आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'वह मार्ग, जिसके द्वारा व्यक्ति शुद्ध-बुद्ध बने, उस सत्य मार्ग यानी मोक्ष मार्ग की प्रभावना ही मार्ग प्रभावना' या 'जिन धर्म प्रभावना' है।' आचार्यश्रीजी के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तपाराधना से जिस प्रकार जिनधर्म की प्रभावना हुई, उससे न केवल भारत वर्ष अपितु समूचा विश्व प्रभावित हुआ है। जिनधर्म की प्रभावना में कारणभूत आचार्यश्रीजी के जीवन से जुड़े कुछ प्रसंगों को इस पाठ में विषय बनाया जारहा है।
जिन महिमा प्रचारक : प्रभावना अंग
* अर्हत्वाणी *
अज्ञानतिमिरव्याप्ति................प्रकाश: स्यात्प्रभावना ॥१८॥
अज्ञानरूपी अन्धकार के विस्तार को दूरकर अपनी शक्ति के अनुसार जिनशासन के माहात्म्य को प्रकट करना प्रभावना गुण है।
* विद्यावाणी *
- सम्यग्दर्शन का आठवाँ एवं अन्तिम अंग प्रभावना है। धर्म की प्राप्ति के लिए विशेष तौर से जो प्रयत्न किया जाए, उसका नाम प्रभावना है।
- पहले भावना बनती है, फिर 'प्र' उपसर्ग लगकर प्रभावना बनती है। अर्थात् भावना अच्छी हो, तभी प्रभावना होती है। व्रतों का प्रभाव अवश्य पड़ेगा, यदि सादगी हो तो।तभी प्रभावना होती है।
- प्रभावना अंग का पालन करना श्रावक और साधु दोनों के लिए अनिवार्य है। इधर – उधर की चंचलता को कम कर दो तो प्रभावना हुए बिना नहीं रहेगी।
- प्रभावना के लिए सद्भावना की जड़ें मजबूत होनी चाहिए। चाहें तो दोनों भुक्ति के समय या सुबह दस बजे यह भावना कर लें कि जहाँ कहीं भी मुनि, आर्यिका व व्रती हों उन सबका समय पर निरंतराय आहार हो जाए, तो आपका अतिथि संविभाग अच्छी तरह पल जाएगा। और एक कायोत्सर्ग करके ही भोजन करना चाहिए। इससे भी धर्म प्रभावना होती है।
- श्रावक के व्रत पालन करते हुए भी मुनिव्रत की भूमिका अभी से बनाई जा सकती है। ये दान-पूजा आदि उसी के लिए हैं। हम किसी के लिए मेहरबानी नहीं कर रहे, किंतु पूजा के बहाने हम अपने आपका प्रभावना अंग दृढ़ कर रहे हैं। यह सम्यग्दर्शन का एक अंग है।
- भगवान महावीर के उपदेशों के अनुरूप अपना जीवन बनाओ। यही सबसे बड़ी प्रभावना है।
- मात्र नारेबाजी से प्रभावना होना संभव नहीं है।
- कैसे हो प्रभावना- जून २००९ में नेनवा (कटनी) मध्यप्रदेश में आचार्य श्री जी ने आर्यिका श्री उपशांतमतिजी को दमोह, म. प्र. वर्षायोग प्रवास का आशीर्वाद दिया। तब आर्यिकाश्री ने कहा 'आचार्यश्रीजी! दमोह में इतनी बड़ी समाज है। वहाँ मुझसे छोटे-से संघ के साथ प्रभावना कैसे बन सकेगी ?' तब वह बोले- 'आपको कुछ नहीं करना, केवल अपने षट् आवश्यकों का पालन अच्छे से करना, बस।प्रभावना अपने आप हो जाएगी।
पथ में क्यों तो
रुको नदी को देखो
चलते चलो।
* विद्याप्रसंग *
श्रमण प्रभावक आचार्य
संतशिरोमणि आचार्यश्रीजी एक ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनका प्रभाव न केवल जनसामान्य अथवा विद्वत् वर्ग पर पड़ा है, अपितु किसी न किसी रूप में उनके पूर्वकालिक, समकालिक एवं वर्तमानसमयी श्रमणों पर भी दिखाई देता है। पूर्वकालिक, समकालिक श्रमण जहाँ उनके प्रशंसक हैं, वहीं वर्तमानकालिक श्रमणों में अधिकांशतः श्रमण, भले ही वह अन्य श्रमणाचार्य के पास जाकर दीक्षित हुए हों, फिर भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में आचार्यश्रीजी के प्रभावकारी व्यक्तित्व ने उन्हें स्पर्श अवश्य ही किया है।
गुरुणांगुरु,प्रथम प्रभावित श्रमण
आचार्य श्री विद्यासागरजी ,से सर्वप्रथम प्रभावित श्रमण को उन्हीं के गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज रहे हैं। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज कोई सामान्य श्रमण नहीं थे। जिन्होंने आचार्य श्री वीरसागरजी, आचार्य श्री शिवसागरजी, आचार्य श्री धर्मसागरजी आदि परंपरा से प्राप्त आचार्यों एवं उनके संघों को पढ़ाया हो। उनके सान्निध्य में अपनी अर्द्ध वय व्यतीत की हो, जैन वाङ्मय को हृदयंगम कर संपूर्ण जीवन अध्ययन - अध्यापन एवं आगमानुकूल चारित्र परिपालन में व्यतीत किया हो, एवं जिन्होंने वर्तमान युग के महापुरुष आचार्य श्री विद्यासागरजी के । व्यक्तित्व को गढ़ा हो, उनका व्यक्तित्व कैसा होगा यह कह पाना संभव ही कहाँ है? बस इतना ही कह सकते हैं कि वह भी एक दिव्य पुरुष थे। ऐसे महाश्रमण की दृष्टि कितनी पैनी एवं सूक्ष्म होगी, फिर भी उन्हें अपने शिष्य का व्यक्तित्व प्रभावित करता था। समय समय पर वह स्वयं को उनकी प्रशंसा करने से रोक नहीं पाते थे। सन् १९७२ में जब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ससंघ अजमेर से नसीराबाद, राजस्थान की ओर विहार कर रहे थे, तब रास्ते में एक दिन तेज आँधी चली। उस तेज आँधी के मध्य युवा मुनि श्री विद्यासागरजी बड़े ही सुंदर दिखाई दे रहे थे, जिसे देखकर साथ में विहार कर रहे गुरुभक्त श्री शांतिलालजी पाटनी ने आचार्य श्री ज्ञानसागरजी से कहा- 'मुनि श्री विद्यासागरजी बहुत सुंदर लग रहे हैं।' आचार्य श्री ज्ञानसागरजी बोले- 'वे बाहर से ही नहीं, अंदर से भी सुंदर हैं। आगे ज्ञायक बनकर मोक्षमार्ग प्रकाशित करने वाले होंगे।' वह श्रावक आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के भावों को नहीं समझ पाए, सो बोले- 'आपने ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक' तो उन्हें पढ़ने नहीं दिया, फिर कैसे वे मोक्षमार्ग प्रकाशक बनेंगे?' तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज बोले- “विद्यासागरजी को क्रियाकाण्ड पसंद नहीं हैं। वे अपने अंदर सावधान रहकर चारित्र पालन करेंगे तो अपने आप मोक्षमार्ग के प्रकाशक हो जावेंगे।
गुरु और शिष्य दोनों ही अलबेले, उनके मध्य परस्पर में समर्पण, आस्था एवं विश्वास का ऐसा ताना-बाना बुना था जिससे उन दोनों का ही जीवन आगम की सिलाई से ऐसा अप्रतिम निर्मित हुआ, जो आज सभी के लिए आदर्श बना हुआ है।
२१वीं सदी आचार्य श्री विद्यासागरजी के नाम
२८ जून, २०१७, आषाढ़ शुक्ल पंचमी के दिन आचार्यश्रीजी का ४९वाँ मुनि दीक्षा दिवस था। यह दिवस आचार्यश्रीजी के संयम के ५०वें वर्ष में प्रवेश करने के उपलक्ष्य में 'संयम स्वर्ण महोत्सव' के प्रारंभिक बेला के रूप में मनाया गया और २८ जून, २०१७ - १७ जुलाई, २०१८ तक यह वर्ष समूचे विश्व में जिनधर्म अनुयायियों के द्वारा संयम स्वर्ण महोत्सव' वर्ष के रूप में मनाया गया।२८ जून, २०१७ के दिन श्रवणबेलगोला, हासन, कर्नाटक में बहुसंख्यक जैन श्रमण साधु-साध्वियों की गरिमामयी उपस्थिति एवं आचार्य श्री वर्धमानसागरजी के सान्निध्य में आचार्य श्री विद्यासागरजी का संयम स्वर्ण महोत्सव मनाया गया। इस अवसर पर आचार्य श्री वर्धमानसागरजी ने कहा- '१९वीं सदी के प्रारंभ से लेकर अर्ध सदी तक देश में यदि कोई नाम विशेष रूप से चला है, तो वह है परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज का। और उसके बाद सारे विश्व में दिगम्बर मुनि के रूप में यदि कोई नाम प्रचारित है, तो हम समझते हैं कि वह हैं आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज। यह २१वीं सदी आचार्य श्री विद्यासागरजी के नाम से होगी।... आगम में कहा है कि अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करके जो जिनशासन के महत्त्व की प्रभावना करता है एवं विद्यारूपी रथ पर चढ़कर मनोमार्ग में जो आत्मा परिभ्रमण करता है, वही जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित ज्ञान की प्रभावना करने वाला होता है। इस अर्थ में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपनी आत्मा को ज्ञान और चारित्र से प्रभावित किया। ज्ञान और विज्ञान से प्रभावित उनकी आत्मा ने आज के इस विषम समय में भी युवाओं के अंदर जो प्रभावना की है, उससे युवाओं का बहुत बड़ा समुदाय दीक्षित होकर आज समाज के सम्मुख है। यह उनकी अपने स्वयं के ज्ञान और चारित्र की प्रभावना है। और ऐसी ही प्रभावना मुनिजन करते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने केवल ज्ञान और चारित्र से प्रभावना की हो या दीक्षाएँ मात्र देकर धर्म प्रभावना की हो, अपितु उन्होंने सामाजिक स्तर पर, शैक्षणिक स्तर पर और मंदिरों के निर्माण के लिए प्रेरित करना जैसे बहुत सारे कार्य बहुत प्रकार से धर्म प्रभावना के किए हैं। उन्होंने धर्म से विमुख हो रहे युवाओं को जिस प्रकार से मार्ग पर लगाया है, इसी प्रकार आगे भी आने वाले समय में उनका मार्गदर्शन करते रहें और भविष्य में भी उनके द्वारा धर्म प्रभावना होती रहे। इन्हीं मंगलमय भावनाओं के साथ हम उनके प्रति अपनी मंगल भावना समर्पित करते हैं और भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि वह दीर्घजीवी होकर धर्म प्रभावना करते रहें।
श्रवणबेलगोला (हासन) कर्नाटक में आचार्यश्री के संयम स्वर्ण वर्ष की यादगार के रूप में २८ जुलाई, २०१७, श्रावण सुदी ६, वीर निर्वाण संवत् २५४३ को संयम कीर्ति स्तंभ' का शिलान्यास एवं २७ जनवरी, २०१८, माघ सुदी १०, वीर निर्वाण संवत् २५४४ के दिन भट्टारक श्री चारुकीर्ति की प्रेरणा एवं निर्देशन में आर. के. मार्बल ग्रुप परिवार, मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान के सौजन्य से एक विशाल एवं भव्य 'संयम कीर्ति स्तंभ' का लोकार्पण आचार्य श्री वर्धमानसागरजी, आचार्य श्री वासुपूज्यसागरजी, आचार्य श्री पंचकल्याणकसागरजी, आचार्य श्री चंद्रप्रभसागरजी आदि अनेक आचार्य, मुनि, आर्यिकाओं, विद्वानों एवं समाज श्रेष्ठियों की उपस्थिति में किया गया। इस अवसर पर आचार्य श्री वर्धमानसागरजी ने कहा कि सन् १९६७ में ही आचार्य श्री विद्यासागरजी का संयम कीर्ति स्तंभ इस पावन भूमि पर निर्मित हो चुका था, जब उन्होंने यहाँ पर आचार्यप्रवर श्री देशभूषणजी महाराज से ब्रह्मचारी अवस्था में सातवीं प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर त्यागमय जीवन का शुभारंभ किया था।
दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर संयम कीर्ति स्तंभ के चित्रयुक्त एक विशेष आवरण (स्पेशल कवर) तथा हिन्दी-अंग्रेजी- कन्नड़ भाषा में प्रशस्ति युक्त विवरणिका (ब्रोसर) भी ८ मार्च, २०१८ को श्रवणबेलगोला में कर्नाटक डाक सर्किल, बेंगलूरु, कर्नाटक द्वारा श्री दिगम्बर जैन मठ इन्स्टीट्यूशन्स मैनेजिंग कमेटी ट्रस्ट, श्री क्षेत्र श्रवणबेलगोला तथा विद्यासन्मतिदास सेवा संस्था, मौजे दीग्रज, तालुका मिरज, जिला सांगली, महाराष्ट्र के सौजन्य से जारी हुआ।
आचार्यश्रीजीआत्मसाधना के हिमालय हैं
२८ जून, २०१८, श्रवणबेलगोला, हासन, कर्नाटक में संयम स्वर्ण महोत्सव के दिन आचार्य श्री वर्धमानसागरजी के शिष्य मुनि श्री अपूर्वसागरजी ने आचार्य श्री विद्यासागरजी को विनयांजली देते हुए कहा- 'आचार्य श्रीजी आत्मसाधना के हिमालय हैं। हम उनका गुणगान क्या कर सकते हैं, क्योंकि जितनी हमारी उम्र है उतने उनके संयम के वर्ष हो चुके हैं। आचार्यश्रीजी का जो मन है, उनकी जो वाणी है और उनका जो तन है उन पर उनका कमाल का संयम है। बस इन तीन शब्दों में ही उनका जीवन आ जाता है कि उनके पास संयम की कितनी उत्कृष्ट पराकाष्ठा की साधना है। यदि हम उन्हें सामायिक में बैठा देख लें तो उनमें भगवान की मूरत दिखाई देती है।
जब हम दीक्षा लेने जा रहे थे तब सन् १९९८, नेमावर, देवास, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी का आशीर्वाद लेने गए थे उन्होंने हमें बहुत बढ़िया वाला, अच्छा वाला आशीर्वाद दिया था। उनके आशीर्वाद से ही समझो कि हमारी यह साधना निर्बाध रूप से चल रही है। उनके श्रीचरणों में हम बार-बार त्रिकाल, त्रिभक्तिपूर्वक यहीं से नमोऽस्तु निवेदित करते हैं कि हे गुरुवर! आपकी जैसी संयम की उत्कृष्ट साधना है, निर्दोष साधना है, निरतिचार साधना है वैसा ही हमारा भी जीवन बने, इन्हीं मंगल भावनाओं के साथ।'
गुरुओं के गुरु परम गुरु
