दम भारत में रहते हैं, भारत में कमाते हैं, भारत का अनाज खाते हैं, भारत का पानी पीते हैं लेकिन हम अपना धन विदेश में रखते हैं, क्या भारत के ऊपर विश्वास नहीं? जिस माटी पर जीते हैं उसी को सन्देह से देखते हैं, बस यही भारत की कंगाली का कारण है। तन भारत में और धन विदेश में, इसीलिए गरीबी है। वतन में भारत कंगाल हो रहा है, ऋण के भार से दब रहा है, कर्ज बढ़ रहा है और हमारे ही देशवासियों का धन विदेशों की बैंकों में रखा है, हम कैसे कहें कि हम अपने देश का विकास कर रहे हैं। यदि हम भारत को गरीबी से मुक्त करना चाहते हैं, कंगाली मिटाना चाहते हैं तो अपने देश का धन विदेशों में नहीं रखना चाहिए। विदेश में धन-रखने वालों ने ही देश को गरीब बनाया है। आज इस बात की महती आवश्यकता है कि हम अपने देश को कर्ज से मुक्त करने के लिए अपना धन विदेश में न जाने दें।
देश को कर्ज से मुक्त करना ही स्वर्ण जयन्ती की सार्थकता होगी। आज देश को आजाद हुए पचास वर्ष होने को आ रहे हैं लेकिन पचास वर्षों में हमारे देश का कर्जा ही बढ़ा? कौन-सी तरक्की की है? पचास वर्ष के उपरान्त भी देश को कर्ज से मुक्त न कर सके, गरीबी न भगा सके, हिंसा-आतंक न रोक सके, फिर किया ही क्या? कर्ज लेलेकर देश को कब तक चलाएँगे? देशप्रेमियों देश को कर्ज से मुक्त करो, भारत की सम्पदा भारत में रहने दो, वस्तुत: भारत को धन की आवश्यकता नहीं, भारत तो धनी ही है, उस धन को विदेश से वापिस ले आओ। पचास वर्ष के उपरान्त भी हमको यह ज्ञात नहीं कि क्या करना है, क्या नहीं करना है, फिर स्वर्ण जयन्ती मनाने से क्या लाभ? पचास वर्ष के उपरान्त मात्र हमने इतना याद रखा है कि १५ अगस्त को हमारा देश स्वतंत्र हुआ था। पचास वर्ष के बाद भी हम ऋणी ही हुए जबकि हमको धनी होना था। ऋणी होना भी अच्छा है लेकिन धन से नहीं, आदर्श से हम ऋणी हैं पूर्वजों के जिन्होंने भारतीय संस्कृति को यहाँ तक लाने का पुरुषार्थ किया, देश को आजाद कराया, उन्होंने बहुत कष्ट उठाए, मुसीबतें सहीं, अनेक बाधाओं से जूझे, जीवन मरण से लड़ते रहे और निस्वार्थ भावना से देश और देशवासियों की सेवाएँ की, ऐसे कर्तव्यशील, निष्ठावान, अहिंसक पूर्वजों के हम ऋणी हैं। हमारे पूर्वजों ने जीना सिखलाया लेकिन हम उनको कहाँ आदर्श मानते हैं। अपने पूर्वजों के आदशों को याद करो, उनके ऋणी बनो और देश को ऋण से मुक्त करो, आजादी की स्वर्ण जयन्ती पर देश को कर्ज से मुक्त करने का संकल्प ली, यही सच्ची भारतीयता-राष्ट्रीयता है।
यह कैसी विडम्बना है कि भारत का धन विदेशों में रखा है और भारत अपना ही धन अपने लिए कर्ज के रूप में ले रहा है। अपनी मुद्रा विदेश में रखकर और विदेशी मुद्रा के लिए मांस बेचकर विदेशी मुद्रा कमा रहा है? यह कौन-सी कमाई है कि अपने धन को नष्ट करना और विदेश के धन को इकट्ठा करना, यह अर्थनीति नहीं, यह तो अनर्थनीति है। इस अनर्थनीति को पहले समाप्त करो अन्यथा देश कभी भी आर्थिक सम्पन्न न होगा।
कोई भी पार्टी हो, वह सत्ता की ओर न देखें परन्तु देश की सत्ता देश की अस्मिता की ओर देखें, सत्ता की ओर देखने से अहंकार होता है, स्वार्थ होता है लेकिन जब हम देश की सत्ता-अस्मिता की ओर देखते हैं तो स्वाभिमान होता है, कर्तव्य का बोध होता है, दायित्व का बोध होता है। सत्ता (पार्टी) की ओर मत देखो, देश की अस्मिता की ओर देखो, भले तुम किसी भी पक्ष के रहो। चाहे तुम पक्ष के हो या विपक्ष के लेकिन देश का पक्ष कभी भी मत भूलना, यह देश की अस्मिता को देखने का अर्थ है जो व्यक्ति देश का पक्ष लेगा वह अपना धन विदेश में नहीं रख सकता। देश को कर्जदार नहीं बना सकता है इसलिए तुम भी याद रखो -
"मरना है तो मरजा
लेकिन मरने से पहले
कुछ कर जा
पर न कर कजा"
देश के लिए कुछ कर जाओ लेकिन कर्जा मत करना, हमने आज भारत की क्या दशा कर दी।
-१९९७, नेमावर