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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आदर्शों के आदर्श 11 - भक्त का उत्सर्ग

       (1 review)

    भारतीय संस्कृति मिटती सी जा रही है। फिर भी हम लोगों की धारणा है कि सतयुग आयेगा विश्व में शांति आयेगी और यदि हमारा आचरण ठीक नहीं है तो वह सतयुग वह विश्वशांति ‘न भूतो न भविष्यति'। जो व्यक्ति न्याय का पक्ष लेता है वह अन्याय को ही नहीं सारे विश्व को झुका सकता है अपने चरणों में..........। मैं जैन हूँ/मैं हिन्दू हूँ/मैं सिख/ ईसाई और मुस्लिम हूँ। हमारी इस प्रकार की मान्यता समाजरूपी विशाल सागर के अस्तित्व को समाप्त कर देगी। चिरकाल तक संघर्ष करने के उपरांत भी, अंत में धर्म की ही विजय होती है। क्योंकि! सत्य अमर है, और असत्य की पग-पग पर मृत्यु। जिस प्रकार बिना खिड़की या दरवाजे के कोई मकान सम्भव नहीं उसी प्रकार समस्त संसार में बिना गुणों के कोई मनुष्य नहीं।

     

    ...........गन्ध की आवश्यकता होने पर हम फूल या सुगंधित पदार्थों की गवेषणा करते हैं। प्रकाश की आवश्यकता होने पर सूर्यनारायण अथवा दीपक की प्रतीक्षा करते हैं। शीतलता की आवश्यकता होने पर सघन छायादार वृक्ष अथवा शीतल गंगाजल की प्रतीक्षा करते हैं। जिन-जिन पदार्थों से आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, उन पदार्थों के पास हम चले जाते हैं। पदार्थ ही हमारे लिये संतुष्टिदायक नहीं है किन्तु पदार्थ के अन्दर जो बैठी हुई ‘शक्ति' है, वह गुण-धर्म, वह 'प्रकृति' हमारे लिए सन्तुष्टि देने वाली है।

     

    पदार्थ के बिना गंध नहीं रह सकती और गंध के बिना पदार्थ नहीं रह सकता। सूर्य या दीपक के बिना हमें प्रकाश उपलब्ध नहीं हो सकता। नदी के बिना जल और वृक्ष के बिना छाया नहीं मिल सकती, तिल के बिना हमें तेल की उपलब्धि नहीं हो सकती। किन्तु! हम तेल के पास न जाकर तिल के पास जाते हैं। छाया के पास न जाकर छायादार वृक्ष के पास जाते हैं। शीतलता के लिए हम जल के पास चले जाते हैं और जल को अपनाना प्रारम्भ कर देते हैं। जिस समय से हमें यह सब पदार्थ अपने-अपने गुण-धर्मों को देना बन्द कर देंगे, उसी समय से हम इन पदार्थों को भूल जायेंगे। आज अभी एक सज्जन ने कहा है कि हम विश्व हिन्दू परिषद् की तरफ से बोल रहे हैं। ध्यान रहे ‘हिन्दू' बाद में आयेगा ‘हिंसा का त्याग ' पहले आयेगा।

     

    हिंसायां दूष्यति तिरस्कार करोति इति हिन्दू

    हिन्दू कोई व्यक्ति है, और उस व्यक्ति को ऊपर उठाने वाली वस्तु, वह गुण, यह प्रकृति है 'अहिंसा'। हम अहिंसा के उपासक हैं। धर्मी के बिना धर्म नहीं रह सकता, इसलिए धर्म की चाह से हम धर्मी की शरण में चले जाते हैं। हम किसी व्यक्ति की पूजा नहीं करना चाहते, किसी क्षेत्र से बंधना नहीं चाहते, किसी एक वस्तु को हम ऊपर नहीं उठाना चाहते। वह वस्तु, वह क्षेत्र, वह व्यक्ति अपने आप ऊपर उठेगा यदि उसके पास व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व धर्म है, स्वभाव है, गुण है, और गुण के अभाव में गुणी, धर्म के अभाव में धर्मी और व्यक्तित्व के अभाव में व्यक्ति कभी भी नहीं पूजा जाता। यह मात्र भारत देश की ही विशेषता है कि यह किसी भी प्रकार से उस व्यक्ति की पूजा नहीं कर सकता। उस क्षेत्र को नहीं उठाना चाहता, क्षेत्र अपने आप उठेगा यदि क्षेत्र के पास योग्यता है। फूल के पास गंध हो तो फूल अपने आप भगवान् के चरण कमलों में चला आयेगा, यहाँ तक कि रागी के कण्ठ का हार बन जायेगा। लेकिन! जिस समय उस फूल की गंध उड़ जायेगी तो ध्यान रखो! आप उसे पैरों से भी कुचलना पसन्द नहीं करेंगे।

     

    आज यदि भारत टिका है, तो उन सारभूत वस्तुओं के मूल्यांकन से ही टिका है। वस्तुगत धर्म, स्वभाव, गुण है, उसी की वजह से ही है। वस्तुत: हम गुणों को देखकर उसी गुणी को ऊपर उठाने का प्रयास करें। वह गुणी कोई भी हो सकता है। बस गुण होना चाहिए, फिर जाति से शरीर से, मजहब से अथवा किसी कौम से कोई मतलब नहीं है। राजा या रंक उसके सामने कोई वस्तु नहीं है। जिसके पास गुण है वह नियम से पूजा जायेगा। एक मात्र अहिंसा धर्म की रक्षा के लिए उसका अनुसरण करने के लिए हमें कटिबद्ध होना है। आज तक हम लोगों ने याद नहीं किया, वह अहिंसा धर्म हमारे दिमाग से उतर गया और इसकी कीर्ति स्तुति हम लोगों ने नहीं गाई। यद्यपि! हमारे पास वह शक्ति उपलब्ध है फिर भी उसका मूल्यांकन आज तक हमने नहीं किया। उसी का परिणाम है कि पाप के भार से धीरे-धीरे यह धरती नीचे की ओर खिसकती जा रही है। आज आसमान में यदि कोई हाथ फैलाये तो आलंबन नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में ना तो हमें ऊपर आधार है और ना ही नीचे। हम बिलकुल निराधार हैं और निराधार होकर व्यक्ति कब तक जी सकता है? संभव ही नहीं! हम किसी एक नामधारी भगवान् को पुकारते हैं, हम किसी एक व्यक्ति की पूजा करना चाहते हैं तो उसके बीच अनेक प्रकार के आवरण और ले आते हैं। किन्तु! उस आवरणातीत सभी कलकों से रहित भगवान् और उस धर्म की पहिचान हमारी आँखों के द्वारा नहीं हो पाती। जिस दिन धर्म की सही-सही पहिचान हमारे द्वारा हो जायेगी, तो फिर ध्यान रखना! उसी दिन से भक्त और भगवान् के बीच की दूरी समाप्त हो जायेगी। असीम संसार-सागर भी स्वल्प दिखने लगेगा और हमारे अन्दर का कालुष्य भाव क्रमश: समाप्त होता जायेगा।

     

    गुलाब के फूल में यदि उसी प्रकार की गंध फूट रही हो, तो उसे हम पहिचान लेते हैं। और यदि कागज का फूल लाकर सामने रख दिया जाये तो आँखें तृप्त हो जायेंगी पर नासा कह देती है भैया! यह गुलाब का फूल नहीं है क्योंकि! मैं उपस्थित होकर भी उसकी गंध का पान नहीं कर पा रही हूँ। इससे स्पष्ट होता है ज्ञाता को, ज्ञानी को, भोक्ता को, ज्ञात होता है कि वस्तुत: यहाँ पर मायाचार है। यहाँ पर कुछ अभिनय नाटक-सा चल रहा है, जिससे मूल तत्व के अभाव में वस्तु फीकी-सी लग रही है और वस्तुत: भौतिक सामग्री का फीकी लगना ही, सुख शान्ति के रसास्वादन का प्रथम कदम है, पर पदार्थ से हटाकर निज की ओर आना है। हमें सुख शान्ति चाहिए, विश्व में शान्ति हम लाना चाहते हैं तो बन्धुओं! उसका अधिकरण उसकी आधारशिला कौन-सी वस्तु है? उसे देखना होगा। किसी पेड़ पौधे पर यह सुख शान्ति लटकी हुई नहीं है, जिस पर चढ़कर हम उसे तोड़ लें। किसी नदी नाले में वह धर्म बह नहीं रहा है, जिसको हम अपने घड़ों में समेट सकें और उसका पान कर सके। वह किसी दुकान में मिलने वाली वस्तु नहीं है। वह वस्तु तब मिल सकती है, जब हम गहराई से सोचें की यह प्राप्तव्य वस्तु किसका गुण धर्म है।

