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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 6 : सूत्र 27

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    Vidyasagar.Guru

    अन्तराय कर्म के आस्रव के कारण कहते हैं-

     

    विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥२७॥

     

     

    अर्थ - दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न डालने से अन्तराय कर्म का आस्रव होता है। अर्थात् दान में विघ्न करने से दानान्तराय कर्म का आस्रव होता है। किसी के लाभ में बाधा डालने से लाभान्तराय कर्म का आस्रव होता है। इसी तरह शेष में भी जानना चाहिए।

     

    English - Laying an obstacle in charity, gains, consumption, and power of others is the cause of the influx of obstructive karmas.

     

    शंका - आगम में कहा है कि जीव के आयुकर्म के सिवा शेष सात कर्मों का आस्रव सदा होता रहता है। तब प्रदोष आदि करने से ज्ञानावरण आदि कर्म का ही आस्रव कैसे हो सकता है ?

    समाधान - यद्यपि प्रदोष आदि से ज्ञानावरण आदि सभी कर्मों का प्रदेश बन्ध होता है। अर्थात् प्रदोष आदि से एक समय में जिस समयप्रबद्ध का आस्रव होता है, उसके परमाणु आयु के सिवा शेष सातों कर्मों में बट जाते हैं, तथापि ये कथन अनुभाग की अपेक्षा से है। अर्थात् प्रदोष आदि करने से ज्ञानावरण कर्म में फल देने की शक्ति अधिक पड़ती है, दुःख देने से असाता वेदनीय कर्म में फल देने की शक्ति अधिक पड़ती है। वैसे बंध सातों ही कर्मों का होता है।

     

    ॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे षष्ठोऽध्यायः ॥६॥


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