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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • रुको, अब लौट चलो

       (5 reviews)

     

    हमारा भारत देश और संस्कृति युगों-युगों से जगदगुरु के रूप में विश्व को हर तरह लगभग १५० वर्ष पहले तक भारत चिकित्सा, तकनीकी, विज्ञान, उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में दुनियाँ के शीर्ष पर था। जब विश्व का बड़ा हिस्सा अज्ञान के अंधकार में डूबा था तब भारत में ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी और अध्यात्म का सूर्य दैदीप्यमान हो रहा था इसका कारण यहाँ कि गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था थी। यह केवल कल्पना और ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत दस्तावेजों के द्वारा स्पष्ट होता है। आप उसे पढ़ें तो अपनी संस्कृति इतिहास पर गौरव होगा, प्रेरणा मिलेगी।

     

    १९९७, नेमावर (गुरुदेव की प्रेरणा से संकलित ऐतिहासिक भारत की स्वर्णिम झलकियाँ प्रस्तुत हैं-)

     

    १. सन् १८२२ के आसपास सम्पूर्ण भारत मे ७,३२,००० गाँव थे और उतने ही गुरुकुल थे अर्थात् एक भी गाँव ऐसा नहीं था जहाँ एक भी गुरुकुल न हो। सर्जरी (आपरेशन-चिकित्सा) के १५०० गुरुकुल थे। सम्पूर्ण भारत में साक्षरता थी।

    —जी.डब्ल्यूलिटनर (ओरियन्टलिस्ट, ब्रिटेन)

     

    २. भारत में इंजीनियरिंग, मेडिसिन, आयुर्वेद, धातुविज्ञान, प्रबंधन के लिये अलग-अलग विद्यालय थे तथा तक्षशिला और नालंदा जैसे ५०० से अधिक विश्वविख्यात विश्वविद्यालय थे।

    -पैंडरगास्ट

     

    ३. भारत की पेरियार जाति की मंदिर निर्माण कला अद्भुत थी। उनके द्वारा बनाए गये मंदिर स्थापत्य कला के बेजोड़ व अनूठे नमूने थे।

    -टी. बी. लॉर्ड मैकॉले

     

    ४. भारत हजारों वर्षों से खेती करता आ रहा है। दुनिया के लोगों ने सन् १७५० में खेती करना भारत से ही सीखा। भारत की एक एकड़ भूमि में ७०-७५ क्विटल धान पैदा होता था।

    -लेस्टर

     

    ५. भारत का स्टील इतना अच्छा है कि सर्जरी के लिये बनाये जाने वाले सारे उपकरण इससे बनाये जा सकते हैं, जो दुनियाँ में किसी देश के पास उपलब्ध नही हैं। ये स्टील हम पानी में भी डालकर रखें तो इसमें जंग नहीं लगेगा।

    -डा. सक्राट

     

    ६. भारत में जिस व्यक्ति के घर मैं गया, तो मैंने देखा कि वहाँ सोने के सिक्कों का ढेर ऐसे लगा रहता है जैसे कि चने का या गेहूँ का ढेर हो। भारतवासी इन सिक्कों को कभी गिन नहीं पाते क्योंकि गिनने की फुर्सत नहीं होती है। इसलिए वो तराजु में तोलकर रखते हैं।

    -टी.बी.लॉर्ड मैकॉले

     

    ७. भारत का वस्त्र उद्योग भी अतुलनीय और विलक्षण था। ढाका का मलमल विश्व में प्रसिद्ध था। १३ गज का महीन मलमल एक छोटी-सी अँगूठी में से निकल जाता था, उसका वजन १०० ग्राम से भी कम होता था।

    -बिलियम वोर्ड

     

    ८. भारतवासी, दुनियाँ में सभी वस्तुओं का उत्पादन करते थे, कोई भी वस्तु यहाँ आयात नहीं की जाती थी, अपितु अकेला भारत ३३ प्रतिशत वस्तुओं का निर्यात सारी दुनियाँ को करता था।

    -बिलियम वोर्ड

     

    ९. दुनियाँ में जहाज बनाने कि सबसे पहली कला और तकनीक भारत मे विकसित हुई है। ईस्ट इंडिया कपनी के जितने भी पानी के जहाज दुनियाँ में चल रहे हैं ये सारे के सारे जहाज भारत कि स्टील से बने हैं।

    -लैफ्टिनेंट कर्नल ए. वॉकर

     