जिन्होंने जैनकुल में जन्म लिया है उन्हें कुछ और याद रहे या न रहे, पर मंत्रों में महामंत्र और संतों में आचार्य श्री विद्यासागरजी का नाम स्मरण में रहता है। उनके बारे में जितना बोला जाए, उतना कम है। शब्द छोटे हैं, साधक बड़ा है। भाषा कम है, साधना बहुत बड़ी है। मैं तो इतना कहता हूँ कि २०वीं सदी आचार्य श्री शांतिसागरजी के नाम से जानी जाती है तो २१वीं सदी आचार्य श्री विद्यासागरजी के नाम से जानी जाएगी। श्री विद्यासागरजी के चरणों का जो गंधोदक लगा लेता है उसके वहीं बैठे-बैठे गंगा का स्नान हो जाया करता है, सातों बड़ी नदियों का स्नान हो जाया करता है और आचार्यश्री विद्यासागरजी के जो चरण वंदन कर लेता है एवं उनकी परिक्रमा लगा लेता है वह वहीं बैठे-बैठे चारों धाम की यात्रा कर लेता है, इतने महान् आचार्य हैं वह।...शब्दों से कम बोलते हैं वह, अपनी साधना-तपस्या से ज़्यादा बोलते हैं। बस उन्हें पढ़ने वाला व्यक्ति होना चाहिए। उनका मौन भी प्रवचन हुआ करता है। उनका बोलना भी प्रवचन हुआ करता है। जब वह चलते हैं तो प्रवचन हैं, जब वह बोलते है तब प्रवचन हैं, सामायिक में हैं तो प्रवचन हैं और वह जब रात में विश्राम करते हैं तो वह भी प्रवचन हैं। हकीकत कह दूँ जब आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज अपने निजी हाथों से पिच्छी-कमंडलु साथ लिए सड़कों पर चलते हैं तो उन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता कि कोई संत चल रहा है, कोई तपस्वी चल रहा है, बल्कि उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि कोई सिद्ध परमात्मा मानस रूप में धरती पर फिर से अवतरित हो गया है। सिद्धालय से कोई जीव उतरकर हम जैसों का कल्याण करने के लिए इस धरती पर अवतरित हो गया हो। उनका चलना सिद्धों का चलना लगता है। उनका बोलना सिद्धों से बातें करना लगता है। जब वह आँखें बंद करते हैं तो ध्यान हो जाया करता है और जब वह आँखें खोलते हैं तो हम जैसों का कल्याण हो जाया करता है। महान् विभूति हैं वह इस युग की। हजारों जिह्वा से भी उनका वर्णन नहीं किया जा सकता है। यशस्वी आचार्य हैं वह इस धरती पर, यशस्वी मुनि हैं, यशस्वी वीतरागी हैं, यशस्वी निस्पृही व्यक्तित्व है उनका। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि आज किसी भी संघ में कोई साधु दीक्षित हो जाए, उनमें आज भी ८० प्रतिशत साधु ऐसे हैं अथवा कहें कि आज दिगम्बर जैन १५०० साधुओं में लगभग १२००-१३०० साधु ऐसे होंगें, जिनका मोक्षमार्ग आचार्य श्री विद्यासागरजी की प्रेरणा से चल रहा है।
वो मेरे ही गुरु नहीं हैं, वो मेरे गुरु के भी गुरु हैं। मेरे गुरु आचार्य श्री पुष्पदंतसागरजी महाराज जिन्होंने क्षुल्लक, एलक दीक्षा आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से ही ली।वो मेरे भी गुरु, गुरु के भी गुरु हैं अतः मैं उन्हें दादा गुरु भी कह सकता हूँ।
मुनि श्री पुलकसागरजी के प्रथम गुरु आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज रहे हैं। आचार्य श्री को देखकर ही उनके मन में वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित हुए थे और ब्रह्मचर्य व्रत भी उन्होंने आचार्य श्रीजी से ग्रहण किया था। इस बात को मुनिश्रीजी ने संघ के प्रवक्ता श्री ललितजी जैन भारती, ग्वालियर, मध्यप्रदेश से वार्तालाप के दौरान बताया जो ‘पुलक वाणी' में जून, २०१७ के अंक में उद्धृत है- ‘समय-साल व्यतीत हो जाते हैं पर स्मृतियाँ सदैव हृदय में अंकित हो जाती हैं, जिन्हें काल के महासागर में विसर्जित नहीं किया जा सकता। ऐसे ही कुछ अमिट स्मृतियाँ आज भी लगातार मेरे साथ सफर कर रही हैं। जिन्हें मैंने स्मृतियों के देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया है, ऐसे हैं- परम आराध्य संतशिरोमणि आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी महामुनिराज।
४६ साल की होने जा रही हैं आज मेरी आँखें। जब इन आँखों ने २३ वर्ष पूर्व आचार्यश्री के पंचभूत तत्त्वों से बने शरीर और उनकी क्रियाओं को देखा तो लगा सब कुछ हाथों से फिसल रहा है, गजब की अनुभूति हुई। मैं उस समय अपने ही बस में नहीं रह पाया और अपना सर्वस्व श्रीचरणों में रख दिया। वे पल आज भी मेरी स्मृतियों के खजाने में सुरक्षित हैं।'
मैं आज तक अपने जीवन में यह सोच भी नहीं पाया कि वे महान् क्यों हैं । सकारण तो बहुत लोग महान् होते हैं लेकिन आचार्य श्री अकारण महान् हैं । या यूँ कहो महानता उनके साथ जन्मी है। उक्त दिव्य व्यक्तित्व की महानता का कारण ढूँढ़ पाना मेरे शब्दों के वश की बात नहीं है। मैं भले ही उनके पास नहीं, लेकिन वह हर पल मेरे पास हैं...आसपास हैं।।
तप-ज्ञानप्रभावक आचार्य
आचार्यश्रीजी कहते हैं- 'श्रावकों को दान, पूजा आदि के माध्यम से धर्म की प्रभावना करना चाहिए और साधु को ज्ञान और तप आदि से जैनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए। आचार्य भगवन् की प्रदर्शन से परे ज्ञान एवं तप के प्रति जो सूक्ष्म दृष्टि है। जैसे अनकहे तप करना और करके भी पुनः कभी स्मरण नहीं करना, ख्याति-पूजा-लाभ की चाह से कोशों दूर रहना आदि, उसने विद्वत्, साधक एवं सामान्य सभी वर्गों को प्रभावित किया है। इससे जिनशासन का माहात्म्य दिग्दिगंतरों तक फैल गया है।
साधु लक्षण देख हुए प्रभावित
आचार्यश्रीजी ने संस्कृत भाषा में रचित अपनी प्रथम रचना 'श्रमण-शतकम्' को सन् १९७४, सोनीजी की नसिया, अजमेर, राजस्थान के वर्षायोग में पूर्ण किया।वहाँ के तात्कालिक संस्कृत विद्वान् डॉ. ब्रह्मानन्द शर्मा (अध्यक्ष-संस्कृत विभाग, राजकीय महाविद्यालय, अजमेर) ने इस रचना का ‘प्राक्कथन' लिखकर इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। तथा वहीं के ब्राह्मण विद्वान् पंडित डॉ. श्री प्रभाकरजी शास्त्री (साहित्य धर्मशास्त्राचार्य-राजकीय महाविद्यालय, अजमेर) ने जब इसका संपादन किया, तब वह भी इसे पढ़कर दंग रह गए कि संस्कृत भाषा में ऐसी प्रौढ़ रचना, वह भी इतनी कम वय में और एक कन्नड़भाषी संत के द्वारा लिखी गई। समाचार पत्रक, ३0 सितम्बर १९७८, ऐसे गुरु मेरे उर बसो-प्रतापचंद्र जैन, आगरा, उत्तरप्रदेश, पृष्ठ-२० समाज के प्रमुख व्यक्तियों को जब इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने संस्कृत के प्रसिद्ध जैन विद्वान् पंडित श्री जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनी, मध्यप्रदेश को अजमेर आने हेतु निवेदन किया। समाज के निवेदन पर वह मात्र तीन दिन के लिए अजमेर आए। यहाँ आकर वह आचार्यश्रीजी की चर्या से इतने प्रभावित हुए कि कुछ दिनों तक वहीं ठहरे रहे। इसी दौरान उन्होंने इस कृति का विमोचन भी किया।
सन् १९७४, अजमेर, राजस्थान वर्षायोग के उपरांत विहार करपहुँचे। वहाँ जैनधर्म के प्रकांड विद्वान् पंडित श्री कैलाशचंद्रजी सिद्धांतशास्त्री एवं न्यायाचार्य पंडित डॉ. श्री दरबारीलालजी कोठिया आए। उन्होंने अब तक किसी संत को आहार नहीं दिया था, किंतु आचार्यश्रीजी से प्रभावित होकर जीवन में पहली बार संत रूप में आचार्यश्रीजी को आहार दिया और कहा- 'मैं ज्ञान के कारण नहीं, आचार्यश्रीजी के साधु लक्षण-निस्पृहता से प्रभावित हुआ हूँ। मैंने यह गुण इनमें पाया है।
ऐसे भीआचार्य!
संघस्थज्येष्ठ मुनि श्री योगसागरजी ने ८ अप्रैल, २०१७, डोगरगढ़, छत्तीसगढ़ में एक प्रसंग सुनाते हुए बताया- ‘सन् १९७५ में जब मैं संघ में ब्रह्मचारी था, तब आचार्य संघ का विहार बुंदेलखण्ड की ओर हुआ। विहार के दौरान ग्वालियर, म.प्र. के शहर मंदिर में पहुँचते-पहुँचते सुबह के लगभग ११ बज चुके थे।वहाँ जाकर पता चला कि श्रावकों ने चौके नहीं लगाए। क्योंकि अभी तक जितने भी संघ आते थे, उनके साथ संघपति एवं चौका आदि की सारी व्यवस्थाएँ साथ में ही रहती थीं। सो श्रावकों ने सोचा, इनके साथ भी चौका-गाड़ी आदि सारी व्यवस्थाएँ होंगी। पर जब श्रावकों ने देखा कि आचार्यश्रीजी तो थोड़ी देर बाद ही सामायिक में लीन हो गए, चर्या के लिए उठे ही नहीं। और हम चंपाबाग से चौका लगाने हेतु आहार का सामान मँगवा रहे हैं। तो एक श्रावक बोला- 'ऐसे कौन से आचार्य हैं, जो सिगड़ी भी साथ नहीं रखते।' उस दिन संघस्थ ब्रह्मचारी श्री अनंतनाथजी, श्री शांतिनाथजी आदि ने सामान लाकर चौका लगाया और आहार करवाए। संयोग से आचार्यश्रीजी वहाँ पाँच दिन ठहर गए। दूसरे दिन से श्रावकों ने चौका लगाना शुरू कर दिया। इन पाँच दिनों में पाँच महाव्रतों पर आचार्यश्रीजी के अत्यंत प्रभावक प्रवचन हुए। जिसे सुनकर वह श्रावक आश्चर्यचकित हो गया, और आचार्यश्रीजी के चरणों में समर्पित होकर बोला- 'अब समझा, ऐसे भी आचार्य होते हैं!
कलजुग के समंतभद्र
सन् १९८१ में प्रकाशित 'सागर में विद्यासागर' नामक स्मारिका में 'आगम वाचना के प्रेरणा स्रोत आचार्य विद्यासागर' लेख के लेखक विद्वान् श्री नीरज जैन, सतना ने गुरुवर के प्रभाव के विषय में लिखा- 'आचार्य विद्यासागरजी का प्रथम दर्शन मुझे चार वर्ष पूर्व १९७६ के प्रारंभ में हुआ। बुंदेलखण्ड से सतना की तरफ उनका विहार हुआ था।जब तक वे नागौद आए, तब तक उनकी साधना की कीर्ति किंवदन्तियों के रूप में हम लोगों तक पहुँच चुकी थीं। जो भी मिलता उनके संबंध में अद्भुत-सी बातें करता था। घोर तपस्वी हैं। बालयति हैं। पूरा कुटुंब दीक्षित हो गया है। बड़े ज्ञानी है। कलजुग के समंतभद्र हैं । रात-रात भर जंगलों में ध्यानस्थ रहते हैं। नीरस भोजन करते हैं। बिल्कुल आडंबर रहित हैं। छोटे-छोटे महाराजों का मनोहर संघ है। ऐसे मुनि हैं, जैसे न कभी देखे, न सुने।
अगर ऐसी प्रसिद्धि किसी साधु के विषय में सुनाई पड़े और ये मालूम हो जाए कि पास ही थोड़ी ही दूर पर वे विराजते हैं, तो कैसे रोका जा सकता है अपने मन को। हम लोगों की भी वही दशा हुई, दर्शन करने के लिए हम लोग सकुटुंब नागौद पहुँच गए। जैसा सुना था, उससे बहुत अधिक उनको पाया।मन को यह स्वीकार करना ही पड़ा कि ऐसा निस्पृह और शास्त्रोक्त तपस्वी आज तक कहीं देखा नहीं था।
इसके पहले अनेक दुर्द्धर तपस्वी साधुओं का दर्शन मैंने किया है। अनेक ज्ञानवान् संतों से भी साक्षात्कार हुआ है। कई अच्छे निस्पृह मुनिराज भी मेरे दृष्टिपथ में आए हैं परंतु तपश्चरण, निराडम्बरता, निस्पृहता और ज्ञान-साधना का जो समन्वय आचार्य विद्यासागरजी के अनोखे व्यक्तित्व में देखने को मिला, वह अन्यत्र अद्यावधि अनुपलब्ध ही रहा है। उनकी तप साधना तो अनूठी है ही, ज्ञान-साधना भी अद्भुत है। नीरस भोजन-पान, उस पर भी आए दिन उपवास, दृढ़ आसन के साथ दीर्घकालिक मौन, सामायिक व ध्यान उनकी सामान्य प्रक्रिया में सम्मिलित है।
वे सदैव ज्ञान, ध्यान और तप में ही अपना समय व्यतीत करना चाहते हैं। विकथा की बात तो बहुत दूर, उनके पास लोक चर्चा और समाज चर्चा के लिए भी समय नहीं है। निरंतर शास्त्राभ्यास, अनवरत चिंतन और लगातार घंटों तक तत्त्व चर्चा ही उनकी दिन चर्या है। आचार्यश्रीजी की हर क्रिया शास्त्रों से अनुमोदित, विवेक से ओत-प्रोत। उनका हर कदम पूर्ण सुविचारित , निश्चित और अडिग। उनकी यही लोकोत्तर प्रक्रियाएँ देखकर मन यह मानने को विवश हो जाता है कि दिगम्बर साधु की कतिपय चारित्रिक विशेषताएँ, जिन्हें सैकड़ों वर्षों से केवल शास्त्रों के पृष्ठों पर ही पाया जाता रहा है, आचार्य विद्यासागरजी अपने जीवन में साक्षात् चरितार्थ करके दिखा रहे हैं। वैसे ही जैसे आचार्य पूज्यपाद महाराज ने सर्वार्थसिद्धि की उत्थानिका में कल्पना की थी- 'मुनिपरिषन्मध्ये सन्निषण्णं मूर्तमिव मोक्षमार्गम् अवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तम्। अर्थात् मुनियों की सभा में बैठे हुए वचन के बिना ही मात्र अपने शरीर की आकृति से मानो मूर्तिमान् मोक्षमार्ग का निरूपण करने वाले आचार्य हों।'
गुरु की नींव और प्रभावना का प्रासाद
