होती है। उनकी वाणी में पानी का अंश नहीं रहता। केवल बुद्धि के लिए वह उपयोग नहीं हेाती, अपितु वह ऐसा झकझोर देती है, कि वस्तुतत्व क्या है ? यह समझो।


    वस्तुत: देखा जाये तो त्याग होता ही नहीं। जो पराई चीज है, उसको त्यागने की क्या आवश्यकता है ? चोरी कर लें, इसके उपरान्त कह दें, मैं इसका त्याग कर रहा हूँ। जो चीज अपनी है ही नहीं, उसका क्या त्याग ? और जो अपनी चीज है, उसका त्याग कैसे ? अपनी चीज भी छोड़ दें और पराई जो चीज है उसको भी छोड़ दें, तो हम खाली बैठे क्या ? ऐसा नहीं। सिद्धान्त ग्रन्थों में यही कहा है, तब तक उसकी बुद्धि की समीचीनता सिद्ध नहीं होती, जब तक पर को अपना मानकर उस पर अपना अधिकार रखने का प्रयास कर रहा है। और जिस समय उसको ज्ञात हो जाता है, कि यह तो मेरा था ही नहीं, होगा भी नहीं और है भी नहीं। फिर उसका क्या किया जाय ? इसी को अध्यात्म बोलते हैं। बड़े-बड़े तपस्वी तप करके अभिमान इसलिए नहीं करते। यह तप कहाँ? शरीर को तपाना तप नहीं है, किन्तु ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञान की निर्जरा है, ज्ञान ही रत्नत्रय है, ज्ञान ही संवर है, ज्ञान ही सर्वस्व है। और एक प्रकार से ज्ञान ही लिंग सिद्ध हो जाता है। भावलिंग व द्रव्यलिंग, दो प्रकार के लिंग होते हैं। द्रव्यलिंग वस्तुत: अपना है ही नहीं। भावलिंग हमारा है। वह भावलिंग दिखता नहीं, द्रव्य दिखता है। भीतर भाव के कारण उस द्रव्य को भी हम लिंग के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। यह त्याग की विशेषता है। पाषाण की खान से निकाल दिया गया पत्थर, तब भी पाषाण ही माना जाता है। इसके उपरान्त शिल्पी के माध्यम से रूप दिया जाता है। फिर भी वह भगवान् नहीं कहलाता। अपितु उसे पाषाण की मूर्ति कहा जाता है। लेकिन भगवान् नहीं माना जाता। इसलिए ध्यान रखना, जब तक भगवान् नहीं, तब तक उसका मूल्य है। और भगवान् बनने के उपरान्त भी मूल्य नहीं।


    मकराने में आप भगवान् नहीं खरीदते। जयपुर जाकर आप भगवान् नहीं खरीदते। सेठ साहूकारों से मेरा विशेष रूप से कहना है, वे भगवान् को नहीं खरीद सकते और खरीदने का भाव भी नहीं कर सकते। भगवान् की तो प्रार्थना करो, भगवान् की तो आराधना करो। हाँ, जिसमें भगवत्पन का आरोपण करना है, उससे पहले उसका मूल्य भी नहीं होता। शिल्पी लोग उसको पहले गढ़ करके रखते हैं। फिर न्यौछावर के रूप में दिये जाते हैं। मूल्य इसका इतना हो, तो ले लूगा, ऐसा नहीं होता। मतलब भावी नैगमनय की अपेक्षा से जिसको हम भगवान् बनाने जा रहे हैं, उसमें भी मूल्य का सवाल नहीं होता। यह इसलिए है, जिसका समग्र जीवन ही निर्विकार व निर्विकल्प है, उसकी क्या कीमत है ? संसारी प्राणी भिन्न-भिन्न वस्तुओं की जैसी कीमत करता है, उसी प्रकार अन्यत्र भी उसकी दृष्टि जाने लगती है। विधान तो यही है, उसका कोई मूल्य नहीं। भले ही न्यौछावर के रूप में दिया जाता हो। लेकिन एक बार प्रतिष्ठा हो जाती है, फिर न्यौछावर के लिए भी कुछ नहीं दिया जायेगा। अपने जीवन को ही उनके चरणों में न्यौछावर कर दिया जाता है।


