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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • धर्म देशना 3 - भव्यत्व का प्रतीक : आर्जव

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    रास्ता सीधा ही होता है, लेकिन चलने वाला सीधा नहीं हो पाता है। मोक्षमार्ग टेढ़ा नहीं है। मार्ग हमेशा सीधा ही रहता है। भव्य के पास शान्त होने की योग्यता है। अब कम से कम सादि-अनन्त और अनादिसान्त पर्याय को प्राप्त करें, यही आर्जव धर्म का मन्तव्य है।


    सीधे सीझे शीत है, शरीर बिन जीवन्त।

    सिद्धों को शुभ नमन हो, सिद्ध बनूँ श्रीमन्त॥

    जो सीधे हो गये हैं, उनको मैं बार-बार नमन करता हूँ। जो सीधे नहीं हुए हैं वे सीधे हो जाएं, इस प्रकार की भावना करता हूँ। भावना तो करना ही चाहिए। क्योंकि उसमें मेरा भी नम्बर आ जाता है। भावना तो यह होना चाहिए कि हम सब सीधे बन जायें। सूर्योदय शतक के मंगलाचरण में लिखा, यह दोहा बहुत प्यारा है। संसार में कोई भी व्यक्तित्व ऐसा नहीं दिखता जो इस दोहे के योग्य भाव लाने का प्रयास करता हो। बिन सीझे इसका अर्थ है, यहाँ विद्यमान हैं। और शीत नहीं, इसका अर्थ गर्म है। यहाँ पर विद्यमान हैं। इसलिए सशरीरी हैं, अशरीरी नहीं हैं, यह निश्चित किया जाता है।


    उन सिद्धों को बार-बार नमस्कार करता हूँ, जिनको कि अरिहन्त परमेष्ठी प्रत्यक्ष-परोक्ष ध्यान का विषय बनाये रहते हैं, और तीर्थकर भी जब तक घर में रहते हैं, सम्पूर्ण छद्मस्थ काल में नम: सिद्धेभ्यः कहते हैं। जिन्होंने साध्य को सिद्ध किया है, वस्तुत: वही पूज्य माने जाते हैं। पूज्य बनने हेतु जो साधन अपनाए जाते हैं, वे भी पूज्य माने जाते हैं। और कथचित् धन्यवाद के पात्र होते हैं। क्योंकि इन सारे के सारे व्यक्तियों की दिशा एक है। भले ही आगे-पीछे हो, फिर भी रास्ता वही है।

     

    कोई व्यक्ति विमान के माध्यम से जाता है, उसके लिये बहुत दाम चाहिए, तब वह विमान में बैठने का सौभाग्य प्राप्त करता है। बहुत जल्दी मंजिल तक पहुँच जाता है। यदि इतना पैसा नहीं है तो कोई एक्सप्रेस ट्रेन से चला जाता है। सुनते हैं आजकल विमान और ट्रेन के चार्ज एक जैसे हो गए हैं। उसका कारण यह है कि विमान ऊपर चला जाने पर हृदय धक्र-धक् करने लग जाता है, किन्तुरेल में ऐसा नहीं होता। यदि यह भी नहीं है तो उससे कम दाम में चलने वाला वाहन ले लेते हैं। ऐसा करते-करते कोई व्यक्ति साइकिल भी लेता है। वह भी नहीं है तो पैदल यात्रा करना शुरू कर देता है। पैदल में भी कोई चलता है, कोई दौड़ता है, कोई कूदता है। कूदने का मतलब उसी दिशा में कूदने वाला। मेंढक का भी तो नम्बर आता है, वह पंचम गुणस्थानवर्ती होता है और कमाल का काम करता है। बहुत सीधा रहता है, आप भी उसे देखने और जानने का प्रयास कीजिये। स्वामी समन्तभद्र महाराज ने ऐसे व्यक्तित्व को हमारे सामने रखने का प्रयास इसलिए किया है, क्योंकि वह भी उसे ओर जा रहा है, जिस ओर महावीर भगवान् पहुँच गये हैं।


    रास्ता सीधा ही होता है, लेकिन चलने वाला सीधा नहीं हो पाता है। मोक्षमार्ग टेढ़ा नहीं है। मार्ग हमेशा सीधा ही रहता है।आर्जवधर्म की क्या बात है ? आर्जव बनने की बात सोच लेना चाहिए। आर्जव का कथन नहीं आर्जव का जतन होना चाहिए। वस्तुत: आर्जव होना निकट भव्यत्व का प्रतीक लगता है। दूसरे के ऊपर यह निर्भर नहीं है, किन्तु दूसरे को देखकर किया जा सकता है। दूसरा सीधा है, इसलिए हम भी सीधे हो सकते हैं। प्रयोजन के अनुसार वह व्यक्तित्व अपनाया जा सकता है। प्रयोजन के बिना यह संभव नहीं है। आज तक कितने जीवों ने इस आर्जव धर्म की शरण लेकर अपने आपको सीधा बनाया है ? इसकी गिनती नहीं कर सकते, केवलज्ञानी ही जान सकते हैं, किन्तु वे भी बता नहीं सकते। कब से यह मोक्षमार्ग प्रारम्भ हुआ ? इसको भी वे कह नहीं पायेंगे, क्योंकि अनादिकाल से यह मार्ग खुला है, किन्तु कहने पर अनन्त ही कहेंगे। जब उन्होंने कैवल्य को उपलब्ध कर लिया, उस समय दिखा तो भी अनन्त दिखा। केवलज्ञान से पूर्व संज्ञी अवस्था में इस तत्व पर श्रद्धान करके भी मार्ग को अनन्त माना था।