सन् १९७३, ब्यावर, जिला अजमेर, राजस्थान वर्षायोग के दौरान साढूमल, उत्तरप्रदेश निवासी एवं ब्यावर प्रवासी पंडित श्री हीरालालजी सिद्धांतशास्त्री को आचार्यश्रीजी के सान्निध्य में षट्खण्डागम धवला पुस्तक की वाचना करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आरंभ में उन्होंने वाचना हेतु आधा घंटे का समय ही नियत किया था। पर ज्यों-ज्यों वह आचार्यश्रीजी की ज्ञान साधना से परिचित हुए, त्यों-त्यों वह अन्यत्र से अपना समय बचा-बचा कर आचार्यश्रीजी के लिए देने लगे। वह आचार्यश्रीजी के साथ स्वाध्याय में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि उन्हें पता ही नहीं चलता था, कितना समय व्यतीत हो गया।
वह आचार्यश्रीजी की ज्ञान-साधना से किस तरह प्रभावित हुए, अपनी इस अनुभूति को उन्होंने वाचना समापन समारोह में अपने वक्तव्य में व्यक्त करते हुए कहा- 'मैंने आचार्य महाराज के साथ स्वाध्याय किया और आचार्य महाराज से स्वाध्याय के दौरान सिद्धांत के कई नए दृष्टिकोण पाए और मुझे नए-नए चिंतनों का लाभ मिला।शरू में मैं सोचता था कि विद्यासागरजी जवान मुनि हैं, नए-नए दीक्षित हैं। अतः कितना सिद्धांत पकड़ पाएँगे, कितनी रुचि ले पाएंगे। इस कारण मैं थोड़ा समय ही देता था, किंतु ज्यों-ज्यों समय निकलता गया, त्यों-त्यों आचार्य महाराज की प्रतिभा से परिचित होता गया, और मुझे एहसास हुआ कि आचार्य ज्ञानसागरजी मुनि महाराज ने चार वर्ष के थोड़े से समय में अपने शिष्य मुनिवर आचार्य विद्यासागरजी की कितनी मजबूत नींव रख दी हैं।
किसको धन्य कहूँ, गुरु को या शिष्य को। दोनों ही अनमोल, आकर्षक और चमकदार हैं।
शुद्ध सोने जैसे महाराज
२८ जून २०१७, श्रवणबेलगोल, कर्नाटक में भट्टारक श्री चारुकीर्तिजी ने आचार्यश्रीजी के संयम स्वर्ण महोत्सव दिवस पर अपने भाव प्रकट करते हुए कहा- 'आचार्यश्रीजी के ५० वर्ष होने पर संयम स्वर्ण दीक्षा महोत्सव मनाने के लिए हम लोग सब उपस्थित हैं। महाराज जी बहुत दूर डोगरगढ़, छत्तीसगढ़ में विराजमान हैं। यहाँ से लगभग २000 किलोमीटर दूर बैठकर हम लोग उन्हें नमन कर रहे हैं। जैसे खान में से निकले सोने में जो पत्थर, किट्टकालिमा है वह सब दूर होकर सोना शुद्ध हो जाता है ऐसे ही ही ५० वर्ष में वह तो शुद्ध सोने जैसे महाराज हो गए हैं। संयम का आचरण करते-करते उनके जीवन में ऐसी शक्ति आयी हैजो चुंबक जैसी सबको आकर्षित करती है। उनके द्वारा अनेक साहित्य का सृजन हुआ है एवं उनके सब शिष्य विद्वान् हैं, विदुषी हैं । सैकड़ों की संख्या में उन्होंने दीक्षाएँ दी हैं और साथ में उन्हें ज्ञान भी दिया है एवं दे भी रहे हैं। सब को आगम के गूढ़ रहस्य बताते हैं संघ को सुशिक्षित बनाने में उनकी बहुत बड़ी रुचि है। जितने भी उनके शिष्य हैं वह सभी दीक्षा के पहले अध्ययन करते हैं और दीक्षा के बाद भी अध्ययन करते हैं। आचार्यश्रीजी प्रशंसनीय हैं क्योंकि उनके संघ में शुद्ध आराधना विशेष रूप से होती है। उनका जैसा नाम विद्यासागर है वैसी है वह श्रुत की भक्ति-आराधना करते हैं इसलिए विद्वान् लोग विशेष आकर्षित होते हैं। अभी भी सैकड़ों की संख्या में ब्रह्मचारी भैया-बहनें दीक्षाएँ लेने हेतु लालायित हैं, जब वह यहाँ दर्शन करने आती हैं तब में उनसे पूछता हूँ कि आपकी दीक्षा कब होगी? तो वह बोलते हैं- 'गुरुवर की जब कृपा दृष्टि होगी, तब होगी, हम तो अभी वेटिंग में हैं।' ऐसे सैकड़ों लोग वेटिंग में लगे हुए हैं। हमने भी जबलपुर, मध्यप्रदेश में और महुआजी, गुजरात में उनका दर्शन किया है, उनके प्रति हमारी बहुत श्रद्धा है, भक्ति है और हम उनको रोज प्रणाम करते हैं। उनकी जीवंत चर्या की सभी प्रशंसा करते हैं जैसे कोई चतुर्थकालीन साधु है वैसी उनकी चर्या है इसलिए पूरे देश में बहुत ही आदर-सम्मान और गरिमामय व्यक्तित्व के लिए सभी उन्हें प्रणाम करते हैं। आज हम उनकी स्वर्ण दीक्षा महोत्सव के समय में भगवान बाहुबली जी से प्रर्थना करते हैं कि हे गुरुवर आप जल्दी श्रवणबेलगोला बाहुबलीजी के दर्शन करने आ जाएँ, यही प्रार्थना है।'
जिनमाहात्म्य प्रभावक आचार्य
जिनशासन के माहात्म्य को प्रकाशित करना, सम्यग्दर्शन का आठवाँ अंग है। जिनधर्म के माहात्म्य को इसलिए प्रकट नहीं करना कि आप छोटे और हम बड़े हैं, अपितु इसलिए कि जिनधर्म की सम्यक् छाँव प्राप्त कर संसार ताप से संतप्त संसारी प्राणी शीतलता का अनुभव कर सकें। इस हेतु जिनेन्द्र देव ने जिनशासन के प्रतिनिधि आचार्य परमेष्ठी', 'उपाध्याय परमेष्ठी' एवं 'साधु परमेष्ठी' को जिनेन्द्र वाणी के प्रचार-प्रसार करने का आदेश दिया है। अतः आचार्यश्रीजी जब जैसा अवसर होता पात्रानुसार उसके सामने उसी ढंग से जिनशासन के सूत्रों को परोस देते हैं।
जिन प्रभावना उत्साही
सन् १९८३, ईसरी (गिरिडीह) बिहार (वर्तमान झारखण्ड), वर्षायोग के समापन के बाद आचार्यश्रीजी ने कार्तिक शुक्ल द्वितीया, रविवार, वीर निर्वाण संवत् २५१०, विक्रम संवत् २०४०,६ नवंबर, १९८३ के दिन हमेशा की तरह लोगों को बताए बिना ही पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता की ओर विहार कर दिया। उन्हें ज्ञात था कि कलकत्ता में कार्तिक पूर्णिमा के दिन प्रतिवर्ष भगवान् पार्श्वनाथ का उत्सव विशाल रथयात्रा पूर्वक मनाया जाता है। आचार्यश्रीजी ने इस उत्सव में शामिल होकर जिनशासन की प्रभावना का अपना मानस बना लिया था। जब लोगों को खबर हुई कि आचार्य संघ ने कलकत्ता की ओर विहार कर दिया है, तब सभी चिंतित थे कि मार्ग दुर्गम है। उस रास्ते में जैन श्रावकों के घर नहीं है। बड़ा अशांत क्षेत्र है। दिगम्बर जैन साधुओं का वहाँ आना-जाना नहीं होता है। अतः बंगाल के लोग दिगम्बर साधुओं से अपरिचित हैं, पता नहीं कैसा व्यवहार करेंगे? इस तरह सभी के मन में ऊहा-पोह चल रहा था कि महाराज को वहाँ नहीं जाना चाहिए।
परंतु दृढमना आचार्य गुरुवर बिना किसी परवाह के आगे बढ़ते गए। मार्ग में कोई बाधा नहीं आई और चलते-चलते साढ़े तीन सौ किलोमीटर की दूरी दस दिन में तय कर ग्यारहवें दिन आचार्यश्रीजी संघ सहित कलकत्ता में प्रवेश कर गए। बड़ा मंदिर से बेलगछिया तक हजारों लोगों के बीच से उनका सहज भाव सेगुजरना आम आदमी के लिए एक अद्भुत घटना थी। उस समय तक शहर में कोई दिगम्बर वेश में नहीं निकल सकता था। परंतु विशाल शोभा यात्रा और अनेक श्रमणों के बीच दिगम्बराचार्य श्री विद्यासागरजी के दर्शन कर, सभी के मुख से अनायास ही निकल पड़ा कि जैनों के महान् आचार्य के दर्शन कर हम धन्य हो गए। रास्ते में खड़े लोग और खिड़कियों से झाँकती हजारों आँखें बालकवत् यथाजात निग्रंथ श्रमण को निहार कर स्वयं को धन्य मान रही थी।
धन्य है! जिनप्रभावना उत्साही गुरुवर को, जिन्हें जब कभी भी जिनशासन की प्रभावना का अवसर मिलता, तब वह निजशक्ति प्रमाण प्रभावना करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।
प्रवचन ऐसे कि...
ऐसा लगता मानो सभी शुभ कर्म प्रकृतियों ने एक साथ आकर आपमें वास पा लिया हो। आप कभी भी, कुछ भी बोलें, लोगों को लगता, बस! सुनते ही जाएँ। रविवारीय प्रवचनों की श्रृंखला तो गुरुणांगुरु श्री ज्ञानसागरजी के समय से चली आ रही है। इस दिन की धर्म सभा में न जाने कहाँ-कहाँ से आकर श्रावक धर्म लाभ लेते हैं। हजारों-हजार नर-नारी होने पर भी सभा में सन्नाटा छाया रहता है। सभागार कितना भी बड़ा क्यों न बनाया गया हो, प्रायःकर वह छोटा ही पड़ जाता है। ऐसे में पांडाल के बाहर यदि चिलचिलाती मई-जून की धूप हो या तेज मूसलाधार बारिश, तथापि जन समूह यह भूल जाता है कि हम कहाँ बैठे हैं, किस आसन पर बैठे हैं। एक-एक पैर पर बैठे रहेंगे और आचार्यश्रीजी के मुख से निःसृत होने वाली वाणी का अमृत पान करते रहेंगे। उतने समय के लिए वह सभी सभाजन किसी अलौकिक आनंद में ही डूब जाते हैं। फिर अपनी-अपनी भूमिकानुसार व्रत-संकल्प ग्रहण करने हेतु प्रेरित होते हैं। आज से ही नहीं, आज तो हम सभी प्रत्यक्ष देख रहे हैं पर मुनि अवस्था से ही उनका ऐसा प्रभाव रहा है।
सन् १९७३, ब्यावर, जिला अजमेर, राजस्थान वर्षायोग में श्वेताम्बरों के पर्युषण पर्व के दौरान सारे श्वेताम्बर भाई आचार्यश्रीजी के प्रवचन सुनने आते थे। ब्यावर में ही भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा, १५ सितम्बर, १९७३ को दिगम्बरों के दशलक्षण पर्व की समाप्ति पर रथ यात्रा का जुलूस निकला, जिसमें आचार्यश्रीजी संघ सहित सम्मिलित हुए। अजमेरी गेट बाजार तथा महावीर बाजार में रथ यात्रा को रोककर आचार्यश्रीजी के प्रवचन हुए, जिन्हें हजारों जैन-जैनेतरों ने सुना, जिसे सुनकर वे इस तरह प्रभावित हुए कि उन्होंने व्यसनों का त्याग कर दिया था। है इसी तरह ९ अगस्त, १९७३ के 'जैन संदेश' में अमर जैन रांवका का एक संदेश प्रकाशित हआ कला ना लाया जाना माना जा सामानाला था- 'आचार्य श्री विद्यासागरजी के सान्निध्य मेंअसोज वदी ४ तदनुसार १६ सितंबर १९७३, रविवार को श्रीभारिल्ल जैन के तत्त्वावधान में विश्व मैत्री दिवस एवं सामूहिक क्षमा याचना समारोह स्थानीय लक्ष्मी मार्केट, ब्यावर, राजस्थान में हुआ। इसमें दिगम्बर, श्वेताम्बर के अतिरिक्त अजैन बंधु वर्ग भी उपस्थित हुआ। इस अवसर पर आचार्यश्रीजी का हजारों-हजार व्यक्तियों की उपस्थिति में विश्वजैनी (मैत्री) विषय पर सारगर्भित भाषण हुआ, जिसमें मैत्रीभाव को जीवन में उतारने एवं कार्य में परिणत करने के प्रति सभी को प्रेरणा मिली। इस प्रकार आचार्यश्रीजी के प्रवचन जन मानस के अंतस् में उतर जाते हैं, जिसके प्रभाव से उनके जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है।
लहर-लहर लहराए-केसरिया झंडा जिनमत का
सन् १९७३, ब्यावर, राजस्थान वर्षायोग के बाद आचार्यश्रीजी का विहार पीसांगन की ओर हुआ, वहाँ पर आचार्यश्रीजी के सान्निध्य में राजस्थान स्तर पर भगवान महावीर स्वामी के २५०० वाँ निर्वाण महोत्सव पंचवर्ण युक्त ध्वजारोहण एवं मंगलाचरण पूर्वक मनाया गया। समापन के आशीर्वचन में आचार्यश्रीजी ने कहा- 'आज इस ध्वजारोहण से मेरा हृदय पुलकित हो रहा है, मेरी कामना है कि यह जैन ध्वज जो स्याद्वाद, पंच परमेष्ठी, पंच अणुव्रत, पंच महाव्रत एवं पाँचों सम्प्रदायों की एकता का प्रतीक है, अनन्तकाल तक जैन शासन को दिग्-दिगन्तर में फैलाता रहे।
आचार्यश्रीजी के हृदय रूपी समुद्र में जिनशासन-प्रभावना की चाह रूपी लहरें हिलोरें लेती रही हैं।आज उन लहरों का शीतल, मृदुल एवं आकर्षक एहसास हम सभी को सुखद अनुभूति से भर रहा है।
चर्या प्रभावक आचार्य
आगम की परिधि में आनंद मग्न होकर रहने वाले आचार्य भगवन् की चर्या आज सभी के लिए एक मिसाल बनी हुई है। प्रायःकर तो वह निवृत्ति में रहने की चेष्टा करते हैं। पर जब उन्हें प्रवृत्ति में आना पड़ता है, तो तीर्थंकर महावीर की चर्या का ही अनुसरण करते हैं, जिसे देख सामीप्य प्राप्त करने वाले बुधजन प्रभावित हुए बिना रह नहीं पाते।
चर्या शिरोमणि
सन् १९७३, ब्यावर, जिला अजमेर, राजस्थान के वर्षायोग में आचार्यश्रीजी की आगमोक्त चर्या से प्रभावित होकर साढूमल, जिला ललितपुर, उत्तरप्रदेश निवासी एवं ब्यावर, राजस्थान प्रवासी विद्वान् पंडित श्री हीरालालजी सिद्धांतशास्त्री ने विनयांजलि स्वरूप एक लेख लिखा, जो ब्यावर वर्षायोग की स्मारिका में प्रकाशित है 'इधर पचास वर्षों में दिगम्बर जैन समाज के सभी आचार्यों और मुनिराजों के दर्शन करने और उनके प्रवचन सुनने का सुअवसर और सौभाग्य प्राप्त हुआ है, परंतु इतनी अल्प आयु में आचार्य पद को प्राप्त करने वाले और वह भी अपने ही दीक्षा और विद्या गुरु के द्वारा इस गुरुपद को सुशोभित करने वाले आप समग्र दिगम्बर समाज में अद्वितीय ही हैं। मैं आपके ब्रह्मचारी काल से ही आपसे परिचित हूँ।आप में भद्रता, विनयशीलता और उदासीनता तो जन्म-जात ही थी। इधर साधु बनने और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर तो आपके नैसर्गिक गुण मशीन पर रखे गए मणियों के समान अति दैदीप्यमान हो रहे हैं। गुरुदेव की असीम अनुकम्पा से उनके ही समान आप में कवित्व शक्ति प्रकट हुई है, जो उत्तरोत्तर विकासोन्मुखी हो रही है, यह बात इसी स्मारिका में प्रकाशित आपकी निजानुभव शतक' आदि रचनाओं से पाठकों को विदित होगी।अपने गुरु के समान ही आप शास्त्र पठन-पाठन में निरंतर संलग्न रहते हैं, उनके ही समान बाल ब्रह्मचारी हैं, फिर भी अल्पवय में दीक्षा लेकर और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होकर उनसे कई कदम आगे बढ़ रहे हैं।
