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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ २ - व्यक्तित्वांजलि

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    आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के विराट व्यक्तित्व को, उनके ही प्रथम मुनि शिष्य आचार्य श्री विद्यासागरजी की मूलवाणी के माध्यम से मुख्यतः प्रस्तुत किया जा रहा है। साथ ही कुछ बिन्दु अन्यत्र से भी संदर्भ सहित उद्धृत किए गए हैं -

     

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    व्यक्ति की पहचान के लिए उसके क्षेत्र को हम पहले देख सकते हैं। उपकार, लेखन, मनन, साधना का क्षेत्र कितना है, इसमें हम उन्हें देख सकते हैं। लेकिन मात्र उनके शरीर को ही देखना, ये सब मोह की अपेक्षा से है। उनके (आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज) कार्य क्षेत्र की विराटता का दर्शन करने के लिए बहुत से भव लेने पड़ेंगे। परिचय क्या! उनके बारे में तिथि को ही बोलना है ऐसा नहीं, जब चाहें उन्हें देखें, उनके बारे में बोलें, उनकी क्रियाओं के बारे में हम कहने के लिए समर्थ नहीं हैं। उनकी विशालता, मधुरता और अमूल्य छवि का हम वर्णन भी नहीं कर सकते।

     

    शब्द छोटा-सा

    गुरु गहराई है

    नपती नहीं।

     

     

    बाह्य सौन्दर्य - उनका वह सौम्य मुखमण्डल व विशाल ललाट, पर उसके ऊपर झुर्रियाँ भी देखने को नहीं आती थीं। केवल जान सकते थे कि इस पार्थिव ललाट के ऊपर कितनी रेखायें हैं। लेकिन रेखायें कभी उलझी हुई नहीं थीं। वह निश्छलता उनके ललाट, उनकी आँखों में हमने पायी। इतनी क्षीण काया में भी वह जोत जलती थी और वह तेज था उनमें कि उन्हें देखकर डरा हुआ व्यक्ति भी साहस पा जाता था। ८0 साल की उम्र वाले गुरुदेव, मुख में एक भी दाँत नहीं, भृकुटियों के ऊपर जो केश विन्यास हैं वे सारे के सारे धुंघराले हो गये। पलकें सफेद और आँखों की पलकों के नीचे गेहुँआ रंग है। अब शरीर बता रहा है कि वे अंतिम पड़ाव पर हैं लेकिन संवेजनी (संवेगनी), निर्वेजनी (निर्वेगनी) कथा उनके पास है। वैराग्य और मोक्षमार्ग के प्रति उनका उत्साह देखते ही बनता था।

     

    एक बार एलक श्री ज्ञानभूषणजी (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज) पूज्य आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के चरण सान्निध्य में प्रवचन कर रहे थे। तभी प्रवचन के मध्य पूज्य आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज ने प्रश्न किया- एलकजी! मुनि दीक्षा के लिए क्या पात्रता होनी चाहिए? तब ऐलक श्री ज्ञानभूषणजी महाराज ने ‘प्रवचनसार' के चारित्राधिकार का संदर्भ देते हुए दीक्षा की पात्रता में कहे गये चार बिन्दुओं में से जब तीन बिन्दुओं को बताकर चौथा बिन्दु बताते हुए कहा कि चौथी पात्रता है-जिसका चेहरा और शरीर की बनावट सुंदर हो।' तभी बीच में लोकाग्रपथगामी पूज्य श्री आचार्य शिवसागरजी महाराज बोल पड़े-आप वृद्ध हैं। पर सर्व रूप से सुन्दर आपकी छवि है और ज्ञान प्रकाश के प्रदीप हैं।'

     

