आस्रव तत्त्व का व्याख्यान हो चुका। अब बन्ध का व्याख्यान करना है। अत: पहले बन्ध के कारणों को बतलाते हैं-
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥१॥
अर्थ - मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पाँच बन्ध के कारण हैं।
English - Wrong belief, attachment, negligence, passions, and activities are the causes of bondage.
विशेषार्थ - पहले कह आये हैं कि तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। उससे उल्टा यानि अतत्त्वों के श्रद्धान को या तत्त्वों के अश्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहते हैं। उसके दो भेद हैं- मिथ्यात्वकर्म के उदय से दूसरे के उपदेशों के बिना ही जो मिथ्या श्रद्धान होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यात्व है। इसकी अगृहीत मिथ्यात्व भी कहते हैं, यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय आदि जीवों के पाया जाता है। जो मिथ्यात्व दूसरों के उपदेश से होता है, वह परोपदेशपूर्वक या गृहीत मिथ्यात्व कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और अज्ञान। अनेक धर्मरूप वस्तु को एक धर्मरूप ही मानना एकान्त मिथ्यात्व है। जैसे वस्तु सत् ही है, या असत् ही है, या नित्य ही है अथवा अनित्य ही है ऐसा मानना एकान्त मिथ्यात्व है। हिंसा में धर्म मानना, परिग्रह के होते हुए भी अपने को निष्परिग्रही कहना विपरीत मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं या नहीं इस दुविधा को संशय मिथ्यात्व कहते हैं। सब देवताओं को, सब धर्मों को और सब साधुओं को समान मानना वैनयिक मिथ्यात्व है। हित और अहित का विचार न कर सकना अज्ञान मिथ्यात्व है। छह काय के जीवों की हिंसा का त्याग न करना और पाँचों इन्द्रियों की तथा मन को विषयों में जाने से नहीं रोकना, सो बारह प्रकार की अविरति है। शुभ कार्यों में आलस्य करने को प्रमाद कहते हैं। उसके पन्द्रह भेद हैं- स्त्री कथा, भोजन कथा, देश कथा, और राज कथा ये चार कुकथाएँ, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और स्नेह। सोलह कषाय और नव नोकषाय ये पच्चीस कषायें हैं। चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग ये पन्द्रह योग हैं। ये सब मिलकर भी तथा अलग अलग भी बन्ध के कारण हैं। सो पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में तो पाँचों ही बन्ध के कारण होते हैं। सासादन, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि नाम के दूसरे तीसरे और चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व को छोड़कर शेष चार बन्ध के कारण हैं। संयतासंयत नाम के पाँचवें गुणस्थान में अविरति और विरति तो मिली हुई हैं, क्योंकि उसमें त्रस हिंसा का त्याग तथा यथाशक्ति इन्द्रिय निरोध होता है, किंतु शेष तीन कारण पूरे हैं। प्रमत्त-संयत नाम के छठे गुणस्थान में प्रमाद, कषाय और योग तीन कारण रहते हैं। अप्रमत्त नाम के सातवें गुणस्थान से लेकर दसवें तक कषाय और योग दो ही कारण रहते हैं। उपशांत कषाय, क्षीण कषाय और सयोग केवली नाम के ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानों में केवल एक योग ही होता है। चौदहवें अयोग केवली गुणस्थान में बंध का एक भी कारण नहीं है।