    फिर ऐसा क्या हुआ कि आज हमारा भारत अनेक समस्याओं से जूझ रहा है। भारत की तबाही का मूल कारण क्या है ऐतिहासिक घटनाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इन सबका मूल कारण मैकॉले का रचा हुआ षड्यंत्र था। इसका प्रमाण है थॉमस बैबिंगटन मैकॉले का सन् १८३५ में हाऊस ऑफ कॉमन्स में दिया गया भाषण-

    “I have traveled across the length and breadth of India and I have not seen one person, who is a beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country. such high moral values, people of such caliber, that I do not think, we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is its spiritual and cultural heritage and therefore. I propose that we replace the old and ancient education System. her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will loose their self-esteem, their nature culture and they will become what we want them, a truly dominated nation.

    (2 Feb., 1835, Proc. on education)

     

    भावानुवाद

    र्थात् ‘मैंने सारे भारत का भ्रमण किया है और मैंने एक भी आदमी को चोर और एक भी आदमी को भिखारी नहीं पाया है। मैंने इस देश में इतनी सम्पदा देखी है तथा इतने उच्च नैतिक आदर्श देखे हैं और इतने उच्च योग्यता वाले लोग देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी इसे जीत पाएँगे जब तक कि इसके मूल आधार को ही नष्ट न कर दें जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर हैं, और इसलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम उसकी प्राचीन और पुरानी शिक्षा पद्धति और उसकी संस्कृति को बदल दें क्योंकि यदि भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ विदेशी और अंग्रेजी है, वह उनकी अपनी संस्कृति से अच्छा और उत्तमतर है तो वे अपना स्वाभिमान एवं भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे वैसे ही हो जावेंगे जैसा कि हम चाहते हैं, पूरी तरह एक पराधीन राष्ट्र।"

    -(२ फरवरी, १८३५, प्रोसी. शिक्षा)

     

    लॉर्ड मैकॉले के विचारों को एलिजाबेथ एवं ब्रिटिश संसद ने समर्थन दिया और लॉर्ड मैकॉले की बनाई शिक्षा पद्धति भारत में लागू करने के लिए ब्रिटिश संसद ने एक विधेयक पारित कर कानून बना दिया और भारतीय शिक्षा पद्धति को अवैध-अप्रमाणित घोषित कर दिया एवं उनकी अपनी शिक्षा से पास व्यक्ति को ही नौकरी देने का प्रावधान बना दिया गया। उपरोक्त कानून को भारत में जबदस्ती लागू किया गया। लॉर्ड मैकॉले को वापस भारत भेजकर उन्होंने प्रथम अंग्रेजी स्कूल कलकत्ता में खोला। स्कूल खोलते ही धनवानों के बच्चों की बहुसंख्या एकत्रित हो गई। अंग्रेजों ने जो शिक्षा दी, रहन-सहन, खान-पान बताया उसे स्वीकार कर लिया गया। तब खुश होकर लॉर्ड मैकॉले ने अपने पिता को पत्र लिखा। उसका कुछ अंश यहाँ पढ़ें और इस मूर्खता पर हँसें या रोयें, यह आप जानें-

     

    Calcutta

    October 12, 1836

    My Dear Father,

    Our English schools are flourishing wonderfully. The effect of this education on the Hindoos is prodigious. No Hindoo, who has received an English Education, ever remains sincerely attached to his religion. Some continue to profess it as a matter of policy and some embrace Christianity. It is my belief that if our plans of education are followed up, there will not be single idolater among the respectable classes in Bengal thirty years hence. And this will be affected without any efforts to proselytize, without the Smallest interference with religious liberty, merely by natural operation of knowledge and reflection. I heartily rejoice in the prospect. Ever Yours Most affectionately

    T. B. Macaulay

    (Life and Letters of Lord Macaulay, pp. 329-330;

    Bharti, pp. 46-47)

     

    भावानुवाद

    कलकता

    १२ अक्टूबर, १८३६

    मेरे प्रिय पिताजी,

    हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यजनक गति से बढ़ रहे हैं। इस शिक्षा का हिन्दुओं पर आश्चर्यजनक प्रभाव पढ़ रहा है। कोई भी हिन्दू जिसने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर ली है, वह निष्ठापूर्वक हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ नहीं रहता है। कुछ एक, औपचारिकता के रूप में, नाम मात्र को हिन्दू धर्म से जोड़े दिखाई देते हैं लेकिन अपने स्वयं को 'शुद्ध देववादी' कहते हैं तथा कुछ ईसाईमत अपना लेते हैं। यह मेरा पूरा विश्वास है यदि हमारी शिक्षा की योजनाएँ चलती रहीं तो तीस साल बाद भगवान के सम्भ्रान्त परिवारों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहेगा और ऐसा किसी प्रकार के प्रचार एवं धर्मान्तरण किए बगैर हो सकेगा। ऐसा स्वाभाविक ज्ञान देने की प्रक्रिया द्वारा हो जाएगा। मैं हृदय से उस योजना के परिणामों से प्रसन्न हूँ।