    पंक में पंकज की भाँति - पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज गृहस्थ जीवन में बहुत ही शांतिमय जीवन जीते थे। घर में पूरे समय तक व्रती रहे। व्रतों से कभी नीचे नहीं गिरे, वे पापों से बचकर रहते थे। प्रत्येक कदम बहुत अच्छे ढंग से जमा-जमा कर रखते थे। उनका जीवन ऐसा जमा हुआ था कि उसे शब्दों से नहीं कहा जा सकता।'' जब हम गीली मिट्टी पर चलते हैं तो अंगूठा गड़ाकर चलने पर फिसलते नहीं। हाथ जमाकर लिखना नहीं होता किन्तु दिमाग में जम जाने से लिखना होता है।

     

    मातृ समर्पण - सर्वप्रथम लोग यह कहते हैं कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने इतनी उम्र में (लगभग ६० वर्ष में) दीक्षा क्यों ली? यह उल्लेख कहीं नहीं मिलता है, लेकिन इसके पीछे मातृ आदेश का रूप है। पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज मातृभक्त थे। उस काल में खण्डेलवाल जैन समाज आदि में या अन्य समाजों में भी मुनि कम बनते थे। और उनकी माँ नहीं चाहती थी कि वो मुनि बनें। कुशाग्रबुद्धि के धारी पं. भूरामलजी ने बचपन में ही ब्रह्मचर्य व्रत को ग्रहण कर लिया था। लेकिन माँ श्रीमती घृतवरी देवी ने यह वचन उनसे ले लिया था कि जब तक वे जीवित रहें, तब तक वो दीक्षा नहीं लेंगे। उनके स्वर्गारोहण के उपरांत तत्काल उन्होंने चारित्र की ओर कदम बढ़ाए। यह इतनी उम्र में दीक्षा लेने का कारण बना।

     

    यथार्थ पाण्डित्य, अतः दीक्षा - उनके द्वारा साहित्य का विशाल भंडार बनाया गया। उन्होंने मुनि अवस्था में बहुत कम लिखा। लेकिन पंडित अवस्था में लिखते चले गये। और जब समझ में बात आ गयी, तो सब विकल्प छोड़कर यथाजातरूप धारण कर लिया। मुनि अवस्था में उन्होंने मात्र ‘कर्तव्य पथ प्रदर्शन एवं ‘समयसार' की हिन्दी टीका की। यह उनकी अंतिम कृति मानी जा सकती है, उसको उन्होंने अच्छे ढंग से चिंतन-मंथन के साथ लिखा, फिर लखा।‘‘लिखना तो जीवन पर्यन्त हुआ, अब लखने का अवसर प्राप्त हुआ है'' ऐसी भावना मुनि अवस्था धारण करते ही हो गई थी। विद्या कालेन पच्यते यह उनका वाक्य था। यह वाचन करना सरल है, लेकिन पाचन हमेशा चारित्र के माध्यम से ही होता है।

     

    यथाजात मुद्रा - यथाजात जिनलिंग में, ‘यथाजात' यह शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह एक उपकरण है। हम वृद्ध होना चाहते हैं, वृद्धों को समझाना चाहते हैं। बालक बनना कोई पसंद नहीं करता। यही एक मात्र चातुर्य था कला का कि “वे वृद्ध थे। मैं नहीं मानता। वे बालक के समान यथाजात थे।'' उनको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। गुरु महाराज की क्रिया में रहस्य रहता था। ये राज़ आज उद्घाटित करना चाहता हूँ।

     