     

    भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति, जिसमें पश्चिमी संस्कृति ने पूर्वी संस्कृति के ऊपर एक ऐसा आवरण लाकर रख दिया है कि उसको हम पहचान नहीं पा रहे हैं। गंधहीन पुष्प को हम सूघते जा रहे हैं और हम सोच रहे हैं कि गंध क्यों नहीं आ रही है? क्या जुकाम तो नहीं हो गया? जिन्होंने इसको बेचा है, दिया है, उनका यही कहना है कि तुम अपनी नासा ठीक कर लो हमारा फूल तो ठीक है। और हम बिलकुल अन्धविश्वासी हैं कि उसमें ऐसे लग गए हैं, नासा की चिकित्सा भी हो गई, आशा है ही नहीं यहाँ पर कि उस मौलिक गंध को पकड़ सके। फिर भी हम भगवान् से प्रार्थना कर रहे हैं कि भगवन्! आपने फूल तो दिया लेकिन! नासा को काट लिया। ध्यान रखना बन्धुओ! भगवान् हमारी नासा को काटने वाले नहीं हैं।

     

    हमारे पास नासा है जानने की क्षमता है लेकिन! जिसे ज्ञेय बनाया है वह फूल है ही नहीं। फूल में गंध नहीं है, फिर भी हम उसी के चारों ओर मंडरा रहे हैं यह पूर्वी सभ्यता नहीं है। ज्ञान का महत्व है-ज्ञेय का नहीं, दर्शन का महत्व है दृश्य का नहीं। भोग का नहीं भोक्ता का मूल्यांकन करना प्रारंभ कर दें आप। वह भोक्ता पुरुष ज्ञानी है, संवेदक है उसके पास देखने की शक्ति है। आँखें हों तो दृश्य समाहित हो सकता है लेकिन! दृश्यों के ढेर भी लगा दिये जायें और यदि वहाँ पर दृष्टि नहीं है तो आप सृष्टि का निर्माण भले ही करते चले जाइये, तृप्ति तीन काल में होने वाली नहीं है। बाह्य पदार्थों में सुख नहीं है वह हमारे अन्दर ही भरा हुआ है। हम बाह्य पदार्थों की ओर न जाकर अपने आत्म तत्व की ओर आयें, धर्म यही सिखाता है। धर्म के माध्यम से ही हमारे जीवन में निखार आ सकता है धर्म के माध्यम से ही हमारी सारी की सारी योजनाएँ सफल होने वाली हैं। चाहे वे लंबीचौड़ी क्यों ना हों बहुत जल्दी हमारे अनुरूप ढल सकती हैं पूर्ण हो सकती हैं। केवल एक शर्त है, हमारी दृष्टि भीतर की ओर हो। ध्यान रखना! गुण प्रत्येक प्राणी के पास हुआ करते हैं। गुणों की गवेषणा हमारे पास होनी चाहिए। 

     

    मैं आप से पूछना चाहता हूँकि आपके नगर में हजारों घर होंगे? आपने कभी ऐसा दृश्य देखा है क्या कि उन घरों में महाप्रासादों में कहीं भी एक न एक दरवाजा अथवा खिड़की ना हो। आपने देखा होगा, चार दीवालें मिलेंगी, भले ही घासफूस की हों, लेकिन उस महाप्रासाद में भी दरवाजा मिलेगा और उस कुटिया में भी। जिस प्रकार समग्र विश्व में बिना खिड़की या दरवाजे के कोई मकान सम्भव नहीं उसी प्रकार समस्त संसार में बिना गुणों के कोई मनुष्य नहीं। यह बात अलग है कि गुणों में हीनाधिकता पाई जाती है। बस! देखने की आवश्यकता है। गुणों की गवेषणा करने वाली दृष्टि अपने आप गुणों को पकड़ लेगी। लेकिन हम ब्रह्मा को भी दोषी सिद्ध कर देते हैं, कि गुलाब का फूल तो बनाया लेकिन काँटों के बीच में बना दिया, इतनी गलती तो हो गई है। हाँ. आपकी नाक में ही पैदा कर देते? आपकी नाक में भी गुलाब का पौधा लग जाये, फिर भी आपको ज्ञान नहीं होगा। चूँकि आपकी नासा, आपकी ज्ञान की धारा बाहर ही भाग रही है भीतरी गवेषणा करने की शक्ति उसके पास नहीं है। हम ज्ञेयों के ऊपर मँडरा रहे हैं, ज्ञान के ऊपर हमारा कोई लक्ष्य नहीं। जो धर्म की गवेषणा करता है, जो धर्म की खोज करता है वह व्यक्ति गुणों को ढूँढ लेता है, गुणों की पहचान किये बगैर हम तीन काल में धर्मात्माओं को नहीं देख सकते धर्म के अभाव में धमों और धमों के अभाव में धर्म तीनकाल में मिलने वाला नहीं है। दोनों का संबंध अभिन्न है दोनों का जीवन एक है।

     

    यदि स्वर्ग से भी रत्नों की वर्षा हो जाय, तो भी आप लोगों को तृप्ति नहीं मिलने वाली क्योंकि आप लोगों की दृष्टि गुणों की ओर नहीं उन मणि-मालाओं की ओर है। किन्तु उसका उपभोक्ता रागी है, द्वेषी है, कषायी है, विषयी है, लोभी है, दूसरों के सुख को देखकर जलने वाला व्यक्ति तीन काल में तृप्ति, सुख-शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता।

     

    पड़ोस की दुकान में अग्नि लगी हो और उसकी लपट आपकी दुकान तक ना आये यह तीन काल में भी सम्भव नहीं है। ऐसी ही विषय-कषाय की लपटें हैं, जो स्वयं को एवं दूसरे को भी सुख-शान्ति का अनुभव नहीं करने देती। देश-विदेश में ही नहीं सारे विश्व में जलन प्रारम्भ हो चुकी है। क्यों? तो इस प्रश्न का एक ही उत्तर है, गुणों का अभाव। जिस प्रकार भवन या कुटिया में एक न एक दरवाजा अवश्य होता है, उसी प्रकार चाहे चेतन हो या अचेतन, कोई भी वस्तु हो उसमें गुण अवश्य मिलेंगे। गुणों को देखने की आवश्यकता है, आप लोग अपनी आँखों के ऊपर जो अज्ञानता का चश्मा लगाये हो, उस चश्मा को उतारें, जिसके द्वारा हमें गुण देखने में नहीं आ रहे हैं। भले ही आप माइक्रोस्कोप लगा लीजिए, लेकिन! इस आधुनिक माइक्रोस्कोप से भी यह महान् कार्य संभव नहीं है। पदार्थ को देखकर मात्र भोग वृत्ति का होना गुणों को नियम से गौण कर देता है। एक मात्र भोग ही उसके सामने आयेगा। उसके सामने वह चैतन्य मूर्ति जो संवेदनशील आत्मा है, वह तीन काल में आने वाली नहीं है। आज हमें सोचना है कि वह शान्ति कैसे प्राप्त हो? उस शान्ति को देने वाले कौन हैं? तो वह अपने आप ही प्रश्न का उत्तर पा जाता है कि यदि शान्ति कहीं है तो मात्र आत्मा में है। ज्ञान यदि आत्मा का गुण है तो ज्ञान गुण के माध्यम से ही आत्मा, सुख का अनुभव कर सकता है। बाहर में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो सुख शान्ति का अनुभव करा दे। वह शान्ति का पान करने वाला व्यक्ति किसी डिबिया में बन्द करके रखने वाली वस्तु नहीं है।

     

