विद्यालय विद्यालय ही रहें। विद्या का लय नहीं हो अपितु वह विद्या का आलय बना रहे, छात्र एवं छात्राएँ विद्या पाने आपके पास आए हैं। उनकी स्लेट बिल्कुल कोरी है, अच्छे विचार उस पर डालोगे तो वतन की रक्षा स्वाभाविक है और वतन ही नहीं देखना है, चेतन को भी देखें। चार बातें शिक्षकों एवं संचालकों को ध्यान में रखना चाहिए-(१) स्वाभिमानी बनना-बनाना, (२) स्वाश्रित होना-करना, (३) नीति-न्याय बनाए रखना-रखवाना, (४) दया-सेवा का भाव होना-देना। शिक्षा के ये चार उद्देश्य होना चाहिए। तभी शिक्षा स्वपरोपकारी होगी। इसी से हम अपने प्राचीन स्वरूप में पहुँच सकते हैं।
७0 वर्ष पूर्व हम स्वतंत्र तो हुए पर मानसिकरूप से परतंत्र होते जा रहे हैं। जब भारत स्वतंत्र हो गया था तब यह तय किया गया था कि राजकार्य हिन्दी भाषा में करने से हम आगे बढ़ेंगे, हम संगठित होंगे, शक्ति सम्पन्न बनेंगे। तब नियम भी लिया गया था और कहा गया था कि १२ वर्ष तक हिन्दी में काम करेंगे तो अंग्रेजी के समकक्ष हो जावेंगे। बी. ए. कक्षा की एक पुस्तक मुझे किसी ने दिखाई तो उसमें पढ़ा कि चीन हमसे दो-ढाई वर्ष बाद स्वतंत्र हुआ तो वहाँ के जो शासनकर्ता थे उन्होंने चीनी भाषा में काम करने की बात रखी तो उनका मंत्रिमण्डल बोला-इसको अमल में लाने के लिए ७-८ वर्ष की आवश्यकता है। तब उनका नेतृत्व करने वाले बोले-समय जितना चाहे लगे किन्तु हम आज ही संकल्प करते हैं कि कल से नहीं आज से ही चीनी भाषा में काम करेंगे और वैसा ही करके उन्होंने पूरे विश्व को दिखा दिया अपना संगठन, शक्ति और वैभव । जिनके अंदर स्वाभिमान हो तभी ऐसा हो सकता है। हिन्दी माध्यम से ही पढ़ाई एवं शोध होना चाहिए। विचार करें, क्या अंग्रेजी के अतिरिक्त शोध नहीं होते? अपनी दृष्टि को विश्वपटल पर रखो तो सब अंधकर छट जाएगा। अंग्रेजी भारतीय भाषा नहीं अत: भारत की भाषा में ही अनुसंधान होना चाहिए और अपनी भाषा पर स्वाभिमान आप लोगों में जागृत होना चाहिए।
शिक्षा का वास्तविक अर्थ व्यक्तिगत निर्माण, संस्कृति की रक्षा और समाज की उन्नति होता है परन्तु आज की शिक्षा रास्ते से भटक गई है।
-१५ जुलाई २०१६, सती कॉलेज, विदिशा