    गुरु महाराज कहा करते थे- कोई यहाँ पर बालक बनना नहीं चाहता है। समझाने वाले / सिखाने वाले/पढ़ाने वाले दुनिया में बहुत मिलेंगे, लेकिन बालक की भाँति दुनिया में कोई नहीं बन सकता। ये ध्यान रखना और महाराजजी को यथाजात रहना बहुत अच्छा लगता था। वो कहते थे कि बालक बनना इतना आनंददायक लगता है, जिसे कह नहीं सकते। कोई विकल्प नहीं। दुनिया संकल्प-विकल्प में मिट जाये। लेकिन बालक तो हँसी, मुस्कान के साथ जीता है। अश्रुधारा गालों पर आ जाती है और एक चुटकी बज जाती है तो तुरन्त मुस्काने लगता है। गाल पर वह अश्रु बूंद दिख रही है। लेकिन वह हँस रहा है। इसको बोलते हैं बालकवत् यथाजात। यह यथाजात बालकवृत्ति हमारे भीतर आना चाहिए। आचार्य महाराज कहते थे ऐसे श्रमण को मोक्षमार्ग में हमेशा प्रसन्नता बनी रहती है। अक्षुण्ण रूप से यात्रा अंतिम क्षण तक बनी रहती है। यदि तुम भी यथाजात बने रहोगे तो तुम्हारी यात्रा सानन्द सम्पन्न हो जायेगी।

     

    उन्हें जिनके

    तन-मन नग्न हैं

    मेरा नमन।

     

    श्रेष्ठ साधक - गुरुजी की साधना अनूठी थी। उन्होंने जीवन का मंथन करके सार तत्त्व ग्रहण कर लिया था। वे मान के ऊपर प्रहार करते थे और प्रसन्न रहते थे। उनके अंदर लहर/ तरंग उठती थी सन्तोष की। ये साधक का परम कर्तव्य है। दीर्घ काल तक (८०-८२ वर्ष तक) जिन्होंने जिनवाणी की आराधना की हो इस शरीर से, जो नश्वर तो है लेकिन इसी से महाव्रत तक पहुँचने का प्रयास किया। उन्होंने एक बात कही थी कि दो उपवास करने की क्षमता हो, तब एक करना चाहिए। ऐसा नहीं कि दो उपवास कर लिए, एक की क्षमता भी थी या नहीं, फिर अपने आवश्यक पराश्रित किये और दूसरों ने आवश्यक पालन में सहयोग किया। ‘उपवास को नहीं, अपने मूलगुण को महत्त्व दो, यह आचार्य महाराज कहा करते थे।'

     

    सजग प्रहरी - वे कभी भी अपने छह आवश्यकों के प्रति प्रमाद नहीं करते थे। हम थक गये हैं, तो बैठ सकते हैं, पर वो ऐसा समझौता नहीं करते थे। वे जिनशासन के अध्येता थे। कभी व्यवहार से समझौता नहीं करते थे। वे बाहरी साधना में भी कभी कमी नहीं करते थे और सदैव भीतरी साधना में भी तत्पर रहते थे। वे एक सजग प्रहरी की भाँति थे।

     

    जीवन की जीवन्तता - जिनके जीवन में झटपटाहट लगी होती है उन्हें कब सोना, क्या खाना, कितना खाना ये सब गौण हो जाता है। आचार्य महाराज का जीवन किसी भी (स्वस्थ या अस्वस्थ) अवस्था में हो अध्ययन, लेखन, प्रवचन, व्याख्या आदि के बारे में सारी की सारी बातें ऐसी चलती थीं कि उन्हें और भी कुछ करना शेष है, ऐसा हमें कभी नहीं लगा। उन्हें लक्ष्य नहीं, लक्ष्याभ्यास था।

     

    करुणा की मूर्ति - मेरे जैसे बच्चों की उनके पास अनवरत भीड़ लगी रहती थी। उनमें कितनी दया और करुणा होगी कि मुझसे यह भी नहीं पूछा कि तुम कितने पढ़े हो और पूछ भी लेते तो बताने की हिम्मत भी मुझमें नहीं होती। कौन-सी भाषा में हम बताते। वे करुणावान् थे। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो उनके पास नि:संकोच नहीं होता हो।

     

    चिंतनशील व्यक्तित्व - तूफान चारों ओर रहे, पर दीपक को बिना बुझाये पथ को प्रशस्त करने का श्रेय उन्हीं को जाता है। इतना चिंतनशील व्यक्तित्व इस समय पंचमकाल में होना कठिन है।

     