भवाभिनन्दिता और जन-प्रशंसा से आप सदा दूर रहना चाहते हैं, यह बात इस चातुर्मास में भली-भाँति से सबके अनुभव में आई है। आने-जाने वाले दर्शनार्थियों की ओर भी आपका ध्यान बहुत कम ही जाता है, कारण कि इसमें भी आप अपनी अप्रमत्त दशा से गिरकर प्रमत्त दशा में आने का अनुभव करते हैं। यही कारण है कि आप आने-जाने वाले बाहरी दर्शनार्थी तक से भी उनके नाम-ग्रामादि का परिचय तक नहीं पूछते हैं। यह बात आपकी निरीहिता और वीतरागता का ही द्योतक है। अनेक भोले दर्शनार्थियों को आपकी इस प्रवृत्ति से कभी कुछ उद्वेग या क्षोभ का अनुभव-सा होता है, पर वे ये नहीं सोचते हैं कि हम वीतरागता के दर्शन करने और उसे पाने के लिए आए हैं अथवा सरागता के दर्शन करने और उसे लेने के लिए आए हैं? यदि साधु-संत आने-जाने वालों से उनका परिचय ही पूछते रहें तो उससे वीतरागता का संचय होगा या सरागता का? इस बात को नहीं सोचते हैं। मैं ऐसे वीतरागी आचार्य श्री के चरणों में नतमस्तक हूँ।
धन्य है शिरोमणि चर्या के धनी गुरुवर! जिनकी चर्या की प्रत्येक क्रिया शिक्षाप्रद होती है। पाठकगण २८ मूलगुण एवं ३६ मूलगुणों में कथित प्रसंगों के माध्यम से गुरुदेव की सूक्ष्मातिसूक्ष्म चर्या परिपालन रूप स्वभाव से परिचित हो चुके हैं।
जैन-जैनेतर प्रभावक आचार्य
मोक्षमार्गी, मात्र मोक्षमार्गी हुआ करता है। उसको किसी जात-पाँत, सम्प्रदाय आदि से प्रयोजन नहीं रहता। उसके अंदर स्व कल्याण की तीव्र पिपासा और प्राणी मात्र के हित की चिंता का भाव भरा रहता है। उसके प्रभाव स्वरूप ऐसे महापुरुष के प्रति प्राणी मात्र के हृदय में आस्था का भाव स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो जाता है, उनके अवलोकन मात्र से सुख-शांति का एहसास होता है, उनके वचन हितकारी लगते और उसे स्वीकारने जनमानस तत्पर हो उठता है। यदि कोई अज्ञात पुरुष भी राह चलते उन्हें एक झलक देख लेता है, तो वह भी उन्हीं का हो जाता है।आचार्य श्री विद्यासागरजी ऐसे ही स्व-पर कल्याणक संत हैं।
अनेकांत की शरण लहें सब
गुरु भक्त बसंतीलाल चंपालाल दोसी बागीदौरा, जिला बांसबाड़ा, राजस्थान ने अपने संस्मरण में लिखा है- 'मैं सोनगढ़ की मान्यता का पोषक था। ब्रह्मचारिणी मणिबेन के साथ मेरी पत्नी सन् १९७२ को नसीराबाद में चातुर्मास कर रहे आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज एवं मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज के दर्शन करने गई थीं। वहाँ से जब वे लौटीं तो उनकी बातें सुनकर मेरी भी इच्छा हुई की एक बार उनको देखू। तब मैं मई, १९७३ में नसीराबाद गया। साथ में पत्नी भी थी।मन में श्रद्धा थी नहीं, क्योंकि सोनगढ़ के विचारों से प्रभावित था कि पंचमकाल में मुनि नहीं होते। जो हैं वे द्रव्यलिंगी हैं। अतः वहाँ जाकर हमने नमोऽस्तु नहीं की। मात्र उनकी चर्या-क्रिया देखी। फिर एक दिन आचार्य श्री विद्यासागरजी से कुछ शंका-समाधान किया। उनकी चर्चाओं में आगम के प्रमाण पाकर मेरी भाँतियाँ दूर हो गईं एवं उनकी चर्या-क्रिया आगमोक्त देखकर श्रद्धा पैदा हो गई। तब हमने उनके चरणों में अपना समर्पण कर दिया। और उनके चरणों का गंधोदक अपने सिर पर लगाकर धन्य-धन्य महसूस किया तब से मैंने कानजी मत के शास्त्रों को पढ़ना बंद कर दिया और आचार्य श्री विद्यासागरजी को अपना गुरु बनाकर उनकी शरण को ग्रहण कर लिया।
इसी तरह सन् १९७८ में प्रकाशित ‘समाचार पत्रक' नामक स्मारिका के पृष्ठ १३ पर प्रसिद्ध विद्वान् पंडित श्री जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनी ने 'दिगम्बर जैन पंरपरा के उज्ज्वल रत्न' नामक लेख में आचार्यश्रीजी के प्रभाव विषयक लिखा है- 'गत २ साल (सन् १९७६-१९७७) कुंडलपुरजी में उनके पवित्र ज्ञान और आचार की कीर्ति-कौमुदी प्रति व्यक्ति तक फैली और मुमुक्षु मण्डलों के सहस्रों व्यक्ति (जो मुनि वंदना नहीं करते थे, सोनगढ़ पक्ष के हैं ऐसी जिनकी ख्याति थी) भोपाल, भेलसा, बीना, अशोकनगर, गुना, सागर, जबलपुर, खुरई आदि से महाराजजी की वंदना हेतु पधारे।आहार दिए।घी के दीपक जलाए और अपना धन्य भाग्य माना।सबके मुख से एक ही वाक्य सुना कि जीवन में आज मुनि दर्शन पाए।'
महाराजश्री का जीवन आध्यात्मिक जीवन है। २४-२४ घंटे की समाधि कभी-कभी लगाते हैं, १०-१२ घंटे तो सामान्य बात है। कभी फालतू बात किसी से नहीं बोलते। कोई आओ, कोई जाओ, कभी पूछते नहीं। लौकिक चर्चा नहीं करते। सोनगढ़, गैर सोनगढ़ सभी लोग जाते हैं पर उनके मुखारविंद से समर्थन या विरोध का कोई शब्द नहीं सुन पड़ा।'
अन्यमती भी सान्निध्य लाभपाते
सन् १९७५, फिरोजाबाद, उत्तरप्रदेश में आचार्यश्रीजी का वर्षायोग सेठ श्री छिदामीलाल जैन मन्दिर में हुआ। परंतु वे गाँव के मन्दिर में प्रवचन करने प्रतिदिन जाते थे।और वहीं से आहार चर्या के लिए उठते । थे। जिस रास्ते से आचार्यश्रीजी निकलते थे वहाँ एक सिक्ख परिवार रहता था। उनकी माँ प्रतिदिन आचार्यश्रीजी से बोलती-'बेटा हमारे यहाँ बैठ ले'। वह रोज रोकती थीं। लेकिन आचार्यश्रीजी अपनी नासाग्र दृष्टि किए सीधे निकल जाते। एक बार तो उस माँ ने आचार्यश्रीजी के सम्मुख खड़े होकर ही रोकने का प्रयास किया, तब आचार्यश्रीजी बोले- 'माँ! ऐसा नहीं होता'।
इसी तरह श्री नरेश भाई, मुम्बई, महाराष्ट्र के घर के कुआँ का पानी खराब हो गया। वह एक ब्राह्मण के कुआँ पर पानी भरने पहँचा। ब्राह्मण ने पूछा- तुम कौन हो? उस श्रावक ने कहा मैं जैन हूँ। मुझे कुआँ के पानी की आवश्यकता है, क्या, मैं आपके कुआँ से पानी भर सकता हूँ? वह ब्राह्मण बोला- नहीं, तुम्हें हम पानी नहीं भरने देंगे। तुम लोग वापस लाकर कुआ में जो पानी (जीवाणी) डालते हो, उससे कुआँ का पानी गंदा हो जाता है। उस श्रावक ने कहा- भैया! हम नल का पानी नहीं पीते हैं। और यदि हमें कुआँ का पानी नहीं मिला, तो हम मर जाएँगे, पर अपने गुरु से जो नियम लिया है, उसे तोड़ेंगे नहीं। ब्राह्मण बोला- अरे! पागल हो क्या? कौन है तुम्हारे गुरु? जैसे ही श्रावक ने बताया कि हमारे गुरु आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज हैं, सुनते ही ब्राह्मण उछल पड़ा, और बोला- अरे! ये तो मेरे भी गुरु हैं । जा भर ले पानी।
धन्य है! गुरुवर का प्रभाव। जिस स्थान पर उनके चरण ही नहीं पड़े, वहाँ के जनमानस तक उन्हें गुरु मान कर भव भवान्तर को सुधार रहे हैं। क्या देश-विदेश? सारे विश्व में आज आपका प्रभाव जगमगा रहा है।
सज्जन तो सज्जन, दुर्जन भी नमते
सन् १९७८ के वर्षायोग के लिए आचार्य श्री विद्यासागरजी मुनि महाराज सिद्धक्षेत्र नैनागिर पधारे। नैनागिर के आसपास के इलाके का कुख्यात डाकू हरीसिंह का प्रभाव होने से लोग चिंतित थे कि कैसे क्या होगा? फिर भी सभी को आचार्यश्रीजी पर पूर्ण विश्वास था।जब यह बात डाकू हरीसिंह को पता चली, तो वह अपने सशस्त्र डाकूदल के साथ आचार्यश्रीजी के चरणों में उपस्थित हुआ और चरण वंदना कर बोला 'महाराज! आप चार महीने वर्षाकाल में यहीं नैनागिर में रहिए।हमारी पूरी जुम्मेवारी है, किसी की सुई भी गुम नहीं होगी। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि हमारा डाकूदल आपके दर्शन के लिए आने वाले जैनी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखेगा, बल्कि हम उनकी सुरक्षा करेंगे।' आचार्यश्रीजी ने कहा- 'निर्भय रहो और निर्भय रहने दो।' फिर क्या था- आचार्यश्रीजी ने सन् १९७८ का अपना वर्षायोग नैनागिर में स्थापित किया और यात्री निर्भयता से आते जाते रहे।
वंदनीय हैं, निर्भयता का पाठ पढ़ाने वाली आचार्य भगवन् की अभयमुद्रा! जो न केवल भक्तजनों बल्कि हिंसक शस्त्रों के धारक डाकुओं के हृदय का हरण कर लेती है।
परदेशी भी नमते
सन् १९७२, नसीराबाद, जिला अजमेर, राजस्थान में वर्षायोग के दौरान सुप्रसिद्ध साहित्यकार अनुत्तर योगी : तीर्थंकर महावीर' आदि पुस्तकों के कुशल आलेखक वीरेन्द्र कुमार जैन के सुपुत्र डॉ.ज्योतीन्द्र जैन। अपने साथ जर्मन स्कॉलर डॉ. एबरहार्ड फिशर ('आर्ट एण्ड रिचुअल्स-२५०० इयर्स ऑफ जैनिज्म इन इण्डिया' पुस्तक के लेखक) को गुरुणांगुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज के दर्शनार्थ लाए। उन्होंने गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज एवं मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज से जैन दर्शन संबंधी गूढ़तम कुछ प्रश्न पूछे। दोनों महाराजों से प्राप्त समाधानों से वे काफी प्रभावित हुए। मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज तो बीच-बीच में अंग्रेजी भाषा में भी उन्हें समझाते जाते थे, वह इनसे इतने प्रभावित हुए कि अगले दिन जब वह आचार्यश्रीजी के दर्शनार्थ आए तो मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज की ओर इशारा करके बोले- 'हम इनको जर्मनी ले जाएगा। तब मुनिश्रीजी बोले-'रास्ता कहाँ से मिलेगा।' वह बोले- 'यहाँ से पाकिस्तान, अफगानिस्तान होते हुए। जर्मनी पहुँच सकते हैं, लेकिल आपको चारों तरफ़ से कवर करके चलेंगे।' मुनिश्रीजी बोले-'शेर तो शेर ही रहता है, उसे किसी प्रकार का बंधन स्वीकार नहीं होता।
धन्य है! गुरुवर का प्रभाव जो वह इन्हें विदेश ले जाने तत्पर हो गया।
घट-घट वासी,राम-सा प्रभाव
फरवरी, सन् २०१५, सिद्धक्षेत्र नेमावर, देवास, मध्यप्रदेश से गौरझामर, सागर, मध्यप्रदेश की ओर विहार चल रहा था।आचार्यश्रीजी के साथ पिपलिया ग्रामवासी एक जाट किसान भी विहार करवा रहा था। यह वह सौभाग्यशाली किसान था, जिसके घर आचार्यश्रीजी ने पूर्व में एक बार कभी विश्राम किया था। उस समय गुरुजी के चरण सान्निध्य का उस पर बड़ा प्रभाव पड़ा था। जब १५ फरवरी को आचार्यश्रीजी पिपलिया ग्राम पहुँचे। तब उसने संघस्थ पूज्य मुनि श्री संभवसागरजी से कहा- 'हम गुरुजी के पास तो पहुँच नहीं पाएँगे, आप से ही एक आशीष चाहते हैं। ये जो दूसरी मथुरा (सिद्धोदय क्षेत्र नेमावर) बन रही है, इसके लिए कुछ दान-पुण्य कर सकूँ ,अपनी कुछ जमीन बेचकर इसमें लगा सकूँ।' एक किसान दान के भाव बना रहा एवं निर्माणाधीन सिद्धोदय नेमावर क्षेत्र को दूसरी मथुरा भी कह रहा है। उसकी इस भावना में भव्यत्व भाव देखकर मुनिश्रीजी उसे आचार्यश्रीजी के पास ले गए, और उन्हें सारी बात बताई। आचार्यश्रीजी ने उस भक्त को खुश होकर खूब-खूब आशीर्वाद दिया।
इसी विहार के दौरान २२ फरवरी को बाड़ी रोड, खितवई नामक स्थान पर एक यादव अपने घर में संघ को ठहरवाने की कोशिश कर रहा था। विशाल संघ की अपेक्षा उसका घर छोटा था। अतः व्यवस्थापकों ने उसकी तीव्र भावना का सम्मान करते हुए उसे समझाया और कहा कि आपके घर का स्थान आहार हेतु चौका लगाने वाले श्रावकों के लिए दे देते हैं। उसके घर में दो चौके की व्यवस्था बन गई। उस यादव की श्रद्धा-भक्ति का फल यह हुआ कि एक चौका जो दक्षिण के ब्रह्मचारी लोगों का था, अकस्मात् ही उसमें आचार्य भगवन् का पड़गाहन हो गया। इस तरह उस यादव के घर में आचार्यश्रीजी के चरण भी पड़ गए और आहार चर्या भी संपन्न हो गई। यह कहलाती है एक भक्त की भक्ति, जो अपने भगवान को भी बुला लेती है। इस तरह एक यादव भक्त की भक्ति-श्रद्धा ने भगवान को अपने घर बुला ही लिया।