    बलि बलि जाऊँ मन वच काय।

    भगवान् के चरणों में अपने आप को ही समर्पित कर देना है। स्वयं चेतना की मूर्ति को भी वह चरणों में अर्पित कर देता है। ऐसा मौलिक भगवद् रूप है। यह रूप क्यों बना है पाषाण की मूर्ति में ? ध्यान रखो, सम्यग्दृष्टि में वह पाषाण की मूर्ति नहीं रही। उसके इर्द-गिर्द परिसर में जाते ही उसके परिणामों में भगवद्रुप के ही परिणाम हो जाते हैं। यद्वा-तद्वा वहाँ बोल नहीं सकता, पूंछ नहीं सकता, ठहर नहीं सकता, बैठ नहीं सकता। भगवान् के सामने मौन संकल्प लेकर के बैठ जाता है। त्याग-तपस्या की वह मूर्ति हैं। हम मानते हैं, लेकिन वह मूर्ति त्याग-तपस्या की नहीं, स्वस्थ मूर्ति है। त्याग-तपस्या तो आरोपित है। उपयोग बाहर जा रहा था, उसको स्वस्थ किया है उसने। रागी व्यक्ति को कपड़े से वेष्टित करने के उपरान्त भी उसके अंग-अंग से राग फूटता है। और वह निर्वस्त्र हैं, इसको देखने से भी राग की बात नहीं आती। सम्यग्दृष्टि की बात है यह। ऐसा स्वस्थ भाव हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। स्वस्थ क्यों हुआ ? पर को अपनाने के भाव करने से अस्वस्थ भाव समाप्त हो गया। कोई अस्वस्थ हो जाता है, तो माथा बांध लेता है। अस्वस्थ हो जाता है तो कोट वगैरह अच्छे ढंग से पहन लेता है। और क्या कर लेता है ? माथे पर अमृतांजन और लगा लेता है।

     

    शरीर का त्याग तो किया नहीं जा सकता। किन्तु शरीर पर जो ओढ़ रखा है, उसका तो त्याग किया ही जा सकता है। शरीर का त्याग नहीं किया जा सकता और यदि किया जा सकता है, तो जैसे भगवान् खड़े हैं, वैसे ही खड़े हो जाना, काया का उत्सर्ग है, त्याग है। उससे मोह नहीं रखना, यही काय का त्याग है। मतलब उस मूर्ति को देखने से मोह का त्याग ज्ञात हो रहा है। त्याग, तपस्या का एक मार्ग है। त्याग के बिना तपस्या का कोई मार्ग नहीं माना जाता। और त्याग के बाद यदि तपस्या नहीं की जाती है, तो मार्ग अधूरा रहता है। तप और त्याग, त्याग और तपस्या। जिनवाणी पढ़ों तो वही एक बात मिलती है। भगवान् के दर्शन करो तो भी वही एक चित्र सामने आता है। गुरुओं की परिचर्या करो, तो वहाँ भी यही कथा मात्र सुनने को मिलती है। जोड़ने की बात नहीं है। यह कौनसा विश्वास है ? जिसका आज तक जोड़ने का भाव किया, जो आज तक बांधने का, चिपकाने का प्रयास किया और आज कौन-सी चेतना जागृत हो गई, कि बांधना उसके लिए अभिशाप सिद्ध हो गया। जोड़ना अब उसके लिए बीमारी का घर दिख रहा है। किसी भी प्रकार से उसको स्वीकार करना नहीं चाहता। चूंकि वह शरीर को भी छोड़ सकता है।


    अनुपात को तो झटकाया जा सकता है। लेकिन उपात को झटकाया नहीं जा सकता। और झटकाने से कुछ काम होता भी नहीं है। उसको काम में लो, लेकिन उसके प्रति ममत्व का त्याग करो। कायोत्सर्ग के बारे में शास्त्रों में अनेक शब्दों में उल्लेख है। एक स्थान पर अहम् का उत्सर्ग करना ही कायोत्सर्ग कहा है। यह बहुत महत्वपूर्ण शब्द है। संसारी प्राणी राग की भूमिका में पर को अपना कर उसमें अहंकार करता है। और कायोत्सर्ग में अहंकार का त्याग बताया है, यानि जितने समय के लिए वह कायोत्सर्ग लगता है, उतने समय के लिए वह काया के प्रति साक्षी बनकर खड़ा हो जाता है या बैठ जाता है। कायोत्सर्ग का अर्थ नासा दृष्टि नहीं, कायोत्सर्ग का अर्थ ध्यान नहीं, कायोत्सर्ग का अर्थ भली-भांति काय का विसर्जन करके बैठ जाना है। हमारे भगवान् हमेशा खड्गासन की मुद्रा में कायोत्सर्ग करते हुए मिलते हैं। कोई भी उनका अंग-उपांग ममत्व का प्रतीक नहीं होता। उनके हाथ नीचे की ओर आ जाते हैं, लम्बकोण बन जाता है। हमारे भगवान् के हाथ भी ऐसे ही नीचे की ओर झूल रहे हैं। और उनकी आँखें अन्यत्र किसी पर टिकी हुई नहीं हैं। एक मात्र निष्पन्द मुद्रा नजर आती है। क्या त्याग किया उन्होंने ? क्या त्याग करने को है, उनके पास ? मात्र नग्न काया या मात्र काया भी कह दो तो भी कोई बाधा नहीं है। नग्न कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। मात्र काया ही उनके पास है और काया के प्रति भी ममत्व नहीं है, तो वे काया को भी मात्र साक्षी बनकर देखते रहते हैं।


    जिसके लिए आज तक भरण-पोषण आदि क्रियायें करते आये हैं। उसको आज केवल देख रहे हैं। जैसे आप कोट उतार करके लटका दें, और उसको साक्षी होकर देखो। इसी प्रकार काय के प्रति जो ममत्व था उसकी उतारकर रख दिया।


