जो राष्ट्र अपनी मातृभाषा से किनारा करके अन्य भाषा के इस्तेमाल में लगते हैं वो अपनी पहचान खोने लग जाते हैं। ईस्ट इण्डिया कम्पनी देश छोड़कर गई परन्तु विरासत में 'इण्डिया' थोप गई। जिसे हम अभी तक ढोते चले आ रहे हैं। अंग्रेजी की सहायक भाषा के रूप में उपयोग करना अलग बात है, परन्तु उसे जबरदस्ती थोपना गलत है।
भारत में शिक्षा हिन्दी माध्यम से अनिवार्य होना चाहिए तभी तस्वीर बदल सकती है। हमारी गुरुकुल परम्परा को भी क्षति पहुँचाई जा रही है। जो तक्षशिला में बड़ा केन्द्र था शिक्षा का, आज वो कहाँ है? सारी दुनिया के लोग शिक्षा ग्रहण करने के लिए भारत आने के लिए लालायित रहते थे और आज भारत के लोग विदेशों में पढ़ने जा रहे हैं-कौन-सी शिक्षा लेने जा रहे हैं?
आज हमने 'इण्डिया' को विकास के नाम पर जबरदस्ती ओढ़ रखा है और भारत के मूल स्वरूप और संस्कृति को काफी पीछे धकेल दिया है। आज हम हस्ताक्षर भी अंग्रेजी में करने में अपनी शान समझते हैं, जबकि विकसित राष्ट्र अपनी मूल भाषा में ही सारा काम करते हैं। हमें संकल्पित होकर अपनी मूल भाषा में ही सारे कार्य करना चाहिए। आज विडंबना ये है कि हमारे राष्ट्र के योग्य वैज्ञानिक, तकनीशियन विदेशों में जाकर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं जिनकी राष्ट्र को आज जरूरत है। प्रबंधन के क्षेत्र में हम सबसे आगे थे परन्तु हमारी योग्यता की शक्ति प्रोत्साहन के अभाव में भारत में काम न करके विदेशों में काम कर रही है जिसके कारण प्रबंधन में भी हम पिछड़ रहे हैं।
भारतीय अर्थशास्त्री कहें या भारतीय बुद्धि कहें सबसे अधिक योग्य है इसलिए मंदी का बहुत ज्यादा प्रभाव भारत पर नहीं पड़ा क्योंकि यहाँ सब अभी भी ठीक संचालित है। निर्यात नीति में भी सुधार की आवश्यकता है क्योंकि पहले निर्यात संतुलित था, आज असंतुलन के कारण परेशानी हो रही है। आज स्वदेशी जागरण की भी सबसे ज्यादा जरूरत है।
सारे भारतीय आज कलाओं से परिपूर्ण हैं। अर्थ से, परमार्थ से, हर स्थिति में श्रेष्ठ हैं। जरूरत है उन्हें एक सूत्र में पिरोने की, उन्हें उचित मौका प्रदान करने की।
मध्यप्रदेश में हरेक क्षेत्र में अंग्रेजी की जगह हिन्दी में कार्य करने की कोशिश सरकार के द्वारा की जा रही है जो सराहनीय है। आज के दिन हर देशवासियों को संकल्प लेना चाहिए कि अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग नहीं सदुपयोग करेंगे और अपनी राष्ट्रभाषा को मजबूत करने की दिशा में कार्य करेंगे। स्वावलंबी बनने के लिए हथकरघा जैसे उपक्रमों को अधिक से अधिक प्रारम्भ करने का प्रयास करेंगे। 'इण्डिया' नहीं 'भारत' नाम लिखेंगे, बोलेंगे, बताएँगे और अपने हस्ताक्षर भी हिन्दी में करेंगे।