    भोग की ओर दौड़ लगाने वाला यह युग धर्म का नाम तो लेता है किन्तु धर्म की भावना नहीं रखता। जब सुख-शान्ति प्राप्त करने का हमने लक्ष्य ही बनाया है तो जिन्होंने सुख-शान्ति प्राप्त की है उनकी हम पहले गवेषणा करें। ताकि ! उनके निर्देशन के माध्यम से हम अपने आत्म तत्व तक पहुँचने का प्रयास कर सके। ये महान् आत्माएँ ऐसी हैं जिन्होंने आत्मनिर्भर होकर निष्कलंक अवस्था को प्राप्त किया है। जो किसी को किसी भी रूप में लाभ पहुँचाने की दृष्टि नहीं रखते हैं। क्योंकि लाभ हानि तो अपने उपादान के अनुरूप होती हैं। इसलिए ऐसे प्रभु! जो अपने आप में स्थिर हैं उनकी हम गवेषणा करें तभी इन आँखों के द्वारा उन्हें हम देख सकेंगे, उनके वास्तविक स्वरूप को समझ सकेंगे। उनके माध्यम से हमें वह दिशा बोध प्राप्त होगा जो अकथनीय है। जिसके द्वारा हम अपने अन्दर स्थित होकर जान सकेंगे, पहिचान सकेंगे और वह तत्व जो अनादिकाल से अननुभूत है, उसे अनुभूत कर सकेंगे।

     

    भगवान् ने हमारे लिए यही आदेश दिया है, कि तुम जो चाहते हो उसका दिशा बोध पहले प्राप्त कर लो। सर्वप्रथम आत्मा क्या है? इसको पहचानो और उस आत्म तत्व को प्राप्त करने सत्य का पक्ष, न्याय का पक्ष अनिवार्य है। उस मार्ग को पहचानने की जिज्ञासा आप रखिए! रामनवमी यहाँ पर कुछ दिनों पहले मनाई जा चुकी है, और बीच में आ गए थे हमारे आराध्य प्रभु! महावीर भगवान्, महावीर जयंती के उपलब्ध में आपने उनके पावन आदशों को सुना समझा। उसी श्रृंखला में त्रयोदशी के बाद पूर्णिमा के दिन किसका जन्म हुआ था? वो कौन थे? बजरंगबली............!

     

    वह व्यक्तित्व अनोखा था, जिसका भारतवर्ष में बड़ा महत्व है। राम ने भी उसे मंजूर किया था, महावीर ने भी उसे मंजूर किया था, क्योंकि भगवान् महावीर बाद में हुए थे और राम-हनुमान का काल एक ही है। उस समय राम ने उस व्यक्तित्व से क्या लाभ उठाया? उस व्यक्तित्व के पास ऐसी कौन-सी विशेषता थी? उसे आज हमें संक्षेप में समझना है। यद्यपि भगवान् महावीर के उपासक जैन माने जाते हैं राम भगवान् के उपासक ब्राह्मण माने जाते हैं और बजरंगबली के उपासक पहलवान माने जाते हैं। इन लोगों ने हनुमान का रूप क्या माना है सो वे ही जानें। विष्णु की उपासना करने वाले वैष्णव हैं। बुद्ध की उपासना करने वाले बौद्ध हैं। इस प्रकार विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से ज्ञात हो चुका है। लेकिन! यह ध्यान रखना है कि यह बिखरा हुआ अस्तित्व किसी काम का नहीं है। मैं जैन हूँ/ मैं हिन्दू हूँ/ मैं सिख/ ईसाई और मुस्लिम हूँ इस प्रकार की मान्यता हमारे समाज रूपी सागर के विशाल अस्तित्व को समाप्त कर देगी। टुकड़ों-टुकड़ों में बँटकर एक बूंद के रूप में रह जायेगी, जिस बूंद को समाप्त होने में देरी नहीं लगेगी मात्र थोड़ी सी सूर्य की तपन पर्याप्त है।

     

    पथ पर आने के उपरांत जब बहुत सारे पथ फूटते हैं चौराहा आ जाता है, तब प्राय: करके मनुष्य भूल जाता है। पथ एक होगा तो राही तीन काल में नहीं भूलेगा। लेकिन! एक पथ को चुनना पड़ता है और आजू-बाजू को गौण करना अनिवार्य होता है। आँखें प्राय: करके पथ से विचलित होकर अन्य पथ की ओर जाती हैं। राम को होश नहीं है, वे विचलित से घूम रहें हैं सीता का हरण हो चुका है। नदी के पास जाकर पूछते हैं : - हे गंगा! मेरी सीता कहाँ गई है? बता दे! तू इतनी दूर से आ रही है, सरकती-सरकती संभव है तेरे पास आकर उसने स्नान किया हो, पानी पिया हो, संध्या वन्दन किया हो? अरहंत-परमेष्ठी का तेरे तट पर आकर ध्यान किया हो? मुझे बता दे, फिर वे जाकर वृक्ष से पूछते हैं, हे आम्र वृक्ष! तू बता दे, तुम्हारे फल जैसे कोमल-कोमल रसदार उसके गाल थे, वे सूख रहे होंगे, न जाने कैसी स्थिति होगी? तुम्हीं बता दो। इस प्रकार राम, कंकर-पत्थर तक से सीता के बारे में पूछते जा रहे हैं। कितनी दयनीय स्थिति होगी? उस समय किसी ने बताया तक नहीं था। ऐसे विषम वातावरण में एक और घटना घटती है। एक भूले भटके विपत्तिग्रस्त व्यक्ति से दूसरा विपत्तिग्रस्त व्यक्ति मिल जाता है और कहने लगा, हे शरणदाता! प्रजा रक्षक मुझे बता दीजिए मेरी पत्नि कहाँ चली गई? उसे कौन चुरा कर ले गया, मेरे लिए रास्ता बता दो? जब दूसरा रोने लगता है तो एक के रोने में थोड़ी सी कमी आ जाती है और दूसरा हँसने वाला मिल जाता है तो हँसने में भी कमी आ जाती है। दोनों ही बात है भैया! कोई हँस रहा हो, सामने कोई हँसने वाला आ जाता है, तो हँसने वाला रो भी सकता है। क्योंकि कोई उसको क्रिटीसाइज (आलोचना, निंदा) के रूप में हँस दे तो? दो बार आप हँसोगे तो नियम से सामने वाला व्यक्ति सोचेगा कि यह क्यों हँस रहा है? आगे-पीछे देखने लग जाता है, तुम जो हँसी की बात कर रहे हो बताओ तो सही क्यों हँस रहे हो? यह कहते ही गंभीरता आ जाती है। सामने वाला जो व्यक्ति हँस रहा है उसके ऊपर रोष अभिव्यक्त हो जाता है। राम ने आते ही उससे   पूछा :-

    तुम्हें क्या हो गया है?

    मेरी प्यारी पत्नि को भी किसी ने हर लिया! दुखित स्वर में उसने कहा।

    अच्छा कोई बात नहीं। राम ने सांत्वना दी।

    और उसी समय राम ने सबको कहा कि इसकी पत्नी को जल्दी लाकर के दे दो। यह बहुत दुखी है, कहीं इसके प्राण ना चले जायें ! इसकी पत्नी दिलाना हमारा परम कर्तव्य है। शरणागत दीन दुखी असहाय जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करना, संकटों से बचाकर उनका पथ प्रशस्त करना यही क्षत्रिय धर्म है। इस प्रकार किसी व्यक्ति की पूर्ति करा देने पर हमें भी अपनी खोई हुई चीज मिल जायेगी और वह व्यक्ति खुश होकर अपनी मदद भी करेगा। जितने व्यक्तियों की संख्या बढ़ेगी मार्ग उतना ही प्रशस्त होता जायेगा। इस व्यक्ति को जरूर अपनाओ, हमारे जैसा ही इसका दुख है। कुछ समय बाद सभी के प्रयास से सुग्रीव को अपनी पत्नी सुतारा मिल गई। फिर वह खुशी के साथ चला गया, कहाँ चला गया? घर? संभव ही नहीं। अब घर कैसे चला जायेगा पत्नी को लेकर के? जिसने इतना बड़ा उपकार किया है उसके अलावा अब उसका कौन सा घर है? वह वहीं पर साथ रह गया। वहाँ पर उसे, उस अजेय पुरुष के व्यक्तित्व का ज्ञान हुआ, जिसका आज के दिन जन्म हुआ था। न्याय का पक्ष लेने वाला वह व्यक्ति था। कोई भी व्यक्ति क्यों न हो? एक बालक भी उस ओर हो जायेगा जिस ओर न्याय का पक्ष है। न्याय प्रिय व्यक्ति अन्याय का पक्ष नहीं लेता, चाहे अन्याय का पक्ष सागर जितना विशाल क्यों न हो? न्याय किसे कहते हैं :-

     