इससे आगे रात्रि विश्राम चंद्रबार ग्राम में किया।२३ तारीख को बाड़ी पहुँचने से दो किलोमीटर पूर्व एक क्रिश्चियन स्कूल था। उसके पीछे व्यवस्थापकों ने संघ के शौच जाने की व्यवस्था की थी। इसके लिए फ़ादर (प्रिंसिपल) से स्वीकृति ले ली थी। यह जानकर कि आचार्यश्रीजी स्कूल आएँगे, फ़ादर बहुत खुश हुए। किंतु गुरुवर ज्यादा दूरी होने से शौच हेतु वहाँ नहीं गए, और सीधे आगे निकल गए। तब प्रतीक्षारत फ़ादर ने कार्यकर्ताओं से पूछा था कि हमारे यहाँ गुरुवर क्यों नहीं आए? इस तरह एक क्रिश्चियन फ़ादर को भी आचार्य भगवन् के चरण सान्निध्य की पिपासा थी।
गुरुवर जब क्रिश्चियन स्कूल से आगे बढ़ गए, तब बाड़ी वाले श्रावक परेशान हो उठे।आगे शौच हेतु कोई उपयुक्त स्थान नहीं है, अतः क्या होगा? यहाँ से आगे तो मुसलमान कॉलोनी बन रही है, और आगे फिर बाड़ी की बस्ती लग जाएगी। पर आचार्यश्रीजी के नाम से क्या हिन्दू, क्या क्रिश्चियन और क्या मुसलमान-सभी उनके चरणों की रज से अपने स्थान को पवित्र करने एवं उनके दर्शन के लिए लालायित रहते हैं। आगे जो मुसलमान कॉलोनी बन रही थी, उनसे जब पूछा गया तो उन्होंने न केवल सहर्ष स्वीकृति ही दी, अपितु कहा-'गुरुदेव के चरण हमारी कॉलोनी में पड़ेंगे, तो वह धन्य हो जाएगी।' इस प्रकार गुरुदेव के पुण्य का प्रताप और प्रभाव है कि उन्हें हर जगह अनुकूलता बनती जाती है। वैसे ही जैसे महापुरुष जहाँ भी जाते हैं तो उनके लिए निधियाँ स्वागत करने के लिए खड़ी रहती हैं।
बापोली सिद्धधाम,आगामी सिद्ध का विश्राम
२४ फरवरी की सुबह मुसलमान कॉलोनी में शौच क्रिया से निवृत्त होकर आचार्यश्रीजी का ससंघ बाड़ी में प्रवेश एवं आहार हुआ। वहाँ से ९ किलोमीटर आगे रत्नपुरा में रात्रि विश्राम और २५ तारीख की सुबह १० किलोमीटर विहार कर बापोली सिद्धधाम पहुँचे। यह हिन्दुओं का बहुत बड़ा धाम है। यहाँ पर शिव मंदिर एवं शैव मठ है। वहाँ शैवमती साधु अपनी-अपनी साधना होम-यज्ञ- जप आदि में रत रहते हैं। इन सभी साधुओं ने आचार्यश्रीजी ससंघ की अच्छी भक्ति-भाव सहित आगवानी की। यहाँ के जो मुख्य लाल बाबा थे, उन्होंने अपने सभी साधुओं के साथ आचार्यश्रीजी के चरणों का अनेक वेद ऋचाओं का पाठ करते हुए पाद प्रक्षालन किया, और सुन्दर-सुन्दर फूलों से गूंथीं गईं, बहुत बड़ी-बड़ी, बहुत सारी फूल मालाओं को, जिन्हें उन्होंने संभवतः अपने आराध्य की अर्चना हेतु सँजोकर रखा था, उन्हें अत्यंत ही श्रद्धा भाव से गुरुचरणों में समर्पित कर अपने ढंग की अलग ही तरीके से भव्य पूजन की। उसे देखकर ऐसा लग रहा था, मानो इन्द्रभूति गौतम ही महावीर के समवसरण में आ गए हों और उनके चरणों में समर्पित हो रहे हों। गौतम भी ब्राह्मण थे और लाल बाबा भी काश्मीरी ब्राह्मण थे। हट्टे-कट्टे,६ फुट लंबे, ३३-३५ वर्ष की युवावस्था। १४ वर्ष की उम्र में काश्मीर से मथुरा आए। ८-१० साल वहाँ रहे, फिर करीब ५ साल गिरनार में रहे, और अभी ५ साल से बापोली में रह रहे थे।
लाल बाबा प्रतिदिन दिनकर्म से निवृत्त होने के बाद शाम ५ बजे तक यज्ञ हवन करते, दोपहर में १२ बजे के लगभग एक बार भोजन करने बस उठते। सुबह से लेकर शाम को हवन पूर्ण होने तक उनका मौन ही रहता। वह मौन की भाषा में बार-बार आचार्यश्रीजी से रात्रि विश्राम यहीं हो ऐसा निवेदन कर रहे थे। ताकि मौन खुलने पर वह आचार्यश्रीजी से कुछ आध्यात्मिक एवं साधना संबंधी चर्चा कर सकें। आचार्यश्रीजी जब आहार करके आए, तब अन्य मठाधीशों ने आचार्यश्रीजी से कुछ तत्त्व चर्चा की, लाल बाबा आतुर ही रहे। सामायिक के बाद वह पुनः आए और रुकने का निवेदन करने लगे। तब मुनि श्री संभवसागरजी महाराज ने कहा- 'आप गुरुजी से संसार संबंधी बातें थोड़े ही करेंगे। उनसे आपकी आध्यात्मिक चर्चा ही होगी, इसके लिए मौन खोलने में कोई बाधा नहीं है।' तब उन्होंने आचार्य गुरुवर की ओर संकेत करते हुए कहा-'यदि गुरुजी कहें तो खोल देते हैं।' तब गुरुजी ने उन्हें आश्वस्त किया। उसके पश्चात् खुश होकर उन्होंने गुरुजी के कमंडलु से थोड़ा-सा जल लेकर आचमन (कुल्ला) करके अपना नियम खोला, और आचार्यश्रीजी से अपनी साधना के लिए मार्गदर्शन माँगा। करीब आधा घंटे तक आचार्यश्रीजी से तत्त्वचर्चा करने का उन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ।
उन्होंने गुरुदेव से अपनी गौशाला देखने का निवेदन किया, और बोले हम अपनी गायों से बहुत प्रेम करते हैं। उनकी सेवा के लिए रात्रि जागरण करते हैं। हमारी गायें भी बहुत सुकुमार हैं, यदि वह गोबर कर दें तो तब तक नहीं बैठेंगी, जब तक उस स्थान की सफाई न हो जाए। हम उनकी खुराक का भी पूर्ण ध्यान रखते हैं। तथा अपनी गौशाला में किसी सामान्य जन को प्रवेश नहीं करने देते, क्योंकि आदमी की नज़र बहुत खराब होती है। हमारी बहुत-सी गायें गड़बड़ हो गईं। गौशाला में आचार्यश्रीजी के साथ केवल संघही गया। वहीं से संघ का विहार हो गया। लाल बाबा अपने धाम के गेट तक विदा देने आए, कहने लगे कि बारह साल तक गेट के बाहर न जाने और जो साधना अभी कर रहे हैं उसे करने का हमारा नियम है। अभी हमें पाँच साल हुए हैं। इस तरह लाल बाबा सहित सभी शैवमती साधुओं ने आचार्य भगवन् के प्रति अपनी अपूर्व भक्ति प्रस्तुत की।और आगामी सिद्ध' के अल्प विश्राम का सौभाग्य बापोली सिद्धधाम को प्राप्त हुआ।
धन्य है! आचार्यश्रीजी की साधना, जिसके प्रभाव स्वरूप बड़े-बड़े जैनेतर साधक भी नतमस्तक हो जाते हैं। और धन्य है! अन्यमती साधु की गुरुवर के प्रति भक्ति, जिसे देखकर लगा कि ऐसी भक्ति शायद जैनों में मिलना दुर्लभ हो।
शाकाहार पर गमन,खिल-खिला उठा मन
आचार्यश्रीजी ने एक बार अपनी शिखरजी यात्रा का संस्मरण सुनाते हुए कहा- ‘सन् १९८२ में शहडोल पथ से यात्रा करके शिखरजी यात्रा पर गए थे। उस समय लोग कहते थे, महाराज! हम लोग तो आदिवासी हैं। आप यहाँ भूलकर आ गए। बहुत अच्छा हुआ, आप यहाँ से आ गए, अन्यथा अन्य महाराज तो दूसरे मार्ग से चले जाते हैं। तब हमने (आचार्यश्रीजी ने) कहा था- 'हम तो महाराज हैं, अतः राजमार्ग से नहीं किंतु महाराज मार्ग से जाते हैं।' मार्ग में चिरमिरी गाँव मिला, जहाँ कोयले की खाने हैं। वहाँ मजदूर वर्ग को कार्य करने से कभी छुट्टी नहीं मिलती थी।हम पहुंचे तो वहाँ के अधिकारी वर्ग ने सूचना पाते ही सभी मजदूरों को छुट्टी दे दी। वे सभी बहुत प्रसन्न हुए और दर्शनार्थ आए। वे सभी साधु भक्ति से प्रेरित होकर दर्शन करते । समय चढ़ावा जैसा चढ़ाते गए।हमने कुछ बोला । नहीं, मात्र देखते रहे। तो वे लोग समझे, कि बाबा बोल क्यों नहीं रहे हैं? क्या चढ़ावा कम है? लड्डू चढ़े, पेड़े चढ़े और भी अन्य सामग्री उन लोगों ने चढ़ाई। हमने सोचा कि दीपावली पर लड्डू चढ़ते हैं, यहाँ तो आज ही चढ़ गए। किसी ने उन लोगों से कहा, बाबा कुछ लेते नहीं। तब मैंने (आचार्यश्रीजी ने) मन ही मन कहा कि ये बाबा कुछ लेते नहीं, दिलवाते हैं। क्या दिलवाते हैं? तो कहा- संकल्प दिलवाते हैं। फिर हमने उन्हें कहा कि ये सभी आदिवासी आदिनाथ भगवान के उपासक माने जाते हैं, अतः हमने (आचार्यश्रीजी ने) हजारों लोगों को संकल्प दिलवाया कि कभी भी शराब नहीं पीना, अंडे-मांस-मछली भी नहीं खाना।सभी ने अपने आपको भगवान् के तथा साधु बाबा के उपासक मानकर श्रद्धा भाव से संकल्प स्वीकार किया। मैंने (आचार्यश्रीजी ने) सोचा, अपने को तो इस मार्ग से आने में बहुत लाभ हो गया।
साधु-संतों से जन-जन का जब तक संपर्क नहीं होता, उनके आस-पास के मार्ग से जब तक साधुओं का विहार नहीं होता, तो जनता को भी संस्कारित होने का अवसर नहीं मिलता। आचार्यश्रीजी का प्रयास रहता है कि विहार के दौरान कौने-कौने की जनता लाभान्वित हो सके। इसके लिए वे प्रायः अपने प्रवास स्थान से गंतव्य स्थान तक पहुँचने के लिए छोटे मार्ग की बजाय लंबे मार्ग का चुनाव तक कर लेते हैं। क्योंकि छोटे रास्ते से वह पूर्व में भी निकल चुके होते हैं, तब लंबे रास्ते वाले कब लाभान्वित होंगे? खजुराहो वर्षायोग सन् २०१८ के समापन के बाद ललितपुर, उत्तरप्रदेश की ओर विहार हुआ। गुरुदेव तीन किलोमीटर आगे निकल गए।वहाँ उन्हें स्मरण आया कि यह तो वही मार्ग है, जहाँ से मैं आया था।वह तीन किलोमीटर वापस आए और फिर ऐसे मार्ग से विहार किया जहाँ से पहले कभी नहीं गए थे।
धन्य है! गुरुवर की करुणा! ७३ वर्ष की वृद्धावस्था, और जिनशासन की शरण सबको मिल सके इसके लिए इतना पुरुषार्थ! इनकी जितनी भी महिमा गाई जाए वह कम है।
राम नाम का पत्थर डूबता नहीं
जिस तरह राम के हाथ से छोड़ा गया पत्थर तो डूब गया, पर ‘राम नाम' का पत्थर नहीं डूबा।वैसा ही एक प्रसंग जब सामने आया तो हदय विस्मय और हर्ष से भर गया। सन् २००९ में आचार्यश्रीजी का विहार सर्वोदय तीर्थ क्षेत्र अमरकंटक से बुढ़ार मध्यप्रदेश की ओर हो रहा था। आचार्यश्रीजी के बाएँ पैर के अंगूठे में नौघेरा हो गया था। वेदना असहनीय थी। पैर हिलाना-डुलाना भी मुश्किल हो रहा था। सूजन एवं लालामी चरम पर थी। इस वेदना के लिए पाँच-छह दिन हो गए थे। ऐसे में विहार करना असंभव-सा हो रहा था।
छटवाँ-सातवाँ दिन था, तभी ललितपुर, उत्तरप्रदेश से छोटे पहलवान भैया आए। उन्होंने संघस्थ मुनिराजों से निवेदन किया- 'हमें गुरुवर के पैर के अंगूठे का उपचार करने दीजिए। हम काली मिर्च घिस कर उसका लेप लगाना चाहते हैं।' जो मुनिजन सेवा में नियुक्त थे, उन्हें लगा इससे क्या होगा। पर भक्त का आग्रह होने से अनुमति मिल गई। जिस स्थान पर रात्रि विश्राम था। पहले तो वहाँ के लोग काली मिर्च को इस नाम से नहीं जान पा रहे थे। वमुश्किल उन्हें समझ आया। छोटे पहलवान ने एक-एक काली मिर्च को घिस-घिस कर थोड़ा-सा लेप तैयार किया। और स्वयं अपने ही हाथ से उस लेप को अँगूठे में लगाया। सुबह गुरुजी के दर्शन करके पूछा- 'आचार्यश्रीजी! अब कैसा है दर्द?' आचार्यश्रीजी मुस्कराए एवं हल्का-सा अगूंठा हिलाकर दिखाया, मानो कह रहे हों कि बहुत कुछ आराम है। और वास्तव में भी अब तक पैर को बहुत कुछ आराम हो चुका था। उन्हें चलना सुखकर हो रहा था। पास में रहने वाले महाराज लोग आश्चर्य में थे, केवल एक बार काली मिर्च मात्र लगाने से इतना अधिक आराम कैसे हो सकता है? उन्होंने छोटे पहलवान से पूछा- क्यों तुमने ऐसा क्या किया? उन्होंने बताया- 'महाराजजी, हमने कुछ नहीं किया। यह तो गुरु मंत्र ने किया है। मैं ३०-३२ वर्ष से आचार्यश्रीजी के नाम के मंत्र ॐ ह्रीं गुरुवरविद्यासागर नमो नमः' की जाप कर रहा हूँ। इसी मंत्र का उच्चारण करते हुए एक-एक काली मिर्च घिसकर उसका लेप बनाया। और इसी मंत्र को बोलते हुए वह लेप गुरुवर के पैर के अंगूठे में लगा दिया। फिर क्या था, बस हो गया काम।
उन्होंने बताया, इस मंत्र के प्रभाव से उनके सारे काम सिद्ध होते हैं। इसी मंत्र से अब तक वह कितनों को ठीक कर चुके हैं। एवं उन्होंने तो अपनी छाती पर 'गुरुवर विद्यासागर नमः' गुदवा रखा है। उसे दिखाते हुए वह बोले- 'एक सड़क दुर्घटना में मेरी गर्दन की दो हड्डियाँ टूट गई थीं।झाँसी में डॉक्टरों ने केस लेने से मना कर दिया। तब मेरे बेटे मुझे भोपाल की प्रसिद्ध हॉस्पिटल बंसल में ले गए। वहाँ आई.सी.यू. वार्ड में डॉक्टर ने आपस में कहा कि इस कंडीशन में यह व्यक्ति जीवित कैसे है! जब ऑपरेशन के लिए कपड़े उतारे तब छाती पर गुरुवर के नाम को देखकर एक डॉक्टर बोला-तुम गुरु के सच्चे भक्त हो, इसी से अब तक बचे हो । मेरा तो जीवन गुरु के नाम से ही बचा है, और गुरु की सेवा में ही अर्पित है।
आश्चर्य, घोर आश्चर्य! आचार्य भगवन् का प्रभाव-प्रताप तो ठीक, उनके ही नाम मंत्र का इतना प्रभाव। कि उन्हीं पर कारागर हो गया। अपराजित मंत्र के तीसरे पद में नमन किए जाने वाले आचार्य परमेष्ठी जो हैं वह। उनके समग्र व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव है कि उनके नाम के प्रत्येक अक्षर मानो बीजाक्षर बन गए हैं।
व्यक्तित्व प्रभावक आचार्य