    तजे तन अहमेव को.।

    अहं की जागृति जिससे होती थी, उसे उन्होंने छोड़ दिया। इधर आओ कहने से, वही व्यक्ति आता। वह समझता है कि, मुझे बुलाया जा रहा है। मुझे यहाँ से भेज रहे हैं। जितने समय तक रहता है, उतने समय तक राग का अर्जन होता चला जाता है। और जितने क्षण हम इन प्रत्ययों से अतीत होकर गुजार लेते हैं, वे त्याग-तपस्या के माने जाते हैं।


    भगवान् शान्त हैं। शब्द भी नहीं, स्पंदन भी नहीं। खड़े हैं, तो बस खड़े हैं। इस शरीर से हम काम लेते थे, लेते हैं, अब लेना नहीं चाहते। यही त्याग है। कल आयेगा आपको नवम अध्याय में, बाह्याभ्यन्तरोपथ्यो:॥ व्युत्सर्ग के बारे में कहा गया है। आप त्याग कर सकते हैं, करते चले जाओ। अब हमारे पास क्या रखा है ? कुछ भी तो नहीं रखा है। मत समझो, इसी के कारण तो बाजार मच जाता है, इसी के कारण तो बाजार वस जाता है। जब तक भुक्ति चलती है, तब तक बहुत प्रकार के द्रव्यों का सम्पादन व संयम आवश्यक होता है। और अन्तिम भुक्ति का भी जब त्याग किया जाता है, नियम रूप से नहीं, आजीवन तब अन्तिम उपकरण का त्याग माना जाता है।


    बाह्याभ्यन्तरोपाध्योः॥

    अर्थात् उपधि का त्याग। अन्न को उपकरण के रूप में स्वीकार कर रहे थे। शरीर को भी उपकरण के रूप में स्वीकार कर रहे थे। शरीर को विलासिता का साधन नहीं बनाना चाहिए। वरन उपासना का साधन बनाना चाहिए। उपासना के लिए जब वह छुट्टी ले लेता है, तो कह देते हैं-तुम्हारे लिये जो योग्य द्रव्य था, वह अब हम नहीं देंगे। प्रत्याख्यान हो जाता है। अर्थात् त्याग हो जाता है। उपकरणों का त्याग किया जाता है। घड़ी-घंटे के लिए, एक-दो दिन के लिए, तीन दिन के लिए। बड़े-बड़े ऐसे साधु-संत होते हैं, जिनके लिए बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं पड़ती। प्रतिमायोग धारण करके चार माह के लिए स्थापना कर निष्ठापन के दिन ही उठते हैं। समझे कि नहीं। हाँ, यहाँ पर क्या हो रहा है ? वह भी चातुर्मास है और यह भी चातुर्मास है। एक वह साधना है, और एक यह साधना है। क्या करें, चतुर्थकाल की वह बात है। हीन संहनन की यह बात है। न तो आपको वहाँ कमण्डलु मिलेगा, न और कुछ मिलेगा। कोई ले जाना चाहे तो ले जाओ। चार माह के लिए उठे ही नहीं, तो पिच्छी की भी कोई आवश्यकता नहीं। शास्त्र की भी कोई आवश्यकता नहीं। महाराज, शान्त रहिये। मूलाचार की भेंट है यह तो, रहने दीजिये यहीं इसे। कोई मतलब नहीं। क्या त्याग, क्या तपस्या और क्या साधना ? बड़ा विचित्र-सा लगता है। कहीं स्वप्न में तो ऐसा नहीं लगता, लेकिन यह घटित है।


    एक वर्ष तक बाहुबली खड़े रहे, तो खड़े ही रहे। देखा नहीं, बोले नहीं, आहार के लिए उठे नहीं, घंटी बजा दो, तो भी कोई मतलब नहीं। क्या समझ रहे हैं आप ? प्रतीक्षा की कोई आवश्यकता नहीं। कैसा व्यवहार ? दुनियाँ से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। तीर्थकरों की दीक्षा के उपरान्त कहाँ पर वह चले जायेंगे, कोई पता नहीं ? किस क्षेत्र का भाग्य उदय होगा, कोई पता नहीं? कोई योजना नहीं, निमन्त्रण नहीं और नारियल चढ़ाना नहीं। महाराज, कितनी बार नारियल चढ़वाओगे ? जितनी बार करो, तो त्याग ही तो हो रहा है, आप लोगों का। एक बार हाँ कह दो न, कम से कम आश्वासन तो दे दी। काहे का आश्वासन ? आने का। कहाँ आने का ? अब आना और जाना ही तो समाप्त हो गया। अब कहाँ आना और कहाँ जाना ? महाराज, ऐसा तो मत कहो, बहुत बुरा लगता है। बुरा नहीं, बूरा लगना चाहिए।


    ज्ञान और राग के स्वरूप को समझो। कैसे लात मार दी उन्होंने ? यह कहने में आता है। उनको ज्ञान नहीं था क्या ? वे जो जड़ को लात मारते। गुस्सा में आने पर लात मारी जाती है। फेंक दिया। अरे फेंकते क्यों हो, ऐसे फिंक गये। ऐसे त्यक्त हो गये। छूट गये या पीछे रह गये।


