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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • संस्कृति संस्कार : राष्ट्र का श्रेष्ठ धन

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    जिस प्रकार से पक्षी के दो पंख होते हैं, वह एक पंख से आसमान में उड़ नहीं सकता उसी प्रकार लोकतंत्र के बहुत विशाल आकाश में उड़ने के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों अपेक्षित होते हैं। जब तक चुनाव नहीं होता, तब तक अपने-अपने विचार से लोकतंत्र को आगे बढ़ाने के लिए बोला जाता है। चुनाव के पश्चात् चाहे विधानसभा हो या लोकसभा सभी सदस्य मिल-बैठकर लोकतंत्र को आगे बढ़ाते हैं और प्रजा उनका प्रशासन स्वीकार करती है। वे यह नहीं देखते कि शासन कौन चला रहा है? वे तो शासन के नियंत्रण में अपने जीवन को चलाते हैं। सबके मन में एक मात्र राष्ट्रीय पक्ष दृष्टि में रहता है।

     

    यह हमारी भारतीय संस्कृति का पक्ष है कि राजा भी राष्ट्रीय पक्ष को लेकर चलता था। उसी से जनता का उत्थान-कल्याण होता था और वह सुखी रहती थी। आज के लोकतंत्र का भी यही लक्ष्य होना चाहिए। नेताओं को अपना आदर्श लेकर चलना चाहिए और उन्हें एक योग्य आदर्श महापुरुष को अपना आदर्श बनाकर चलना चाहिए।

     

    स्वतंत्रता के ७0 साल में जो उन्नति होनी चाहिए थी वह नहीं हो पायी। इसका कारण है २५0 वर्ष तक पराधीनता के कारण हम अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों को भूल गए, इतिहास को भुला दिया और विदेशी नीतियों के कारण अपने कर्तव्यों से विमुख हो गए।

     

    ध्यान रखें! पक्ष और विपक्ष को छोड़ करके कंधे से कंधे मिलाकर आप किसी बहुत बड़े भार को उठाने का संकल्प करते हैं तो वह भार जो मशीन या यंत्र के द्वारा उठने की क्षमता रखता है वह भार भी आप लोग उठा सकते हैं। इस संस्कार से आप लोग बँध जाएँगे तो अवश्य ही अपने इस लोकतंत्र को विश्व के कोने-कोने तक पहुँचा सकते हैं। भारत का यह लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र है; जो २३ न्याय-नीति के अनुसार चलता है। हमारा यह राष्ट्र एक पवित्र राष्ट्र है यहाँ पर अहिंसा संस्कृति है। प्रत्येक जीव, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र रहता है; किन्तु किसी के अधीन रखने का जो पुरुषार्थ किया जाता है वह हमारा अज्ञान है। अज्ञान के अंधकार के कारण लोग गुमराह हो जाते हैं। फलस्वरूप मोहित हो करके कर्तव्य-अकर्तव्य को भूल जाते हैं।

     

    कोई भी राष्ट्र, धन की अपेक्षा से या भौतिक विकास की अपेक्षा से उन्नत नहीं माना जाता। बल्कि जीवन को उत्कृष्टता की ओर ले जाने वाली संस्कृति जहाँ पर होती है वही राष्ट्र सबसे श्रेष्ठ, धनाढ्य माना जाता है और भारत की संस्कृति इस कार्य में अग्रणी रही है। हमें हमेशा अपने अतीत को भूलना नहीं चाहिए। उसकी शिक्षाओं से ही हमारा भविष्य सुनहरा बन सकता है। अतीत में जो वैभव या संस्कृति थी उस स्वर्णिम इतिहास के पन्ने उठाओ तो ज्ञात होता है कि भारतीय जीवन की शिक्षा क्या थी? वर्तमान में उस संस्कृति की क्षति हो रही है। आज ऐसी शिक्षा प्रणाली चल रही है, जिसमें विज्ञान को मुख्यता देते हुए इतिहास को गायब कर दिया गया है। विदेशी लेखकों ने भी भारत के स्वर्णिम उज्ज्वल इतिहास के बारे में लिखा है किन्तु आज के विद्यार्थी इंजीनियर, चिकित्सक, वकील, न्यायाधीश कोई भी हो उसको जानने की कोशिश नहीं करते क्योंकि आज की शिक्षा ही ऐसी दी जा रही है। विधानसभा हो या संसद सबको अपने कर्तव्य समझने होंगे। वहाँ बैठने मात्र से संस्कृति की रक्षा नहीं होगी। विधानसभा या लोकसभा ये लोक मंदिर हैं। यहाँ अहिंसा के सिद्धान्त पर कार्य किए जाते हैं और प्राणी मात्र के जीवन की रक्षा की गतिविधियाँ होती हैं। ऐसे पवित्र सदन में मात्र देशहित में सोचा जाना चाहिए, व्यक्ति या पार्टी हित में नहीं। अर्थ का सदुपयोग करेंगे तो अवश्य ही परमार्थ आपको मिलेगा। यह सदन अर्थ का अपव्यय करने के लिए नहीं मिला है, किन्तु परमार्थ की खोज के लिए मिला है। अनादिकालीन संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए आप लोगों के सारे के सारे कार्यक्रम संचालित होने चाहिए।अब तो जो कोई भी शिक्षा दीक्षा यहाँ पर दी जाए उसमें यह सब आना चाहिए। स्वर्णिम इतिहास की पूजा नहीं करनी है। उस इतिहास को दिखाने की आवश्यकता है।

     

    आपकी विधानसभा (मध्यप्रदेश) में आते समय एक उत्तम स्तंभ देखने को मिला। आप लोगों ने परिचय दिया महाराज यह शहीद स्मारक है। विचार करो, अहिंसा और अहिंसक की रक्षा के लिए सैनिक अपनी आहूति देकर जीवन को सार्थक बनाता है। संस्कृति की रक्षा के लिए किन-किन ने बलिदान नहीं दिया? उनके बलिदान की पूजा मात्र करने से उनका बलिदान सार्थक नहीं हो पायेगा। प्रत्येक नागरिक और प्रत्येक नेता का संकल्प होना चाहिए। देश का निर्माण, संस्कृति की रक्षा करने का और इसके लिए भारतीय शिक्षा पद्धति को लागू करने का, क्योंकि शिक्षा ही एक साधन है जिसके द्वारा संस्कारों का बीजारोपण किया जा सकता है एवं पवित्र आत्माओं की साधना सार्थक की जा सकती है।

     

    यदि आप इतिहास को ताजा बनाना चाहते हैं और समृद्धि की ओर आगे बढ़ना चाहते हो तो किसी देश की ओर देखने की आवश्यकता नहीं,केवल 'इण्डिया नहीं भारत' की ओर दृष्टिपात करने की आवश्यकता है।

    -२८ जुलाई २०१६, म.प्र. विधानसभा, भोपाल में प्रदत्त प्रवचनांश


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