आचार्यश्रीजी के बाह्य व्यक्तित्व में ऐसा कैसा चुम्बकीय आकर्षण है, जिसे देख लोकोत्तर कोई आश्चर्य-सा प्रतीत होता है। जिसे कहने में शब्द सीमित, कथन पंगु और चिंतन बौना हो जाता है। मात्र अनुभूति का एहसास साथ देता है। जो भी एक बार दर्शन करता है, वह किंकर्तव्यविमूढ़ मंत्र मुग्ध-सा देखता ही रह जाता और हमेशा हमेशा के लिए उन्हीं का हो जाता है। यह सब पूर्व का सातिशय पुण्य, गुरु की अनंत कृपा एवं वर्तमान की साधना का ही फल है, जो आपकी मुद्रा मात्र ही सभी को अपनी ओर अनायास ही खींच लेती है। शास्त्रों में महापुरुषों का जो प्रभाव लिखा मिलता है, वह आज आप में साक्षात् देखने में आ रहा है। तभी जनमानस आपको कभी हृदय सम्राट, तो कभी वर्तमान के वर्द्धमान, कभी परमपिता परमात्मा, प्रातःस्मरणीय आदि आदि हजारों-हजार नामों से संबोधित करके भी तृप्त नहीं होता है।
आकर्षक बाह्य व्यक्तित्व
ब्यावर निवासी श्रीमती मुन्नी अजमेरा, भीलवाड़ा, राजस्थान सन् १९७३ में ब्यावर, अजमेर, राजस्थान में हुए वर्षायोग के समय की अनुभूति को अभिव्यक्त करती हुई कहती हैं- 'आचार्यश्रीजी के प्रवचन आध्यात्मिक होते हुए भी हम लोगों को बहुत अच्छे लगते थे क्योंकि उनकी हिन्दी में कन्नड़ टोन था। घने धुंघराले बाल, बड़ी-बड़ी आँखें, सूर्य के समान तेज वाले आभामण्डल को निहारकर असीम शांति मिलती थी।प्रवचन कब समाप्त हो जाता था, पता ही नहीं चलता था।
इसी तरह सन् १९७८ में प्रकाशित समाचार पत्रक' नामक पत्रिका के पृष्ठ १३ पर प्रसिद्ध विद्वान् पंडित श्री जगन्मोहनलालजी शास्त्री ने जैन परंपरा के उज्ज्वल रत्न' नामक लेख में आचार्यश्रीजी के प्रभावी बाह्य व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-'स्वर्ण-वर्ण दैदीप्यमान देह, ओजस्वी मुखारविंद, कमल सा खिला हुआ चेहरा, अमृत-सी मीठी वाणी, अचंचल नेत्र, वीतरागता की प्रतिमूर्ति, परम साम्यभाव, करुणापूरित हृदय, ख्याति-लाभ-पूजा से योजनों दूर, दिगम्बर जैन पूर्वाचार्य के दर्शन इनमें दृष्टिपात होते ही हो जाते हैं। दर्शक को दर्शन करके ऐसा लगता है कि जीवन में यह मूल्यवान उपलब्धि हुई है। यदि उम्र का लिहाज न किया जाए तो कहना होगा कि ये अन्य साधुजनों के लिए भी आदर्श हैं।'
जिस तरह कोई बालक चाँद को देख ले तो उसी को पाने की जिद करता है। उसे अन्य कोई चीज़ नहीं लुभाती। इसी तरह जिसने आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज को देख लिया, उसे अन्य छवि भाती नहीं।आज वे गुरुता के सुमेरु हैं। उनकी चरण-रज पाने के लिए लोग पलक पाँवड़े बिछाकर नतमस्तक हो जाते हैं। उनके बाह्य रूप एवं व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण है, जो जन-जन के हृदय का हरण करने वाला हृदयहारी व्यक्तित्व बन गया है।
देखा कि सुध-बुध भूले
आचार्यश्रीजी के आभामण्डल में कुछ ऐसा जादू है कि उन्हें देखते ही लोग अपनी सुध-बुध भूल जाते हैं। करणीय-अकरणीय का विवेक खो देते हैं। उनकी एक झलक की प्यास लोगो में बनी रहती है। सन् २००८, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र में वर्षायोग चल रहा था। एक दिन आहार चर्या हेतु आचार्यश्रीजी मंदिरजी से निकलने ही वाले थे कि उसी समय उड़ीसा प्रांत से आए हुए कुछ श्रावक गुरुजी के दर्शनार्थ मंदिर परिसर में आ गए।और वे मेरु मंदिर के बाजू से मुख्य द्वार की तरफ एकत्रित होकर किनारे-किनारे से खड़े हो गए। यहाँ की व्यवस्था का दायित्व ‘प्यारे ग्रुप' नागपुर वालों के पास था। प्यारे ग्रुप के सदस्यों ने उन सभी श्रावकों से कहा- 'आप लोग बाहर जाकर खड़े हो जाएँ, यहाँ से आचार्य संघ को चर्या हेतु निकलना है।' बार-बार कहने पर भी वे श्रावक वहीं रुके रहने की मिन्नतें करने लगे। यह देख वहाँ खड़ी टीकमगढ़ की ब्रह्मचारिणी बहनों को उन पर दया आ गई। उन्होंने प्यारे ग्रुप के प्रमुख प्यारे भैया से कहा कि भैया इन्हें यहीं खड़े रहने दीजिए न। वह बोले- 'दीदी, आप लोग नहीं जानते। जब आचार्यश्रीजी निकलेंगे तो ये लोग भी उनके पीछे-पीछे भागने लग जाएंगे। इससे पीछे वाले साधुओं की व्यवस्था बिगड़ जाएगी।'
उन बहनों ने कहा- 'भैया! इन्हें अच्छी तरह से समझा देते हैं कि या तो बाहर जाएँ, नहीं तो अंतिम साधु के निकलने तक यहीं खड़े रहें, बीच में बाहर निकलने की कोशिश न करें।' सभी उच्च शिक्षित एवं प्रौढ़ प्रतीत हो रहे थे। उन्होंने अंत तक वहीं खड़े रहने की बात स्वीकार कर ली। प्यारे ग्रुप अपने कार्य में लग गया। पर यह क्या! ज्यों ही आचार्यश्रीजी चर्या को निकले, वे सभी श्रावक उनके पीछे-पीछे हो लिए। प्यारे भैया एवं उन बहनों ने उन्हें रोकने की भरसक कोशिश की पर किसी ने एक न सुनी।अब प्यारे भैया का पारा सातवें आसमान पर था। एकदम रोष में आकर वह उन बहनों से बोले- 'देखा, मैं कह रहा था न।' यह सुनते ही बहनों को हँसी आ गई। प्यारे भैया उन्हें प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगे।बहनें बोलीं- 'भैया! इन श्रावकों पर इतना रोष क्यों? अरे, इनका क्या कसूर है? जाकर उनसे कहिए न, जिन्होंने इन पर जादू कर दिया है। यह सुनते ही सबके चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई।
धन्य है! आचार्य भगवन् की मोहिनी मूरत! जिसे लखकर समझदार से समझदार मानव भी अपनी सुध-बुध खो बैठता है।
देवगण-प्रभावक आचार्य
आगम में कथन आता है कि अहिंसा, संयम एवं तप जिनके पास होता है, देवतागण भी उनके दर्शन के लिए लालायित रहते हैं। आचार्य भगवन् ऐसे ही साधक हैं, जिनके चरणों में देवगण दर्शन, पूजन, आरती एवं वैयावृत्ति आदि करने उपस्थित होते हैं।
कभी करें वैय्यावृत्ति
आचार्यश्री ज्ञानसागरजी की शिष्या ब्रह्मचारिणी कंचन बाईजी, अजमेर, राजस्थान, जो इस समय लगभग १०१-१०२ वर्ष की है। उन्होंने अगस्त, सन् २०१७ को आष्टा, सीहोर, मध्यप्रदेश में बताया-मई,जून, सन् १९७५, ग्रीष्मकाल अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, राजस्थान में आचार्यश्रीजी का प्रवेश हुआ। बॉम्बे प्रवासी अजमेर, राजस्थान निवासी गुरुभक्त श्री मदनलालजी गोधा आपके साथ थे। रात्रि में आचार्यश्रीजी खुले आसमान के नीचे छत पर रात्रि विश्राम करते थे।थोड़ी दूरी पर गोधाजी भी विश्राम कर रहे थे। एक रात्रि १०:३०-११:00 बजे के बीच उन्होंने देखा कि पगडी लगाए हए दो व्यक्ति आचार्यश्रीजी के पैर दबा रहे हैं। कोई श्रावक होंगे, चले जाएंगे, ऐसा सोचकर वह सो गए। कुछ समय बाद लगभग रात्रि १२-१ बजे के बीच जब पुनः वहाँ दृष्टि गई तो देखा वह श्रावक अभी भी पैर दबा रहे हैं। उनके मन में आया शायद बाहर के कोई श्रावक होंगे। संभव है कि इनके सोने की व्यवस्था नहीं हुई होगी, जाकर देखता हूँ। वह ज्यों ही उनके पास पहुंचे और उनके मुख से 'क्यों भैया' ही निकल पाया कि वह दोनों श्रावक देखकर थोड़ा मुस्कुराए और लंबे होते-होते ऊपर आसमान में समा गए। गोधाजी घबरा गए। अपने कमरे की ओर भागे, जहाँ उनकी पत्नी, नौकर आदि अन्यजन सोए थे। पसीने से लथ-पथ गोधाजी अपने नौकर का नाम लेकर व्यास-व्यास चिल्लाते हुए वहाँ पहुँचे।व्यास ने उन्हें सँभाला। गोधाजी ने सारी बात बताई।व्यास ने कहा- सेठजी, चलिए एक बार चलकर देख लेते हैं। जब वहाँ देखा तो कोई नहीं था। आचार्य भगवन् तब भी उसी करवट में विश्राम कर रहे थे, और अब भी। सब ने स्वीकारा कि सच्चा साधक है सो देवता तो चाकरी करेंगे ही। भय क्यों करना हर्ष मनाओ जी।
कभी छुएँ चरण
आचार्यश्रीजी विहार में भी वे चारों ओर से भीड़ में घिरे रहते हैं। ऐसे में कोई उनके चरण छुए, तो यह उन्हें अनुशासनहीनता लगती, जिसे वह कतई पसंद नहीं करते हैं। वे सब के मध्य रहते हुए भी स्वयं में ही रमे रहना चाहते हैं। एक बार आचार्यश्रीजी का विहार चल रहा था, विहार के बीच में ही, विहार करते करते आचार्यश्रीजी अचानक से पल भर को खड़े हो जाते, और ऐसे पैर झटकते जैसे कोई उनके चरण छूने को लालायित हो और वह अपने चरण छुलवाना नहीं चाह रहे हों। ऐसा एक बार नहीं दो या तीन बार हुआ। साथ वाले महाराज आचार्यश्रीजी को देखते कि उन्हें हो क्या रहा है? पैर में कुछ तकलीफ़ है क्या? महाराजों ने अस्पष्ट-सा पूछा भी, क्या हुआ? पर आचार्यश्रीजी बिना कुछ कहे मुस्कुराकर आगे बढ़ जाते। जब मुकाम पर पहुँचना हुआ, तो साथ वाले मुनिगण भी गुरुजी के आजू-बाजू पास में ही बैठ गए। धीरे से पूछा- भगवन्! रास्ते में क्या हो रहा था? कोई तकलीफ़ थी? आचार्यश्रीजी मुस्कुरा दिए। आचार्यश्रीजी जब मुख से नहीं बोलते, तब वह अपनी आँखों एवं चेहरे के हाव-भाव से बहुत कुछ बोल जाते हैं। उनकी रहस्यमयी मुस्कुराहट देखकर, महाराजों को लगा कि कुछ न कुछ राज तो है। धीरे से पुनः निवेदन किया कि बताइए न भगवन्? आचार्यश्रीजी बोले- 'अरे! वह कारी वाला श्रावक... इतना कह कर वह रुक गए।' मुनिश्रीजी बोले- 'हाँ, वह तो दिवंगत हो गए।' आचार्यश्रीजी बोले- 'हाँ! वही तो बार-बार पैर छूने की कोशिश कर रहा था।' मुनिश्रीजी- 'अच्छा!' आचार्यश्रीजी- 'पता नहीं क्यों, विवेक नहीं रखते, एक बार छुए, तो फिर भी ठीक, पर बार-बार छुएँ? मुझे मना करना पड़ रहा था।
यह श्रावक आचार्यश्रीजी के अनन्य भक्त थे। सन् १९८५, सिद्धक्षेत्र अहारजी, टीकमगढ़, मध्यप्रदेश के वर्षायोग में वह कारी गाँव से अहारजी लगभग २५ किलोमीटर का रास्ता तय करके प्रतिदिन साईकिल से अपनी मित्र मंडली के साथ आचार्यश्रीजी की अमृत वाणी को श्रवण करने आते थे। उस समय वे ५०-५५ वर्ष के रहे होंगे। परंतु कुछ वर्षों के उपरांत शारीरिक अस्वस्थता के कारण वृद्धावस्था में वह आचार्यश्रीजी के दर्शन करने नहीं जा पाए, उनकी दर्शन की लालसा प्रतिपल बनी रही। उन्होंने अपनी इस अभिलाषा को दिवंगत होने के बाद पूर्ण किया।
कभी उतारेंआरती
सन् २००६, अमरकंटक, मध्यप्रदेश वर्षायोग, आचार्यश्रीजी का स्वास्थ्य खराब था। बुखार अपनी तेजी पर था।वह अपने कक्ष में अकेले ही विश्राम करते थे।मुनिराजों ने निवेदन भी किया, पर अनुमति नहीं मिली।तब मुनि श्री योगसागरजी महाराज ने विक्की ,जो संघ में कमण्डलु में जल भरने आदि की व्यवस्था सँभालता था, उससे कहा- 'आचार्यश्रीजी जब सो जाएँ, तब तुम धीरे से जाकर उनके तख्त के नीचे सो जाना।' उसने वैसा ही किया। एक रात्रि ११:३० से १२:३0 के बीच जब सब लोग सोए हुए थे, तब विक्की को नींद में ही आचार्यश्रीजी की मौन रूप भाषा हाँ-हाँ, हूँ-हूँ का स्वर सुनाई दिया। उसे ऐसा लगा, मानो आचार्यश्रीजी किसी को किसी कार्य के लिए मना कर रहे हों। उसने तख्त के नीचे से झाँक कर देखा तो अचंभित रह गया। एक बहुत बड़ी, चाँदी के जैसी सफेद, चमकदार, जलती हुई आरती आचार्यश्रीजी के चरणों के चारों तरफ़ घूम रही है। आरती दिख रही, पर उसको पकड़ने वाला कोई नहीं दिख रहा है। उसे समझते देर न लगी कि देवगण गुरुवर की सेवा-स्तुति करने आए होंगे। वह एकदम से घबड़ा गया और उसी तख़्त के नीचे सिकुड़कर-दुबक कर लेटा रहा। सुबह उसने मुनि श्री योगसागरजी को सारी घटना सुनाई। तब महाराजश्रीजी बोले- 'कुछ बोलते नहीं,शांत रहो। देव लोग आते हैं।
धन्य है ! ऐसे युग में भी ऐसी वीतरागता! जिनकी आरती उतारने देवतागण भी प्रतीक्षा करते हैं।
तिर्यंच प्रभावक आचार्य
बेकाबू ऊँट हुआ काबू
अप्रैल १९७४ भीलबाड़ा, राजस्थान में महावीर जयंती महोत्सव मनाने के उपरांत विहार कर राजस्थान के बागौर ग्राम पहुँचे। यहाँ पर एक दिन में क्षुल्लक श्री स्वरूपानंदजी के साथ आचार्यश्रीजी सायं ५ बजे शौच हेतु जंगल गए। वहाँ से लौटते न समय अचानक से एक बेकाबू ऊँट आचार्यश्रीजी की ओर भागता हुआ सामने आ गया। बेकाबू ऊँट को अचानक से सामने आया हुआ देख आचार्यश्रीजी सीधे खड़े के खड़े रह गए।ज्यों ही ऊँट की दृष्टि आचार्य भगवन् की निर्भय, शांत मुद्रा पर पड़ी तो वह भी शांत होकर खड़ा हो गया।अब दोनों आमने-सामने खड़े होकर एक-दूसरे को देख रहे थे। और लगभग ५ ७ मिनट तक दोनों खड़े-खड़े एक-दूसरे को देखते रहे। पश्चात् ऊँट पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह आचार्यश्रीजी के चरणों में सिर झुकाकर बैठ गया। आचार्यश्रीजी ने उसे णमोकार मंत्र सुनाकर अंत में 'शांति' का आशीर्वाद दिया और वहाँ से वापस आ गए।
