इसके बाद उच्च गोत्र के आस्रव के कारण कहते हैं-
तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य ॥२६॥
अर्थ - नीच-गोत्र के आस्रव के कारणों से विपरीत कारणों से तथा नीचैर्वृत्ति और अनुत्सेक से उच्च-गोत्र का आस्रव होता है। अर्थात् दूसरों की प्रशंसा करना, अपनी निन्दा करना, दूसरों के अच्छे गुणों को प्रकट करना और असमीचीन गुणों को ढांकना, किन्तु अपने समीचीन गुणों को भी प्रकट न करना, गुणीजनों के सामने विनय से नम्र रहना और उत्कृष्ट ज्ञानी तपस्वी होते हुए भी घमण्ड का न होना, ये सब उच्च-गोत्र के आस्रव के कारण हैं।
English - The opposites of those mentioned in the previous sutra and humility and modesty cause the influx of karmas which determine high status.