    कोडी अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी। कितने हैं, आप गिनते रहिये। वह तो मुड़कर देख भी नहीं रहे और आप देख रहे हैं। देखने से वे मिल नहीं सकते। मुड़कर चले गये, क्या-क्या छोड़ा ? भगवन्! ऐसा कैसे कर दिया ? वे कहते हैं-क्या छोड़ने के लिए हमने जोड़ा था ? यह संयोग मात्र था। साता का उदय था और ऐसा ही नियोग था। समझ लो, कि वह जुड़ गया। अब जुड़ने के उपरान्त हमने भी कह दिया-मेरा नहीं। लेकिन अब त्याग हो गया। महाराज, इसको मत छोड़ो। इसको मत लात मारो। ऐसा मत करो। मैं पागलों के बीच में था, अब ज्ञात हो गया। लाखों सुनायें, लेकिन एक की भी नहीं सुनें। बहुत मनाया, लेकिन माने नहीं।

     

    चल दिया छोड़ घर बार, कुटुम्ब परिवार,

    धार मुनि बाना, समझाया वीर न माना।

    अथवा 
    उठ गया दाना पानी..।

    दोनों उठ गये। जब तक था, तब तक था। लेकिन अब दाना-पानी उठ गया। इसका अर्थ क्या ज्ञान हो गया ? छूट गया। राग क्यों करते हो ? अपना हो, तो राग करो। अपना है ही नहीं, तो किसके ऊपर आप राग कर रहे हैं ?


    दिन का हो या रात का, सपना सपना होय।

    सपना अपना सा लगे, किन्तु न अपना होय।

    लगता है, सपना आया है। यदि अपना है, तो अपनाने के उपरान्त दफनाओ क्यों ? बल्कि, दफनाने के पूर्व ही सोच लेना चाहिए। हमारा अपनाना वस्तुत: स्थायी नहीं है। जो स्थायी नहीं है, उसको अपनाना संयोग मात्र है। ऐसा समझो। एक बार कहा था, दोबारा कहना चाहता हूँ-

     

    फूल राग का घर रहा, काँटा रहा विराग।

    तभी फूल का पतन हो, जाग सके तो जाग॥

    फूल खिल जाते हैं। उम्र ढल जाती है, तो गिर जाते हैं। धूमिल हो जाते हैं। पुन: कली के रूप में एक फल और आ जाता है। पुनः खिलता है और चला जाता है।


    वर्षों पहले की बात है। इस नाटक को, वेष को धारण करने का दृश्य वह देखता है। उन्हीं फूलों के बीच में कांटे भी हैं। वे सब जानते हैं। लेकिन कांटा कभी भी फूलवत् गिरता नहीं। फूल का पतन हो जाता है। तो फूल जाता है, वह रागी माना जाता है। जो फूलता नहीं और द्वेष भी नहीं करता, वह तटस्थ रह जाता है। वह काँटा बना रहता है। वहीं का वहीं रहता है। वह वैराग्य का रूप धारण किये हुए है। उससे किसी को भी राग नहीं होता और उसको दुनियाँ से कुछ राग नहीं होता। कभी पतझड़ हुआ, कभी बसंत आया। उसने किसी का स्वागत नहीं किया। वे आये और चले गये। यही वस्तु स्वरूप है। यह एक पेड़ खड़ा है। जंगल में खड़ा है। कब से खड़ा है ? अकेला खड़ा है। उसको देखने के लिए गर्मी के दिनों में कोई नहीं जाता और कश्मीर की हरियाली सबको सुहानी लगती है। वहाँ हजारों-लाखों रुपया खर्च करके जाते हैं। वस्तु स्वरूप को यदि देखना चाहते हो, तो कश्मीर में रहकर तीनों ऋतुओं का दृश्य देख लेना चाहिए। गर्मी के दिनों में उसकी क्या दशा है ? वर्षा के दिन में उसकी क्या दशा है ? गिरने के पूर्व उसकी क्या दशा है ? अच्छे-अच्छे वस्त्रों के द्वारा सजाया जाता है। फूलहार पहना दिया जाता है और इत्र वगैरह भी लगा दिया जाता है। कैंवर साहब, अब राजा साहब कहलाने लग जाते हैं। लेकिन, उनका वह सब उतार दो, तो ऐसा लगेगा। जैसे गर्मी के दिनों का वृक्ष हो। उसमें और इसमें कोई अन्तर नहीं है। आप बनियान वगैरह मात्र पहनकर फोटो नहीं लेते, अपितु अच्छे ढंग से सज-धज कर लेते हैं। किन्तु यह फोटो नहीं, एक्स रे है। इसमें कितनी भी सज-धज कर लो, जो होगा, वही तो आयेगा। क्यों भैया, क्या बात हो गई ? एक्सरे लेते समय तो ऊपर की मुद्रा अर्थात् चैन, मुकुटादि कुछ भी नहीं आयेगा। एक्सरे में बाहर का कुछ भी नहीं आता। आपके भीतरी पार्टस् मात्र आते हैं। भीतरी पार्टस् वही सही दर्शन है। सारा का सारा ज्ञान है। ज्ञान अर्थात् पाजिटिव और दर्शन अर्थात् नेगिटिव। दर्शन में साकारता नहीं, निराकारता रहती है। एक्सरे का एक बार दर्शन कर ली, तो वैराग्य हो जायेगा। आपका अस्तित्व, यह तो स्वप्न की भांति हैं, इसका त्याग करो। ठीक है, नहीं तो वह आपको छोड़ कर ही चला जाने वाला है। मांसलता एक्सरे में नहीं आती। रूप-कुरूपता एक्सरे में नहीं आती। धनाढयता नहीं आती। दुबला-पतलापन भी एक्सरे में नहीं आता। दुबला का अर्थ क्या होता है ? दो बल वाला। आप लोग क्या मानते हैं। उल्टा मानते हैं। दुबला-पतला का अर्थ एक ही मानते हैं। लेकिन वह एक्सरे में नहीं आता। मात्र वही भीतरी पार्टस् आ जाते हैं।