     

    हमेशा आपका सर्वाधिक प्रिय,

    टी.बी. मैकॉले

    (लॉर्ड मैकॉले की जीवनी और पत्र, पृ. ३२९-३३०; भारती पृ. ४६-४७)

     

    आज भी भारत की शिक्षा व्यवस्था, मैकॉले की बनायी हुई शिक्षा नीतियों का तीव्रगति से अनुकरण कर रही है। नवीन शिक्षा नीतियों का निर्धारण भी विदेशी तर्ज पर हो रहा है। जबकि भारतीय सभ्यता और संस्कृति पाश्चात्य देशों से पूर्णतया भिन्न है। हमारे देश में लगभग दो करोड़ से अधिक बच्चे अपनी मातृभाषा एवं संस्कृति छोड़कर विदेशी भाषा में अध्ययनरत हैं और उन अंग्रेजी स्कूलों में प्रवेश के लिए भीड़ लगी हुई है। यह जानकर बड़ा दु:ख होता है कि भारत ही एक ऐसा देश है जिसमें शिक्षा का माध्यम अपनी मातृभाषा को छोड़कर विदेशी भाषा को बनाया गया है। जबकि आज विकसित देशों में अग्रणी चीन, जापान, रूस, फ्रांस और जर्मनी ने प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा-तकनीकी, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कम्प्यूटर, व्यावसायिक शिक्षा आदि में अपनी मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया है।

     

    हम अंग्रेजी को अंतरराष्ट्रीय भाषा मानकर सीख रहे हैं लेकिन यह हमारा भ्रम है। सत्य तो यह है कि विश्व के मानचित्र पर स्थित २00 देशों में से केवल १२ देशों में ही अंग्रेजी भाषा बोली जाती है। इतना ही नहीं अंग्रेजी भाषा इतनी दरिद्र है कि उसके निजी शब्द कोष में केवल १२000 ही शब्द हैं। शेष फ्रेंच और लैटिन भाषा से लिए गए हैं। जबकि हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी ७७,000 निजी शब्दों से समृद्ध है।

     

    विज्ञान पत्रिका करंट साइंस में राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र के डॉक्टरों द्वारा कराए गए एम.आर.आय. परीक्षण की रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी बोलते समय दिमाग का सिर्फ बायाँ हिस्सा सक्रिय रहता है। जबकि हिन्दी बोलते समय मस्तिष्क का दायाँ और बायाँ दोनों हिस्से सक्रिय हो जाते हैं जिससे दिमागी विकास होता है।

     

    अनुसंधान से जुड़ी डॉ. नंदिनी सिंह एवं मनो-चिकित्सक डॉ. समीर पारेख कि सलाह है कि हिंदी भाषियों को बातचीत में ज्यादातर अपनी भाषा का ही इस्तेमाल करना चाहिए।

     

    समय-समय पर भारत सरकार द्वारा गठित समितियों के द्वारा भारतीय भाषाओं के ऊपर किया गया अध्ययन और उनकी रिपोर्ट का सार-