    नयति सत्पथेन प्राप्तव्यं इति न्यायः

    न्याय वह है जो चलने वाले पथिक को गन्तव्य तक पहुँचा देता है। जो इट वस्तु है उसको प्राप्त करा देता है। उसने ज्यों ही सुना त्यों ही वहाँ पर आकर के कहा कि आप चिंता मत करिये! जब तक यह जीवित रहेगा तब तक आपकी सेवा के लिए तत्पर है। लेकिन! इसको एक मात्र सत्य की आवश्यकता है बस, यही अपनी खुराक है। हमारा केवल न्याय का पक्ष है हमें किसी को मारना नहीं है हमें किसी को सताना नहीं है। यदि हमें कोई सताता है तो उसका विरोध करना हमें आवश्यक होगा। हम लड़ेंगे, लेकिन किसलिए लड़ेंगे? दूसरे की वस्तु छीनने के लिए नहीं, किन्तु! कोई हमारी वस्तु छीनने के लिए आता है तो उसका प्रतिकार हम अवश्य करेंगे। यह हमारी नीति है, यह हमारा पक्ष है यह हमारा धर्म है और इसी के बल बूते पर हम जियेंगे। जी चुके हैं, जी रहे हैं। विश्व में शांति इसके बिना संभव नहीं है।

     

    लड़ने से कहीं क्रांति हो रही है, कहीं कोई मिट रहा है ऐसा नहीं है। लड़ाई बन्द करने से किसी का जीवन चले ऐसा भी नहीं है। लड़ाई लड़े किन्तु! न्याय पूर्वक लड़े। आज लड़ाई कौन लड़े? आज रणांगण में कौन कूदता है? आजकल तो छुप-छुप करके रडार के माध्यम से लड़ाई चल रही है। रडार फेल हो जाय तो ये लोग भी फैल हो जायेंगे। आप लोग तो मशीन के द्वारा काम लेते हो। मशीन चलती रहेगी काम चलता रहेगा, मशीन बन्द.आप भी बन्द। एक दिन वह आने वाला है, जब लोगों को उसी द्वापर युग. उसी सतयुग की ओर दृष्टिपात करना पड़ेगा। वही आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेगा। अन्यथा संभव नहीं है। क्योंकि आज कुआँ नहीं हैनल आ गया। नल भी बन्द हो जाय तो-दस मंजिल के ऊपर आपकी क्या स्थिति होगी? भगवान् ही मालिक है। इसके उपरान्त भी आप कोशिश कर रहे हैं कि वह नल हमारे घर में ही क्यों? हमारे बाजू में आ जाय, और बगल में ही क्यों? हमारे मुंह में ही टोंटी खुल जाय। यह भी संभव है, खुल भी सकती है लेकिन! उस टोंटी का बटन कहाँ पर लगाओगे और कैसे खोलोगे? प्रमाद बढ़ता चला जा रहा है।

     

    न्याय का पक्ष लेना मेरा जीवन है, अन्याय का पक्ष लेने मैं नहीं जाऊंगा, मैं आपकी इच्छा पूर्ण करने के लिए तैयार हूँ। जब तक मैं हूँ तब तक आपको चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं। वह चला गया सर्वप्रथम वहाँ जहाँ पर रावण का वृतांत उसको सुनने में आया था। रावण और हनुमान निकट संबंध को रखने वाले थे। फिर भी हनुमान ने रावण के विपरीत काम करना प्रारम्भ कर दिया। विद्याधरों का अधिपति रावण माना जाता था और यदि रावण के पक्ष की ओर हनुमान हो जाता तो मालामाल हो जाता। आप होते तो माल की ही ओर देखते। लेकिन! हनुमान ने माल की ओर देखा तक नहीं। भीतर बैठा है मालिक, अपने आप ही माल आ जायेगा, माल की कोई आवश्यकता नहीं है। यहाँ मालिक नहीं है, इसलिए माल सप्लाई हो रहा है, बाहर की ओर। भीतर मालिक होना चाहिए। भोक्ता, वह स्वामी, वह प्रभु, वह शक्ति आत्मा की, उसके माध्यम से हम तीन लोकों को हिला सकते हैं। हनुमान ने रावण से कहा कि मैं आपकी ओर नहीं बोलूगा, मैं सीता से संवाद करना चाहता हूँ। सीता कहाँ पर बैठी है? मुझे वहाँ पर भेज दो। इसके के उपरान्त विभीषण को साथ लेकर हनुमान जाते हैं उस उद्यान में जहाँ पर सीता बैठी थी.......ग्यारह दिन की उपवासनी। ग्यारह दिन हो गए थे पति का विछोह हुए। अन्न पान सब कुछ त्याग कर दिया है। आज की सीता तो आप जानते ही हैं! आज रामजी भी कहाँ हैं जो हम सीता की बात कर दें? महिलाओं को देखकर के पति कहता है कि कम से कम सीता जैसा जीवन तो लाओ, और वह पत्नि कहती है कि हाँ......हाँ......ठीक है आप रावण जैसे बन बैठे हो घर में और सीता की बात कर रहे हो! बात दोनों की ठीक है। वह चाहता है कि मेरी पत्नी सीता जैसी बन जाये, और वह चाहती है कि मेरा पति राम बने। पर दोनों का जीवन राम जैसा नहीं और सीता जैसा भी नहीं। आजकल तो उन महापुरुषों के फोटो तक समाप्त हो रहे हैं। कम से कम उन चित्रों को तो देखो जिन चित्रों में वह चरित्र आज भी झलकता है, वह धर्म टपकता है, वह कीर्ति, वह स्वभाव, वह सारा का सारा जीवन तैरकर आँखों के सामने आ जाता है। रामायण की कोई भी एक पंक्ति ले लीजिए अपने आप, वह दण्डक वन.....वे दशरथ.वे कैकयी.......वे राम, भरत, लक्ष्मण, वे हनुमान, वे सीता। जैसे टेलिविजन चल रहा हो, साक्षात् चित्र उतरकर मानस-पटल पर आ जाते हैं। आप पुराणों को पढ़ना प्रारंभ कीजिए और उपन्यासों को लपेटकर रख दीजिए, नहीं तो उपन्यासों के साथ-साथ आपका भी नाश हो जायेगा । भैया! उपन्यास को पढ़कर ना आज तक कोई संन्यासी बना है और न ही बनेगा, हाँ.....उपन्यास की शैली में यदि हम उस चरित्र को देखना चाहें तो यह बात संभव है।

     

    उपन्यास की शैली से मेरा विरोध नहीं है। लेकिन! भावना, दृष्टि, हमारा उद्देश्य साफ-सुथरा रहना चाहिए। उन महापुरुषों के कार्य उनके गुणों को हम पहचानने का प्रयास करें। वह ग्यारह दिन का उपवास किये बैठी है। हनुमान जाकर के सर्वप्रथम वन्दना करते हैं और कहते हैं कि मैं राम के पास से आया हूँ। विश्वास नहीं होता, ग्यारह दिन निकल चुके हैं राम का विछोह हुए, बारहवें दिन क्या होगा ज्ञात नहीं? किंतु सीता को विश्वास था। जहाँ पर धर्म है, जहाँ पर न्याय है, जहाँ पर शील व्रत है, जहाँ पर कर्तव्य है वहाँ पर सब कुछ पलट सकता है। रात्रि बारह घंटे की होती है लेकिन! प्रभात को देखकर डरती है, सूर्य नारायण के नाम से ही काँपती है, उससे दूर भागना चाहती है। छिन्न-भिन्न हो जाती है ।

     

    वह पाप का उदय कब तक चलेगा? भीतर पुण्य जगमगा रहा है। उसके प्रकट होने से पाप का उदय नौ.......दो ग्यारह हो गया। सीता हनुमान से प्राप्त मुद्रिका रख लेती है उसके भीतर उसे राम का दर्शन होता है। हनुमान के मुख से सारा वृतांत सुन लेती है, और धीरजता की शीतल श्वाँस लेने लगती है। हनुमान कहते हैं कि यहाँ से हम आपको बहुत जल्दी ले जायेंगे, आप चिंता मत करिए! और अब कम से कम अन्नपान ग्रहण करना स्वीकार कर लीजिए। हम सब कुछ करेंगे। देख लीजिए वह हनुमान रावण की ओर नहीं गया और विभीषण को भी अपनी और ले लिया यह सब हनुमान का खेल है। उसने रावण से भी कह दिया कि हम न्याय का पक्ष लेने वाले हैं।

     