    अध्यात्म की दृष्टि में आपका रूप यह नहीं है। आत्मा का स्वरूप यह नहीं है। आप न सुरूप हैं, न कुरूप। उसको एक बार दर्शन करने का जो सौभाग्य प्राप्त कर ले और जिन्होंने सौभाग्य प्राप्त कर लिया, उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर ली, तो भी धन्य है। कभी-कभी आहार के उपरान्त हम कुल्ला करते हैं, तब तक एकाध भजन हो जाता है। उसमें कहते हैं-महाराज, यह कुछ समझ में नहीं आता, महल को कैसे आपने छोड़ा ? महाराज, आपने ऐसे ऐश्वर्य को कैसे छोड़ा? जो कपड़ा फट रहा है, उसको भी पैबंद लगाकर पहनना चाहते हैं। महाराज, आपने पकवान् को कैसे छोड़ा ? हमसे तो सड़ी-गली सब्जी भी नहीं छूटती। सेब का फल है। मानली, वह आधा सड़ गया है, तो भी काटकर खा लेंगे। जिधर अच्छा है, उधर का ले लेते हैं। ऐसा फोकट में थोड़े ही आता है। बात समझ में नहीं आ रही है, कैसे चौरासी लाख हाथी, चौदह रत्न, करोड़ों घोड़े और सब सज-धज कर बैठे हैं और मन उचट जाता है, क्या बात हो गई ? यह पागलपन जैसा लगता है, परन्तु है नहीं। दुनियाँ पागल भले ही हो। लेकिन जब रहस्योद्घाटन हो जाता है, तब ज्ञानी वहाँ पर एक मिनट भी रहने के लिए तैयार नहीं होगा। बैठो-बैठो कहो, तो भी उठ जाता है। ठहरो.ठहरो कहो, तो भी चला जाता है। थोड़े धीरे-धीरे चलो, तो भाग जाता है। उनके लिए पालकी ले आते हैं। तीर्थकरों के लिए पालकी है। अन्यों के लिए कोई पालकी नहीं आती, फिर भी पार हो जाते हैं सभी। संसार में मुड़कर पीछे देखते तक नहीं। उनको स्वप्न भी नहीं आता। क्योंकि मन से, वचन से, काय से उसका त्याग कर दिया। त्याग नहीं, अपितु अपने से राग कर लिया है। तो अपने आप ही त्याग हो जाता है। भोग-सामग्री ताकती रह जाती है और वह पहुँच गये उस पार। भोग सामग्री का मूल्य तब तक ही है, जब तक भोक्ता उपस्थित रहता है। भोक्ता जब उपस्थित नहीं रहता, तो वह फीकी-फीकी पड़ने लग जाती है।

    जब बारात आपके घर से आकर चली जाती है, तो क्या होता है ? आप अपने अनुभव तो बताओ ? महाराज, सब कुछ रहता है। मात्र लड़की चली जाती है, तो घर खाली हो जाता है। ऐसा लगता है, कि घर खाने को आ रहा है। क्या घर भी खाने को आता है, खाने को दौड़ता है ? किसको खाने को दौड़ता है ? उसको भूख लगी है ? सोचने की बात है, कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती। इसी तरह चेतना जब चली जाती है, तो भोग्य सामग्री वैसी की वैसी रह जाती है।


    बन्धुओं। जब तक यह आत्मा है, चेतन द्रव्य है, तब तक इस शरीर का कुछ मूल्य भी है। अन्यथा यहाँ पर कोई कुछ पूछने के लिए भी नहीं आता। मानली, कोई व्यक्ति सेठ-साहूकार आदि भी हो, और वह यदि मर जाये तो उसे ले जाने के उपरान्त हम जमीन को भी धो लेंगे। धोयेंगे नहीं, तो बैठेगे नहीं वहाँ पर। क्या हो गया ? अभी तक तो एक भी दिन धोया नहीं और उनके मरने से क्यों धोया गया ? सेठ-साहूकार भी अस्पर्श हो गये ? प्रत्येक घर का सदस्य यह मानता है, कि भैय्या जल्दी से ले जाओ और धोओ। जैसे छुआछूत की बीमारी लग गई हो। सब को धोओ। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा नहीं महाराज, लोग ऐसा मानते हैं, कि बाद में वह छूने योग्य नहीं होता। कितने भी अच्छे वस्त्र क्यों न हों, यदि शव को एक बार पहना दिये, तो उनको कोई भी लेना पसन्द नहीं करेगा। नर्मदा के तरफ चले जाते हैं, तो देखने को मिलता है कि सारे के सारे नये वस्त्र वहीं छोड़कर चले जाते हैं। उनको कोई छूता तक नहीं। ऐसा क्यों हुआ ? अच्छा नहीं माना जाता। जब वैराग्य हो जाता है, तो ऐसा ही होता है। श्रृंगार भी अच्छा नहीं लगता। छुओ नहीं। और रागी को क्या लगता है ? जल्दी-जल्दी छोड़ दो इसको, तो हम रख लें। राग होता है तो भोग-सामग्री होती है। लेकिन सही भोक्ता तो मात्र ज्ञान होता है। वह सोचता है, कि मेरे कैसे कर्म का उदय था, जो इसके पीछे पड़कर जीवन को ही गाँवा दिया ?


