नामकर्म के भेदों में एक तीर्थंकर नामकर्म है, उसका आस्रव कुछ विशेष कारणों से होता है। अतः उसे अलग से बतलाते हैं-
दर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसीसाधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥२४॥
अर्थ - दर्शनविशुद्धि (भगवान् अर्हन्त देव के द्वारा कहे गये निर्ग्रन्थता रूप मोक्षमार्ग में आठ अंग सहित रुचि का होना), विनय सम्पन्नता (मोक्ष के साधन सम्यग्ज्ञान वगैरह का और सम्यग्ज्ञान के साधन गुरु वगैरह का आदर सत्कार करना), शीलव्रतेषु-अनतिचार (अहिंसा आदि व्रतों का एवं व्रतों का पालन करने के लिए बतलाये गये शीलों का अतिचार रहित पालन करना), अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग (सदा सम्यग्ज्ञान के पठन-पाठन में लगे रहना), संवेग (संसार के दुःखों से सदा उद्विग्न रहना), शक्तित:त्याग(शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक दान देना), शक्तित:तप (अपनी शक्ति के अनुसार जैनमार्ग के अनुकूल तपस्या करना), साधु समाधि (तपस्वी मुनि के तप में किसी कारण से कोई विघ्न आ जाये तो उसे दूर करके उनके संयम की रक्षा करना), वैयावृत्यकरण (गुणवान साधुजनों पर विपत्ति आने पर निर्दोष विधि से उसको दूर करना), अर्हद्-भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति (अर्हन्तदेव, आचार्य, उपाध्याय और आगम के विषय में विशुद्ध भाव पूर्वक अनुराग होना), आवश्यकापरिहाणि (सामायिक, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक कर्मों में कभी हानि न आने देना और प्रतिदिन नियत समय पर उन्हें बराबर करना), मार्ग प्रभावना (सम्यग्ज्ञान के द्वारा, तप के द्वारा या जिनपूजा के द्वारा जगत् में जैनधर्म का प्रकाश को फैलाना), प्रवचन वत्सलत्व (जैसे गौ को अपने बच्चे से सहज स्नेह होता है, वैसे ही साधर्मी जन को देखकर चित्त का प्रफुल्लित हो जाना) ये सोलह भावनाएँ तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव में कारण हैं। इन सबका अथवा इनमें से कुछ का पालन करने से तीर्थंकर नामकर्म का आस्रव होता है, किन्तु उनमें एक दर्शनविशुद्धि का होना आवश्यक है।
English - The influx of Tirthankara name-karma is caused by these sixteen observances, namely purity of right faith, reverence, observance of vows and supplementary vows without transgressions, ceaseless pursuit of knowledge, perpetual fear of the cycle of existence, giving gifts (charity) and practising austerities according to one's capacity, removal of obstacles that threaten the equanimity of ascetics, serving the religious minded by warding off evil or suffering, devotion to omniscient lords, chief preceptors, preceptors and the scriptures, practice of the six essential daily duties (worship omniscient, devotion to preceptor, study of scriptures, self restraint, austerity and charity), propagation of the teachings of the omniscient, and fervent affection for one's brethren following the same path.