    बहुआयामी व्यक्तित्व - क्या साधना, क्या भावना, क्या उद्देश्य - सभी कुछ अदभुत था, जागरूक तो थे ही। उन्होंने अपने जीवन में अपने आप को इस प्रकार वर्गीकृत कर लिया था कि सभी प्रकार के वर्ग के व्यक्तियों को अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार आगम के आधार पर समाधान प्राप्त हो जाता था। बूढ़ा व्यक्ति भी उनके पास आता तो वह समझकर सन्तुष्ट होकर ही जाता। १२ वर्ष के बच्चे को भी समझाने की कला उनके पास थी। आगमिक विद्वान् आ जायें तो उन्हें भी सीधी-साधी भाषा में सन्तुष्ट कर देते थे। वे राजनेताओं में राजनेता बन जाते, वक्ताओं के साथ वक्ता बन जाते और छोटो के साथ छोटे बन जाते थे।

     

    कंठ में विराजी थी माँ सरस्वती - जब वे बोलते थे, तो अरहर की दाल के बराबर होंठ के नीचे बायीं ओर का तिल' दिखाई देता था जो सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार यह बताता था कि उनके होठों पर माँ जिनवाणी का वास था। “उनके तो मुख में ही सरस्वती का वास है जिससे हम गद्गद होते थे कि इन्होंने रसोई बनाकर रखी है, बस प्रतीक्षा में थे।....हमारा सौभाग्य है हमारे कानों में सरस्वती की वाणी गिर रही है, सुन रहे हैं, पाठ कर रहे हैं। मन बहुत गद्गद होता था।

     

    उन्होंने जिनवाणी के सुपुत्र के रूप में काम किये। पूरी उम्र अध्ययन-अध्यापन एवं लेखन में जिये। पात्र के अनुसार वे देते चले जाते थे। जिस व्यक्ति की जितनी पात्रता, उतना ही पिलाते चले गये। कब पीते थे, ये बात मत पूछो, किन्तु अंत तक पिलाते चले गये। पैरों में कंपन, काया में जीर्णता, शाम में संध्या का समय, उस समय जाते-जाते भी पिलाते गये।

     

    उपमातीत व्यक्तित्व - वे श्रुत के आराधक थे। वे श्रुत के पुत्र थे। जिनवाणी के सेवक थे। कौन-कौन से पद और उपाधियाँ उनको दी जाएँ, वे सब उन पर लागू हो जाती हैं। वे सब आप लोग जानते हैं, लेकिन मैं समझता हूँ ‘उतनी उपमायें भी उन व्यक्तित्व के लिए पर्याप्त नहीं हैं।'

     

    प्रायोगिक जीवन - कैसा प्रायोगिक जीवन था आचार्य महाराज का कि जो पढ़ा, उसको प्रयोग में लाने का प्रयास किया। इर्द-गिर्द जो कोई भी बैठ जाता है, उस पर छाप पड़ती चली जाती थी। एक बार कार्बन नीचे रखा हो, फिर क्या है, निश्चित रूप से नीचे के पन्नों पर यथावत् उतरकर आयेगा। उसका दबाव / उसका प्रभाव अवश्य उभर करके आयेगा। आज प्रयोग का नामोनिशान समाप्त होता चला जा रहा है। अंतिम घड़ी तक उन्होंने अपने को प्रयोग की शाला में ही पाया।''

     

    आत्मानुशासित जीवन - वे अनुशासन की बात कहते नहीं थे, स्वयं अनुशासित रहते थे। आत्मानुशासित होते थे। अतः कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती और अनुशासनशील व्यक्ति को देखकर सामने वाला अपने आप अनुशासित हो जाता था।

     

    अलौकिक समृद्धता - शरीर की दृष्टि से वे ‘वयोवृद्ध’ थे, ‘तपोवृद्ध’ थे, ‘ज्ञानवृद्ध’ थे, ‘अनुभववृद्ध’ थे, ‘वृद्धों के भी वृद्ध’ थे। इसलिए ‘समृद्ध' थे। अनेक ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ उनके चारों ओर परिक्रमा कर रहीं थीं, फिर भी वे समृद्धि से प्रभावित नहीं हुए।