    मंजिल या मार्ग को जानना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना अनुभूत करना। जानना शब्दों के माध्यम से होता है। मानना आस्था के माध्यम से होता है और अनुभव करना चेतना के माध्यम से हुआ करता है।जिस समय अनुभव करते हैं, उस समय जानते भी हैं और मानते भी हैं, पर कथन नहीं करते। जिस समय कथन की प्रणाली आरम्भ करते हैं, उस समय हम उससे हटकर बाहर आ जाते हैं। अध्यात्म का यह मूल तथ्य है, और आचार्य कुन्दकुन्द जैसे महान् आचार्य अध्यात्म के अनुभव या अहसास को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके यहाँ विश्वास और श्रद्धान भी अनुभूति परख है। बात बड़ी विचित्र जैसी लगती है कि जानना भी उनके यहाँ अनुभूति है और श्रद्धान करना भी अनुभूति है।


    सद्वृहदि य पत्तेदि य रोचेदि जां पुणो वि फासेदि।

    ज्ञान का अर्थ वहाँ पर संचेतना है। एकमेक होना है। महसूस करना है। जिस समय हम महसूस करते हैं, तब शब्द चूक जाते हैं। वाणी मूक हो जाती है और बाहरी संकेत भी अचेत हो जाते हैं। आधार भी निराधार हो जाते हैं। सब प्रवृत्तियां शान्त होती हैं, जब निवृतिपरक कार्य होने लगते हैं।


    जल पीऊँ, जल पीऊँ, जल पीऊँ इस प्रकार कहते हुए एक दो माला फेर लो, तो मुंह और सूख जायेगा, और सूखने के उपरान्त जल पीऊँ, जल पीऊँ यह वाणी भी बंद हो जायेगी। अगर जल नहीं पिया तो कंठ और सूखता नजर आयेगा। किन्तु जब जल पीता है, उस समय जल पी रहा हूँ ऐसा नहीं कह सकता। ऐसा कहते ही उसको जल लग जाता है, जल बाहर आ जाता है। आज प्राय: जल पीते हैं या नहीं, पर ठसका बहुत लगते हैं। आध्यात्मिक ठहाके देखने हों तो आज की संगोष्ठियों में देख सकते हैं। चर्चायें, संगोष्ठियां, ये, वे बहुत सारे हो रहे हैं, लेकिन वह दृष्टि बहुत कम देखने को उपलब्ध हो रही है। जिसमें भीतर की भी आँख बंद करके और बाहर के भी कान बंद करके आत्मतत्व का सीधा दर्शन हुआ करता है। आचार्य कुन्दकुन्द इस प्रकार के व्यक्तित्व को बार-बार नमस्कार करते हैं। द्रव्यश्रुत केवली को तो वह कह जाते हैं – न जानाति आत्मतत्वं। किन्तु भावश्रुतकेवली को बार-बार नमस्कार करते हैं। क्यों करते हैं ? क्योंकि द्रव्यश्रुत के मनन/अध्ययन/चिन्तन का प्रयोजन यही है, कि वह अपने आपमें लीन हो जाए। चलने वाला व्यक्ति चलता जाता है, उसके आजू-बाजू वाले व्यक्ति या पीछे वाले व्यक्ति सोचने लग जाते हैं कि भैया इसका यह मार्ग अलग क्यों ? बिना पूछे या बिना कहे ही पूछने लग जाते हैं। और पूछने के उपरान्त यदि वह नहीं बताता है तो यह सोचकर कि यही मार्ग सही है। उसके पीछे-पीछे लग जाते हैं। कौन पीछे लगे? उसे यह पता नहीं। लेकिन यदि वह व्यक्ति सही मार्ग पर है, तो उसके पीछे लग जाते हैं।


    आर्जव धर्म के बारे में यही कहा जाता है। तीर्थकरों ने धर्म का उपदेश दीक्षित होने के उपरान्त नहीं दिया। उपदेश क्या दे दें ? पहले भावेण होई णग्गो सर्वप्रथम भाव लिंगी होना ही आवश्यक कहा जाता है। क्योंकि उसका अनुभव करने के उपरान्त, द्रव्य का प्रदर्शन करना चाहिए। भाव यदि ज्ञात नहीं है और दुकान में द्रव्य को दिखाओ तो क्या होगा ? चौपट हो जायेगा। मुफ्त में ही लेकर चले जायेंगे। भाव बड़े ही महत्वपूर्ण होते हैं। लेकिन वह पकड़ में नहीं आते। लब्थ्युपयोगी भावेन्द्रियम वह सीमा को लेकर चलते हैं। द्रव्य इन्द्रिय जीवन के अन्त तक चलती है, अर्थात् उनकी निवृत्ति और उपकरण बना रहता है। भाव इन्द्रिय कई बार परिवर्तित हो जाती है। उपयोग में अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त परिवर्तन अनिवार्य हो जाता है। एक अन्तर्मुहूर्त के लिए भावश्रुतकेवली सीधे हो जाते हैं, और अन्तर्मुहूर्त के लिये वे सीधे नहीं। एक प्रकार से वे टेढ़े हो जाते हैं। घड़ी में पेंडुलम होता है, वह सीधा लम्ब रूप में कब रहता है ? छह पर रहता है। वह बारह की ओर तो नहीं जाता। ऊपर की ओर तो जाता ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा सात तक या इधर पाँच तक। छह पर कब आता है ? बहुत कम समय के लिए आता है। इतना ही स्पर्श हो जाय तो काफी है। यह अप्रमत्त दशा है। सीधापन इसी को बोलते हैं। कभी ऊपर से नीचे आता है, और पुन: ऊपर चला जाता है। यह उसका कार्यक्रम चलता रहता है।

    जो व्यक्ति एक-एक क्षण के लिये, एक-एक अन्तर्मुहूर्त के लिए शुद्धत्व का, सिद्धत्व का, पारिणामिक तत्व का सीधा स्पर्श करता है, आह्वाद का अनुभव करता है, वह कथन नहीं करना चाहता है। क्योंकि कथन करने से उस तत्व का भान किसी को होगा नहीं। उसका संवेदन किसी को होगा नहीं। और जिस समय उसका कथन करेगा, उस समय जो देने वाला है, वह भी उससे वंचित हो जायेगा। जब भोजन करते हैं उस समय श्वांस नली में एक बूंद पानी चला जाय ती ठसका लग जाता है।