आज की शिक्षा में भारतीयता के तत्व तो गायब ही हो गए हैं। प्राचीन साहित्य को उठाकर के देखें तो उसमें आपको बच्चों के सवांगीण विकास के बहुत सारे सूत्र मिल जाएँगे। एक किताब पढ़ी थी 'निद्रा आवश्यक है, किन्तु अनिवार्य नहीं’ मतलब विज्ञान ने भी इस विषय पर शोध-विचार किया है और आप लोग निद्रा को अनिवार्य समझते हैं। बच्चों के लिए कुछ अनिवार्य नहीं, समझदार के लिए अनिवार्य नहीं, किन्तु उसका नियंत्रण आवश्यक है। आवश्यक इसलिए है कि आप लोग शारीरिक और मानसिक क्रियाओं पर नियंत्रण खो बैठे हैं। उसकी थकान को मिटाने के लिए वह आवश्यक हो गयी है, किन्तु समय पर आप सोयें, समय पर उठे, यही तो भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है। इसी से आपका मानसिक, वाचनिक और कायिक स्वास्थ्य ठीक रह सकता है। सूर्य अस्त होने के तत्काल बाद न सोयें किन्तु ९ बजे के उपरान्त सो सकते हैं और सूर्योदय के पहले अवश्य ही उठ जाएँ। जो ऐसा नहीं करते, सोने और उठने के समय में गड़बड़ करते हैं तो वे दिनभर ऊँघते रहते हैं, उनको आलस बना रहता है; तो फिर किसी कार्य में मन नहीं लगता। कार्य बिगड़ने लगते हैं और डॉट पड़ने लगती है।
हमें बच्चों को शरीर के प्रति सावधान करना होगा। शरीर के महत्व को समझाना होगा। भारतीय संस्कृति में 'शरीरमाद्य खलु धर्म साधनम्' कहा गया है। शरीर यदि स्वस्थ है तो व्यक्ति अपना और दूसरों का हित साधन कर सकता है। शरीर की स्वस्थता खाने-पीने से सम्बन्धित है। बच्चों को इससे सम्बन्धित शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें क्या खाना कहाँ नहीं? यद्वा-तद्वा खाने से ही बीमारियाँ होती हैं। अंग्रेजी में 'ब्रेकफास्ट' शब्द आता है, 'फास्ट' का मतलब उपवास और उस पर 'ब्रेक' लगाना ये 'ब्रेकफास्ट' कहलाता है और यह 'ब्रेकफास्ट' सुबह किया जाता है। इसका मतलब रात्रि में उपवास था उस पर 'ब्रेक' लगाना। अब तो विज्ञान भी रात्रि में खाने के लिए मना कर रहा है, क्योंकि रात्रि में पाचक-रस नहीं बनता। तो जो ‘ लीवर' है वह खराब हो जाता है। इसलिए इसकी जानकारी भी बच्चों को दी जानी चाहिए, जिससे वे अपने शरीर पर नियंत्रण कर सकें।
कोई भी वस्तु अभिशाप नहीं होती। यदि हमारे पास साधना है और हम सही दिशा में काम करें तो हर क्षण वरदान सिद्ध हो सकता है, लेकिन खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आज कोई भी उपयोगी शिक्षा नहीं दी जा रही है। डिग्रियाँ तो दी जा रहीं हैं, लेकिन उससे कुछ काम नहीं हो रहा है। विद्याथी दर-दर भटक रहे हैं। प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली को उठा कर देखें, जिसके द्वारा स्वयं के जीवन का और पर के लिए भी वह शिक्षा उपयोगी बनती थी। वह शिक्षा मात्र जीवनयापन के लिए नहीं जीवन उन्नत करने के लिए हुआ करती थी। कोई भी व्यक्ति इस बात को नहीं नकार सकता कि भारत उन्नत नहीं था। भारत पूरे विश्व में सबसे अधिक उत्पादन व निर्यात करने वाला देश था। उत्तम से उत्तम गुणवत्ता वाली वस्तुएँ इस देश में हुआ करती थीं। इतिहास पढ़ने की आवश्यकता है। उसके बल पर ही आप ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं,कर सकते हैं। वरना आपका पतन निश्चित है। धर्मपाल जी ने जो इतिहास भारत का लिखा है; वो भी ३० वर्ष तक अथक परिश्रम करके, उन्होंने विश्व के प्राय: राष्ट्रों में घूम-घूम कर भारत से सम्बन्धित जो भी प्रमाण मिले, दस्तावेज मिले; उनका अध्ययन करके, अनुसंधान करके लिखा है। पढ़कर के आपकी आँखें खुल जाएँगी। १८वीं शताब्दी में भारत कितना विकसित था; आपको अंदाज लग जाएगा और गर्व से मस्तक ऊँचा हो जाएगा। उस इतिहास को मिटाने के लिए परतंत्रता लाई गई थी और यहाँ से सारी टेक्नॉलॉजी, विज्ञान, अनुसंधान विदेश ले गए और वहाँ जाकर नए ताने-बाने में प्रस्तुत करके लिख दिया 'मेड इन यू एस ए', 'मेड इन चाईना', 'मेड इन इंग्लैण्ड' आदि आदि लिखा जाने लगा। आज भी हो क्या रहा है? आप देख लीजिए भारत के वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, एम. बी. ए. पढ़ लिखकर विदेशों में काम कर रहे हैं और लिख रहे हैं 'मेड इन यू एस ए।'
परतंत्रता के कारण उन्होंने जो पट्टी पढ़ाई हम वैसे ही मानने लग गए। स्वतंत्र होने के बावजूद भी ७० वर्ष निकल गए। अभी भी हम उनके ही पिछलग्गूबने हुए हैं और उनकी ही दृष्टि से, उनकी भाषा से ही सोच रहे हैं, उनकी स्थिति, परिस्थिति के अनुसार शिक्षा दे रहे हैं, ले रहे हैं और कह रहे हैं वो श्रेष्ठ हैं। ये धारणा आप लोगों की गलत है। हम आपके सामने एक उदाहरण रखते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि अमेरिका मेनेजमैंट में अग्रणी है, ये आप लोगों की धारणा हो सकती है। पर मैं आप लोगों से पूछना चाहता हूँ अमेरिका में अभी कुछ वर्षों पूर्व घटना घटी कि २00-२५o वर्ष पुराने बैंक जो अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ बैंक माने जाते थे। मंदी के कारण उनका प्रबंधन गड़बड़ा गया। अमेरिका ने पूरी ताकत लगा दी उन्हें बचाने की फिर भी वे बैंक ताश के पते की तरह धराशायी हो गए। संभवत: ये २oo८ की बात है और एक दो नहीं कई बैंक थे, दिवालिया निकल गया उनका। अमेरिका इतना अग्रणी है मेंनेजमेंट में फिर क्यों दिवालिया निकल गया? कैसा मेनेजमैंट? अंततोगत्वा वहाँ की सरकार ने जो बैंकों का बोर्ड था उसमें भारतीय अर्थशास्त्री को रखने की बात कही।
उसी समय की बात है पूरे विश्व में जबरदस्त मंदी का प्रभाव पड़ा किन्तु भारत के ऊपर कुछ भी नहीं पड़ा। इससे आप स्वयं समझ सकते हैं कि प्रबंधन में कौन तगड़ा है? ध्यान रखना भारत में सुमेरु है। वह किसी तूफान से हिलने वाला नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती का कारण है कि हमारे पूर्वज घुट्टी में पिलाकर के गए हैं कि कल की चिन्ता करो।'बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जग मांहि ।' बचत के बिना जीवन बचता नहीं है और आज भारत का किसान रो रहा है क्योंकि विदेशी प्रबंधन के माध्यम से भारत सरकार चल रही है। हमें अपनी स्थिति-परिस्थिति को देखते हुए प्रबंधन की कला सीखनी होगी। उसी नीति के अनुसार चलना होगा। अपनी कुटिया में भी प्रबंधन है और महाप्रासादों में भी प्रबंधन है। दूसरों की ओर देखने की आवश्यकता ही क्या है? आपको विदेशी भाषा, विदेशी शिक्षा, विदेशी जीवन पद्धति, विदेशी संस्कृति को छोड़कर अपनी चीज को आत्मीयता से स्वीकार करना होगा।