धन्य-धन्य है आचार्य भगवन्! ऐसे प्रसंग जो पुराणों में पढ़ने को मिलते थे, आज आप जैसे महापुरुष को पाकर साक्षात् देखने और सुनने का सौभाग्य हम सभी को मिल रहा है। सच! महापुरुषों का प्रभाव ही ऐसा होता है, जिनके आभामंडल में आकर प्राणी तो क्या निर्जीव क्षेत्रादि पर भी उनका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।
गुरुवाणी करें श्रवण नाग-नागिन
सन् १९७८ में सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी, छतरपुर मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी का प्रथम वर्षायोग हुआ। वहाँ के मैनेजर श्री कंछेदीलालजी द्वारा बताए संस्मरण-'प्रवचन श्रोता नाग-नागिन' शीर्षक में वह लिखते हैं- 'आचार्य श्री विद्यासागरजी मुनि महाराज का भव्य जीवों को आत्म कल्याण की प्रेरणा देने वाला मंगल प्रवचन प्रत्येक गुरुवार और रविवार को होता था। प्रवचन समय पर दूर-दूर के और समीपी ग्रामों से अपार जनसमूह उमड़ता रहता था। लेकिन श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति तो ठीक, प्रति गुरुवार एवं रविवार को आचार्यश्रीजी के प्रवचन मण्डप में विराजते ही नाग-नागिन आते और शांतिपूर्वक आचार्यश्रीजी का प्रवचन श्रवण करते और प्रवचन समाप्ति पर भूमि पर अपना मस्तक रखकर आचार्यश्रीजी को प्रणाम कर चले जाते। जनता आश्चर्य में नाग-नागिन के जोड़े को देखती रहती। न कभी किसी ने उन्हें छेड़ा और न कभी उन्होंने किसी को सताया। श्री सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी के पर्वत के मंदिरों के शिखरों पर उन्हीं या अन्य सरों को शिखर पर चढ़ते-उतरते तो हजारों लोगों ने देखा है। पर कभी किसी दर्शनार्थी को भयभीत होते नहीं पाया गया। यह है, आचार्यश्रीजी का प्रभाव।'
उस समय वहाँ उपस्थित ब्रह्मचारिणी दीदीयों ने बताया कि न केवल प्रवचन के समय अपितु प्रतिदिन कक्षा के समय भी ज्यों ही घंटी बजती, त्यों ही एक-दो नहीं, अपितु पाँच-पाँच सर्प दीवार में बने खानों में से लटकने लटकते थे। और कक्षा पूर्ण होने पर अंदर चले जाते थे।
दर्शन पाने बैचेन नागराज
सन् २००६, ग्रीष्मकाल, अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद, कटनी, म.प्र. का प्रसंग है। आचार्यश्रीजी प्रातःकालीन आचार्य भक्ति के बाद शौच क्रिया के लिए निकले, तो हमेशा की तरह भक्तों का सैलाब उनके पीछे ‘जय-जय गुरुदेव' के नारे लगाते हुए चलने लगा। जनसमूह के मध्य आचार्यश्रीजी अपनी चाल से चले जा रहे थे।मार्ग के आजू-बाजू खेत थे। तभी एक अद्भुत दृश्य सामने दिखा कि एक खेत में सड़क के बिल्कुल बगल से एक लंबा नागराज भी आचार्यश्रीजी की चाल में, उन्हीं की दिशा में रेंगता चला जा रहा है। वह बार-बार सड़क पर आचार्यश्रीजी के आगे आने की कोशिश भी करता, परंतु जनता के कारण वह आ नहीं पा रहा था। अतः वह द्रुतगति से रेंगता हुआ आगे पहुँचा और सड़क पर चढ़कर आचार्यश्रीजी के सामने आकर, फण फैलाकर बैठ गया। मानो वह भी गुरुजी के आभामंडल से प्रभावित होकर उनके दर्शन करने आया हो! आचार्यश्रीजी ने सारी जनता को पीछे ही रुकने का संकेत किया, और नागराज को आशीर्वाद दिया। आशीर्वाद प्राप्त कर वह नागराज थोड़ी दूर तक साथ में गया, फिर मार्ग के दूसरी ओर चला गया।सारी जनता इस दृश्य को देखकर आचार्यश्रीजी की जय-जयकार करने लगी।
प्रभाव इतना कि जी नहीं भरता
ऐसा कैसा प्रभाव है! जो भी जितनी बार देखता उतनी बार और-और दर्शनों की ललक बढ़ती ही जाती। आचार्यश्रीजी अपने स्थान पर अपने आवश्यकों में रत रहते और यहाँ दर्शनार्थियों का कुनबा खड़ा ही रहता। उन्हें देखने का जिनको भी स्थान मिलता, वह वहीं स्तंभ की भाँति जमकर खड़ा हो जाता, फिर वहाँ से हटना ही नहीं चाहता। ऐसे में व्यवस्थापकों को दर्शनार्थियों के लिए क्रम-क्रम से दर्शन करवाने पड़ते, ताकि सभी उनकी मुखमुद्रा का दर्शन कर अपनी प्यास बुझा सकें, अतृप्त ही सही।
दर्शन-प्यास बुझती नहीं
एक बार एक सज्जन आचार्यश्रीजी के दर्शन करके किन्हीं महाराज के पास गए और बोले- 'हम तो मालामाल हो गए।' महाराज ने पूछा- 'क्यों? क्या, आचार्यश्रीजी ने पिच्छी से आशीर्वाद दे दिया?' वे बोले- 'नहीं।' महाराजजी ने कहा- 'तो क्या, आचार्यश्रीजी से आपकी कुछ चर्चा हो गई?' वह बोले 'आचार्यश्रीजी के पास इतना समय कहाँ कि हमसे चर्चा करें।' महाराज जी बोले-'तो क्या, आचार्यश्रीजी ने आँख उठाकर देख लिया।'श्रावक बोला- 'नहीं, महाराजजी! आँख भी नहीं उठाई।' फिर महाराजजी थोड़ा-सा परेशान होकर बोले- 'तो कैसे मालामाल हो गए हैं, आप?' वे सज्जन बोले- 'आज हमने आचार्यश्रीजी को जी भरकर देख लिया।
धन्य है आचार्यश्रीजी की मोहिनी छवि, जिसे पल | भर के लिए देखने मिल जाए, तो उसे मालामाल होने जैसी अनुभूति तो हो जाती, पर तृप्ति मात्र क्षणभर के लिए होती। तत्काल ही वह पपीहा की भाँति प्यासा का प्यासा लगने लगता।
प्रभाव, हृदयहारी
कुण्डलपुर, दमोह, मध्यप्रदेश ७ मार्च, २००१ । इस दिन आचार्यश्रीजी को किसी कारण से अलाभ हो गया। शाम को वैय्यावृत्ति करने संघस्थ अनेक साधुगण साथ ही पहुँच गए। आचार्यश्रीजी बोले- यह क्या ! इतने लोग, भीड़ कम करो। एक-दो साधु तो चले गए। पर भीड़ कम नहीं हुई। शेष साधु आपस में कहने लगे- 'कोई कहते, हमने कब से वैय्यावृत्ति नहीं की, तो कोई साधु बोले कि आपने कल ही की थी, आज हमें करने दीजिए, इस तरह सभी साधु अपनी-अपनी भावना रखने लगे। इसे देख आचार्यश्रीजी बोले- ‘एक बार एक जगह दो प्रसिद्ध साधु रहते थे। वे भीड़ से परेशान थे। उन्होंने एक युक्ति लगाई, ज्यों ही भीड़ आई कि लड़ना प्रारंभ कर दिया। लड़ाई देखकर सभी ने सोचा, ये साधु भी अन्य साधुओं जैसे लड़ रहे हैं, और भीड़ कम हो गई।' आचार्यश्रीजी ने आगे कहा- 'मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, (हँसकर) किससे लडूं, ताकि भीड़ से बच सकूँ।' यह सुनकर एक महाराजश्री बोले- 'आचार्यश्रीजी! आपकी तो लड़ाई भी देखने लोग आएँगे।' यह सुनकर सब हँसने लगे।
सचमुच गुरुवर के प्रभावक व्यक्तित्व के प्रति लोगों का आकर्षण देखकर यह कहना जितना सुनिश्चित है कि उनकी लड़ाई भी दर्शनीय होगी। उतना ही सुनिश्चित यह भी है कि वह अब मुक्ति प्राप्ति तक कर्मों को छोड़ अन्य किसी से, कभी भी लड़ न सकेंगे।
धन्य है! व्रत-संयम रूपी शस्त्रों द्वारा कर्मरूपी शत्रु से लड़ने वाले श्रेष्ठ योद्धा आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज, जो जनसंपर्क से बचते हुए, जिनसंपर्क करते हुए, निजसंपर्क करने के लिए आतुर हैं। पर जनता उनकी छाया बनकर पीछे-पीछे भाग रही है, यह उनके हृदयहारी व्यक्तित्व की अपनी विशेषता है।
कीर्ति प्राप्त आचार्य
आचार्यश्रीजी की कीर्ति ने श्रमण-श्रमणी,व्रती अव्रती, धर्मी-विधर्मी, जैन-जैनेतर, विरोधी समर्थक, नेता-अभिनेता, सामान्य-विशेष, तिर्यंच-देव आदि सभी को स्पर्श किया है। इस भूमंडल पर शायद ही कोई हो जो ‘आचार्य श्री विद्यासागर' इस नाम से अपरिचित हो। गुलाब की गंध गुलाब के बाग के पास पहुँचने पर मिलती है, किंतु आचार्यश्रीजी की सुगंधी ने तो उन्हें भी स्पर्श किया है जो उन तक कभी नहीं पहुँचे।
राष्ट्रीय नहीं,अंतरराष्ट्रीय विभूति
श्रीमजिनेन्द्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं त्रयगजरथ महोत्सव, भाग्योदय तीर्थक्षेत्र, सागर, मध्य प्रदेश, २९ फरवरी २००३ को केन्द्रीय मंत्री एवं सांसद साध्वी उमाभारती का उद्बोधन-
'जब मैं राजनीति में नहीं थी, तब इनसे पहली बार मिलने के लिए गई थी। और तब से लेकर आज तक जहाँ भी आचार्यश्रीजी होते हैं, मैं कोशिश करती हूँ कि दो घड़ी के लिए उनके दर्शन करने जरूर जाऊँ।और यदि बताऊँ कि इसके पीछे मेरी राजनीतिक आकांक्षा कभी नहीं होती, ये इनको भी मालूम है। राजनीति तो जनता जनार्दन की कृपा से चलती है, महाराजश्रीजी की कृपा से तो हम भगवत् प्राप्ति का मार्ग खोजने के लिए आते हैं। और इसलिए यदि चित्त में अवसाद हो, तो मैं महाराजश्रीजी का ही स्मरण करती हूँ।... मैं इनको एक राष्ट्रीय संत नहीं, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर की विभूति मानती हूँ। इनको राष्ट्रीय संत की पदवी से बाँध देने से वह एक देश की सीमाओं में बँध जाएँगे। वह एक देश की सीमाओं में बाँधने के योग्य व्यक्ति नहीं हैं।
आज संसार की सारी समस्याओं का निदान जो है वह अहिंसा, संयम और तप के अलावा कुछ भी नहीं है। इसलिए अहिंसा, संयम और तप की जीवंत प्रतिमा यदि आज इस भूमंडल पर कोई विचरण कर रही है तो वह सिर्फ आचार्य विद्यासागर महाराजजी ही हैं। इसलिए मैं तो लोगों से कहती हूँ कि बद्रीनाथ, केदारनाथ जाने में कठिनाई होती है, बहुत चढ़ाई चढ़ना पड़ती है। केदारनाथ जब जाते हैं तो वहाँ ऑक्सीजन की बहुत कमी होती है, अतः वहाँ बहुत कठिनाई होती है। मैं वहाँ जाकर रही हूँ। महीने, डेढ़ महीने। मुझे पता है कि वह कितनी बड़ी तपस्या है. लेकिन मैं आपको सिर्फ यह बतलाती हूँ. भले ही आप तिरुपति बालाजी जाएँ, द्वारिकाधीश जाएँ, काशी जाएँ, बद्रीनाथ जाएँ, केदारनाथ जाएँ, लेकिन जब मैं महाराजजी को देखती हूँ तो लगता है, सारे देवता उनके अन्दर आ गए हैं।
आज व्यक्ति के मन, वचन, और कर्म में संगति नहीं रही। पर वह मन में क्या सोच रहा है, वाणी से क्या बोल रहा है और कर्म से क्या कर रहा है? तीनों के सुर बिगड़े हुए हैं। और ऐसे बिगड़े हुए सुरों के लोग करोड़ों की संख्या में भूमण्डल पर विचरण कर रहे हैं। ऐसे समय में धरती अगर पाताल में नहीं जा रही है, और कलिकाल का भयानक विस्फोट अगर नहीं हो रहा है तो उसका कारण एक मात्र है कि महाराजश्रीजी जैसे लोग अभी इस धरती पर मौजूद हैं।....मैं महाराजश्रीजी की चमचागिरि नहीं कर रही हूँ, क्योंकि मुझे महाराजश्रीजी की चमचागिरी करने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। मैं उनके स्नेह की पात्र हूँ। मैं हृदय की बात आपसे कह रही हूँ कि मैं कभी किसी से भी भयभीत नहीं होती हूँ। अगर मुझे किसी से डर लगता है और किसी के सामने दिल खोलकर बात कहती हूँ, तो महाराजश्रीजी के सामने ही कहती हूँ।
महाराजश्रीजी के दर्शन करने का अवसर प्राप्त हुआ, मुनिजनों के दर्शन प्राप्त करने का अवसर प्राप्त प्राप्त हुआ, ये साधारण बात नहीं है। आप लोग जो देख रहे हो, वो साधारण नहीं है। बिना वस्त्र के रहना, भोजन नहीं के बराबर होना, फिर भी आँखों में इतनी चमक और चेहरे पर इतनी प्रसन्नता है। मैंने महाराजश्रीजी से कई बार पूछा है कि मुझे ये भेद बताओ, कि अंतर्मुखी होकर क्या चीज़ आपको मिल गई है, जिससे संसार के सारे के सारे आनंद फीके पड़ गए हैं। ....... संसार कब छूट गया? अरे! जिस माँ ने ९ महीने पेट में रखा, उस माँ का मोह कब छूट गया पता ही नहीं लगा। घर-परिवार का मोह कब छूट गया, यह भी पता नहीं लगा। हजारों किलोमीटर दूर कहीं किसी धरती पर जन्म हुआ, वह धरती कब छूट गई, ये भी पता नहीं लगा। हजारों किलोमीटर दूर पैदल चलकर ये भगवान जैसे महापुरुष धरती पर पैदल चलता हुआ इस धरती को पवित्र करने जो आया है, उनके चरणों की वंदना करती हूँ। महाराजश्री तो विद्या और बुद्धि के सागर हैं। और मैं महाराजश्रीजी का बालक हूँ। मैं तो महाराजजी के हाथ की बाँसुरी हूँ। बाँसुरी का कोई अपना सुर नहीं होता। बजाने वाले का ही सुर होता है, जो ही मेरे द्वारा आपको सुनाई देंगे।
मैं पुनः आपको आगाह करती हूँ, कि महाराजीश्री को राष्ट्रीय संत न कहा जाए, अंतरराष्ट्रीय स्तर का उनका व्यक्तित्व है। और उनकी छत्र-छाया में ही संसार चल रहा है, मैं तो ये मानती हूँ। एक बार फिर से उनके चरणों की वंदना करती हूँ। और उनके आशीर्वाद की हमेशा आकांक्षी रहूँगी।वो जो चाहें वह सुर मेरे द्वारा बजाएँ, बस इन्हीं शब्दों के साथ अपनी बात समाप्त करती हूँ।
शताब्दी पुरुष कौन?