    दो नलियाँ रहती हैं - एक भोजन नली व एक श्वांस नली। श्वांस नली में भोजन का एक दाना भी चला जाय तो ठसका लग जायेगा। और इधर दूसरी नली में जाने पर ठसका नहीं लगता। ऐसा क्यों ? मोक्षमार्ग में परिग्रह वृत्ति का एक दाना भी पहुँच जाय तो ठसका लग जायेगा। लेकिन वह परिग्रह किस नली में भर रहे हैं हम नहीं कह सकते ? समझ में नहीं आता और वह तो भरता ही चला जायेगा।


    परिग्रह यह अपने आपको टेढ़ा बनाने वाला पदार्थ है। वह व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता जो स्मृति रखता है, यह आगम का कथन है। यह कथन कहाँ है महाराज ? भविष्य के बारे में सोचना एवं अतीत के बारे में सोचना भी टेढ़ा है। बिल्कुल टेढ़ा है। प्रथम अध्याय के अन्तिम सूत्र में यह आया था। ऋजुसूत्र व वक्रसूत्र आया था या नहीं? सुना हो, तो वक्रसूत्र भी आया था। एक स्थूल ऋजुसूत्र होता है अथवा अशुद्ध ऋजुसूत्र। अशुद्धऋजुसूत्र अनेक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है। स्थूल ऋजुसूत्र भी अनेक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है। लेकिन सूक्ष्म व शुद्ध ऋजुसूत्र एक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है। उसकी दृष्टि में न अतीत है, न अनागत है। यह ध्यान रखना, आचार्य कुन्दकुन्द ने सोच-विचार कर कहा है कि संसार में समय की विवक्षा से केवल ऋजुसूत्र ही कार्य करता है। अन्य जितने भी कार्य हैं सब व्यवहार के कार्य हैं। और व्यवहार एक प्रकार से उपचार ही माना जाता है। क्योंकि भविष्यकाल है ही नहीं और भूतकाल भी नहीं। अर्थात् जो परिणमन करेगा, वह आज नहीं और जो परिणमन कर चुका है वह भी आज नहीं। इसलिए अर्थ यानि ज्ञान का विषय यदि अर्थ के रूप में आता है, तो केवल वर्तमान आता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अनागत पर्याय को अव्यक्त पर्याय माना है। व्यक्त पर्याय का संवेदन होता है। जबकि अव्यक्त पर्याय की आशा और स्मृति रह सकती है। आशा भी जो नहीं है उसी की की जाती है, और स्मृति जो वर्तमान में है ही नहीं, घटित हो गई है, उसकी ही की जाती है। यदि वर्तमान को विषय कर लें, तो स्मरण समाप्त हो जाता है। वर्तमान में स्मरण का मरण हो जाता है। अगर वर्तमान से खिसक जायें तो वर्धमान भी पकड़ में नहीं आयेंगे।

    हमेशा-हमेशा वर्तमान में जीने का प्रयास जो करता है, वह ऋजुसूत्र के विषय को धारण करता है। वह आर्जव धर्मी माना जाता है। कितना सूक्ष्म है यह ? अन्तिम समय भी यदि शेष है, यानि रविवार आने वाला है, तब भी शनिवार चल रहा है। जब तक बारह बजने में एक सेकेण्ड भी कम है, तब तक शनिवार चल रहा है। टेढ़ापन चल रहा है। रविवार नहीं है। रविवार जिस समय आया, उस समय शनिवार नहीं है। कितना अन्तर है ? आचार्य कहते हैं-जब तक वह अपने क्षेत्र से नहीं खिसकता शनिवार ही माना जाता है। वर्तमान पर्याय के अलावा हम तो कुछ भी सोचते हैं, वह वास्तव में है ही नहीं। अव्यक्त है। वह ऐसा अव्यक्त है जिसका व्यंजनावग्रह भी नहीं होता। व्यंजनावग्रह के लिये भी अन्तर्मुहूर्तवर्ती पर्याय अपेक्षित है। तब कहीं आप व्यंजनावग्रह को पकड़ सकते हैं। भले ही आप ईहा नहीं कर सकते, धारणा नहीं कर सकते, लेकिन व्यंजनावग्रह की पर्याय भी अन्तर्मुहूर्तवर्ती है। एक समयवर्ती पर्याय ऋजुसूत्रनय का विषय है। उसमें कार्य-कारण की व्यवस्था नहीं। आधार-आधेय की व्यवस्था नहीं। गुण-गुणी की व्यवस्था नहीं। यहाँ पर कोई कल्पना नहीं चलती।


    जो क्षणक्षायी हुआ करता है, उसमें कार्य-कारण की व्यवस्था नहीं होती है। अनेक प्रकार के जो विकल्प उत्पन्न होते हैं, संकल्प उत्पन्न होते हैं, वह सारे के सारे कार्य-कारण की व्यवस्था को लेकर, या पूर्वोत्तर पर्यायवर्ती व्यवस्था को लेकर, या आधार-आधेय व्यवस्था को लेकर होते हैं। जिस समय आपने जिसको आधार स्वीकार किया, उस समय आधेय की ओर दृष्टि नहीं गई। जिस समय आधेय की ओर दृष्टि गई आधार गायब हो गया। और यह व्यवस्था नहीं बन पाती है। इस प्रकार सीधापन प्राप्त करने के लिये हमें भूत और भविष्य को विस्मृत करने की आवश्यकता है। वस्तुतः काल की इकाई समय है। चूंकि पुद्गल के आश्रित होकर ही व्यवहार काल की व्यवस्था की जा सकती है। यह पचास वर्ष का हो गया, यह चालीस वर्ष का हो गया और यह दस वर्ष का हो गया, ये सारी पर्यायें व्यवहार काल के साथ जुड़ी हुई हैं। और व्यवहार काल स्वयं आश्रित नहीं है। व्यवहार काल पुदूल और जीव पदार्थों के परिणमन पर आधारित है। संग्रह करके, समूह करके या एकत्रित करके जैसे पुदूल को अस्तिकाय की संज्ञा दी जाती है, उसी प्रकार काल की इकाई को संग्रह करके हम एक मिनिट, एक घड़ी, एक अन्तर्मुहूर्त, एक मुहूर्त और दिन आदि कहते चले जाते हैं। काल की इकाई को देख लो, तो वहाँ कोई विकल्प नहीं है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से आप लोगों को सोचना है कि हमारा स्वभाव क्या है ?