    चमकीला और बिना चमकीला पत्थर, दोनों समान रहते हैं। जो चमकीला नहीं है, उसको चटनी बांटने के काम में ले लेते हैं और जो चमकीला होता है उसको अपने आप को चमकीला बनाने के लिए गले में बांध लेते हैं। मतलब, गले में पत्थर बांधते हैं और कुछ नहीं बांधा जाता। महाराज! आप पत्थर कह रहे हैं ? क्या कह रहे हैं ? आप इसका मूल्य क्या समझते हैं ? जयपुर के जौहरी बाजार में आकर देख लो, कितना मूल्य होता है ? यह मूल्य निर्धारण तो आप लोगों के द्वारा किया गया है। उसका मूल्य उमास्वामी महाराज ने पंचम अध्याय में कहा है


    रूपिणः पुद्गलाः॥

    चाहे चमकीला हो या चमकीला नहीं हो, सभी रूपी हैं। रूप, रस, स्पर्श, गन्ध वाला पुदूल है। वह जड़ होता है। उसमें रखा गया मूल्य तब तक ही होता है, जब तक राग होता है। यह ध्यान रखो, यदि राग रहते हुए भी उसकी मात्रा बढ़ जायेगी, तो वह अपने आप ही कंकर-पत्थर जैसा हो जायेगा। सोना बहुत कम मात्रा में मिलता है, इसलिए सोना है। और यदि सोने के ढेर में आपको ले जायें, तो क्या ? जहाँ पर कमोवेशीपन नजर आता है, वही पर बड़े-बड़े अहमिन्द्र बन जायेंगे, अन्यथा सब समान हो जायेंगे।


    देखो, यदि सारे के सारे करोड़पति हो जायें, तो एक करोड़पति दूसरे करोड़पति के लिए क्या समझेंगे ? कोई कीमत नहीं। क्या कह रहे हो ? सोच लो जरा। सारे के सारे अरबपति हो जायेंगे, तो भी यही हाल होगा। करोड़पति हो, और अरबपति हो, तो अरबपति का साफा फर्राता रहता है। करोड़पति का साफा भी फर्राता रहता है, लखपति के सामने। लखपति का साफा भी फर्राता रहता है, हजारपति के सामने। हजारपति का भी साफा फर्राता है उसके सामने जो आज का आज लाकर खाता है। आज लाकर खाने वाला भी भिखारी के सामने कहता है, कि अपने परिश्रम की खाता हूँ। तू भी काम करके खा। एक-दूसरे के लिए यह व्यवस्था है।


    जब स्वरूप का बोध होता है, तो न कोई करोड़पति है, न अरबपति। न लखपति है, न हजारपति। न छोटा है, न बड़ा है। न कोई रूपवान् है, न कोई कुरूपी। न कोई ज्ञानी, न कोई अज्ञानी। कोई अन्तर नहीं।


    सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया॥

    शुद्धनय का आलम्बन ले लो, तो सारे के सारे शुद्ध नजर आयेंगे। कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा नहीं। ये जो भी विषमतायें हैं, केवल अशुद्ध निश्चयनय या व्यवहारनय अथवा बाहरी उपचारनय की विषय बन जाती हैं। धन्य हैं वे, जिनके आँख के ऊपर केवल एक शुद्ध निश्चयनय का चश्मा लगा है, वे सब ही जीवों को एक ही दृष्टि से देखते हैं। जहाँ एक समान देखा, कि रागद्वेष नहीं रहे। जहाँ भेद हुआ नहीं, कि रागद्वेष प्रारम्भ हुआ। विकल्प पैदा हो गये।


    विवाह के बाद पति-पत्नी में प्रेम होता है। लेकिन जब संतान उत्पन्न हो जाती है, तो उनका प्रेम बंट जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि दर्शन व ज्ञान ये दो उपयोग रहे तो कुछ भी नहीं होगा। बीच में कोई आ गया, तो बस। उसके माध्यम से कुछ आदर मिला, प्रेम मिला। उसमें ऐसा घुलमिल जाता है कि दर्शन व ज्ञान को भूल जाता है। और दर-दर भटकने लग जाता है।