    1. सन् १९४८ में तारचंद समिति ने सर्व सम्मती से निर्णय लिया कि उच्चस्तरीय शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषा हो।
    2. सन् १९४८-४९ में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने कहा किसी विदेशी भाषा को ज्ञान प्राप्ति का माध्यम बनाना शैक्षिक दृष्टि से अस्वास्थकर है। अत: विश्वविद्यालय स्तर पर भी क्षेत्रीय भाषाएँ ही शिक्षा का माध्यम हो ।
    3. सन् १९५२-५३मुदालियर कमिशन ने कहा माध्यमिक शिक्षा तक माध्यम सामान्यतः क्षेत्रीय भाषा या मातृभाषा हो।
    4. सन् १९६१-६२ राष्ट्रीय परिषद् ने 'क्षेत्रीय भाषा को', विषय वस्तु को ग्रहण कर सकने के अत्यंत उपयोगी शैक्षिक दृष्टिकोण के कारण महत्वपूर्ण माना। साथ ही सामान्यजन तथा शिक्षितजन के बीच सम्बन्ध स्थापित करने के लिए विश्वविद्यालय पर शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय बनाने पर बल दिया।
    5. सन् १९६८, १९७९, १९८६ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया-शिक्षास्तर को ऊँचा उठाने और लोगों कि सृजनात्मक शक्तियों को क्रियाशील करने के लिए प्रादेशिक भाषाओं को उच्चशिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए। गांधीजी, विनोबा भावे, डॉ. राधाकृष्णन जैसे अनेक शिक्षाविद्, चिंतक और विद्वानों ने भी मातृभाषा में अध्ययन का समर्थन किया, परन्तु कुछ राजनेताओं की अंग्रेजी भक्ति के कारण आज तक भारत में मातृभाषा में अध्ययन अनिवार्य नहीं हो पाया। किसी भी भाषा की शिक्षा के माध्यम के रूप में चयन के तीन आधार हैं
    • जिस भाषा में विद्यार्थी सरलता से ज्ञान ग्रहण कर सके।
    • जिस भाषा में विद्यार्थी बारीकी के साथ वस्तु के यथार्थ स्वरूप का चिंतन कर सके।
    • जिस भाषा में विद्यार्थी अपने विचारों को सरलता से अभिव्यक्त कर सके।

     

    विद्वानों के निणर्यानुसार यह तो केवल मातृभाषा में ही संभव है। विदेशी भाषा तो बिल्कुल भी इन मापदंडों पर खरी नहीं उतर सकती। वैश्वीकरण के इस युग में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी भाषा को अलग से सीखकर व्यवस्था को पूरा किया जा सकता है लेकिन उसे शिक्षा का माध्यम बनायें ये जरूरी नहीं। सुबह का भूला शाम को घर आए तो उसे भूला नहीं कहते। इसीलिए अंधेरा होने से पहले

    रुको अब लौट चलो, अपने स्वर्णिम अतीत की ओर.....

    मनुजो मानवो भूयात् भारतः प्रतिभारतः

    यह मनुज मानव हो और भारत प्रतिभा रत रहे। मनुष्य बुद्धि व गुणों के विकास और संस्कारों के संवर्धन से मानव बने और भारत प्रतिभा में निमग्न हो।

    -आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज

    शिक्षा के उद्देश्य

    • हित का सृजन और अहित का विसर्जन यही शिक्षा का लक्षण है।
    • शिक्षा का उद्देश्य जीवन निर्वाह नहीं, जीवन निर्माण है।
    • विद्या अर्थकरी नहीं परमार्थकरी होना चाहिए।
    • शिक्षा का कार्य संस्कारों के संरक्षण के साथ भविष्य का विकास करना है।
    • ज्ञान भाषात्मक नहीं, भावनात्मक होना चाहिए।

    -सर्वोदयी संत आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज


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    Kaustubh Yawalekar

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    हाँ यह किताब - सर्वोदयी संत की राष्ट्रीय देशना - क्षुल्लक धैर्यसागर उपलब्ध हैं। 

    भगवान रीशभदेव ग्रंथमाला 

    सांगानेर जयपुर 

    Phone 0141-2730390 

    Website www.jaininfo.org 

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    रतन लाल

       2 of 2 members found this review helpful 2 / 2 members

    प्रण लेना चाहिए कि हम समस्त लेखन कार्य मातृ भाषा हिंदी में ही करेंगे

    • Like 3
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    Daksh

       2 of 2 members found this review helpful 2 / 2 members

    अद्भुत संकलन है, क्या इसकी प्रिंटेड बुक मिल सकती है? 

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    Saransh Jain

       4 of 4 members found this review helpful 4 / 4 members

    किसी भी समुदाय की स्वतंत्रता का प्रतीक है उसकी संस्कृति, और संस्कृति की रक्षा में महत्वपूर्ण योगदान मातृभाषा का है। आज भारत की जो भी दुर्दशा हो रही है वो मात्र अपनी संस्कृति को नजरअंदाज करने के कारण हो रही है।

    भारत की असली सम्पदा उसकी संस्कृति है, और हम सब को चाहिए की उसकी रक्षा हम अपने स्तर पर करें।

    और मेरा सुझाव है की हम देवनागरी को बढ़ावा देने के लिए प्रत्येक माह के अंतिम 10 दिन कम से कमअपना सारा अनौपचारिक कार्य देवनागरी में करेंगे।

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