    ऋजो भवि: आर्जव:। अ कहाँ से आ गया ? ऋ में से। आ कैसे पैदा हो गया ? बिल्कुल ठीक है, आ की उत्पत्ति ऋ की वृद्धिमूलक हुआ करती है। ऋजोभांव: आर्जव:। ऋषि से सम्बन्ध रखने वाला मार्ग आर्षमार्ग माना जाता है। ऋजु के साथ सम्बन्ध रखने वाला आर्जव होता है। उसका भाव आर्जव होता है। इसलिए भाव परक यह धर्म है, न कि द्रव्य परक। इसमें द्रव्यपरक धर्म की कल्पना की जाती है। इसमें वृद्धि होती है और वृद्धि होती तो ऋगायब हो जाता है। उसी प्रकार जब हम वर्तमान में आ जाते हैं तो अतीत और अनागत दोनों गायब हो जाते हैं। गायब क्या ? कल्पना के विषय थे, मौजूद तो थे ही नहीं।


    आप लोगों के यहाँ चलता है। दुकानदार हैं न आप लोग। प्राय: करके सब लोग दुकानदार हैं। दुकानदारी करते हैं। दुकान में एक बोर्ड लिखा हुआ रहता है। क्या लिखा रहता है उस पर ? क्यों हंसने लगे ? अव्यक्त पर्याय को भी पकड़ने की क्षमता इन लोगों में है। जो कहा ही नहीं उसको भी पकड़ लिया। दुकान में बोर्ड लगा रहता है, इतना ज्ञान है, और कहते हैं कि-महाराज! हमें कुछ नहीं आता। फिर कैसे भविष्य की बात सोचने लगे। समझ में आ गया कि आज नकद कल उधार। ये ग्राहकों को फंसाने के लिये है। सही बताओ ? महाराज! आज सत्य धर्म थोड़े ही है, सत्य धर्म आने दो तब बता देंगे। आज तो आर्जव धर्म है। आप सुना दीजिये। इस प्रकार कहे बिना और वहाँ पर बोर्ड लगाये बिना कोई ग्राहक नहीं आ सकता। लेकिन यह बोर्ड भी कम से कम एक दिन तो चरितार्थ होना चाहिए। यह ऐसा बोर्ड है कि हमेशा आश, जिज्ञासा, भरोसा रखकर ग्राहक आपके पास आता है। और आप उसे लूटते रहते हैं। समझ में नहीं आता। आपको भी कोई इसी प्रकार लूटे तो बताओ ? महाराज! हम ऐसे चतुर हैं, हम लूट तो सकते हैं, लेकिन स्वयं को नहीं। संसारी प्राणी बहुत चतुर लगता है। यह संसार भी मृग-मरीचिका के समान है। कल आता जैसे लगता है, लेकिन कल कभी भी आता नहीं। और कभी-कभी आज भी जब बारह घंटों का हो जाता है तो उस समय आप लोग क्या कहते हैं-कल करें सो आज कर, आज करे सो अब । यानि वर्तमान रूप आज स्थूलऋजुसूत्र नय का विषय है। आज कहने से बारह घंटा हो जायेगा, इसलिए आप अब की ओर चले जाते हैं, उसमें आश्वासन नहीं चाहते। भविष्य में, उधार में आप काम करना नहीं चाहते, नकद लाओ। नकद यानि हाटकेस। हाटकेस क्या कोई सूटकेस जैसा है ? हाटकेस तो बात ही अलग है। वस्तुत: संसारी प्राणी जिस दशा में पुरुषार्थ करता है, सोच-समझ कर करता है। पूरा समय लगा देता है। पूरी मेहनत करता है, पूरा जीवन लगा देता है। आहार, पानी आदि से वंचित रहकर भी वह कार्य करता है। वस्तु का परिणमन था, है, रहेगा। उसे भी तीन कालों में बांटना नहीं चाहिए। वस्तु परिणमनशील है। वस्तु परिणत हो गई, अथवा वस्तु परिणत होगी। यह भी गड़बड़ है। वस्तु परिणमन कर रही है यह कहने से भी कार्य की ओर दृष्टि चली जाती है। कन्टीन्यू वस्तु परिणमनशील है। यह धर्म की ओर आ जाता है।


    चार बातें हो गई। वस्तु परिणमन कर रही है, यह कहने से क्या होता है ? काल सापेक्षित होता है। यह भी जानना ठीक नहीं। क्योंकि इसमें निमितपरक अर्थ निकल जाता है। इसमें वर्तमान कहने पर आप वस्तु को न ग्रहण करके काल की ओर चले जाते हैं। परिणत था, कहने से अतीत की ओर चले जाते हैं। परिणत होगी, ऐसा कहने से भविष्य की ओर चले जाते हैं। परिणमन कर रही है, ऐसा कहने से काल के द्वारा परिणमन कर रही है, काल की ओर दृष्टि चली जाती है। परिणमनशील है कहने से ऋजुसूत्रनय आ जाता है। वस्तु हमेशा परिणमनशील रहती है, इसमें हमेशा कहने से तीनों काल आ जाते हैं। लेकिन परिणमन कर चुकी है, कर रही है, करेगी। यह कहने से तीनों काल की ओर दृष्टि चली जाती है। और परिणमनशील कहने से It is nature of trade thinks. वह स्वभाव है। एक वस्तु दूसरे के ऊपर आधारित नहीं। यह वस्तु का सीधापन माना जाता है। Independed शील, स्वभाव, धर्म ये सब अपने ही अपेक्षा को लेकर के चलते हैं। इसका अभाव पर सापेक्ष होता है। शील का अभाव पर चतुष्टय की अपेक्षा से, किन्तु शील का सद्भाव पर की अपेक्षा से नहीं, स्व की अपेक्षा है। जो कि आर्जव धर्म यानि सीधापन स्व सापेक्ष है। सीधापन या आर्जवधर्म सिद्धों में भी पाया जाता है।