    वह विभीषण भी अपने बड़े भैया का पक्ष छोड़ देता है, सेना को छोड़ देता है, वित्त वैभव को छोड़ देता है। अपनी रक्षा का कोई सवाल नहीं उठा उसके मन में। वह सोचता है कि जहाँ पर धर्म है........सत्य है...........न्याय का पक्ष है, वहाँ पर रक्षा अपने आप होगी। जंगल में गायें चरती हैं और यदि चरवाहा अंधा है तो वहाँ पर भी पीछे से गोपाल (कृष्ण) आ जाते हैं गायों की रक्षा करने के लिये। प्रत्येक व्यक्ति के पास अपना-अपना पाप-पुण्य है, अपने द्वारा किए हुए कर्म है। कर्मों के अनुरूप ही सारा का सारा संसार चल रहा है किसी के बलबूते पर नहीं। अभी-अभी मैं तेजो-बिन्दु उपनिषद् पढ़ रहा था उसमें लिखा है : -

     

    रक्षको विष्णुरित्यादि ब्रह्म दृष्टेष्ट तुकारण।

    संहारे रुद्र को सर्व एव मित्थेपि-निश्चनो॥

    इस श्लोक में बहुत अच्छी बात कही है। सृष्टि का कर्ता ब्रह्मा है। जब साहित्य का, ग्रन्थों का अवलोकन किया तब ज्ञात हुआ कोई ब्रह्मा, विष्णु सृष्टि का कर्ता नहीं है। कोई रुद्र नहीं है जो उसका संहार करता हो। बंधुओ! ब्रह्म महान् दयालु होता है.वह संरक्षक है। विष्णु कभी इस बारे में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और महेश भी इस प्रकार का कार्य नहीं करेंगे। वह महाईश माने जाते हैं, महावीर माने जाते हैं। जो महान् वीर होते हैं वह हिंसक हों यह सम्भव नहीं है। इस प्रकार की कर्तव्य बुद्धि, संरक्षण बुद्धि और विनाशक संहारक बुद्धि को समाप्त करके तीनों को मिथ्या समझो। भीतर बैठा हुआ आत्मा ही अपने अच्छे बुरे परिणामों का कर्ता है। इसलिए वह आत्मा एव ब्रह्म: अस्ति आत्मन: और उसका परिपालन करने वाला होने से वही एक विष्णु है। वहीं अंत में अपने परिणामों को मिटाता है अत: वही एक महान् महेश है। इस प्रकार एक ही आत्मा ब्रह्मा, विष्णु और महेश है।

     

    इस प्रकार तेजोबिन्दु में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो भीतर गहराई में डूबकर लिखा गया है। दूसरे पर कर्तृत्व का आरोप लगाना मिथ्या है। दूसरे को भोक्ता समझना बहुत गलत है। अपने आपके स्वतन्त्र अस्तित्व को समझने के लिए ये वाक्य अमृत जैसे हैं। एक बार इसका गहन अध्ययन होना चाहिए। इसके माध्यम से हमें अपने जीवन में क्या ग्रहण करना-क्या छोड़ना? यह सब ज्ञात हो जायेगा। वस्तुत: संसारी प्राणी दूसरे के जीवन पर जीना चाहता है। अपने जीवन की डोर दूसरे के हाथ सौंपना चाहता है। कभी मालिक तो कभी नौकर बनना चाहता है। किन्तु! अपनी तीनों शक्तियों में जो मौलिक तत्व हैं उनको जानने की कोशिश नहीं करता। तो उस समय हनुमान ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं मैंने न्याय का पक्ष लिया और विभीषण को भी अपनी ओर मिलाया। मैं राम के पास गया हूँ रावण के पास नहीं।

     

    रावण को कोई नहीं चाहता, जबकि उसके पास आधिपत्य बहुत है और वह सार्वभौम माना जाता है। उसके पास सब कुछ है, बटन दबाते ही काम हो जाता है। पर बटन दबाते समय भी माइंड रखना आवश्यक है। बटन को दबाते समय यदि उसका ही बटन दब जाये तो फिर.बड़ा मुश्किल होगा। सब अपने पुण्य-पाप के ऊपर निर्धारित है। यह ध्यान रखना! कोई शक्ति प्राप्त हो जाये लेकिन! उस शक्ति का प्रहार, उस शक्ति का प्रयोग तब तक नहीं हो सकेगा जब तक धरती पर सत्य-अहिंसा है.धर्म है। जब तक अहिंसा है तब तक तीन काल में प्रलय संभव नहीं। धरती पर हिंसात्मक घटनाएँ तभी घटेगी जब मानव के अन्दर से भावनाएँ बदल जायेंगी।

     

    आणविक शक्ति का आविष्कारक आइंस्टीन महान् वैज्ञानिक माना जाता है। अंत में उसने लिखा है कि इस प्रकार का आविष्कार करके मैंने बहुत बड़ी गलती की है। परन्तु मैंने! ज्ञान की दृष्टि से, शक्ति की परीक्षा के लिए इस प्रकार का प्रयास किया था, मेरी दृष्टि विनाश की नहीं थी। किन्तु! तब तक यह संसार सुख-शान्ति का अनुभव नहीं कर सकेगा जब तक इसके भीतर से क्रोध, मद, मत्सर नहीं जायेगा। जिस दिन मानव का दिल और दिमाग फेल (खराब) हो जायेगा उसी दिन इस शक्ति के द्वारा प्रलय हो जायेगा। जब तक हमारे भीतर का ज्ञान सही-सही देवता की उपासना करता रहेगा तब तक यह दुष्कार्य तीन काल में संभव नहीं है। हमारी इस भौतिक निधि को फिर भी कोई ले जा सकता है। लेकिन हमारी भीतरी निधि, संस्कृति को मिटाने का हकदार इस धरती पर कोई नहीं है। वह अक्षुण्य बनी रहेगी। यह संस्कृति अभी वर्षों तक टिकने वाली है लेकिन! वह अपने आप नहीं टिक सकती। उसे टिकाने के लिए, स्थायी रूप प्रदान करने के लिए चारित्रनिष्ठ न्याय का पक्ष लेने वाले विभीषण, हनुमान जैसे महान् पुरुषों की जरूरत है।

     

    उन तीनों ने मिलकर रावण को हराया। सीता भी वापस मिल गई। राम लंका को जीतकर आ गए। अब प्रश्न उठता है लंका का राज्य किसको दिया जाये, देख लीजिए न्याय का पक्ष। रावण को तो दिया नहीं जा सकता, तो फिर किसे दिया जाय? अपने नाम से किया जाय, नहीं......विभीषण को दिया गया। यह है........न्याय का पक्ष। इसलिए हनुमान साथ दे रहे हैं। हनुमान को भी दे देते तो वह कहते-नहीं यह न्याय का पक्ष नहीं है और राम भी इस प्रकार की भूल कैसे कर सकते थे? सम्भव ही नहीं था। इतना काम तो हो गया, हमें और आगे बढ़ना है। हनुमान की परीक्षा और है। जो राम के लिए निर्देशन दे रहे थे वे भक्त भले माने जाते थे लेकिन! यह ध्यान रखना ये भक्त नहीं थे। भक्त बनकर देख रहे थे कि भगवान् आगे क्या करते हैं? प्रजा को कैसे चलाते हैं। ऐसा व्यक्तित्व था हनुमान का कि उन्होंने राम को समय-समय पर निर्देशन दिये। भक्ति की ओट में ही ऐसा काम होता गया है। राम का पूरा समय सुख-शान्ति के साथ व्यतीत हो रहा था। लेकिन! बाद में कुछ अपवाद के कारण राम ने अपने सेवक से कहा कि बस! ले जाओ सीता को और वन में छोड़ देना। इतना सुनते ही सब लोग अवाक् रह गये। हनुमान ने निडर होकर कहा -

     

    इसलिए सीता लाकर दी थी हमने? आज आप भूल रहे हैं। प्रभु! जरा अपने दिमाग से काम लो, हम आपके सामने कुछ भी नहीं हैं लेकिन! फिर भी कह सकते हैं भगवान् के साथ यदि भक्त ही वार्ता न करें तो कौन करेगा? हाँ! भगवान् बोलते तो हैं ही नहीं और भक्त ही भगवान् से बोलते है। आप भगवान् होकर के यदि अन्याय करें तो यह शोभा नहीं देता।

     

    हनुमान तुम चुप बैठो! मेरी दूर-दृष्टि देखो! यह कह कर राम चुप हो गये।

     