     

    विजितमना - गुरुजी जितेन्द्रिय तो थे ही, जितमना भी थे। इसलिए वे अच्छे-अच्छे महामनाओं के लिए भी दिशाबोध दिया करते थे। “हमारे गुरुजी बहुत ही संक्षेपवादी थे।” उन्होंने कहा कि आप मन की बात मान रहे हो, इसलिए मन आपकी बात नहीं मान रहा है। या यूँ कहना चाहिए कि मन का काम नहीं करना, मन से काम करना, तो आप गुरु को पहचान जाओगे। यदि मन की करोगे, तो वह हमेशा आपको नचायेगा।

     

    आगमोक्त कार्यशैली - वे सदैव भीतर के साथ बाहर एवं बाहर के साथ भीतर में तालमेल बैठाकर काम करते रहते थे। निश्चय एवं व्यवहार दोनों का आलम्बन लेकर काम करते थे। उनके जीवन में उदारता थी। यह निश्चित है कि अपने उपादान के माध्यम से कार्य होता है, लेकिन उस उपादान के योग्य निमित्त को भी अपने पुरुषार्थ के बल पर जुटाते रहना, इतनी ही पुरुषार्थ की सीमा है। उसे आगे नहीं बढ़ा सकते हैं, यह कर्तव्य की एक परीक्षा है। कार्य तो अपने क्रिया-कलापों के माध्यम से सम्पन्न होगा। ऐसा न्याययुक्त आध्यात्मिक व्यवहार आदि सारी कुशलताएँ हमने उनमें देखीं। उनमें कभी आग्रह वाली बात नहीं थी। वे कहा करते थे कि ज्यादा आग्रह करने से पदार्थ का मूल्य कम होता है।

     

    सदगुणों के समुद्र - वे आयुर्वेद के ज्ञाता थे। वात, पित्त व कफ की जानकारी वह रखते थे। उनके पास दूसरे के आतप को हरने की क्षमता थी। समता ही गुरुदेव का अपना बहुत बड़ा वैभव था। उनका वचनालाप सबसे ज्यादा माधुर्यपूर्ण था। उनका ज्ञान भले ही पाण्डित्यपूर्ण था, फिर भी वे सदैव सरल एवं स्पष्ट बात करते थे। उन्हें देखकर कभी ऐसा नहीं लगा कि वे हिचकिचाते हुए बात कर रहे हों। उनमें कोई झुंझलाहट नहीं थी। किसी भी प्रकार का अक्खड़पन उनके अंदर नहीं था। कषाय उनके पास आने में घबराती थी। वे अत्यन्त निर्भीक थे, उनकी निर्भीकता की बात तो कहना ही क्या है। जो तल्लीन हो जाता है, वह निश्चित रूप से निर्भीक व निस्पृह होता है। जिसका जितना ध्यान लगता है, उतना वह निःशंक होता है और निःशंक का अर्थ भय रहित होना है। वैरागी दृष्टि से देखा जाये तो निर्भीक होना बहुत अच्छा माना जाता है। वे हमेशा-हमेशा आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी की वाणी में बोला करते थे। आध्यात्मिक दृष्टि में जो लीन हो जाता है, विलीन हो जाता है, वह वस्तुतः स्व-पर के लिए वरदान सिद्ध होता है और निश्चित रूप से अपनी आत्मा को उन्नत बना सकता है। ऐसी ही लीनता उनमें अंतिम क्षणों तक पायी गयी।

     