    आप लोग चरखा के माध्यम से या तकली के माध्यम से सूत कातते हैं, निकालते हैं, रुई की पोनी बनाते हैं और चरखा या तकली से जोड़ कर घुमाते हैं। नीचे तकली को घुमाते हैं, पोनी को नहीं। हाँ, तकली। नहीं समझ में आया ? तसल्ली रखो, सब समझ में आ जायेगा। नीचे एक हाथ से घुमाते हैं, और ऊपर से पोनी लगाते हैं, त्यों ही पोनी में से सूत यूँ खींचने से प्रसूत होने लग जाता है। लेकिन यह ध्यान रखना, नीचे की तकली उत्पादव्ययधौव्ययुक्त सत् न उत्पाद हुआ न व्यय हुआ, ज्यों का त्यों ध्रुव रहेगा, तो पोनी पोनी में रहेगी। और हाथ में तकली रहेगी। कोई सूत नहीं निकलेगा। अब देखो, डोर तो निकलती चली जाती है, लेकिन बार-बार टूटने लग जाती है। इसका कारण क्या है ? इसका कारण है, तकली में जो डंडी होती है, वह भले थोड़ी-सी टेढ़ी हो स्थूल ऋजुसूत्रनय का विषय हो तो डोरी बार-बार टूटने लग जाती है। और उसकी गति बिगड़ती चली जाती है। जैसे ही तकली की गति बिगड़ती चली जाती है, वैसे ही जो सूत को निकालने वाला रहता है, उसका भी दिमाग खराब होने लग जाता है। उसको गति देते चले जाइये। और निकालते चले जाइये। नीचे देखने की कोई आवश्यकता नहीं। गति देते चले जाते हैं एक हाथ से और ऊपर से वह खेचते चले जाते हैं। उसमें भी नम्बर होते हैं। जितने चाहें, उतने नम्बर निकाल लें।यदि बहुत वेग से घुमाओगे, तो सूत टूट जायेगा। और बहुत कम गति से घुमाओगे तो भी उसमें नम्बर ठीक नहीं जायेंगे। इसलिए उत्पादव्यय-धौव्ययुक्त सत् रूप जो द्रव्य में से प्रतिसमय सूत की भांति पर्यायें निकलती चलीं जा रही हैं, अटूट हैं, कभी भी नहीं टूटतीं। वे पर्यायें सीधी होना चाहिए, तो आनन्द का अवसर हम लोगों को प्राप्त होता है। थोड़ी-सी भी गति बिगड़ गई तो वह आनन्द का स्रोत टूट जाता है।


    द्रव्य त्रैकालिक है। परिणमन द्रव्य का स्वभाव है। वह सदा निकल रहा है, व्यतीत हो रहा है। निकलना उसका स्वभाव है। कल जैसा सुख चाहते हो, मिलना भी चाहिए। आने वाले कल के लिए भी ऐसा ही चाहिए। अरे! यदि द्रव्य परिणमन आज कर रहा है, तो कल भी ऐसा ही करेगा, चिन्ता क्यों करते हो ? इस अतीत की चिन्ता, स्मृति और अनागत की जिज्ञासा, आशा संसारी प्राणी को मिटाती है।


    भगवान् नासा पर दृष्टि रखते हैं। और आप आशा पर दृष्टि रखते हैं। बस इतना ही अन्तर है। भविष्य की प्रतीक्षा में नहीं, अपितु निरीक्षण में उनका प्रतिक्षण गुजर रहा है। प्रतीक्षा अन्य समय की इच्छा है और निरीक्षण प्रत्येक समय में देखने-जानने रूप स्वभाव है। जब हमारी दृष्टि सामने चली जाती है, तो भविष्य दिखता है। हमारी दृष्टि पीछे चली जाती है, तो पीछे की घटना सामने आ जाती है।


    कार चलाते हैं। एक सामने की ओर काँच होता है। वहीं पर अर्थात् बगल में एक दर्पण और लगा है। उस काँच में भी देखना पड़ता है और सामने के काँच में भी देखना पड़ता है। एक काँच सामने आने वाले पदार्थों को दिखा देता है और वहीं पर लगाया हुआ दूसरा काँच पीछे कौन आ रहा है, उसको दिखाता है। इसी तरह आप अपने उपयोग को कभी भविष्य की ओर, कभी अतीत की ओर ले जाते हैं। बैठे तो रहते हैं वर्तमान में। आप सीधे से लगते हैं। लेकिन सीझे नहीं हैं। इसलिए निश्चित है कि सीधे नहीं है हम। सीझने का अर्थ है पक जाना, निष्पन्न दशा का अनुभव करना। उसे कौन कर सकता है ? जिसका स्वभाव होगा वही पक सकता है। जिसके पास स्वभाव नहीं है तो वह पक नहीं सकता। जो ऋजु होगा, जो जायेगा, नहीं तो नहीं।


    एक व्यक्ति निशाना साधकर बैठा है। वह धनुर्विद्या में निष्णात है। बाण धनुष पर चढ़ा रहा है और छोड़ रहा है। किन्तु निशाना चूक जाता है तो पुन: एक बाण निकालता है और वह निशाना साधकर छोड़ देता है। पुन: वह चूक जाता है। बार-बार वह ऐसा करता है। विश्वास नहीं होता अपनी कला के ऊपर। बात क्या हो गई ? बात कुछ भी नहीं। किन्तु क्या ? इसी को बोलते हैं-इषुगति। इषु माने बाण की गति। बाण की गति बिल्कुल सीधी होती है। फिर निशाना क्यों नहीं बन रहा ? बाण में निशाना नहीं। निशाना आँख में होता है। और दूसरी बात यह है, निशाने के लिये आँख ठीक देख रही है कि नहीं। फिर भी बाण वहाँ पर क्यों नहीं जा रहा है ? वह इषु नहीं था बाण। उसमें थोड़ी-सी वक्रता थी। उसके कारण वहाँ तक जाकर भी सफल नहीं हुआ।


