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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 4 : सूत्र 21

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    Vidyasagar.Guru

    गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥२१॥

     

     

    अर्थ - तथा वैमानिकदेव गति, शरीर की ऊँचाई, परिग्रह और अभिमान में ऊपर-ऊपर हीन हैं।

     

    English - But there is decrease with regard to motion, stature, attachment, and pride.

     

    विशेषार्थ - जो जीव को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाती है, उसे गति यानि गमन कहते हैं। लोभकषाय के उदय से विषयों में जो ममत्व होता है, उसका नाम परिग्रह है। मानकषाय से उत्पन्न होने वाले अहंकार का नाम अभिमान है। यद्यपि ऊपर ऊपर के देवों में गमन करने की शक्ति अधिक-अधिक है। परन्तु देशान्तर में जाकर क्रीड़ा वगैरह करने की उत्कट लालसा नहीं है। इसलिए ऊपर ऊपर के देवों में देशान्तर गमन कम-कम पाया जाता है। शरीर की ऊँचाई भी ऊपर ऊपर घटती गयी है। सौधर्म ऐशान के देवों का शरीर सात हाथ ऊँचा है। सानत्कुमार, माहेन्द्र में छह हाथ ऊँचा है। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ में पाँच हाथ ऊँचा है। शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार में चार हाथ ऊँचा है। आनत, प्राणत में साढ़े तीन हाथ और आरण, अच्युत में तीन हाथ ऊँचा है। अधो ग्रैवेयकों में अढ़ाई हाथ, मध्य प्रैवेयक में दो हाथ और उपरिम ग्रैवेयकों में तथा नौ अनुदिशों में डेढ़ हाथ ऊँचा है और पाँच अनुत्तरों में एक हाथ ऊँचा शरीर है। विमान वगैरह परिग्रह भी ऊपर-ऊपर कम है। कषाय की मन्दता होने से ऊपर ऊपर अभिमान भी कम है; क्योंकि जिनकी कषाय मन्द होती है, वे ही जीव ऊपर-ऊपर के कल्पों में जन्म लेते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है - असैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च अपने शुभ परिणामों से पुण्यकर्म का बन्ध करके भवनवासी और व्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। सैनी पर्याप्त कर्मभूमियाँ तिर्यञ्च यदि मिथ्यादृष्टि या सासादन सम्यग्दृष्टि हों तो भवनत्रिक में जन्म लेते हैं और यदि सम्यग्दृष्टि हों तो पहले या दूसरे स्वर्ग में जन्म लेते हैं। कर्मभूमियाँ मनुष्य यदि मिथ्यादृष्टि या सासादन सम्यग्दृष्टि हों तो भवनवासी से लेकर उपरिम ग्रैवेयक तक जन्म ले सकते हैं किन्तु जो द्रव्य से जिनलिंगी होते हैं, वे ही मनुष्य ग्रैवेयक तक जा सकते हैं तथा अभव्य मिथ्यादृष्टि भी जिनलिंग धारण करके तप के प्रभाव से उपरिम ग्रैवेयक तक मरकर जा सकता है। परिव्राजक तापसी मरकर पाँचवें स्वर्ग तक जन्म ले सकते हैं। आजीवक सम्प्रदाय के साधु बारहवें स्वर्ग तक जन्म ले सकते हैं। बारहवें स्वर्ग से ऊपर अन्य लिंग वाले साधु उत्पन्न नहीं होते। निर्ग्रन्थ लिंग के धारक यदि द्रव्यलिंगी हों तो उपरिम ग्रैवेयक तक और भावलिंगी हो तो सर्वार्थसिद्धि तक जन्म ले सकते हैं तथा श्रावक पहले से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक ही जन्म ले सकता है। इस तरह जैसी-जैसी कषाय की मन्दता होती है, उसी के अनुसार ऊपर-ऊपर के कल्पों में जन्म होता है। इसी से ऊपर के देव मंदकषायी होते हैं।


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