अपना स्वाभिमान जागृत करें और इतिहास के पन्नों को खोलें, उसे पढ़े बिना आप हीन भावना से भरे रहेंगे और विदेशी चीज आपको अच्छी लगती रहेगी और अपनी पीढ़ियों को भी आप विदेशी चीजों को सर्वश्रेष्ठ बताते रहेंगे तो वो पीढ़ी भी उसी मार्ग पर चल पढ़ेगी। अभी तो ७0 साल ही निकले हैं फिर ७00 साल भी निकल जाएँगे तो भी भारत देश का भला नहीं हो पाएगा। वहीं आप सब को और देश के नेताओं को कहना चाहता हूँ कि आप सभी अपनी-अपनी भूमिकाओं को समझे और देश को सोने की चिड़िया बनाने का पुरुषार्थ करें और इसके लिए सर्वप्रथम शिक्षा की नीति में परिवर्तन करें भले मेरे कहने पर न करें, कोई बात नहीं। इस विषय पर आप शोध करें। वैसे भी शोध बहुत हो चुके हैं, उसी आधार से हम बोल रहे हैं। जब अमेरिका ने कहा भारत के अर्थशास्त्री सर्वोत्तम हैं और उन्हें स्वीकार कर लिया फिर भी आप लोगों की बब्बा के ऊपर विश्वास नहीं। इतिहास को हम बब्बा और दद्दा कहते हैं, क्योंकि उन्हीं के कार्यकाल में वह लिखा गया है।
आप लोगों से सिर्फ इतना कहना है कि जापान और चीन से प्रेरणा लें, ऐसे ही और भी कई देश हैं जिन्होंने स्वतंत्रता के बाद अपने देश की संस्कृति को बचाने के लिए अपनी भाषा के स्वाभिमान को जीवित किया है। ऐसा ही एक छोटा-सा देश इजराईल है। जो नईदिल्ली के बराबर भी नहीं है। वह जब स्वतंत्र हुआ तो उसने अपनी भाषा हिब्र भाषा में सभी कार्यक्रम शुरु कर दिए। चाहे पढ़ाई का क्षेत्र हो, चाहे चिकित्सा का क्षेत्र हो, चाहे प्रबंधन का क्षेत्र हो, चाहे कृषि विज्ञान का क्षेत्र हो या हो न्याय का क्षेत्र हो; सभी की पढ़ाई से सम्बन्धित पुस्तकें हिब्र भाषा में अनुवादित कीं। भारतीयो जागो, जागी। आप लोगों के पास इतनी भाषाएँ हैं। क्या आप लोग इन विषयों को अनूदित नहीं कर सकते? मात्र संकल्प लेने की जरूरत है और संकल्प के लिए श्रद्धान की, गौरव की, स्वाभिमान की आवश्यकता है और ये सब आपके पास नहीं हैं; ऐसा मैं नहीं मानता, क्योंकि परम्परा से आप सबको वह मिला है। आपके रक्तप्रवाह में वह जीवित है। हमारे रक्त में राम, महावीर, ऋषभदेव, पाण्डव आदि के संस्कार विद्यमान हैं।
जीवन बहुत छोटा है। परिवर्तन की दिशा में कदम बढ़ाना आज ही प्रारम्भ कर दी।
हमने जो कुछ भी कहा है वह अपनी तरफ से एक शब्द नहीं कहा। इतिहास के पन्ने पलटाए हैं वह जो आदर्श किताब है; जिसे धनपाल जी ने लिखा है ‘सोने की चिड़िया भारत'। इस पुस्तक को सब लोग पढ़ें।
-१५ अगस्त २०१६, भोपाल
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