    प्रतिपल जागृत - सुप्त अवस्था में साकार उपयोग हो सकता है, लेकिन सम्यग्दर्शन नहीं। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए - संज्ञी, पर्याप्तक, आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त अधिक, साकार उपयोग और जागृत होना चाहिए। वे जागृत अवस्था को सुरक्षित रखने के लिए हमेशा जागृत रहते थे। कभी भी अन्य समय में सुप्त नहीं रहते थे। एक दिन भी नहीं देखा उन्हें विश्राम करते हुए। कितनी भी, कैसी भी अवस्था हो आड़े नहीं हुये (कमर सीधी नहीं की)। कभी सुस्ता लें, ये भी भाव नहीं थे। सोने का भाव तो बहुत दूर।

     

    साधना की कला - उनका शब्दों का चयन, संकलन, चिंतन और स्मरण बहुत ही बढ़िया था। अच्छे-अच्छे तथा बड़े-बड़े महाकाव्यों की रचना उन्होंने की, किन्तु उनके प्रकाशन की चिंता नहीं की। कई व्यक्तियों ने उनसे कहा कि इनके प्रकाशन के बारे में क्यों नहीं सोच रहे हैं, तो कहते थे कि भैया! हमें प्रकाशन से क्या मतलब है, अपनी तरफ से लिखना ही तो प्रकाशन है।

     

    एक बार पंडित हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री ने कुछ विशेष आग्रह किया और साहित्य प्रकाशन के उद्देश्य से विषय प्राप्त कर लिया, तो गुरुदेव बोले “हम तो प्रचारक नहीं, साधक हैं।'' यह साधना की कला उनसे सीख लेनी चाहिए, जो बहुत दुर्लभ है। ‘‘हमने उन्हें कभी प्रकाश में नहीं देखा, अपितु सदैव उन्हीं में प्रकाश देखा।''  

     

    पंथवाद के विरोधी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज तेरहपंथ और बीसपंथ की धारणाओं पर तटस्थ रहते थे। इसी तरह पन्थवाद पर जब कभी समझाने की स्थिति आती थी, तो वे स्पष्ट कह देते थे कि पंथवाद दिगम्बर जैन रूपी वस्त्र पर निकल आये छिद्रों से अधिक कुछ नहीं है। जितने अधिक छिद्र होते जावेंगे, वस्त्र उतना ही जर्जर होता जावेगा। एक समय ऐसा भी आ सकता है जबकि वस्त्र कई हिस्सों में फटकर बँट जावेगा। अतः समझदार श्रावक छिद्र मात्र को सुधारने / सिलने का कार्य नहीं करते, परन्तु पूरे वस्त्र को फटने से बचाने का प्रयास करते हैं। एक बार आचार्य महाराज ने कहा था, “आरती करने से सब आरत टलते हैं, ऐसा बोलते हैं, तो किसके आरत टलते हैं? आरती करने वाले के। लेकिन जिसकी आरती की जा रही है वह मान लो राग करता है (कर रहा है) तो आरत नहीं टलता।

     

    स्वाश्रित जीवन - गुरुदेव के जीवन में ऐसी कुछ आवाजें / ध्वनियाँ थीं जिनमें जान थी। उनके एक-एक शब्द में ऐसा प्रोत्साहन मिलता था कि स्वाभिमान जागृत हो जाता था। अंतिम क्षण तक उन्होंने अपने जीवन में यही काम किया और किसी के आश्रित होने का स्वप्न नहीं देखा।

     

    अनोखी तल्लीनता - उनकी लीनता/ तल्लीनता अदभुत थी। उनकी निरीहता अदभुत थी। धन्य हैं वे महाराज उनके जीवन का एक-एक क्षण स्व और पर के लिए निरीहता का उपदेश था। अध्यात्म के रसिक गुरुदेव आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज की तल्लीनता कैसी थी, मैं इसे एक उदाहरण के माध्यम से आपके सामने रख रहा हूँ। मैं बहुत छोटा था, किन्तु हमेशा-हमेशा कार्य कैसा होता है, क्या होता है, ये देखता रहता था। कार्य होने के उपरांत कारण की पहचान होती थी, और कारण के माध्यम से कभी-कभी कार्य की ओर दृष्टि गड़ाए रखता था।