    हमने समझ लिया है कि आपके पास माइक्रोस्कोप आ गया है। दूर-दृष्टि.अरे! कैसे? वहाँ पर सृष्टि दिख रही है कि आगे क्या होने वाला है? हमने समझ लिया है कि आगे बहुत अन्याय हो जायेगा इस पक्ष का कोई समर्थन करने वाला नहीं है। यदि आप उस समय होते तो क्या करते? क्यों भैया! समर्थन करते। बात ऐसी है कि हमारे अनुकूल काम सौंप दे तो हम समर्थन कर देते हैं और यदि न सौंपे तो विरोध कर देते हैं। आज का न्याय केवल अर्थ के ऊपर निर्धारित है। अर्थ मिलता है तो परमार्थ को गौण किया जा सकता है और यदि अर्थ नहीं मिलता है तो उसका विरोध भी किया जा सकता है।

     

    अर्थ की दृष्टि तीन काल में परमार्थ को नहीं देख सकती और परमार्थ को गौण करने से अर्थ की दृष्टि संसार को निर्लज्ज बना सकती है। इसकी सारी की सारी बुद्धि का हरण कर मूर्ख बना सकती है। केवल अर्थ की दृष्टि भारतीय सभ्यता नहीं है। यहाँ पर मात्र अर्थ का समार्जन संरक्षण नहीं है किन्तु! पुरुषार्थ भी होता है। इस अर्थ में पुरुषार्थ का अर्थ है क्या? अर्थ-पुरुष-अर्थ दो अर्थों के बीच में पुरुष है। जिसका मतलब है कि अर्थ यानी धन, पुरुष (आत्मा) के प्रयोजन के लिए है, आत्मोन्नति में कथचित् सहायक है। अर्थ जीवन के विकास के लिए कारण है। यदि इस प्रकार का उपयोग नहीं है तो वह अर्थ, अनर्थ का मूल बन जाता है। धन की तीन ही गति हैं दान, भोग और नाश। उसके अलावा चौथी कोई गति नहीं है। अत: भलाई इसी में है कि अजित राशि को अपने और दूसरों के हित में लगाएँ और अंत में हनुमान ने राम का डटकर विरोध किया। अन्ततोगत्वा राम की आज्ञा से सीता दंडक वन में छोड़ दी गई। तुम्हारा कोई अपराध नहीं है, तुम्हारा कर्तव्य है राजाज्ञा का पालन करना और हम भी राजाज्ञा का पालन कर रहे हैं। रोते हुए कृतांतवक्र से, सीता ने कहा।

     

    हाँ मातेश्वरी, राजा की आज्ञा मैं आज तक मानता आया हूँ लेकिन! अब प्रभु चरणों में यही प्रार्थना करता हूँकि आगे के लिए कभी राजा की नौकरी न करनी पड़े। बस यही चाहता हूँ। आपके प्रति यह ठीक नहीं हुआ। कृतांतवक्र ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा।

     

    नहीं.......नहीं वे मेरे पति देव हैं। उनसे बस यही कह देना कि सीता को छोड़ दिया तो कोई बात नहीं पर धर्म का पथ.....न्याय का पक्ष नहीं छोड़ें, वरना! यह संसार गर्त में चला जायेगा। आप राजा हैं, प्रजापालक हैं, समझदार हैं, फिर भी समझदारों से भी कभी-कभी गल्तियाँ हो जाती हैं। चलते समय ठोकर लग सकती है और आप गिर सकते हैं। आप गिर न जायें बस! यही कामना है। तुम निर्भय होकर वापस जाओ, मैं अपने भाग्य के भरोसे ही इस दण्डक वन में रहूंगी। बस! मेरा यह अन्तिम सन्देश उन तक पहुँचा देना। सीता ने कृतांतवक्र को समझाते हुए कहा।

     

    और भारी मन से कृतांतवक्र सीता को वहीं पर छोड़कर अयोध्या वापस चला गया।

     

    कृतांतवक्र ने जाकर सीता का सन्देश राम से कहा। सब की आँखों में आँसू हैं। कोई भी व्यक्ति सुख का अनुभव नहीं कर रहा है। इसलिए अब न्याय का पक्ष और लेना है।

     

    ..........एक घोड़ा राम के द्वारा छोड़ा गया है। उस घोड़े पर लिखा हुआ है कि जो कोई भी इस घोड़े को पकड़ेगा उसे राम के साथ युद्ध करना होगा। इस शक्तिशाली घोड़े को पकड़ने की सामथ्र्य बड़े-बड़े शूरवीर योद्धा भी नहीं रखते थे। वह घोड़ा भी उसी वन में चला गया है जहाँ पर उस गर्भवती सीता ने एक साथ दो पुत्रों को जन्म दिया था। जिनके लव और कुश नाम रखे गये हैं। वे दोनों बच्चे वहाँ पर आश्रम में पले। सब कुछ साधुवत् चल रहा है किन्तु! अंग-अंग से क्षत्रियता टपक रही है। बालकों ने घोड़े को इस तरह पकड़ लिया जैसे आपके बच्चे छोटे-छोटे कुत्तों को पकड़ लेते हैं। भले ही उन्हें कुछ शिक्षण नहीं मिला था, लेकिन! परम्परा से वह गोत्र, वह जाति.......

     

    वह खून कहाँ चला जायगा? कुल के संस्कार जीवित थे, जिन संस्कारों के माध्यम से क्षत्रियता उभर आई और क्षण मात्र में घोड़े के ऊपर बैठ गए। जो घोड़े के साथ चल रहा था उसने कहा -

    तुम कौन हो?

    ए! हमें क्या पूछते हो, उन राम से कह देना कि घोड़ा हमने पकड़ा है। दोनों कुमारों ने वीरता पूर्वक कहा।

    और उस घोड़े को सीता के पास ले गये। सीता कहती है-बेटा! तुमने गलत कर दिया।

    क्या गलत कर दिया माँ? लव और कुश ने एक साथ कहा।

    बेटा! यह श्री राम का घोड़ा है और इसको तुमने पकड़ा है इसके ऊपर बैठ भी गए। अब राम क्या करेंगे क्या पता? सीता ने आशंका पूर्वक कहा।

    कौन है राम? लव ने शीघ्रता से पूछा।

    और सीता चुप रह गई, क्या उत्तर दे इनको? कुछ बोली नहीं।

    माँ! बता दें उसको भी हम इसी प्रकार पकड़ कर लायेंगे आपके पास। क्या हमने कोई अन्याय किया है, कोई अपराध किया है? नहीं. इसके ऊपर लिखा है कि जो कोई इसे पकड़ेगा उसे राम के साथ युद्ध करना होगा। आप क्यों चिंता करती हैं? वे तो अपने आप ही आ जायेंगे और उनको भी पकड़कर आपके सामने रख देंगे हम। कुश ने क्षत्रियोचित पराक्रम दिखाते हुए कहा।

    नहीं............नहीं बेटा। ऐसा मत कही।

    सीता गंभीरता पूर्वक बोलीं।

    क्यों क्या बात हो गयी माँ? दोनों ने एक साथ कहा।

    अब क्या होगा? सब राज खुल जायेगा। यह सोचकर सीता मूछित हो जाती है। मूच्छा हटने पर सीता ने मजबूर होकर लव-कुश को सारी कथा वार्ता सुना दी, जिसे सुनकर दोनों का खून खौलने लगा और वे युद्ध के लिए तैयार हो गए। हनुमान को भी यह बात मालूम पड़ गई।

     

    पहले धर्म-युद्ध हुआ करते थे। आज भी लड़ने वालों को युद्ध की सारी नीतियाँ अपनानी चाहिए। युद्ध कुद्ध होकर के नहीं किया जाता, बल्कि! धर्म को अपने पास रखकर किया जाता है। रणांगण में यदि हाथ से तलवार छूट जाती थी तो दूसरी तलवार हाथ में देकर के कहते थे कि आ जा! अब लड़। छल पूर्वक नहीं मारा जाता था। यह क्षत्रियता एक प्रकार से आवश्यक कार्य है। जो आक्रमण आवे उस आक्रमण को रोकने की विधि का नाम है युद्ध।

     

    न प्रहारो शोभना गतिः क्षत्रियाणां (क्षत्रियः) ।

    क्षत्रियों के हाथ में जो कोई भी शस्त्र है वह शरणागत निरपराध व्यक्तियों के ऊपर उठाने के लिए नहीं है। जो अपराध करता है, अन्याय करता है उसको रोकने के लिए है।

     

    "आगत एव प्रहार योग्यो अपराधी"

