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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 6 : सूत्र 10

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    Vidyasagar.Guru

    इस प्रकार जीव और अजीव द्रव्य के आश्रय से ही कर्म का आस्रव होता है। अब सामान्य आस्रव को कहकर विशेष आस्रव का कथन करते हैं। प्रथम ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के आस्रव के कारण कहते हैं-

     

    तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः॥१०॥

     

     

    अर्थ - ज्ञान और दर्शन के विषय में प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादना और उपघात के करने से ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है।

     

    English - Spite against knowledge, concealment of knowledge, non-imparting of knowledge out of envy, causing impediment to the acquisition of knowledge, disregard of knowledge and disparagement of true knowledge, lead to the influx of karmas which obscure knowledge and perception.

     

    विशेषार्थ - कोई पुरुष मोक्ष के साधन तत्त्वज्ञान का उपदेश करता हो तो उसे मुख से कुछ भी न कह कर हृदय में उससे ईर्ष्या आदि रखना प्रदोष है। अपने को शास्त्र का ज्ञान होते हुए भी किसी के पूछने पर यह कह देना कि मैं नहीं जानता, निह्नव है। अपने को शास्त्र का ज्ञान होते हुए भी दूसरों को इसलिए नहीं देना कि वे जान जायेंगे तो मेरे बराबर हो जायेंगे, मात्सर्य है। किसी के ज्ञानाभ्यास में विघ्न डालना अन्तराय है। सम्यग्ज्ञान का समादर न करना, उल्टे उसके उपदेष्टा को रोक देना आसादना है और सम्यग्ज्ञान को एकदम झूठा बतलाना उपघात है। इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का आस्रव होता है।


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