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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 6 : सूत्र 11

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    Vidyasagar.Guru

    आगे असाता वेदनीय कर्म के आस्रव के कारण कहते हैं-

     

    दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसद्वेद्यस्य ॥११॥

     

     

    अर्थ - दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन इन्हें स्वयं करने से, दूसरों में करने से तथा दोनों में करने से असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है।

     

    English - Suffering, sorrow, agony, moaning, injury and lamentation, in oneself, in others or in both, lead to the influx of karmas which cause unpleasant feeling.  

     

    विशेषार्थ - पीड़ा रूप परिणाम को दुःख कहते हैं। अपने किसी उपकारी का वियोग हो जाने पर मन का विकल होना शोक है। लोक में निन्दा वगैरह के होने से तीव्र पश्चाताप का होना ताप है। पश्चाताप से दुःखी होकर रोना धोना आक्रन्दन है। किसी के प्राणों का घात करना वध है। अत्यन्त दुखी होकर ऐसा रुदन करना, जिसे सुनकर सुनने वालों के हृदय द्रवित हो जायें, परिदेवन है। इस प्रकार के परिणाम जो स्वयं करता है। या दूसरों को दुःखी करता या रुलाता है अथवा स्वयं भी दुःखी होता है। और दूसरों को भी दुःखी करता है, उसके असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।

     

    शंका - यदि स्वयं दुःख उठाने और दूसरों को दुःख में डालने से असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है, तो तीर्थंकरों ने केशलोंच, उपवास तथा धूप वगैरह में खड़े होकर तपस्या क्यों की और क्यों दूसरों को वैसा करने का उपदेश दिया? क्योंकि ये सब बातें दुःख देने वाली हैं।

    समाधान - क्रोध आदि कषाय के आवेश में आकर जो दुःख स्वयं उठाया जाता है अथवा दूसरों को दिया जाता है, उससे असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है। जैसे एक दयालु डाक्टर किसी रोगी का फोड़ा चीरता है। फोड़ा चीरने से रोगी को बड़ा कष्ट होता है। फिर भी डाक्टर को उससे पाप बन्ध नहीं होता; क्योंकि उसका प्रयत्न तो रोगी का कष्ट दूर करने के लिए ही है। इसी तरह तीर्थंकर भी संसार के दुःखों से त्रस्त जीवों के कल्याण की भावना से ही उन्हें मुक्ति का मार्ग बतलाते हैं। अतः उन्हें असाता का आस्रव नहीं होता।


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