    पुत्र की रक्षा के लिए सात-समुन्दर को पार करने की भी तैयारियां प्रारम्भ कर देता है। पुत्ररत्न बहुत दिनों तक नहीं मिला था। मिल गया, तो फूला नहीं समाता। मिठाई बांटने लग जात है। दूसरे दिन सोचने लग जाता है-इसके लिए दस खण्ड का मकान चाहिए। इसके लिए जमीन चाहिए। इसके लिए जायजाद चाहिए। इसके लिए दुकान चाहिए। नौकर चाहिए, चाकर चाहिए।

     

    यह चाहिए, वह चाहिए। मैं यहाँ पर बैटुंगा, तो यह सब हो नहीं सकता। लाला तू यहीं पर बैठ जा। पत्नी को कह देता है-तू इसको संभाल ले, मैं जाकर आता हूँ। और सात समुन्दर पार हो गया। घर छोड़ा, बार छोड़ा। बार का मतलब क्या ? वाड़ी, जे घर के सामने होती है। उसको बार बोलते हैं। घर छोड़ा, बार छोड़ा, परिवार छोड़ और प्यार छोड़ा, सब छोड़ा। यहीं का यहीं। और धुन लग गई। भटकता-भटकता चला जाता है। मेरा कर्तव्य है, यह तो ठीक है। लेकिन कब तक कर्तव्य है ? जब तक मैं घर में रहूँ, तब तक। फिर तो ठीक है, अन्तिम घड़ी तक कोई छोड़ेगा नहीं। क्या समझते हो?

     

    तीर्थकर क्यों त्यागें, संयम से क्यों अनुरागे.?

    सोचो, विचार करो, भरा हुआ है, फिर भी उसको छोड़ने का विकल्प क्यों आया ? भेदविज्ञान की यही एक मात्र करामात है। हर्ष नहीं, विषाद नहीं, एक मात्र वैराग्य भरा हुआ है। संवेग से परिपूर्ण वह जीवन किसी से प्रभावित नहीं होता। और किसी से प्रभावित नहीं होना ही रागी के लिए एक अवसर प्रदान करता है, यह सोचने के लिए कि क्या बात है ? सब कुछ होते हुए भी क्यों इधर आ गये ? रहस्य समझना हो, तो कुछ समय के लिए यहाँ रहो। पूछने की कोई आवश्यकता नहीं ? क्योंकि इन्हीं समस्याओं के कारण विकल्प होते हैं। लेकिन अब उनको कोई भी संकल्प नहीं, विकल्प नहीं। कल की चिन्ता नहीं। अरे, कल की चिन्ता क्या करते हो ? चिन्ता करने वाले चिन्ता करें। लेकिन कल कोई वस्तु नहीं। आज आराम के साथ रहता है जंगल में भी। कल नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। वस्तु कैसे नहीं है ? भरी हुई हैं वस्तुएं। जमाना ही भरा हुआ है। जहाँ कहीं भी चले जाओ, सभी जगह विषय मिलते रहते हैं। धन्य हैं वे, जिन्होंने इस रहस्य को समझा। उत्तम त्याग वहीं है, जहाँ किसी के प्रति राग नहीं रहता।


    जो राग करता है, वह बंध को प्राप्त होता है। राग से मुक्त वह होता है, जो वीतराग होता है। इस प्रकार का बंध व मोक्ष तत्व का संक्षेप में यह व्याख्यान है। भगवान् ने कहा-किसी भी पदार्थ के प्रति राग और द्वेष मत करो, यही एक मात्र सही त्याग व तपस्या है। परद्रव्य को छोड़ना यह वस्तुतः भीतरी राग को छोड़ने का एक बाहरी/औपचारिक उपाय है और कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार ऑपरेशन के पहले इंजेक्शन लगाना होता है, तो स्प्रिट के द्वारा कुछ जगह को साफ कर लेते हैं। यह कोई उपचार नहीं है। यह कोई ट्रीटमेन्ट नहीं है। कोई चिकित्सा नहीं है। यह कोई पैथी नहीं है। केवल उस स्थान को शुद्ध कर लिया गया, ताकि हम इंजेक्शन लगा सकें। बस इतना ही बाहरी त्याग का अर्थ है। बाहरी त्याग का अर्थ, केवल स्प्रिट लगाकर उस स्थान को साफ करने का प्रयास कर दिया गया। भीतर से यदि राग का विमोचन होता है, तो संयमलब्धि स्थान बन जाते हैं। नहीं तो ऐसा लगते हुए भी, कि हम तो पार हो गये, ऊपर चढ़ गये, लेकिन होता नहीं। कब नीचे आ जाता है ? कब ऊपर चला जाता है ? यह सब भीतर के भावों पर ही आधारित होता है। वस्तु हाथ में नहीं, वस्तु के प्रति राग हुआ नहीं, कि वह नीचे आ गया। और वस्तु वहीं की वहीं है। यदि राग छोड़ दिया, तो वह ऊपर चढ़ गया। जैसे, थर्मामीटर में पारा रहता है। उसको आपने टच भर कर दिया तो क्या वह आपके भीतर घुस गया ? थर्मामीटर कहीं घुसा तो है नहीं। यहाँ टच करा दिया, तो उसमें बुखार चढ़ गया। ध्यान रखना, थर्मामीटर में बुखार नहीं चढ़ा। बुखार तो आपमें ही है। थर्मामीटर बता रहा है, कि १०६डिग्री बुखार है।


