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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 4 : सूत्र 19

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    Vidyasagar.Guru

    अब उन कल्प आदि का नाम बतलाते हैं जिनमें वैमानिक देव रहते हैं-

     

    सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसुग्रैवेयकेषुविजय-वैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥१९॥

     

     

    अर्थ - सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युतइन सोलह स्वर्गों में, इनके ऊपर नौ ग्रैवेयकों में, नौ अनुदिशों में और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तर विमानों में वैमानिक देव रहते हैं।

     

    English - There is increase with regard to the lifetime, the influence of power, happiness, lumination of a body, purity in thought-coloration, a capacity of the senses and range of clairvoyance in the Heavenly beings residing in the higher places.

     

    विशेषार्थ - भूमितल से निन्यानवे हजार चालीस योजन ऊपर जाने पर सौधर्म और ऐशान कल्प आरम्भ होता है। उसके प्रथम इन्द्रक विमान का नाम ऋतु है। वह ऋतु विमान सुमेरु पर्वत के ठीक ऊपर एक बाल के अग्रभाग का अन्तराल देकर ठहरा हुआ है। उसका विस्तार ढाई द्वीप के बराबर पैंतालीस लाख योजन है। उसके चारों दिशाओं में बासठ पंक्तिबद्ध विमान हैं और विदिशाओं में बहुत से प्रकीर्णक विमान हैं। उसके ऊपर असंख्यात योजन का अन्तराल देकर दूसरा पटल है। उसमें भी बीच में एक इन्द्रक विमान है। उसके चारों दिशाओं में इकसठ इकसठ श्रेणीबद्ध विमान हैं और विदिशाओं में प्रकीर्णक विमान हैं। इस तरह असंख्यात असंख्यात योजन का अन्तराल देकर डेढ़ राजु की ऊँचाई में इकतीस पटल हैं। इन इकतीस पटलों के पूरब, पश्चिम और दक्षिण दिशा के श्रेणीबद्ध विमान तथा इन्द्रक और पूरब दक्षिण दिशा के और दक्षिण पश्चिम दिशा के श्रेणीबद्धों के बीच में जो प्रकीर्णक हैं, वे सौधर्म स्वर्ग में गिने जाते हैं। और उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध तथा पश्चिम-उत्तर और उत्तर-पूर्व दिशा के श्रेणीबद्धों के बीच के प्रकीर्णक ऐशान स्वर्ग में गिने जाते हैं। इकतीसवें पटल से ऊपर असंख्यात योजन का अन्तराल देकर सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्प प्रारम्भ हो जाते हैं। उनके सात पटल हैं, जो डेढ़ राजु की ऊँचाई में हैं। यहाँ भी तीन दिशाओं की गिनती सानत्कुमार स्वर्ग में और उत्तर दिशा की गिनती माहेन्द्रकल्प में की जाती है। इसी तरह ऊपर के छह कल्पयुगलों में भी समझ लेना चाहिए। ये युगल ऊपर-ऊपर आधे-आधे राजु की ऊँचाई में हैं। इस तरह छह राजु की ऊँचाई में सोलह स्वर्ग हैं। उनके ऊपर एक राजू की ऊँचाई में नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश, पाँच अनुत्तर ऊपर-ऊपर हैं। इन सबके मिलाकर कुल त्रेसठ पटल हैं।

     

    सोलह स्वर्गों के बारह इन्द्र हैं - प्रारम्भ के और अन्त के चार स्वर्गों में तो प्रत्येक में एक-एक इन्द्र हैं और बीच के आठ स्वर्गों में दो-दो स्वर्गों का एक-एक इन्द्र है। इस तरह सब इन्द्र बारह हैं। इनमें सौधर्म, सानत्कुमार, ब्रह्म, शुक्र, आनत और आरण ये छह दक्षिणेन्द्र हैं। और ऐशान, माहेन्द्र, लान्तव, शतार, प्राणत और अच्युत ये छह उत्तरेन्द्र हैं।


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