    जब हम वस्तु को देखना चाहें तो उस दृष्टि में सरलता पाने का प्रयास करना चाहिए। हम कोण को बना लेते हैं। इसके कारण हमें वस्तु दिख नहीं पाती। दो दोस्त जंगल में चले जा रहे हैं। घूमते-घूमते वहाँ पर एक हाथी चरता हुआ दिखा। वह पेड़ की हरी-हरी टहनियों और डाल को तोड़कर खा रहा था। तोड़ लेता है, खा लेता है, आगे बढ़ जाता है। ऊपर, नीचे, आजू-बाजू वह देखता ही नहीं। दोस्त ने अपने दोस्त को कहा-यह हाथी एक ऑख से अंधा है। कैसे देखा आपने? देखने की कोई आवश्यकता नहीं। नजदीक जाकर देखते हैं तो सचमुच ही हाथी एक आँख से अंधा है। तुम्हें तो अब केवलज्ञान होने वाला है। मन:पर्ययज्ञान हो गया क्या ? परमावधि तो नहीं ? क्या बात है ? तुम्हीं बताओ। तुम सोची, एक आँख से अंधा है इसलिए इसकी दृष्टि तो ठीक है। लेकिन एक ही ठीक है। दूसरी दृष्टि ठीक नहीं है। क्योंकि दाहिनी आँख के पास जो हरी-हरी डाल आदि हैं उन्हें इसने खाया नहीं। ऊपर वाली डाल की ओर ही अपनी सूड को ले जा रहा है। यह तो पास ही है। लेकिन इस आँख के द्वारा यह डाल देखने में नहीं आ रही। इस आँख के पास ज्योति नहीं होने के कारण वस्तु होते हुए भी गायब जैसी लगने लग जाती है। वस्तु में अनेक पहलू होने के कारण हमारी दृष्टि उन सभी पहलुओं को नहीं ग्रहण कर पाती है। और सही-सही निर्णय नहीं ले पाते। अनुभूति में वह नहीं आ पाती। यदि हमारे पास ऐसी शक्ति आ जाय, तो वह इधर और उधर भी होता चला जाए।


    सुनते हैं, पता तो नहीं कि कौवे की दो आँखें नहीं हुआ करतीं। सुना आप लोगों ने भी। अच्छा, अनुभव भी किया है। अब मैं यही कहना चाह रहा हूँ कि सुनना, देखना और अनुभव करना इनमें बहुत अन्तर है। जैसे कौआ इतना जल्दी इधर की गोलक को उधर भेज देता है और उधर की गोलक को इधर भेज देता है। वहाँ दो सांचे हैं आँख के। लेकिन गोलक एक है। इसी तरह हम लोग भी बहुत जल्दी अपने उपयोग को दोनों तरफ ले जायें तो वस्तु की सही परख हो सकती है। इसमें जितने भी पहलू हैं, समझ में आ सकते हैं। और इसके लिए आर्जवधर्म की शरण में जाना अनिवार्य है। भले ही पदार्थ टेढ़ा बना हो। लेकिन स्वभाव की अपेक्षा से सीधा ही है। यहाँ पर स्वभाव का दिग्दर्शन है, और विभाव का गौणीकरण। जैसे जो करिया है वह गैया है। श्यामा, श्यामा . बोलते हैं ना। किन्तु काली गाय का दूध काला होता है क्या ? नहीं होता ना। अरे होना तो चाहिए था। ध्यान रखी, घी पीला हो जाय यह बात अलग है। क्योंकि वह पर्यायान्तर हो गया। लेकिन दूध तो सफेद ही रहेगा, काला नहीं हो सकता। क्योंकि काली तो उसकी त्वचा का स्वभाव है, दूध का स्वभाव नहीं। उसी प्रकार सभी पदार्थ स्वभाव की अपेक्षा से सीधे हैं। सभी पदार्थ आर्जवधर्म की अपेक्षा से आर्जव युक्त हैं। किन्तु वहीं पर पदार्थ से प्रभावित होकर विभाव में आ जाते हैं। इसलिए उनको हम टेढ़ा कह सकते हैं। कैसा भी हो, लेकिन उसका शील या स्वभाव आर्जव ही रहेगा। आज तक कोई भी पदार्थ टेढ़ा न हुआ है, न आगे होगा। क्योंकि उसका परिणमनशील स्वभाव टेढ़ा नहीं है। शरीर टेढ़ा हो जाय, हाथ टेढ़ा हो जाय, और हुंडक संस्थान वाला भी क्यों न हो, वह १४वें गुणस्थान को पार करके चला जाता है। सिद्ध परमेष्ठी को कभी भी विग्रह वाला नहीं माना जाता। क्योंकि उनका शरीर उस समय ऋजु नहीं था। टेढ़ा था इसलिए टेढ़े शरीर के साथ जायेगा। उसे अब विग्रह तो नहीं लेना पड़ेगा। जब कभी भी यह प्रश्न पूछा गया, उस समय हमने तो यही उत्तर दिया-हुडकसंस्थान भले ही हो और उसके माध्यम से वह मुक्त हो जाता है। मानली उसके हाथ-पैर कहीं टूट जायें, तो भी उसका संस्थान यानि आत्मा के प्रदेशों का संस्थान जो रहता है वह मनुष्य के आकार वाला ही रहता है। न कि ऊपर का शरीर टेढ़ा होने के कारण उसमें भी टेढ़ापन रह जाता है। और संस्थान में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। हाथ-पैर टूट जाय और उसी अवधि में केवलज्ञान प्राप्त हो जाय और मुक्त हो जाय। शरीर छूट जाय यह बात अलग होती है। लेकिन उसका संस्थान ज्यों का त्यों रहता है। इसमें परिवर्तन नहीं। संहनन और संस्थान एक ही रहते हैं। मान लो, बदल जाय, तो १४ वें गुणस्थान में जाकर के समचतुरस्त्र संस्थान होना चाहिए। परम औदारिक शरीर बन जाना अलग है। परमौदारिक अर्थात् स्थूल नोकर्म रूप शरीर से निगोदिया राशि का निकल जाना। इसकी अपेक्षा से संस्थान में कोई परिवर्तन नहीं आता। १४ वें गुणस्थान को भी पार करने वाले के, चूंकि रत्नत्रय में टेढ़ापन नहीं है। रत्नत्रयधारी के शरीर में टेढ़ापन रह सकता है। उसमें आठों अंग-उपांग टेढ़े हो सकते हैं, लेकिन रत्नत्रय तो सीधा ही रहता है। क्योंकि स्वभाव में कभी भी किसी भी प्रकार से वक्रता नहीं आती। नयों में वक्रता कब आ जाती है ? जब भिन्न-भिन्न काल का आधार लिया जाता है। जो कि काल्पनिक माने जाते हैं। इसलिए नयों में भी वक्रता आ गई। ऋजुसूत्र और अनऋजुसूत्र। ऋजुता का अभाव हो गया। यानि एक प्रकार से उस नयप्पन का उसमें विपरीतपना आ गया। अतीत और अनागत काल की विवक्षा में ऋजुता का गौणीकरण होने के कारण स्थूलता आ जाती है या अशुद्धता आ जाती है।