जबलपुर से प्रकाशित मार्च-अप्रैल, १९९८, मासिक पत्रिका 'कौन्तेय युध्वस्व' में 'शताब्दी पुरुष कौन' नामक लेख में ‘शताब्दी पुरुष कौन' विषयक चुनाव के ऊहा-पोह को खत्म करते हुए उम्मीदवार के रूप में आचार्यश्री को प्रस्तुत करने हेतु लेखक प्रियम्वदा शुक्ल ने आचार्यश्रीजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-
आदरणीय संपादक महोदय,
२०वीं सदी किस व्यक्ति को समर्पित की जाए? इस महत्त्वपूर्ण और रोचक विषय पर बहस शुरू करके आपने हमें अपने समाज, देश और विश्व के प्रमुख व्यक्तित्वों के बारे में जानने, समझने और उन पर विचार करने का अवसर प्रदान किया है। इस संदर्भ में एकाएक किसी भी व्यक्ति का नाम निश्चित कर पाना असंभव-सा है। लेकिन जीवन की बृहत्तर परिभाषा को सार्थक बना देने और नवीन परिभाषाओं का सृजन अपने आचरण से कर देने वाले स्वनाम धन्य ऋषि आचार्य श्री विद्यासागरजी ऊहा-पोह के इस अंधेरे को दूर कर सूर्य की तरह प्रकाशित होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञान उनके रक्त में प्रवाहित हो रहा है और जीव मात्र की चिन्ता और उनके प्रति शुभेच्छा उनकी साँस-साँस में घुली हुई है। उनमें प्रकट हो गए इन्हीं देव दुर्लभ सद्गुणों के कारण उनका समग्र व्यक्तित्व पारदर्शी हो गया है। पारदर्शी इस अर्थ में कि उनके सान्निध्य में रहकर मूढ़ से मूढ, हठी से हठी, तामसिक से तामसिक व्यक्ति के जीवन में भी प्रकाश सारे अवरोध बेधते हुए प्रवेश करता प्रतीत होता है।
आचार्यश्री में मन की तरंगों को समझ लेने और बिना शब्दों के मौन संवाद के माध्यम से उनका सर्वथा उपयुक्त समाधान प्रस्तुत कर देने की शब्दातीत सामर्थ्य है। उनकी उपस्थिति सिर्फ़ व्यक्तियों को ही नहीं, पूरे वातावरण को ही तरंगित और रूपांतरित करने लगती है। हजारों-हजार संगठन और व्यक्ति जो कार्य नहीं कर सकते सामाजिक परिवर्तन का, वह दुरूह कार्य आचार्यश्रीजी बड़ी सरलता और सहजता से अकेले कर रहे हैं।
५१ वर्षीय अक्षय ऊर्जाशाली आचार्यश्रीजी का कार्य समय, भले ही २०वीं शताब्दी के आखिरी तीन-चार दशक रहे हैं, लेकिन प्रभावित उन्होंने पूरी शताब्दी को ही किया है। इसलिए उन्हें ही ‘शताब्दी पुरुष' माना जाना चाहिए। इतने कम समय में उन्होंने सिर्फ इस २०वीं सदी को ही प्रभावित नहीं किया, बल्कि इस न्यून समय में उन्होंने कई ऐसे कार्य किए हैं, जिन्हें समझने के लिए अपनी निजी और पहले से ही बैठा ली गईं मान्यताओं की धुंध हटाना अनिवार्य है। आचार्यश्रीजी ने जहाँ अपने सक्रिय और प्रकाशमय व्यक्तित्व की आभा से वर्तमान को आलोकित किया है, वहीं अतीत के कलुषों को भी धोया है, तिरोहित कर दिया है और भविष्य को नई दिशा दी है।
भगवान महावीर की देशनाओं की सुगंध अपने आचरण से दिशा-दिशा में फैलाते रहने के कारण आचार्यश्रीजी जैन धर्म में पिछले कई सदियों में हुए मुनियों की कुल, प्रतिभा, ऊर्जा और सक्रियता के समग्र पुंज हैं। इसलिए उन्हें जीवित तीर्थंकर माना जाना चाहिए। उनके सरोकार शुद्ध सामाजिक भी हैं, इसलिए उन्होंने सागर की गर्जना के साथ भारत से माँस निर्यात न करने का विरोध एवं कत्लखाने बंद करने का आह्वान किया है। तथा गोवंश की रक्षा के लिए गौशालाओं का निर्माण कराकर देशवासियों को गोवंश की रक्षा के प्रति प्रेरित भी किया है।
उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा जहाँ उनके द्वारा निर्मित कराए गए सर्वोदय व सिद्धोदय जैसे तीर्थों में संग्रहीत है, वहीं उनकी वैचारिक वैतरिणी का प्रवाह उनके द्वारा सृजित साहित्य सुनीतिशतक, निजानुभवशतक, निजामृतपान, कुन्द कुन्द का कुन्दन, डूबो मत लगाओ डुबकी, तोता क्यों रोता, दोहा दोहन और 'मूक-माटी' महाकाव्य में उपस्थिति है। अपनी सार्वकालिक-सार्वदैशिक देशनाओं के कारण वे किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के नहीं, समग्र मनुष्यता के उन्नायक हैं। उनकी उपस्थिति युग के सकारात्मक परिवर्तन की आशा ही नहीं, विश्वास भी जगाती है। हमारे लिए यह कितना सुखद है कि हम आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के समय में हैं।
महोदय, मेरी दृष्टि में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ही ‘शताब्दी पुरुष' हैं। मेरे इस विचार से इस देश के सभी धर्मों के लाखों-लाख लोग सहमत होंगे, मुझे इसका पूर्ण विश्वास है।
इस तरह सन् १९९८ में 'शताब्दी पुरुष कौन' के उत्तर स्वरूप आचार्य भगवन् को एक हिन्दु प्रवक्ता ने उम्मीदवार रूप में प्रस्तुत कर आचार्य भगवन् के बहुआयामी व्यक्तित्व के प्रभाव को प्रकट किया।
उपसंहार
गुरुजी का हृदयहारी व्यक्तित्व, संपूर्ण विश्व के लिए सौभाग्य का सूचक बन गया है। सारी दुनिया उनके दर्शनों के लिए इस तरह उनके पीछे भागती है जैसे भगवान के पीछे भक्त। उनके चरण छूने ऐसी आकुल-व्याकुल रहती है जैसे आज का इनसान धन-समृद्धि प्राप्ति हेतु रहता है। जैसे समुद्र रत्नों की उत्पत्ति में कारण होता है, वैसे ही जिनशासन की अभूतपूर्व प्रभावना करने वाले आचार्य भगवन् 'धर्म उत्पत्ति' में कारण हैं। जुगनु का प्रभाव तब तक रहता है, जब तक चंद्रमा का उदय नहीं होता। चंद्रमा अपनी चाँदनी से तभी तक सबको प्रभावित कर सकता है, जब तक सूर्य का उदय नहीं होता। लेकिन रत्नत्रय के पुंज आचार्य भगवन् का प्रभाव ऐसा अचिंत्य और अमिट है कि युगों-युगों तक इस वसुंधरा पर उनकी गौरव गाथा गाई जाएगी। क्योंकि वे चरित्र रूपी अमूल्य आभूषण से सुशोभित हैं। उनका चरित्र जितना निर्मल है ज्ञान उतना ही विशाल है।
आचार्य भगवन् के हृदयहारी व्यक्तित्व की आकर्षण शक्ति के कारण आज कितने ही भव्य जीव आत्म कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। और आचार्य भगवन् की चरण-छाँव में सम्यग्ज्ञान की आराधना करते हुए स्व-पर कल्याणकारी दैगम्बरी दीक्षा धारण कर जिनशासन की महिमा बढ़ा रहे हैं। परंतु आचार्य भगवन् कर्तृत्त्व, भोक्तृत्त्व, स्वामित्व भावनाओं से दूर रहने वाले ऐसे श्रेष्ठ संत हैं, जो बाहरी प्रभावना करें या न करें, उनसे प्रभावना स्वयं हो ही जाती है। इस पर भी इसका श्रेय स्वयं कभी नहीं लेते। एक बार भारतवर्षीय दिगम्बर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान, पिसनहारी की मढ़िया, जबलपुर, मध्यप्रदेश के प्रतिभावान छात्र आचार्य भगवन् के पास आए और कहने लगे- 'आचार्यश्रीजी आप चुंबक की तरह हैं। इससे नास्तिक से नास्तिक व्यक्ति भी आपके पास खिंचा चला आता है और फिर यहाँ से जाना भी नहीं चाहता।' तब आचार्यश्रीजी हँसते हुए बोले- 'ये उसके व्यक्तित्व की विशेषता है कि उसने अपने आपको चुंबक की परिधि में रखा है। चुंबक भी उसी को खींचता है जो उसकी परिधि में रहता है। आपके इन्हीं गुणों के कारण ही आपके प्रभाव से आज जिनशासन का प्रभाव सहस्र गुणित वृद्धिंगत हो रहा है।
सूर्य के समान तेजस्वी, चन्द्र के समान आकर्षक, अहँत के जैसी सिद्धत्व प्राप्ति हेतु उत्साही आचार्य भगवन् का सम्यग्दर्शन २५ दोषों से रहित एवं ८ अंग और प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य आदि अनंत गुणों से संयुक्त है। आगम में आता है कि पंचमकाल में सम्यग्दृष्टि जीव अत्यल्प मात्रा में होंगे। आचार्य भगवन् उन्हीं में परिगणित होने वाले आचार्य हैं।
जिस तरह अनगढ़ पत्थर शान पर चढ़ा देते हैं, तो वह पहलूदार बन जाता है, चमकने लगता है, गले का हार बन जाता है। वैसे ही इन अंगों के माध्यम से सम्यग्दर्शन दृढ़ बन जाता है। और चारित्र में निखार आ जाता है, कर्म निर्जरा भी होती है।
अंत में इतना ही कहना है, आचार्यश्रीजी का व्यक्तित्व ऐसा है कि उनके मुख से निकला एक-एक वाक्य, एक-एक वचन, एक-एक अक्षर यहाँ तक कि उनके चेहरे के हाव-भाव तक लोगों के अंतस में ठहर कर संस्मरणों का रूप ले उनके जीवन का सहारा बन जाते हैं। उनके संपर्क में आज तक लाखों भविकजन आए होंगे। भले ही सभी को उनसे चर्चा करने या दो शब्द बोलने अथवा नज़दीक जाने का अवसर न मिल पाया हो, पर दूर से ही उनके दर्शन, उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया, अन्यजनों से चल रही वार्ता के समय उनके द्वारा दिए जाने वाले उत्तर-प्रत्युत्तर भी लोगों के हृदय में संस्मरण का रूप ले सुखानुभूति के साधन बन जाते हैं। उनके प्रत्येक अगले पल की क्रिया, मुस्कान, उठना-बैठना, हाव-भाव, दृष्टि आदि सभी कुछ वही का वही होता है, फिर भी हर बार और बार-बार वह सब कुछ प्रत्येक को अलग-अलग एवं सभी को एक साथ अपूर्व-अपूर्व -सा आनंद देती है। उन्होंने दृष्टि उठाई, आशीर्वाद दिया, इस ओर देखा और उस ओर भी देखा, वह मुस्कुराए आदि-आदि उनकी जो सहज, स्वाभाविक एवं सामान्य क्रियाएँ हैं, वह भी दर्शकों के आनंद का स्रोत बनी हुईं हैं। आनंद के इस स्रोत को सभी ने अपने भीतर एक अनमोल निधि की भाँति सँजोकर रख लिया है। यदि उनसे पूछा जाए कि भैया! आपको गुरुजी का सान्निध्य पाकर कैसा आनंद आता है? तो शायद उन्हें यह कहने में भी संकोच न हो कि यदि इस आनंद को स्थिर कर दिया जाए तो जैसा आनंद शास्त्रों में सिद्ध भगवान बनने पर बताया है, संभव है वैसा ही कुछ आता है। अथवा यूँ कहें कि जिस तरह जिनबिंब के दर्शन से प्रत्येक बार नित नए-नए आनंद की अनुभूति होती है, उसी तरह का ही कुछ आनंद आता है। अथवा इससे भी कुछ अलग आनंद आता है। जब कभी समूह में किसी चर्चा के दौरान यदि कोई एक व्यक्ति गुरुजी से जुड़ी अपनी बात रखता है तो सुनने वाले अन्य-अन्य जन को भी स्वयं से जुड़े प्रसंगों को सुनाने की उतावली हो उठती है, उनके चेहरे दमक उठते हैं, उनका मस्तक गर्व से भर जाता है । वह यह भी भूल जाते हैं कि हम कहाँ खड़े हैं और उछल-उछल कर गुरुजी से जुड़े अपने-अपने अनुभवों का पिटारा खोलने लग जाते हैं। इस तरह गुरुजी से जुड़े लाखों लोगों के लाखों संस्मरण होंगे, जिन पर पुराणों के पुराण, असंख्य महापुराण लिखे जा सकते हैं, जिन्हें संकलित कर लिपिबद्ध कर पाना असंभव ही है। प्रसंगों एवं संस्मरणों के माध्यम से गुरुजी के व्यक्तित्व को प्रकट करने वाली पत्राचार पाठ्यक्रम की यह पुस्तकें उपलक्षणभूत मात्र हैं।
आचार्यश्रीजी के चरित्र में अभ्यंतर तप के अंतर्गत दर्शन विनय तप का कथन तीसरे-चौथे अध्याय में पूर्ण हुआ।