    इस प्रकार अभिज्ञान शाकुन्तलम् में महाकवि कालिदास ने लिखा है कि जो अपराधी है और उसके ऊपर जो शस्त्र नहीं उठाता वह क्षत्रिय नहीं है।

     

    क्षतात् पापात् रक्षति इति क्षत्रियः।

    जो क्षत्रिय है, वह पाप से बचाता है, युग को, स्वयं को और दूसरों को और पुण्यमय जीवन बना देता है। आज शस्त्र का प्रशिक्षण किस रूप में दिया जा रहा है? बन्धुओ! भारतीय सभ्यता मिटती सी जा रही है फिर भी हम लोगों की धारणा है कि वह सतयुग आयेगा विश्व में शान्ति आयेगी और यदि हमारा आचरण ठीक नहीं है तो वह सतयुग. वह विश्व में शान्ति ‘न भूतो न भविष्यति '' |

     

    बात मालूम पड़ते ही हनुमान जी आ गये और इस प्रकार के वातावरण में वे लवकुश का पक्ष लेते हैं, और कह देते हैं कि आज से राम-हनुमान युद्ध प्रारम्भ होगा। श्रीराम के लिए सिर्फ लक्ष्मण काम कर रहे हैं। हनुमान ने कहा कि जहाँ न्याय का पक्ष है वहाँ मैं रहूँगा। राम ने जिन-जिन शस्त्रों को चलाया उन-उन शस्त्रों को हनुमान ने कागज के फूल की भाँति उड़ा दिया। किन्तु! यह ध्यान रखना जब राम शस्त्र छोड़ते हैं तो उस समय हनुमान'जय श्रीराम' कहकर उसका प्रतिकार करते हैं। राम इधर से बाण छोड़ते हैं। तो हनुमान उसे बीच में ही छिन्न-भिन्न कर देते हैं। यदि उधर से अग्निबाण आता है तो इधर से वे जल बाण छोड़कर उसे ठंडा कर देते हैं। इस प्रकार पाँच-छह दिन तक घनघोर युद्ध हुआ। सब कुछ समाप्त हो गया, अन्त में राम सोचते हैं कि अब क्या करें? अब कुछ नहीं करना है। इन बच्चों के सामने देखो! हारने की नौबत आ गई। आज हनुमान भी हमारे विरुद्ध हैं जो अब तक सब कुछ था। अब अन्तिम अमोघ शस्त्र, चक्र-रत्न ही शेष रह गया है, और उस समय चक्र को राम मुस्कान के साथ छोड़ देते हैं। तो राम का छोड़ा हुआ चक्र, लव-कुश हनुमान सहित तीनों की ऐसे परिक्रमा करता है जैसे आप मुनि महाराज की परिक्रमा करते हैं वन टू श्री) और चला गया, उस चक्र की कांति फीकी पड़ गई। अपना शौर्य, बल, कौशल कुछ भी नहीं दिखाता। चक्र सोचता है कि मैं राम जैसे अकर्तव्यशील पुरुष की ओर जाने वाला नहीं हूँ। कर्तव्य का अनुपालन करने वाला हूँ।

     

    धन्य है राम के प्रति हनुमान की भक्ति! और धन्य है लव-कुश! धन्य है वह पतिव्रता सीता! सब कुछ आँखों से देख रही है कि अब क्या होगा? क्या हुआ? हनुमान भी भूल गये, राम के पक्ष को गौण कर दिया। दुनियाँ राम की ओर है, लेकिन उस चक्र रत्न ने भी आज राजा का महत्व कम कर दिया। आज राम की क्षत्रियता धूमिल हो गई लेकिन! वंश वही था इसलिए और उठ गई, द्विगुणित हो गई। राम की क्षत्रियता को उज्ज्वल बनाने वाले दो पुत्र लव-कुश और न्याय का पक्ष लेने वाले वह हनुमान थे और उस समय क्या बताएँ? हमने सोचा कि वस्तुत: यहाँ पर न्याय का पक्ष है। जो व्यक्ति न्याय का पक्ष लेता है वह अन्याय को ही नहीं सारे विश्व को झुका सकता है अपने चरणों में। लेकिन! उन चरणों में धर्म निहित है, वे चरण अहर्निश चल रहे हैं। चलते आए हैं। चलते रहेंगे। कभी थकेंगे नहीं, डिगेंगे नहीं। उन चरणों में आकर प्रणिपात करना होगा अन्याय के पक्ष की।

     

    यह संस्कृति आज की नहीं है, किसी व्यक्ति विशेष की भी नहीं है। धर्म चिरकाल तक संघर्ष करता चला जाता है किन्तु अन्त में विजय धर्म की ही होती है। विजय सत्य की ही होती है। सत्य अमर है और असत्य की पग-पग पर मृत्यु। सही सो अपना है, अपना सो सही नहीं। हम अपना सही कहते हैं। सत्य ही अपना है। उस सत्य को देखने के लिए हमें ऑखों की आवश्यकता है। उस सत्य को परखने के लिए हमारे पास क्षमता नहीं है। हमारे पास वह ज्ञान कहाँ है? जो इस प्रकार के संघर्ष मय जीवन में भी अडिग रूप से उस उपास्य, सत्य की पहचान कर सके।

     

    सामान्य दीपक जलते और बुझ जाते हैं किन्तु! एक रत्न दीपक होता है। जो बुझता नहीं है हमेशा प्रकाश प्रदान करता है। जो न्याय का पक्ष लेता है वह कभी बुझता नहीं, चाहे झंझावात, प्रलय का भी समय आ जाये, तो भी वह जलता रहता है। किसी प्रकार से वह हताश नहीं होता, सभी की सेवा के लिए वह न्याय के पक्ष की शरण लेता है। वह सोचता है कि अन्याय की शरण लेकर मेरा विकास.मेरी रक्षा तीन काल में संभव नहीं। मुझे उड़ना नहीं है अन्याय के पक्ष को उड़ाना है।

     

    राम और लक्ष्मण की आँखों में (यह दृश्य देखकर) हर्ष के आँसू आये बिना नहीं रहे। वे सोचते हैं कि ये और कोई नहीं हमारी संस्कृति की सन्तान हैं। वे ऐसे पुत्र थे, जो कुल दीपक माने जाते हैं। वे रत्न-दीपक के समान थे, जो बुझने वाले नहीं थे। लेकिन! यह ध्यान रखना रत्न- दीपक को बहुत जोखिम के साथ रखा जाता है। रत्न-दीपक अपने आप में बहुत कीमती होता है, हर प्रकार के लोग उसके प्रकाश में नहीं देख सकते। रत्न दीपक के माध्यम से तत्व की गवेषणा की जाती है। रत्न-दीपक आँखों की मौज के लिए नहीं है किन्तु! खोई हुई वस्तु को ढूँढ़ निकालने के लिए है।

     

    राम, सीता को लेकर अयोध्या आ जाते हैं। परीक्षा.......न्याय की परीक्षा हो गई। लेकिन! अभी प्रीवियस हुई है। फाइनल इक्जामिनेशन और बाकी है। सीता को अभी अग्नि-कुण्ड में प्रवेश करना है। यह संसार सत्य की बहुत परख करता है, भले ही उसके पास क्षमता हो अथवा न हो। इसको सत्य की पहचान है ही नहीं।

     

    हनुमान रोने लगे..............और लक्ष्मण ने आगे बढ़कर राम के मुख पर हाथ रख दिया और कहने लगे।

    ऐसी कठिन आज्ञा मत दो, ऐसा अनर्थ मत करो मेरे भ्राता........!

