अब बन्ध का स्वरूप कहते हैं-
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स - बन्धः ॥२॥
अर्थ - कषाय सहित होने से जीव जो कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, उसे बन्ध कहते हैं।
English - Owing to wrong belief, passions etc. the self-attracts subtle matter pervading the same space points occupied by the self, capable of turning into karmic matter, which is called influx. When such karmic matter is combined by interpenetration with the space points of the self, it is called bondage.
विशेषार्थ - समस्त लोक पुद्गलों से ठसाठस भरा हुआ है। वे पुद्गल अनेक प्रकार के हैं। उनमें अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु कर्मरूप होने के योग्य हैं। जब कषाय से संतप्त संसारी जीव योग के द्वारा हलन चलन करता है तो सब ओर से कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। जैसे आग से तपा हुआ लोहे का गोला जल में पड़ कर सब ओर से पानी को खींचता है, वैसे ही आत्मा योग और कषाय के द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, इसी का नाम बन्ध है। इस सूत्र में ‘कर्मयोग्यान्’ न कहकर जो ‘कर्मणो योग्यान्' कहा है, उससे इस सूत्र में एक विशेष बात बतलायी है।
वह यह है कि जीव कर्म की वजह से सकषाय होता है और कषाय सहित होने से कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। इससे यह बतलाया है। कि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादिकाल से है। पूर्वबद्ध कर्म का उदय आने पर जीव में कषाय पैदा होती है और कषाय पैदा होने से नवीन कर्मों का बन्ध होता है। इस तरह कर्म से कषाय और कषाय से कर्म की परम्परा अनादि काल से चली आती है। यदि ऐसा न मान कर बन्ध को सादि माना जाये, अर्थात् यह माना जाये कि पहले जीव अत्यन्त शुद्ध था, पीछे उसके कर्मबन्ध हुआ तो जैसे अत्यन्त शुद्ध मुक्त जीवों के कर्मबन्ध नहीं होता, वैसे ही जीव के भी कर्म बन्ध नहीं हो सकेगा। अतः यह मानना पड़ता है। कि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। जैसे खाया हुआ भोजन उदराग्नि के अनुसार खल भाग और रस भाग रूप हो जाता है, वैसे ही तीव्र, मन्द या मध्यम जैसी कषाय होती है, उसी के अनुसार कर्मों में स्थिति और अनुभाग पड़ता है तथा जैसे आतशी काँच के बर्तन में पड़े अनेक प्रकार के रस, बीज, फूल और फल गर्मी खा कर शराब रूप हो जाते हैं, वैसे ही आत्मा में स्थित पुद्गल परमाणु योग और कषाय की वजह से कर्म रूप हो जाते हैं। इसी को बन्ध कहते हैं।