    मानलो, किसी ने गाली सुना दी, तो पारा चढ़ गया। दूसरा भी वहीं पर बैठा है, उसको नहीं चढ़ा। क्योंकि उसने स्वीकार नहीं किया। त्याग होने के उपरान्त जिसके जीवन में यह दशा हमेशा बनी रहती है, तो निश्चित रूप से असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा करता हुआ, अवश्य ही कुछ दिनों में या वर्षों में या भवों में वह मुक्त होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। यहाँ का व्यक्ति जो निर्वाण को प्राप्त होता है, वह आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त मुक्त हो सकता है। इतनी कम उम्र में वह मुक्त हो सकता है। महाराज! ऐसा भी कोई रास्ता है क्या ? हाँ, रास्ता है। आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त में मुक्त होने की बात कही है। यहाँ से सीधे विदेह चला जायेगा, लेकिन सम्यग्दर्शन छूटेगा। यह ध्यान रखना। वहाँ पर आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त के बाद मुनि बनेगा और मुक्त हो जायेगा। किसी को पता ही नहीं लगेगा, कि कहाँ गया हमारा दोस्त ? ऐसे भी रास्ते हैं ?


    राग और द्वेष, विषय और कषाय, बन्ध और मोक्ष ये समझ में आ जायें, तो सब सरल है। लांग लाइन से आप चलोगे, तो कुछ होने वाला नहीं है। त्याग वस्तुत: बाहरी नहीं वरन् भीतर चेतन में जो राग, द्वेष, मद, मत्सर आदि हैं, उन्हीं का त्याग करना है। उनके प्रति अहम् बुद्धि छोड़ देना है। इसी त्याग को उत्तमत्याग संज्ञा दी गई है। वह ख्याति, पूजा व लाभ के लिए नहीं किया जाता, वरन् आत्मोन्नति के लिए, कर्म निर्जरा के लिए किया जाता है। उस त्याग को हम बार-बार नमस्कार करते हैं, जिसके माध्यम से हमारा विकास अवश्यंभावी है।


    अहिंसा परमो धर्म की जय...


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    Samprada Jain

      

    सम्यग्दृष्टि में वह पाषाण की मूर्ति नहीं रही। उसके इर्द-गिर्द परिसर में जाते ही उसके परिणामों में भगवद्रुप के ही परिणाम हो जाते हैं। यद्वा-तद्वा वहाँ बोल नहीं सकता, पूंछ नहीं सकता, ठहर नहीं सकता, बैठ नहीं सकता। भगवान् के सामने मौन संकल्प लेकर के बैठ जाता है। 

     

    त्याग ख्याति, पूजा व लाभ के लिए नहीं किया जाता, वरन् आत्मोन्नति के लिए, कर्म निर्जरा के लिए किया जाता है।

     

    जो राग करता है, वह बंध को प्राप्त होता है। राग से मुक्त वह होता है, जो वीतराग होता है।

     

    जहाँ कहीं भी चले जाओ, सभी जगह विषय मिलते रहते हैं। धन्य हैं वे, जिन्होंने इस रहस्य को समझा। उत्तम त्याग वहीं है, जहाँ किसी के प्रति राग नहीं रहता।

     

    शरीर को काम में लो (साधना आदि काम में), लेकिन उसके प्रति ममत्व का त्याग करो।

     

    सिद्धान्त ग्रन्थों में यही कहा है, तब तक उसकी बुद्धि की समीचीनता सिद्ध नहीं होती, जब तक पर को अपना मानकर उस पर अपना अधिकार रखने का प्रयास कर रहा है। और जिस समय उसको ज्ञात हो जाता है, कि यह तो मेरा था ही नहीं, होगा भी नहीं और है भी नहीं। फिर उसका क्या किया जाय ? इसी को अध्यात्म बोलते हैं। बड़े-बड़े तपस्वी तप करके अभिमान इसलिए नहीं करते। यह तप कहाँ? शरीर को तपाना तप नहीं है, किन्तु ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञान की निर्जरा है, ज्ञान ही रत्नत्रय है, ज्ञान ही संवर है, ज्ञान ही सर्वस्व है। 

     

    अपना हो, तो राग करो। अपना है ही नहीं, तो किसके ऊपर आप राग कर रहे हैं ?

     

    धन्य हैं वे, जिनके आँख के ऊपर केवल एक शुद्ध निश्चयनय का चश्मा लगा है, वे सब ही जीवों को एक ही दृष्टि से देखते हैं। जहाँ एक समान देखा, कि रागद्वेष नहीं रहे। जहाँ भेद हुआ नहीं, कि रागद्वेष प्रारम्भ हुआ। विकल्प पैदा हो गये।

     

    ~~~ उत्तम त्याग धर्मांगाय नमो नमः।

    ~~~ णमो आइरियाणं।

     

    ~~~ जय जिनेंद्र, उतम क्षमा!

    ~~~ जय भारत!

    2018 Sept. 21 Fri. 12:46 @ J

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