देश में बढ़ती हिंसाएं, बर्बरताएँ हमारे विनाश का मानसून तैयार कर रही हैं। कत्लखाने, पशु हत्या, मांस निर्यात, वृक्षों की कटाई, पक्षियों की तस्करी, फैलता प्रदूषण, बिगड़ता पर्यावरण ये हमारे जीवनमरण का प्रश्न है। यदि हमने इस बढ़ते पापाचार पर प्रतिबंध नहीं लगाया तो प्रकृति के प्रकुपित होने में अब देर नहीं है। प्रकृति का प्रकुपित प्रकोप भूकम्प, ज्वालामुखी, दुर्भिक्ष के भीषण विकराल दाडौं से दुनिया को चबा जाएगा। अत: आवश्यकता है एक 'जन क्रांति' की, जो दुनिया के हिंसक वातावरण को अहिंसा और करुणा में बदल दे।
-१९९७, नेमावर