     

    एक दिन एक कुएँ पर बैठा था। कुएँ के ऊपर आम के वृक्ष की शाखाएँ फैली थीं। हवा चलती थी, तो आम टूटकर कुएँ में जा गिरते और एक-एक करके तैरने लग जाते। हम बच्चे सोचते कि ये आम डूबते क्यों नहीं हैं? लेकिन एक बार पीला-पीला आम कुएँ में गिरा। सोचा वह भी तैरेगा, पर वह कच्चे आम की तरह तैरा नहीं, डूब गया। अब पता लगा कि ये कैसी बात है। पीला आम तो ऊपर नहीं आया और हरे-हरे आम तो हर-हर करते ऊपर आ गये। वह क्या था?

     

    जो कच्चा होता है, वह हमेशा-हमेशा रस की प्राप्ति के लिए पुनः पेड़ की ओर देखता रहता है और जो पका हुआ होता है, वह रस से लबालब भरा हुआ रहता है। वह पेड़ की ओर नहीं देखता और नीचे डुबकी लगा लेता है। पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के जीवन में हमने यही देखा। वे कभी बाहर से रस नहीं लेते थे, क्योंकि उनके भीतर ही अध्यात्म का रस भरा हुआ रहता था। वो किसी की आकांक्षा नहीं करते थे। यह निश्चित बात है। हमेशा-हमेशा वे यही कहा करते थे ‘‘जब आत्मा अमृतकुण्ड है तो हम प्यास बुझाने बाहर मृगमरीचिका में क्यों वृथा भटकते रहें।''

     

    कैवल्य प्राप्त हो जाता पर... - “उनके पास यदि वज्रर्षभनाराच संहनन होता, तो वे निश्चित रूप से कैवल्य को प्राप्त कर लेते और अनेक के लिए कार्यकारी सिद्ध हो जाते। "कर्म का ऐसा संयोग है जिसके कारण वह कार्य नहीं हुआ, लेकिन उनका वह कार्य रुका हुआ नहीं है। जब तक मुक्ति नहीं होती, तब तक उनकी साधना बनी रहेगी, क्योंकि वे आत्मसाधक थे। ‘चारित्र के साथ ज्ञान की साधना करने वालों का ज्ञान संस्कार के रूप में परभव में भी जाता है।’

     

    अभिमान नहीं, स्वाभिमान - उन्हें अपने क्षयोपशम पर कभी अहंकार नहीं था। किसी प्रकार से अपने स्वाभिमान को नहीं छोड़ते हुए उन्होंने कभी किसी से कुछ नहीं कहा। प्रत्येक समय को वे परीक्षा की घड़ी ही मानते थे, परन्तु उस परीक्षा में अभिमान की बात नहीं आती थी और दीनता की भी बात नहीं आती थी। हमेशा-हमेशा एक-सा समता भाव रखना बहुत कठिन होता है। वे शब्द की ओर नहीं, भाव श्रुत की ओर हमेशा देखते रहते थे।

     

    जैसे दुकानदार ग्राहकों को देखकर माल के भावों में परिवर्तन कर लेते हैं, वैसे वे कर्मों के उदय में अपने परिणामों में परिवर्तन नहीं करते थे। चाहे छोटा लड़का आ जाए, तो भी माल अठन्नी का है तो अठन्नी (५० पैसे) ही कहते थे और बूढ़ा आ गया तो उसका अलग भाव हो, ऐसा नहीं था। ऐसे ही किसी भी कर्म का उदय आ जाए तो भी वो भाव एक-सा रखते थे। ऐसे दुकानदार बहुत दुर्लभता से मिलते हैं। चाहे करोड़ रुपये मिलें तो ठीक, नहीं मिलें तो ठीक। दुकानदार का भाव तो एक रहेगा। इस प्रकार उनके भावों को कई बार देखकर मन गद्गद होता था कि धन्य हैं।