    आपकी हिस्ट्री में कितनी वक्रता है, इसे प्रयोग के माध्यम से देख सकते हैं। कौन से प्रयोग के माध्यम से देख सकते हैं ? आपके हाथ में सुई है। सुई के सिर में छेद है। उस छेद में से एक डोर को पोना है। आपकी आँखों में कोई नम्बर नहीं, बहुत अच्छी आँखें, ज्योति:पुंज। आपके एक हाथ में डोर दी गई और एक हाथ में सुई है। आप सुई की ओर देख रहे हैं। देखकर भी आप यूँ कर देते हैं। इसके उपरान्त आप अंगूठा व तर्जनी के माध्यम से डाल रहे हैं, किन्तु वह नहीं गया। वह आगे चला गया। आपने सोचा धागा चला गया है, अत: उसको यूँ खींच लिया। और सुई नीचे गिर गई। ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा इसलिए हुआ, लगता है हम बहुत सीधे हैं। बिल्कुल सीधे हैं। सिद्ध परमेष्ठी जैसे सीधे हैं क्या ? हमारी दृष्टि, हमारी आस्था, हमारी धारणा यह निर्णय लेती है कि हमने उसको पो दिया। लेकिन पीने में नहीं आया। क्योंकि छेद इतना छोटा है और डोर बहुत मोटी है। तो क्या किया जाय ? वहीं अंगूठी और तर्जनी यूँ-यूँ (हाथ का इशारा) करो। फिर से पानी लगाओ।

    थूक नहीं लगाओ। पानी लगाओ। अशुद्धि से भी नहीं होना चाहिए। देखो सूत को आप उस छेद से पार करा रहे हैं, तो अशुद्धि नहीं होना चाहिए। कई लोगों की यह आदत होती है, नोट गिनते गिनते थूक लगाते हैं। लेकिन उनको सावधान रहना चाहिए। कभी भी शास्त्र के पन्ने इस तरह से नहीं पलटने चाहिए। सावधानी के साथ करना चाहिए। कई लोगों को हमने देखा है। यूँ लगाकर यूँ-यूँ कर देते हैं। यह गलत है। असावधानी है। अब देखो, हमें उसको पो देने में बहुत समय लग जाता है। छेद सामने दिख रहा है और डोर भी बहुत पतली की गई है। लेकिन फिर भी देर लगती है। डोर में टाइटनेस होना चाहिए, हैना। हाँ। कल मृदुता की बात थी, किन्तु यहाँ मृदुता नहीं चाहिए। आज आर्जव धर्म है। है ना! कल का धर्म छोड़ दें क्या ? छेद से यदि डोरा पार करना चाहते हो तो मुलायमपने के साथ तो वह रुक जायेगा। टिक जायेगा। टकरा जायेगा। उसको थोड़ा टाइट करना पड़ेगा। और यदि अग्रभाग को पतला कर दे, तो फिर निकालना और आसान होगा। बहुत देर नहीं लगेगी।


    आर्जव धर्म बहुत कठिन है, पसीना आ जाता है। कई लोगों को डोर पोते समय भी पसीना आ जाता है। इतना सीधा काम नहीं है। सीधा होने में बहुत मेहनत होती है। दूसरा कौन सा उदाहरण दे दें ? हम भी नहीं थकते। और आप भी सुनते-सुनते नहीं थकते। हाँ, बिल्कुल ठीक, बिल्कुल ठीक। देखो, एक लुहार है। उसके यहाँ कोई व्यक्ति सलाई लेकर आया। उसकी रॉड टेढ़ी है। अब क्या करना पड़ेगा ? वह तो बड़ी है। लेकिन सीधी तभी हो सकती है जब वह पहले मार्दव धर्म की अग्नि में जाये। उसको पहले अच्छे ढंग से तपाओ। तपा देने के उपरान्त घन के प्रहार किये जाते हैं। घन के प्रहार किये जाते हैं, उसको सीधा करने के लिये। वह मुलायम हुए बिना घन के प्रहार को सहन नहीं कर सकती। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि वह प्रहार को सहन कर सकती थी, किन्तु मुलायम हुए बिना वह सीधी नहीं हो सकती। अणिग्गिपक्क अग्नि के द्वारा जब तक नहीं पकाया जायेगा, अग्नि परीक्षा जब तक नहीं की जायेगी, तब तक उस रॉड में आया हुआ वक्र पन सीधा नहीं होगा। और वैसे के वैसे रख दें, तो पुन: टेढ़ा हो जायेगा। ज्यों का त्यों वह बन रहेगा। जिस समय वह तप जाता है, उस समय मुलायम होने के कारण, उसके ऊपर जहाँ पर वक्रता है, घन का प्रहार देते हैं तो वह सीधा हो जाता है। और इसके लिये बहुत सारा कोयला खर्च किया जाता है। अग्नि के सामने लुहार को भी तपना पड़ता है। जो रॉड लेकर बैठ जाता है, उसको भी तपना पड़ता है। और कुछ प्रहार को भी सहन करना पड़ता है। किन्तु तब तक वह उसके ऊपर प्रहार करता चला जाता है, जब तक कि वह सीधी नहीं होती। कभी-कभी देखने में ऐसा आता है कि एक बार के तपन में वह पूर्ण सीधी नहीं हो पाती। तो पुन: उस रॉड को एक बार, दो बार या तीन बार तक अग्नि में डाल देते हैं। तब कहीं जाकर के वह सीधी हो पाती है। और लुहार कहता है- भैया ५० रुपये निकाली। इसके लिये पचास रुपये ? जरा-सा तो टेढ़ा था। ऐसा नहीं था, ऊंगली का टेढ़ापन बहुत जल्दी सीधा हो जायेगा। लेकिन उसका ऐसा नहीं होता। यहाँ पर कितना कोयला जल गया, पहले यह देखो। फिर बाद में पैसा दे देना।