    नहीं...............नहीं जब राम कहते हैं, सही कहते है, अभी और परीक्षा बाकी है, मुझे विश्वास है कि मेरी सीता निर्दोष है इसमें फेल नहीं होगी। राम ने अपने निर्णय पर अडिग रहते हुए कहा।

     

    यह सब मालूम होते हुए भी, वह परीक्षा ले रहे हैं। इसी का नाम है अज्ञान। केवल विश्व को दिखाना है। वस्तु की शक्ति पूरी-पूरी आँकने वाला व्यक्ति तीन काल में वहाँ पर जीत नहीं सकता क्योंकि उसके लिए संघर्ष करना होगा।

     

    सारी प्रजा को जब मालूम है कि, सीता निर्दोष है तो फिर क्यों परीक्षा ले रहे हो? हनुमान के प्रश्न ने राम को झकझोर दिया।

    हनुमान चुप रहो! मेरा निर्णय अटल है। राम ने दृढ़ता के साथ कहा।

    तो क्या सीता के अग्नि प्रवेश में मैं ही कारण बन रहा हूँ? इसीलिए सीता दी थी तुम्हें? हनुमान के सशक्त प्रश्न ने राम को निरुतर कर दिया।

    धन्य है.........वह सीता जो अग्नि परीक्षा के लिए तैयार हो जाती है। अग्नि कुण्ड की लपटें...........आकाश को छू रही हैं। लक्ष्मण का मुँह उतर गया है, हनुमान रो रहे हैं। प्रजा देखना नहीं चाहती पर राम देख रहे हैं। सीता कहती है : -

     

    पाषाणेषु यथा हेम, दुग्ध मध्ये यथा घृतम्।

    तिलमध्ये यथा तैल, देह मध्ये तथा शिव:।

    काष्ठ मध्येयथा वह्नि, शक्तिरूपेण तिष्ठति।

    अयमात्मा शरीरेषु यो जानाति सः पंडितः॥

    (परमानन्द स्तोत्र, श्लोक २३/४)

    जिस प्रकार पाषाण में कनक विद्यमान है, दूध में घृत विद्यमान है, काष्ठ में अग्नि विद्यमान है। उसी प्रकार शक्ति रूप से इस देह में शंकर विद्यमान है। हे भगवन्! यदि मैं इस परीक्षा में पास हो गई, तो फिर यह संसार मेरे योग्य नहीं रहेगा। इस संसार का चक्कर छोड़ मैं आपके चरणों में आ जाऊँगी। इस प्रकार का संकल्प लेकर ज्यों ही सीता ने अग्नि कुण्ड में प्रवेश किया, त्यों ही अग्नि कुण्ड, जल का सरोवर बन जाता है। उसके बीचों-बीच सहस्त्र दल कमल पर सीता विराजमान हो जाती है, और आँख बंद कर शुद्धोऽहं-बुद्धोऽहं कहती हैं। सारे के सारे लोग जयजयकार करते हुए नतमस्तक हो जाते हैं। राम कहते हैं 

     

    परीक्षा हो चुकी है, अब आप घर चलिए। अब घर कहाँ वन में ही रहना ठीक है। मैंने परीक्षा दी और उसमें पास हुई, इससे शील धर्म की लाज बच गई। आज मैं कलंकित नहीं हुई किन्तु! अग्नि में तपने से मेरे शीलव्रत में निखार आया है। अब अग्नि परीक्षा के बाद मुझे घर पर अच्छा नहीं लग रहा है। सीता ने कहा।

     

    राम को अब भी घर अच्छा लग रहा है। सीता को घर अच्छा नहीं लग रहा है और वह कुण्ड से बाहर निकल कर आर्यिका के व्रतों को अंगीकार करती है। केशों का लोन्च कर मात्र एक श्वेत साड़ी रख लेती हैं अपने पास। अहन्त प्रभु! शिवशंकर, जो दुनियाँ से निशंक हैं, आरंभ परिग्रहों से दूर हैं, ऐसे उन अहन्त प्रभु के ध्यान में लीन हो जाती हैं। राम जाकर वंदना करते हैं कि मातेश्वरी! मेरा जीवन धन्य हो गया, तुमने इस प्रकार की अंतिम परीक्षा और शिक्षा भी दे दी कि मैं तुमसे भी परे हूँ। अब मैं और परीक्षा के लिए नहीं कह रहा जब अग्नि परीक्षा हो गई तो फिर कोई परीक्षा शेष नहीं रही। अग्नि परीक्षा होने के उपरांत स्वर्ण की पूरी-पूरी कीमत मालूम पड़ जाती है। आत्मा पृथक् है, देह पृथक् है, इस बात को आपने चरितार्थ कर दिया। इतना कहकर राम अपने महल की ओर चले गये।

     

    हनुमान ने जाकर राम से कहा कि आज से मैंने आपका पक्ष लेना बन्द कर दिया। आज से मेरा संकल्प है कि मैं इस धरती पर किसी का भी पक्ष नहीं लूगा। मुझे भी उसी ओर जाना है जिस ओर सीता ने कदम बढ़ाए हैं। और वे भी जाकर वन में परम दिगम्बरी दीक्षा धारण कर लेते हैं। हनुमानजी जीवन भर न्याय का पक्ष लेते रहे परन्तु अंत में कहते हैं कि अब मैं सिर्फमोक्षमार्ग का ही पक्ष लूगा। उसी के माध्यम से मुझे मुक्ति का लाभ होने वाला है। वे कामदेव थे जिनको देखने के लिए महिलाएँ तो क्या अप्सरायें तक तरसती थीं। सारी की सारी महिलाएँ हनुमानजी को चाहती थीं लेकिन! वे किसी को नहीं चाहते थे। जिन्होंने आज तक राम का पक्ष लिया था, उस पक्ष को भी छोड़ दिया क्योंकि राम अभी घर में रह रहे हैं। इसलिए हनुमान वन में चले गए। वनवास का-अर्थ वन में जाकर वास करना, भगवान् को भी छोड़ दिया। इतना ही नहीं जीवन में एकत्व को पाने वह अध्यात्म.वह ध्यान की धारा.वह अन्तरंग समाधि, भीतरी योग साधना में वे लीन हो जाते हैं। जहाँ तक मुझे स्मृति है कि हनुमानजी का तीर्थ स्थल वह सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी माना जाता है, जो कि महाराष्ट्र प्रान्त में है। यहाँ पर एक ऐसी प्रतिमा है जिसका मुख दीवाल की तरफ है। कोई दर्शक दर्शन करने चला जाता है तो उसे पीठ का ही दर्शन होता है, मुख का दर्शन नहीं होता। ऐसा क्यों है? तो स्मरण आ रहा है मुझे कि संसारी प्राणी विश्व की ओर देख रहा है। विषय भोगों की ओर देख रहा है, लेकिन! वे अप्रतिम सौंदर्य के धनी किसी को नहीं देख रहे हैं। वे कहते हैं कि आत्मज्ञ बनने के लिए विश्व की ओर से मुख फेरना होगा। समस्त सांसारिक कार्यों से दृष्टि हटाकर उन्होंने अपने अजर-अमर-अविनाशी, आत्म-तत्व की ओर दृष्टिपात किया।

     

    विश्व हिंदू परिषद् वालों को यह पाठ स्वीकार कर लेना चाहिए कि वे उन राम के अनुरूप, लक्ष्मण के अनुरूप, हनुमान के अनुरूप अपने जीवन को बनायें। अहिंसा का पालन करें, हिंसा से दूर रहें........वही सत्य है..........वही तथ्य है............वही उपास्य है............वही शरण है.........वही हमारा जीवन है। कहीं से आप देखना प्रारंभ कीजिए, किसी को भी आप उठा लीजिए, वस्तु आपको अखण्ड, अविनश्वर एक दिखेगी। एक से एक पदार्थ कई हैं, उनमें से उपादेय एक मात्र आत्म-तत्व है उसी को अपनाना होगा। हनुमानजी ने अंत में परम सिद्धत्व पद को प्राप्त किया। जैन पुराणों के आधार से मैंने आपके समक्ष कथा का वस्तु स्वरूप रखा। आप लोगों को पसन्द आया हो तो ठीक है, नहीं आयें हो तो हनुमानजी को तो अवश्य पसन्द आया था और मैं समझ गया कि इससे उज्ज्वल चरित्र हनुमानजी का अन्यत्र मिलने वाला नहीं है। हनुमानजी के सामने राम भी नतमस्तक हुए। क्योंकि राम के पहले हनुमान ने मुक्ति का लाभ लिया। राम के भत होते हुए भी उन्होंने राम के लिए ऐसे-ऐसे सूत्र दिये जिनसे राम का भी जीवन धन्य हो गया। हम लोगों का ज्ञान, ज्ञेय की ओर जा रहा है, इसलिये दुख का अनुभव कर रहा है। हम ज्ञान का मूल्यांकन करें, इन्हीं शब्दों के साथ आपके समक्ष ज्ञान का निचोड़ प्रस्तुत है -

     

    ज्ञान ही दुख का मूल है, ज्ञान ही भव का कूल।

    राग सहित प्रतिकूल है, राग रहित अनुकूल।

    चुन-चुन इसमें उचित को, मत चुन अनुचित भूल।

    सब शास्त्रों का सार है, समता बिन सब धूल।

     

    महवीर भगवन की जय......|

    आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी महाराज की जय.........।


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