     

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    अध्यात्म दृष्टि - एक बार आचार्य महाराज अपने आवश्यकों को पूर्ण करके बाहर बैठे थे। मैं भी उनके निकट बैठा था। उनके दर्शनार्थ कुछ भक्तगण आए थे। वे स्वाध्याय प्रेमी थे। उन्होंने आचार्य महाराज से कुछ जिज्ञासायें रखीं। महाराज ने उन सबका समाधान किया। अंत में एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा भी रखी। उन्होंने पूछा – “महाराज! आपकी उम्र क्या है?'' तब आचार्य महाराज ने कहा – “मेरी उम्र अंतर्मुहूर्त है। अभी-अभी भीतर से बाहर आकर बैठा हूँ।'' यह जवाब सुनकर उन लोगों ने कहा- “महाराज! कुछ समझ में नहीं आया। कृपया कुछ स्पष्ट करके बताएं।'' तब आचार्य महाराज बोले- “अभी भीतर से प्रतिक्रमण करके आया हूँ। अंतर्मुहूर्त के बाद फिर भीतर जाना है।"

     

    “आप लोग तिथियों की बात करते हैं। वह श्रमण अतिथि है, जिसकी छठवें और सातवें गुणस्थान नामक अंतर्मुहूर्त की दो तिथियाँ होती हैं। उन तिथियों के नाम हैं-प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत।'' अंतर्मुहूर्त समय के अंतराल से ये तिथियाँ आती-जाती रहती हैं। इसे अध्यात्म दृष्टि बोलते हैं। अध्यात्म दृष्टि से ओतप्रोत आचार्य महाराज के द्वारा अपनी जिज्ञासा का समाधान पाकर वे सभी अभिभूत हो उठे और गुरु चरणों में नमन करके चले गये। ‘प्रमाद में रहना जीवन का महत्त्व नहीं है। अतः जितने समय प्रमाद में रहते हैं, वह मेरी उम्र में शामिल नहीं है।'

     

    इस समाधान को पाकर मुझे लगा कि इस प्रकार अध्यात्म भाव से परिपूर्ण समाधान मैंने आज तक किसी से भी नहीं सुना। उन्होंने श्रमणों की उम्र को अंतर्मुहूर्त माना है। गुरु के गुण इतने हैं, जिनका हम गुणगान नहीं कर सकते। जिन्हें स्मरण मात्र किया जा सकता है। वह तो गुणों की माला थे। उनकी माला फेरते रहें, अवश्य ही एक-एक गुण हममें आ सकते हैं।

     

    उपसंहार

    कभी-कभी भावों की अभिव्यक्ति शब्दों के द्वारा अल्प समय में करना हो, तो कठिनाई मालूम पड़ती है। क्या कहें और किस प्रकार कहें, गुरुओं के बारे में, क्योंकि जो भी कहा जायेगा वह सब सूरज को दीपक दिखाने के समान होगा। यह समुद्र इतना विशाल है कि भावाभिव्यक्ति उसका पार नहीं पा सकती।

     

    गुरु गुड़ हैं

    स्वाद बताऊँ कैसे?

    चखो तो जानो।

     

    महापुरुषों के गुणों को बाँध नहीं सकते -“गुणस्तोकं सदुल्लछ्य तद्बहुत्वकथास्तुतिः।” उनके अनंत गुणों का वर्णन कैसे कर सकते हैं -

     

    व्यक्तित्व की सत्ता मिटा दी,

    उसे महासत्ता में मिला दी।

    क्यों न हो प्रभु से साक्षात्कार,

    मम प्रणाम तुम करो स्वीकार॥

     

    ‘उनके शरीर में से बाल भी निकाल लें तो उससे भी शिक्षा मिलती थी।’

    ‘महाराज को सांसारिक भोगों से अलगाव और मोक्षमार्ग से लगाव था।’


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