    अनेक प्रवचनों के माध्यम से सीधा करने का प्रयास किया। अभी भी सीधे नहीं हुये तो कब होंगे ? पर्व तक देख लें। एक-एक करके धर्म चले गये। संभव है तप-त्याग धर्म के दिन तक हो जाये। यह सोचें कि अपने परिणामों को सीधा करने का संकल्प है, कि नहीं। अगर है, तो कभी भी कर सकते हैं, उसके लिये मुहूर्त की आवश्यकता नहीं। दिन कभी टेढ़ा-सीधा नहीं होता। चार द्रव्यों में हमेशा अर्थपर्याय होने के कारण सीधे हैं। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से दो ही द्रव्य टेढ़े हैं-जीव और पुदूल। जीव दिखता नहीं, पुदूल दिखता है। उसका स्वभाव भी टेढ़ा नहीं, पर अनेक के संयोग से टेढ़ापन आ जाता है। उसमें अनादि से वक्रता आ रही है और जिसके अनन्तकाल तक रहेगी, वह अभव्य है। अनेक सिद्ध सीझ जाये, तो भी वह सीधा नहीं होगा। जब तक स्वभाव में नहीं जायेगा तब तक ऋजुता नहीं आयेगी। भव्य के पास शान्त होने की योग्यता है। अब कम से कम सादि-अनन्त और अनादि-सान्त पर्याय को प्राप्त करें, यही आर्जव धर्म का मन्तव्य है। आचार्यों ने इसी की आराधना गुफाओं में बैठकर की है। सीधेपन का मनन-चिन्तन किया है।


    चुक्केज छल ण घेतव्वं।

    छल वक्रता है। आचार्य कहते समय अगर कुछ चूक गये तो तुम धारणा बनाते समय न चूक जाना। चूक हो सकती है, पर ग्रहण न करें। सन्तों ने आराधना की, कर रहे हैं। तप कर रहे हैं, उस अग्नि से अपने को सीधा कर रहे हैं। मन के चलायमान होने पर भी आस्था के बल पर सीधा किया जा सकता है। गिरते तभी हैं, जब दृष्टि में टेढ़ापन हो। पुन: गिरकर, उठकर मंजिल की ओर जो बढ़ता है वह आर्जवधर्म का उपासक है। हमारे कदम भी आर्जव धर्म की ओर बढ़े, इसी भावना के साथ

     

    महावीर भगवान् की जय.।


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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    आचरण में सरलता ही आर्जव है

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    Samprada Jain

      

    भव्य के पास शान्त होने की योग्यता है। 

     

    अब कम से कम सादि-अनन्त और अनादि-सान्त पर्याय को प्राप्त करें, यही आर्जव धर्म का मन्तव्य है।
     

    यदि वर्तमान को विषय कर लें, तो स्मरण समाप्त हो जाता है। वर्तमान में स्मरण का मरण हो जाता है। अगर वर्तमान से खिसक जायें तो वर्धमान भी पकड़ में नहीं आयेंगे।

     

    हमेशा-हमेशा वर्तमान में जीने का प्रयास जो करता है, वह ऋजुसूत्र के विषय को धारण करता है। वह आर्जव धर्मी माना जाता है।

     

    आर्जव का कथन नहीं आर्जव का जतन होना चाहिए। वस्तुत: आर्जव होना निकट भव्यत्व का प्रतीक लगता है 

     

    परिग्रह अपने आप को टेढ़ा करने वाला पदार्थ है।


    सीधे सीझे शीत है, शरीर बिन जीवन्त।

    सिद्धों को शुभ नमन हो, सिद्ध बनूँ श्रीमन्त॥

    जो सीधे हो गये हैं, उनको मैं बार-बार नमन करता हूँ। जो सीधे नहीं हुए हैं वे सीधे हो जाएं, इस प्रकार की भावना करता हूँ। भावना तो करना ही चाहिए। क्योंकि उसमें मेरा भी नम्बर आ जाता है।

     

    मंजिल या मार्ग को जानना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना अनुभूत करना। जानना शब्दों के माध्यम से होता है। मानना आस्था के माध्यम से होता है और अनुभव करना चेतना के माध्यम से हुआ करता है।जिस समय अनुभव करते हैं, उस समय जानते भी हैं और मानते भी हैं, पर कथन नहीं करते।

     

    सीधेपन का मनन-चिंतन!

     

    ~~~ उत्तम आर्जव धर्म की जय!

     

    ~~~ णमो आइरियाणं।

     

    ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा!

    ~~~ जय भारत!

    2018 Sept 16 Sun. 10:08 @ J

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